सोमवार, 30 दिसंबर 2013

नव वेला

ब्लॉग जगत के सभी मित्रो ,भाइयो ,बहनो को नव वर्ष कि हार्दिक शुभ कामनाएं।
आशा करते है कि आने वाला वर्ष और भी अधिक प्रेरणा से युक्त ,विकास कि और अग्रसर एवं आनंददायी होगा।

"नव वेला है ,नव प्रभात।
प्रकति उत्सव, है चहक राग।
आशा कि नव किरणे है बिखरी,
श्रम ,ज्ञान का तू छेड़ तान।

महक उठे ये जीवन सबका ,
व्यर्थ न जाएँ तेरे प्राण।
कर्मभूमि कि सेवा में ,नव अर्जुन,
बाणो का हो तेरे को संधान।"

   
     ………"अमन मिश्रा "………।

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

बस तुम चल दो।

मिला  दो   रंग  अपने  कुछ  इस  तरह कि,
 इंद्रधनुषी बन जाओ  तुम,
 गुजर  रही हो  दुनिया  जब गमो  कि बारिश ,
  में ,मुस्कुराते नजर आओ तुम।

हो नामुमकिन  कुछ तो मुमकिन ,
 तुम  कर  दो।
एक नयी उम्मीद फिर  आज़ सीने में,
तुम  भर दो।
बस चल दो तुम  ,
 चल दो।
एक नयी उम्मीद फिर  आज सीने में तुम भर दो।

तुम  चल दो। चल दो तुम बस।
 

           "AMAN MISHRA"

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

हैप्पी चिल्ड्रन्स डे..

आज के बच्चे ,बच्चे नही रहे ,सयाने हो गये है ...इस बात का कोई उल्टा -सुल्टा मतलब न निकालिये ,सच ,आज के बच्चे हमारी जेनरेशन के लोगों से बहुत ज्यादा समझदार ,जानकर हो गये है ...दस -बारह वर्ष कि उम्र से ही वे भविष्य के लिए फिक्रमंद होते नज़र आने लगे है ..आज के बच्चे हम से कही ज्यादा मेहनती ,ईमानदार और निडर हो गये है ...सच को सच कहने कि हिम्मत रखते है ..अपनी खुद कि ज़िंदगी का एक लक्ष्य बना कर चलना बखूबी जानते है ..उन्हें बहुत ज्यादा रोकिये ,टोकिए और कोसिये नही ...उन पर अपनी इच्छाएं थोपिए नही ..समझने कि कोशिश कीजिये उन के सही मार्गदर्शन के लिए खुद को भी समय के हिसाब से अपडेट कीजिये .... .उन पर भरोसा जताइए ..वो आपको कभी निराश नही करेंगे ....
हमारा हर दिन बच्चों के लिए ही होता है ,वो हमारे लिए हमेशा ही बहुत स्पेशल होते है ,पर आज तो हैप्पी चिल्ड्रन्स डे कहना बनता है भाई ....हैप्पी ..हैप्पी ..हैप्पी चिल्ड्रन्स डे ..बच्चो ..

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

बिजली के बल्ब और दीप

सबसे पहले तो आप सभी लोगो को दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाये देना चाहूँगा , सबसे पहले इस लिए क्यों की कहते है ना की नीम की पाती गुड़ के साथ बहुत सरलता से  निगली जाती है।
खैर अपनी बात को कहने के पूर्व थोडा सा इतिहास में जाना चाहूँगा . कहते है की भगवन राम के अयोध्या वापस आने पे वह के नागरिको ने उनका दीपो के प्रकाश के साथ स्वागत किया था , और तब से ये त्यौहार मनाया जा रहा है .  इसके वैज्ञानिक पहलू से भी आप सब का दो चार कराना चाहूँगा , जैसा की सभी जानते है की वर्षा ऋतु में वातावरण में कई कीट पतंगे अपनी संख्या की भरी वृधि कर देते है और कई जीव जैसे मकड़ी , गुजुआ ( काला सा कीड़ा , अब मुझे तो यही नाम पता है ),और भी बहुत से कीड़े अपनी अधिकाधिक उपस्थिति दर्ज कराने लगते है . अब हमारे पूर्वजो को शुक्रिया करना चाहूँगा जो बड़े माइंडेड थे , उन्होंने त्यौहार में ही विज्ञानं को फिट कर दिया , घर की साफ़ सफाई को नियम सा कर दिया , और मिटटी के दियो में सरसों के तेल से दीप जलने का प्रचलन  शुरू  किया ,  होता ये था की दिए की लौ से कई कीड़े आकर्षित होते थे और लौ के कारण वही ख़त्म हो जाते थे , और सरसों के तेल का धुआ वातावरण को शुद्ध करता था . अब आते है हमारे आज में हमने अपने पूर्वजो के दीमाग में अपना दीमाग लगाया और ले आये बिजली के बल्ब , कहे पडोसी अगर एक झालर लगाये तो हम लगायेंगे चार . अब ज़माने ने दीप को आउटडेटिड कर दिया ,और हमारे पूर्वजो की शांत आत्मा हमें भूत सी लगाने लगी . खैर झालर जली , रोशनी तो हुई ,तो  नए ज्ञान ने पुराने विज्ञानं को साइड में कर दिया .. जहा देखो झालर रंग बिरंगी ,  दीप बेचारा बस रस्म अदायगी का प्रतीक अपने अस्तित्व को खोजता हुआ ,वो तो गनीमत थी की अभी भगवन बचे थे , उनको भी थोडा डर हुआ होगा की कही हमारी आरती दीपक की जगह बल्ब से न होने लगे .
खैर झालर मुस्कुरा रही थी और दीप सोच रहा था की मनुष्य को दिमागी प्राणी कहा जाता है पैर आज इनकी अक्ल क्या घास खाने गयी है .  पर अब  एक उम्मीद बंधी है ,
 शुक्रिया कहना चाहूँगा अपने गुरुवर का और उनके जैसे कई लोगो का जो फिर से प्राचीन विज्ञानं को स्थापित करने में जुटे है ...

और इसी आशा के साथ की आप सभी दीप को झालर से ज्यादा उपयोग करेंगे।
 एक पंक्ति कहना चाहूँगा    .


                         उम्मीदों की रोशनी कभी बुझने न देना .
                         सूखे हुए पेड़ो पर भी बहारे आती है .
       एक बार फिर  से दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाये।
                                                                                                    "अमन मिश्र "


बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

कानपुर के लिए गीत

कुछ दिन पहले कानपुर के लिए गीत लिखने का आमंत्रण जागरण समूह ने दिया था. मै जब कानपुर को महसूस करता हूँ तो यह शहर मुझे एक फक्कड़ और किसी के सामने कभी न झुकने वाले पौरुष और स्वाभिमान से भरे व्यक्ति के रूप में दिखता है जिसके अन्दर एक ममता से भरा ह्रदय है जो किसी को भूखा नहीं सोने देता। 
साथियों कानपुर के उसी रूप को ध्यान में रखते हुए ये गीत लिखा है. -- 

"कायनात की रचना करता जहाँ स्वयं सिरजनहारा 
मेहनत को मजहब कहता है ऐसा प्यारा शहर हमारा
सुबह जागरण की खबरों से सूरज आँख खोलता है,
दीप शिवाले के जलते हैं तो चंदा करता उजियारा।

ग्रीनपार्क चिडियाघर देखो मोतीझील की शाम सुहानी
हवा में रंगीनी फ़ैली पर बहुत कड़ा है यहाँ का पानी
आजादी के लिये यहाँ पर फूटे गीत बगावत के,
फूलबाग से गूंज रहा है विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।

आइआइटी से केआइटी तक ज्ञान की गंगा बहती है
पनकी जेके सिद्धेश्वर तक सबको मंजिल मिलती है
जाने कितने निराधार आते है सभी दिशाओं से,
सबको रोटी देता है यह अन्नपूर्णा शहर हमारा।

रामायण से विश्वगान औ' ध्रुवसंकल्पो की धरती
त्रेता से सन सत्तावन तक अजेय वीरों की धरती
पावन और प्रतापी नसलें बनती हैं जिस माटी से,
उसे कानपुर कहते है प्राणों से प्यारा शहर हमारा।"

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

आज ही अख़बार में पढ़ा ,मुंबई पुलिस के बाद अब कानपुर पुलिस के पास भी हाई टेक सिस्टम हो गया है। यहाँ कुछ ऐसे वर्जन भी लगाये गये है ,जो अभी देश में कहीं भी नहीं है। ऐसा बताया गया है की यह एक इंटरनेट बेस्ड तकनीक है। इस शहर को इस तकनीक की बेहद जरुरत थी ,वजह ,यहाँ अपराध भी ज्यादा है। उम्मीद है,देश के पहले हाईटेक कंट्रोल रूम से ,फ़ास्ट पुलिसिंग के साथ ,अपराधियों और व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित  हो सकेगा।
   बस ,उलझन इस बात की है ,की हमे गर्व किस बात पर होना चाहिए ,इस नये हाईटेक सिस्टम पर या इस सिस्टम की आवश्यकता महसूस कराने वाले  अनलिमिटेड हाईटेक क्राइम पर ?

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

प्रेम क्या है ?

प्रेम क्या है ,अगर इस बहस में पड़ा जाये तो मै ही क्या कई लोग भी घंटो विचार के बाद अलग अलग निष्कर्ष पर  ही पहुचेंगे , पर   मै  जिस निष्कर्ष पर  पंहुचा सिर्फ उसकी बात करना चाहूँगा , मेरे विचार में प्रेम ईश्वर  द्वारा रचित कोई भाव नहीं अपितु स्वयं ईश्वर  ही है ,कुछ मित्रो को शायद  ईश्वर के अस्तित्व से भी काफी प्रश्न होंगे पर उनके लिए मेरा उत्तर सिर्फ इतना है की आप प्रेम को ही ईश्वर मान लीजिये। तर्क वितर्क से परे होता है प्रेम और ईश्वर का भी आधारभूत तत्व  भी तर्क  वितर्क सभी से परे यही  है.  अब बात करते है की समस्या कहा आती है ,कुछ लोगो का कहना की आज कल सच्चा प्रेम नहीं रह गया है ,लोग धोखा करते है , बस जरा ध्यान से देखा जाये तो समस्या की जड़ आपके सामने ही दिख रही है ,लोग धोखा करते है , जैसे हम ईश्वर को खोजने के लिए भटकते रहते है ,तरह तरह के कर्म करते है ,जबकि ईश्वर स्वयं हमारे अन्दर ही है,उसी प्रकार हम प्रेम को दूसरो में खोजते है ,खुद में उसे खोजने वाले विरले ही है और हम अपना दोष दूसरो पे दे देते है की आज कल सच्चा प्रेम रह ही नहीं गया। कभी स्वयं के बारे में भी विचार करना बहुत आवश्यक है की क्या हम प्रेम की कामना करने के अतिरिक्त प्रेम करते भी है ? न्यूटन के गति विषयक तृतीय नियम "क्रिया प्रत्क्रिया के नियम से " इसे वैज्ञानिक आधार  दिया जा सकता है।  जब आप किसी को प्रेम करेंगे ही नहीं तो कौन आपको प्रेम करेगा ? आखिर आपको क्रिया तो करनी ही होगी।
मै खुद एक प्रश्न से हमेशा घिरा रहता हु की आखिर प्रेम की पहचान कैसे करे ,ये हो क्या सकता है ,आखिर ईश्वर  के भी अनेक रूप होते है ,"हरी अनंत हरी कथा अनंता " तो मैंने बड़े विचार के बाद ये पाया की जहा भी स्वयं को भूलने  अर्थात स्वयं का हित ,स्वयं का आधार, वस्तुतः स्वयं को ही त्यागने की प्रवत्ति पाई जाये वहा  प्रेम हो सकता है। प्रेम का दूसरा नाम ही है त्याग ,बिना त्याग के प्रेम की कल्पना भी सिर्फ उसी प्रकार है जैसे ये कल्पना करना की प्यासा कुए के पास न जाकर ,कुआ उसके पास आएगा  . अगर आप त्याग नहीं कर सकते तो प्रेम भी नहीं कर सकते।  क्योकि प्रेम त्याग की मांग करता है ,खुद को भूलने की मांग करता है। मै ये नहीं कहता की आप अपने हितो को त्याग दे ,पर अगर आप अपना हित कुछ यु देखने लगे की आप त्याग को भूल ही गए तो आप प्रेम को पा  ही नहीं सकते।  एक माँ स्वयं के हितो को छोड़ कर अपनी संतान का भला चाहती है,बस यही प्रेम है ,यही स्वर्गिक भाव है ,यही ईश्वर है , कइयो उद्धरण है , किसी को अपनी मात्र भूमि से प्रेम है ,कोई प्रकृति से प्रेम करता है ,किसी को किसी और से प्रेम है ,पर  सिर्फ एक बात इन सब में पाई जाती है ,
जिससे प्रेम है उसके लिए त्याग भी है।  और जब हम प्रेम करना सीख जाते है तो हमें प्रेम मिलता भी है ,पर एक बात यहाँ पर ध्यान देने योग्य है की अगर आप स्वार्थ से ग्रस्त हो कर कहेंगे की भाई  हम तो प्रेम करते है तो बस तृतीय नियम आपके  लिए वैसी ही प्रतिक्रिया लायेगा। वस्तुतः ये सोच कर की देखो प्रेम करेंगे तो प्रेम मिलेगा लो प्रेम करते है आप प्रेम को समझ ही नहीं सकते क्यों की यहाँ ये मिलेगा जैसा सब्द आ गया जो स्वार्थ की पहचान है और बस यही से फिर पूरी बात का विरोध होने लगता है। तो प्रेम करिए इसके बिना आप अधूरे ही रहेंगे ,जरा विचार करियेगा।

                                 इस  गंग प्रेम की प्रखर धार में ,
                                      बह जाता ये चेतन मन ...

                                 होती है पीड़ा कष्ट बहुत ,
                                       पर  मिलता है अदभुत आनंद ..

                                 प्रेम  के कारन जग है जीवित ,
                                      प्राण भरे ये है अमृत ..

                                  ये   गूड रहस्यों की  है माला ,
                                       मन  के सागर  की उदंड तरंग ...

                                   प्रेम नहीं कोई कोमल पथ ,
                                        है तप से सिंचित एक उपवन ..
                                    नहीं  यहाँ  स्थान   कटुता का ,
                                        भावो का होता  वंदन   ..

                                  करुणा है आधार प्रेम का ,
                                        त्याग  है इसके कण कण में ..
                                  मानव भी बन जाये ,देवो के तुल्य
                                       बस  जाये जो ये मन में ....

                                   इस  गंग प्रेम की प्रखर धार में ,
                                     बह जाता ये चेतन मन ...


                                                                         "अमन मिश्र "


शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

निशाँ

किनारों की जरुरत नहीं है मुझको ,
  लहरों से हमको  वफ़ा  चाहिये।
ख़ुशी की तो कोई तमन्ना नहीं अब,
ग़मों में  ही हमको मजा चाहिए।

मिलेगा कोई इस गैरे  महफ़िल में ,
इसकी तो कोई आरजू ही नहीं,
था कोई अपना कभी साथ अपने ,
हमें तो उसके निशाँ चाहिए।

किनारों की जरुरत नहीं है मुझको ,
  लहरों से हमको  वफ़ा  चाहिये।
                                                                     
"aman mishra"

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

शहर के ब्लॉगर्स चमका रहे दुनिया में’




14 सितम्बर में कानपुर के ’दैनिक हिन्दुस्तान ’ में कानपुर-उन्नाव के कुछ ब्लॉगरों का जिक्र हुआ। शीर्षक -शहर के ब्लॉगर्स चमका रहे दुनिया में’
                                              sabhar "fursatiya"

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

गंग प्रेम

इस  गंग प्रेम की प्रखर धार में ,
बह जाता ये चेतन मन ...

होती है पीड़ा कष्ट बहुत ,
पर  मिलता है अदभुत आनंद ..

प्रेम के कारन जग है जीवित ,
प्राण भरे ये है अमृत ..

ये  गूड रहस्यों की  है माला ,
मन के सागर  की उदंड तरंग ...

प्रेम नहीं कोई कोमल पथ ,
 है तप से सिंचित एक उपवन ..
नहीं यहाँ  स्थान   कटुता का ,
भावो का होता  वंदन   ..

करुणा है आधार प्रेम का ,
त्याग है इसके कण कण में ..
मानव भी बन जाये ,देवो के तुल्य
बस जाये जो ये मन में ....

इस  गंग प्रेम की प्रखर धार में ,
बह जाता ये चेतन मन ...

                 जारी  ...
                                         "" aman  mishra  "'
                               



मंगलवार, 11 जून 2013

ओ मेरी "परछाई"

घर से दूर .....
अपनों से दूर.....
"तुम" से दूर ....होकर
मैंने ये जाना है कि ........ 
जीना कितना कठिन है .....
और मरना कितना आसान ..... 

ओ मेरी "परछाई"....
तेरे बिना मै भटक रहा हूँ....
प्रेत बनकर अंधेरी 
गलियों में ......




शनिवार, 8 जून 2013

ये कैसा भारत निर्माण ...


मूल्यों के गिरते स्तर पर ,
ये कैसा भारत निर्माण ...

नैतिकता के शव पे खड़ा ,
आज का बदलता हिंदुस्तान ....

ये कैसा भारत निर्माण ...

कौन सी माता ,
किसके बच्चे...
सब झूठे है ,फिर भी सच्चे ..

चौराहों  पे बिकता आदर्श ,
 झूठे छेड़ते सत्य  की तान ...

घोटालो की खुली मंडी,
लज्जा भी हो रही हैरान .....

ये कैसा भारत निर्माण ....
.ये कैसा भारत निर्माण .....

गंगा है मैली ,मैला
यमुना का आँचल ..
ये  सुनहरा है आज ,
तो  क्या होगा अपना  कल ?

खड़ा किसान रो रहा ,
बाकि नहीं देह में जान ..
ये कैसी विकास की कीमत ,
खो रहे है  अपना मान..

बस हो रहा भारत निर्माण ...
ये कैसा  भारत निर्माण ....

शुक्रवार, 31 मई 2013

अबाधित धार हो प्रभु स्नेह की तुम : तारिणी

 









अज अनन्त निर्विकार
प्राणनाथ करुनागार
निरुद्वेल निरुद्वेग
निश्चल सरोवर चेतसः।
अन्तरज्ञ सर्वज्ञ
शब्द सर्वथा निरर्थ
जानो सब नाथ
करो कृपा काश्यप पर।

++++++++++++

अबाधित धार हो प्रभु स्नेह की तुम
ह्रदय के केंद्र में स्थित शुभ्र आसन ।
मनस् की शुद्धता के स्रोत हो हे!
प्राण का उल्लास हो!
सर्वथा शरण लो प्रभु,
संशय सभी हे! दूर कर दो।
निरंतर तव चरण रत रहे जन और
स्नेह जल से आप्लावित।

सोमवार, 27 मई 2013

सफ़र

तम से  घिरता ,जड़ता में बंधता ..
पथ का राही मै ,राहों से लड़ता ..
खुद को ही जला जला मै ,दीपक सा जल जाता हु ..
बस आगे बढता जाता हु ,बस आगे बढ़ता  जाता हु ...

नित नए भ्रमो की भटकन ,
राहों के वो नए नए रंग ,
इन सभी पाशों से उलझा ..
खुद ही तलवार उठता हु ..
बस आगे बढता जाता हु बस आगे बढता जाता हु ...

नित नयी वेला की आशा ,
समय चक्र का खेल तमाशा ,
रखते हुए ह्रदय मोम सा ,
"अमन "पत्थर का बन जाता हु ....
बस आगे बढता जाता हु बस आगे बढता जाता हु ...


            " अमन मिश्र "

note: pic from other blog with a lots of thank you....






गुरुवार, 23 मई 2013

शिक्षा के इस बलात्कार की ओर हमारे युवा मुख्यमंत्री जी कब ध्यान देंगे?

कहने को तो संविधान मे समान कार्य के लिये समान वेतन का प्रावधान है, किंतु व्यवहार मे यह प्रावधान कूडा बन गया है. मै यहा सेल्फ फाईनेंस संस्थाओ मे कार्य कर रहे शिक्षको के प्रति आप लोगो का ध्यान आकर्षित करना चाहता हू. वैसे तो निजी क्षेत्रो मे कार्यरत सभी कर्मचारियो की स्थिति बन्धुआ और बेगारो जैसी हो गयी है लेकिन जो समाज की संरचना मे मुख्य भूमिका निभा रहे है उनकी खस्ताहाल स्थिति को देखते हुये यह कहना मुश्किल नही कि देश किस दिशा मे जा रहा है. निजी स्कूलो महाविद्यालयो और तकनीकी संस्थाओ मे कार्यरत शिक्षक अवसादी मानसिकता के शिकार हो गये है.  निजी कालेजो के प्रबन्धक 'इंफ्रास्टक्चर' और अन्य वाहियात चीजो मे जम कर इनवेस्ट करते है किंतु वेतन और अवकाश के नाम पर धेला भर. शिक्षक की मजबूरी है कि उसे  नौकरी से रोटी और दाल खरीदना है. वैसे भी एक अनार और सौ बीमार वाली स्थिति है. तकनीकी संस्थाओ और महाविद्यालयो मे फ्रेशर के दम से क्लासेज चलती है. जिसमे क्वालिटी के नाम पर भ्रामक लेक्चर दिये जाते है. नाच गाने नौटंकी के नाम पर कालेज किसी नामी गिरामी होटल को टक्कर देते मिल जायेंगे. महिला शिक्षको की एकमात्र ड्यूटी सेंट वेंट लगा कर लिपपुत कर मैनेजर या चीफ  गेस्ट के आगे पीछे मुसकान चिपकाये चलना फिरना ही रह गया है. इन कालेज मे आने वाले छात्र भी मौज मस्ती करते पूरा सेशन बिता देते है क्योकि उन्हे मालूम है कि नकल कर ले तो पास ही हो जाना है. शिक्षा के इस बलात्कार की ओर  हमारे युवा मुख्यमंत्री जी कब ध्यान देंगे? स्थिति बद से बदतर होती जा रही है.  शिक्षा और शिक्षको लत्ता करके कोई भी व्यवस्था ज्यादा दिन तक चल नही सकती समय रहते इस मुद्दे पर न चेता गया तो भारत का अस्तित्व समाप्त होते  देर नही लगेगी.

मंगलवार, 7 मई 2013

बच्चो पर अब तो रहम करें ...

इन दिनों हमारे यहा कितनी ज्यादा गर्मी और उमस हो रही है ..बर्दाश्त के बाहर है ये मौसम ..सुबह छह  बजे से ही  घर के बाहर कदम रखने की हिम्मत नही होती ...इसके बावजूद हमारे यहाँ के स्कूल अभी भी खुले हुए है ....बच्चे दो -दो बजे इस भीषण गर्मी  में ट्रेफिक जाम से जूझते हुए घर  पहुचते  है ..हालाँकि स्कूलों की छुट्टी अब घंटे भर पहले होने लगी है ..पर बच्चों के घर पहुचने के समय में कोई ज्यादा अंतर नही आया .....बहुत से स्कूलों में तो खुले मैदान में प्रार्थना ,खेल के घंटे .भी पूर्ववत  ही है.पानी भी टीचर की  परमीशन के बाद  .मुश्किल से पीने को मिलता है .अच्छी -खासी फीस देने के बावजूद  .कक्षाओं में पंखे बंद रहते है ...रोज़ ही बच्चे बेहोश होकर स्कूल में ही गिर रहे है ....और पढाई भी  न के बराबर हो रही है ....तो क्यों न अब स्कूल से  बच्चो को छुट्टी दे दी जाये ......ताकि बच्चे अनावश्यक कष्ट से बच  सकें  और उन्हें बीमार होने से भी बचाया जा सके  ..

कृपया चित्र देखें



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मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

प्रथम मनु पिता नही, मा थी.. डा निर्मोही

कल डा निर्मोही से मुलाकात हुयी, डा निर्मोही फर्रुखाबाद के रहने वाले है. हिदू समाज की  बनी बनाई मान्यताओ की धज्जिया उडाकर आजकल निर्मोही जी खूब सुर्खिया बटोर रहे मैने इनके साहित्य और शोधलेख को पढा. वाकई तर्क बहुत जोरदारी से रखे है डाक्टर साहब ने. अभी मै इनको पढ रहा हू, इनके आलेख जवाब मांगते है उन मठाधीशो से जो हिन्दू समाज के ठेकेदार बने बैठे है. एक उदाहरण मै देता हू ..
"हम सब मनु की संताने है यह बात सही पर मनु पिता न होकर माता थी, मनुश्यो के पिता तो कश्यप थे.
उन्ही कश्यप को ब्रम्हा की उपाधि दी गयी . कश्यप की 13 पत्नियो मे से मनु से मानव दिति से दानव अदिति से आदित्य या सुर ऋग्वेद मे प्रयुक्त 'मनुष्पिता' 'मनुरायेजेपिता' 'मनुवृणातापितानस्ता' जैसे शब्दोके अर्थ भाष्यकारो ने गलत किया और वही ट्रेंड चलता आया. यह शब्द दक्ष के लिये प्रयुक्त किया गया है जो मनु के पिता थे..
दूसरा कि सृस्टि की रचना के समय एक कहानी आती है कि ब्रम्हा अकेलेपन से उबकर दो होना चाहा और अपने अन्दर से एक स्त्री को प्रकट किया फिर सृष्टि की रचना हुयी. तो य मनु कहा से आ गया? उत्तर यही है कि वह स्त्री ही है जिसे भ्रमवश भाष्यकारो ने पिता मान लिया"
निर्मोही जी का लेखन तर्क और तथ्यपरक है अब ये तथ्य कितने खरे उतरते है कितने समझे जाते है और कितनो पर सहमति बनती है निर्भर करता है कि कौन इनके तर्को पर अपने तर्क दे सकता है पर  मंथन से अमृत तो अवश्य निकलेगा इसमे सन्देह नही.


शनिवार, 20 अप्रैल 2013

बलात्कार :दोषी सिर्फ बलात्कारी ? या कोई और भी ..

बलात्कार :दोषी  सिर्फ बलात्कारी ? या कोई और भी ..  ज्यादा टाइम न लूँगा आपका , क्यों  की वैसे भी फ़ास्ट जमाना है .. खाना भी २ मिनट में बनाना चाहिए तो पूरा लेख तो सभी पड़ने से रहे , फिर भी कुछ बातो को  सामने रखना चाहूँगा .... जहा देखो आज कल बलात्कारियो को ये सजा दे दो वो सजा दे दो ,न जाने क्या क्या कितनी टाइप की सजा दे दो ,की आवाज आ रही है , ये वही है जिन्हें फिल्म में जब हीरो विलन को मरता है तब जैसी  मजा आती है , यहाँ भी वो बस मजा ढूंड रहे है ... आखिर सजा देने से बात सुधरती होती तो , अभी के हालिया महीनो में कई जगह ऐसे दोषियों को बहुत कड़ी सजाये दी गयी है , पर मै इस बहस में नहीं पड़ना चाहूँगा ... अह तो आता हु असल मुद्दे पे ...

आखिर ऐसा होता क्यों है , ध्यान देने की जरुरत है जड़ तक जाने की जरुरत है ....
कुछ बिन्दुओ की और ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा ...

१. बलात्कार के दोषियों में शायद ही कोई १०-१२ साल का हो.. सभी की उम्र १६ या उससे उपर ही सुनी मैंने , हो सकता है की अपवाद हो ..
ध्यान देने वाली बात है की इस उम्र में व्यक्ति प्राकतिक तौर पे परिवर्तन से गुजरता है और अति संवेदनशील होता है .. फैसले जल्दबाजी में लिए जाते है , कई बार अदालतों ने भी इस तत्थ्य पे सभी का ध्यान आकर्षित किया है .. ये भी एक कारन हो सकता है इस प्रकार की घटनाओ के लिए ..

२. जब हम दिन रात टीवी पे ,मीडिया पे बस ऐसे ही विज्ञापन देखते रहते है ,की ये करो तो लड़की मिलेगी वो करो तो लड़की मिलेगी ...  सीमेंट की मजबूती भी लड़की दिखाती है , नौकरी ,और छोकरी तभी मिलेगी जब बत्तीसी जक्कास होगी .. अभी न्यूज़ चैनल देख रहा था , गुडिया को बचाना है .. विज्ञापन में एक लड़की आ कर बताती है की बोयस को नहीं पता की हमें क्या पसंद है , फला  तेल लगाओ , ये मर्दों के लिए  वगैरह  वगैरह .. जब नारी  को भोग  की सामग्री दिखाया जायेगा तो लोगो के मन में क्या प्रभाव पड़ेगा सोचने वाली बात है ...

३.. एक बात और सोचने वाली है की सुरुवात से ही हम बन्धनों में रहते है , जब व्यक्ति नशे में होता है तो वो इसे तोड़ने का प्रयास करता है और कई बार परिणाम बहुत बुरा हो जाता है ..

४.. बलात्कार की कई घटनाये  हमें ऐसे पता चलती है की फला ने आरोप लगाया की मेरे साथ बलात्कार हुआ... कई बार ऐसी बाते आपसी सहमति से होती है पर पकड़ में आने पर बलात्कार का आरोप लगाया जाता है.. माननीय सर्वोच्य न्यायलय भी इस बात पे चिंता जाहिर कर चुका है ...
५. बलात्कारी भी हमारे आपके बीच का व्यक्ति है , कही  न कही  समाज में भी  कमी है जो इस तरह की घटनाये हो रही है .. जब हम लडकियों पे कई तरह के बंधन लगाते है , लडको पे नहीं तब प्रॉब्लम सामने आती है .. ये इन्सान  का प्राकृतिक  स्वाभाव है जो जिंतना छुपाने की चेष्टा करता है सामने वाला उस पर उतना ही ध्यान लगता है .. अगर हम दोनों को ही बराबर का स्थान दे तो भी समस्या सुधर सकती है , यहाँ इस बात पे भीध्यान आकर्षित करना चाहूँगा की सिर्फ लडको को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता कई  बार लड़की की भी गलती सामने आती है पर उस पर कोई ध्यान नहीं देता  और  उन्हें बल मिलता है की जो कुछ भी हुआ आखिर फसेगा तो लड़का ही ..इसे रोकने की जरुरत है ..

ये कुछ तथ्य थे जिन पर मैंने आप सभी का ध्यान आकर्षित किया अब आपको सोचने की जरुरत है की कौन दोषी है , सिर्फ बलात्कारी या कोई और भी.... 

                   जय हिन्द ..

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

कानपुर: मेरा शहर मेरा गीत

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लिखिये कानपुर पर गीत: पहला गीत लिखा है आनन्द फैजाबादी ने अब आप की बारी.......

जिंदगी .

पल में तोला,
पल में माशा है ये जिंदगी ..

कभी डूबती नाव सी,
कभी छोटी सी आशा है जिंदगी ...

कभी गम है , कभी है तन्हाई .,
किसी के मन का दिलाशा है ये जिंदगी ...

पल में तोला, पल में माशा है ये जिंदगी ..

एक फूल की छुअन ,
 काटें की चुभन .
उगता हुआ सूरज,
बड़ता हुआ अँधेरा .
काली सी रात ,खिलता  सवेरा ..

चुभते हुए लफ्ज , प्रेम की भाषा है जिंदगी....

पल में तोला, पल में माशा है ये जिंदगी ..

रंगों को समेटे , रंगों को बिखेरे ..
सपनो के समुन्दर, चाहतो के मेले .
न जाने क्या है, समाये है खुद में ..
खुद को पाने की एक आशा है जिंदगी ...

पल में तोला, पल में माशा है ये जिंदगी ..

                          "  अमन मिश्र "

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

सम्वत्सर 2070 की हार्दिक शुभकामनाये.

आप व आप के परिवार को नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत् 2067, युगाब्द 5112,शक संवत् 1932 तदनुसार 16 मार्च 2010 , धरती मां की 1955885111 वीं वर्षगांठ तथा इसी दिन सृष्टि का शुभारंभ, भगवान राम का राज्याभिषेक, युधिष्ठिर संवत की शुरुवात, विक्रमादित्य का दिग्विजय, वासंतिक नवरात्र प्रारंभ की ढेर सारी शुभकामनायें... ईश्वर हम सबको ऐसी इच्छा शक्ति प्रदान करे जिससे हम अखंड भारतमाता को जगदम्बा का स्वरुप प्रदान कर उसके जन, जल, जमीन, जंगल, जानवर के साथ एकात्म भाव स्थापित कर सके तथा धरती मां पर छाये वैश्विक ताप रुपी दानव को परास्त कर दे.....और विश्व का मंगलमय कल्याण हो..
"फूट-फूट फैली है
आभा अरुणोदय की
धीरे से पन्ना पलट दो
काल-पत्र का
नयी तिथि है नए संवत्सर की"

Photo: आप व आप के परिवार को नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत् 2067, युगाब्द 5112,शक संवत् 1932 तदनुसार 16 मार्च 2010 , धरती मां की 1955885111 वीं वर्षगांठ तथा इसी दिन सृष्टि का शुभारंभ, भगवान राम का राज्याभिषेक, युधिष्ठिर संवत की शुरुवात, विक्रमादित्य का दिग्विजय, वासंतिक नवरात्र प्रारंभ की  ढेर सारी शुभकामनायें... ईश्वर हम सबको ऐसी इच्छा शक्ति प्रदान करे जिससे हम अखंड भारतमाता को जगदम्बा का स्वरुप प्रदान कर उसके जन, जल, जमीन, जंगल, जानवर के साथ एकात्म भाव स्थापित कर सके तथा धरती मां पर छाये वैश्विक ताप रुपी दानव को परास्त कर दे.....और विश्व का मंगलमय कल्याण हो..
"फूट-फूट फैली है
आभा अरुणोदय की
धीरे से पन्ना पलट दो
काल-पत्र का
नयी तिथि है नए संवत्सर की" 
सम्वत्सर 2070 की हार्दिक शुभकामनाये.

रविवार, 31 मार्च 2013

हम तो आ गए बाजार में

हम तो आ गए बाजार में भैया कोई कीमत लगा ले...

आदर्शो की पूंजी की कीमत बस मिल जाये मुझे ,
आये है तो बाजार में थोडा नाम कमा ले ,

हम तो आ गए बाजार में भैया कोई कीमत लगा ले...

मिल जाये मुझे तालिया लोगो की वाहवाही ...
आओ इस बाजार में ऐसा दाव लगा ले .....

हम तो आ गए बाजार में भैया कोई कीमत लगा ले...

मोल हो इज्जत का कोई , वो हम भी चुका दे ..
होता हो कोई प्रश्न तो उत्तर हम भी बता दे .....

हम तो आ गए बाजार में भैया कोई कीमत लगा ले...

मन तो बहुत करता है पर आत्मा नहीं बिकती ..
डरती है इस भीड़ से ,बाजार में नहीं टिकती ..

न बेच पाए आत्मा को ,चलो कोई बात नहीं है ...
इस आत्मा की वैसे भी कीमत नहीं है मिलती ...
खड़े है बाजार के चौराहे में बिकने को ...
बस कोई आके कोई "अमन " तेरी एक कीमत लगा ले .......................

मंगलवार, 19 मार्च 2013

समाज की तरक्की के लिए भ्रूण हत्या जरुरी है

आज भी जब हमारा देश एक पिछड़े देश के मुकाबले एक प्रगतिशील देश के रूप मे जाना जाने लगा है, हमारे देश और समाज में लड़कियों और महिलाओ के साथ अनेक रूपों में दुर्व्यवहार किआ जाता है.आज भी एक लड़की के पैदा होने को अभिशाप मन जाता है जिनके चलते घर की उन्हे असमय ही मरने पर मजबूर होना पड रहा है.
तकनीक मे भारत की तरक्की दुनिया मे एक मिसाल बनती जा रही है, परंतु यह भी एक अभिशाप की तरह बनती दिख रही है.......आज आधुनिकीकरण का ही नतीजा है की सोनोग्राफी, अल्ट्रासाउंड् जैसी तकनीक से गर्भ मे लिंग का पता चलता है और यदि स्त्री लिंग होता है तो उसे माँ के पेट में ही मार दिया जाता है. आजकल स्त्री भ्रूण हत्या एक आम बात बन गई है जबकि लिंग का पता करना एवं उसकी हत्या करना कानूनन अपराध है. कई बार तो न्यूज़ चैनल्स पर इस तरह के कई ऐसे कांड दिखाए जाते है जहा पर डॉक्टर्स भी मिले हुए होते है. कई बार कुछ हॉस्पिटल्स के आस पास की जगहों से भ्रूण मिलते है .कभी वे कूड़े के ढेर में पाए जाते है ,तो कभी किसी गंदे नाले में तो कभी कभी वे कुत्तो व चील-कौओ के द्वारा खंडित किए जाते हुए पाए जाते है.

ये सब पढ़ कर ऐसी गलतफ़हमी मत रखियेगा कि ये सब पिछड़े प्रदेशो में होता है बल्कि आपको यह जानकार आश्चर्य होगा की ये सबसे ज्यादा शहरो एवं मेट्रो सिटीज् में होता है. गांव् में तो लोगो को ना तो इतनी जानकारी होती है और ना ही वो इतने आधुनिकत तकनीक से परिचित होते है.
अगर आंकड़ो पर ध्यान दे तो लिंगानुपात् में बहुत अंतर आया है.ये अनुपात भारत में १९९१ में ९४७ लड़कियों का १००० लडको का था और ठीक दस साल बाद यह अनुपात  ९२७ लड़कियों का १००० लडको पर था. सन १९९१ से भारत में स्त्री लिंग की कमी होनी शुरू हुई थी जिसमे सब से ज्याया श्रेय पंजाब को जाता है जिसमे लिंगानुपात् में जमीन असमान का अंतर है.

कुछ विकसित प्रदेश जैसे की महाराष्ट्र ,गुजरात पंजाबहिमांचल प्रदेश एवं हरियाणा में लिंगानुपात् में सबसे ज्यादा अंतर पाया गया है.

हमारे देश में केरल ही ऐसा प्रदेश है जहा पर १००० लडको पर १०५८ लड़कियों का आंकड़ा है और इसके विपरीत हरियाणा एक ऐसा प्रदेश है जहा पर १००० लडको पर ८०० लड़कियों का आंकड़ा है.

आज अगर एक लड़की के होने को एक कलंक मन जायेगा तो वो दिन दूर नहीं जब समाज हर लड़की को द्रौपदी बनने पर मजबूर कर सकता है.

हमें समाज की इन कुरीतियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए ,और हमें ये प्रण करना चाहिए की इस तरह के काम में लिप्त लोगो को सजा हो और इस काम में मदद करने वालो को भी सजा हो. इसका मतलब ये नहीं की सजा देना ही एक निष्कर्ष है .....समाज को सुधारने के लिए हमें स्त्री को सम्मान देना होगा और उसकी जरूरत को समझना होगा.

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

जब प्रकृति असहनीय दर्द देती है



माँ की गोद में एक छोटा सा बच्चा एक ऐसे दृश्य का परिचायक होता है जिसमे वो सबसे ज्यादा सुरक्षित व संपूर्ण महसूस करता है. बच्चा अपनी माँ को अलग अलग तरीको से रिझाने की कोशिश करता है कभी वह  अपनी तोतली बातो से,तो कभी अपने अबोध बर्ताव से,तो कभी अपनी अठखेलियो से सब को मोहित करता है. एक बेटे का उसकी माँ के पास होंना किसी वरदान से कम नहीं है.

कभी क्या सोचा है उस बेटे का दर्द जो ना चाह कर भी अपनी माँ से हमेशा के लिए दूर हो जाता है.  यह तो सब जानते है की एक बेटे के ना होने पर सबसे ज्यादा उसकी माँ को दर्द होता है पर क्या कभी किसी ने उस बेटे के बारे में सोचा है.क्या कभी सोचा है की उस बेटे को भी अपनी माँ एवं अपने परिवार के अन्य जानो के साथ ना होने का दर्द महसूस होता है.माँ के दर्द को सांत्वना देने के लिए तो उसके अन्य परिवार के सदस्य होते है परन्तु बेटे के पास... उस बेटे के पास तो कोई नहीं होता है जो उसके दुःख दर्द को बांट सके.......

कभी कभी प्रक़ृति इतनी क्रूर हो जाती है कि इन सम्बन्धो को तोडने पर उतारू हो जाती है. वह बेटे को माँ से बहुत दूर भेज देती है जहा से वह कभी आ नही सकता. उस बेटे को कभी नही पता होता है कि वो उम्र के इस पड़ाव पर आ कर इन सब से दूर हो जायेगा. उसने तो अपने जीवन की बाईसवी दिवाली भी नहीं देखी. उसे तो पता ही नहीं चला की  घर की जिम्मेदारी क्या होती है , उसने तो अब अपनी छोटी बहन की पढाई के बारे में सोचना ही शुरू किया था,उसने तो अभी अपने पिता से अपनी बात कहनी ही सीखी थी, वो तो चाह कर भी अपने पिता की जिम्मेदारो के वाहन करने में असमर्थ रह गया.

वह अभी सारी जिम्मेदारियो को उठाने के लिये अपने कन्धे मजबूत कर ही रहा था...पर प्रकृति एवं नियति ने शायद उसके लिये कुछ दूसरी ही कहानी बना के रखी थी था. वो ना चाह कर भी अपने घर परिवार से हमेशा के लिए दूर हो गया. वो चाहता था उन सभी लोगों में शामिल होकर अपने जीवन को कुछ अर्थ दे सके.परन्तु हत भाग्य ऐसा न हो पाता है

उस परम शक्ति से हम यही प्रार्थना करते है की यदि किसी को संतान दे तो उसे असमय अपने पास बुलाने का कोई रास्ता ना बनाये अपितु उन माँ बाप को संतानहीन ही रहने दे क्योंकि यह दर्द उस असहनीय दर्द से कही कम है. और संतान  माँ बाप ,भाई बहन  एवं परिवार के अन्य सदस्यों से इतना दूर ना करे और साथ ही यदि किसी का दुनिया से हमेशा के लिये चले जाना सब उसके पूर्व जन्मो के कर्म है तो हे ईश्वर एक व्यक्ति को उसके बुरे कर्मो का फल उसे इसी जीवन में दे दे ताकि उसे उसकी भूल का अहसास भी हो और उसका दूसरा जन्म सुखमय हो.

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

महाप्राण निराला: पतझर सा जीवन पर मधुमासी गीत लिखा

एक रोज जब गीले मौसम की हथेली पर मधुमास लिखकर पतझर जा रहा था और शीत के बादलो को धुनकर धूप बुन रही थी सूरज का लिहाफ, उस रोज सान्ध्य रवि के पास बैठा एक कवि बोता रहा सपनो के बीज. धानी होती रही कागज की धरती. जीवन की चौख़ट पर जब जब ये मधुमास आया तब तब तुम्हे याद किया मलयानिल से बतियाती "जूही की कली ने" तुम्हे याद किया था गंगा के घाट पर ठहरी "महुआ गन्ध" ने. तुम्हे याद किया था "बावरी बनवेला" ने तुम्हारा रास्ता देखती रही नर्गिस. ठूंठ हुये कचनार पर छाया हुआ वसंत भी ढूंढता रहा तुम्हारी सीपी आंखे... लेकिन मुझे तो वो पूरा मधुमास गढना था जो राग विराग हंसी तंज दुलार और दुत्कार के लम्हो मे बंटी जिन्दगी जी कर चला गया, फिर कभी ना आने के लिये. उस सूरज को कलम की रोशनी मे कैसे उतारू? लाख लाख शब्द जुटा कर भी कहा पूरी होगी वो तस्वीर....

तो क्या कूची उठा लू 
रंग दू रंगो मे निराला को 
आदमियो मे उस सबसे आला को? 
किंतु हाय... 
कैसे खीचू, कैसे बनाऊ उसे 
मेरे पास कोई मौलिक रेखा भी तो नही है? 
उधार रेखाये कैसे लू, 
इसके उसके मन की... 
तो क्या करू 
कैसे खीचू कैसे बनाऊ 
लाख शब्दो के बराबर 
एक तसवीर                 (भवानी प्रसाद मिश्र)
कहा से शुरु करू उस वसंत की कहानी  दारगंज की तंग गलियो से, जहा सवा रूपये वाले बाटा के फ्लीट उन बिवाईयो वाले कदमो के साथ घूमते या फिर उन बेशऊर दुकानो से जहा कलम थामने वाले वे हाथ मुट्ठी मे दुअन्नी दबाये लहसुन और मिर्च ढूंढते थे. सर पर रखे उस पुराने ऊनी टोप से या बदन पर चढे उस फटे कोट से  जो दिन मे लिबास और रात मे लिहाफ होता था. या फिर उस सीले, अन्धेरे कमरे से जो आसरा था उस वसंत का... कहा वो कमरा वो बरसो से बिना धुला रूठा रूठा आंगन, वो बिना पल्लो की आलमारी, वो औन्धी पडी 4-6 किताबे, वो मैल चढे दरवाजे और कहा ग्रीक देवता जैसी दिव्य प्रतिमा.
कौन है वो?
उसे अपोलो कहू
निराला कहू ,
सूर्यकांत कहू
सुर्ज कुमार कहू
बडभागी था वो कमरा जहा भरे जाने के इंतजार मे मुद्दतो से खाली  पडे थे मिट्टी बरतन. दीवारो मे चूहे के बिल नमक , मिर्च की पुडियो और प्याज की गांठो को रखने के काम मे साभार लाये जा रहे थे. उसी कमरे मे पतझर के साथ वसंत रहता था. उसी तरह जैसे ओस के साथ चान्दनी दिनके साथ रात. जीवन की तमाम विपन्नताओ की बीच मन की सम्पन्नताओ के साथ महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला".
                                                                                                     .....अहा जिन्दगी(उपमा ऋचा) से

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

प्राणों की महावर

  
प्राणों की महावर
अर्चना की सुरभि प्राणों की महावर बन गयी जब ,
देह की आराधना का अर्थ ही क्या ?
साँस का सरगम विसर्जन गीत का ही साज है ,
मृत्तिका के घेर में क्या बंध सका आकाश है ,
चाह पंख पसार जब पहुँची क्षितिज के छोर तक
मिट गया आभाष कोई दूर है या पास है ।
बंध गयी  जो   चाह मरू का थूह ,कारावास है
मुक्त मन खग ज्योति मग पर लहरने दो
काल के उस पार अनभ अकाल तक
आस्था के चरण कवि के ठहरने दो
पुरा गाथा में लहरती श्रष्टि की उद्दभव कहानी
प्यार की चिर साधना थी ब्यर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि ............
देह की हर चाह बस शमशान जाती
राख के बर्तुल बगूले घूमते हैं
शून्यता मानव नियति का अन्त बनती
हो वधिर विक्षिप्त मद्यप झूमते है 
देह  के जो पार अमर निदेह काँक्षा
स्वास्ति का शुभ वृत्त उसी का राग है
रंग रहे चोला चहेते चाह के मद-मस्त जन
किन्तु अमर अनित्य केवल प्राण का ही फाग है
अमिर आमंत्रण मनुजता दे रही जब प्यार का
खण्ड -धर्मी हीन कर्मी भावना का अर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि ............
आज मंगल ,शुक्र से कल ज्योति पथ के पार से
और कल के पार ताराहीन धवल प्रसार से
हम सभी हैं पुत्र धरती के यही आह्वान होगा
तब हमें मानव नियति का झिलमिला सा भान होगा
उस महा आभास की प्रत्यूस बेला आ चुकी है
खण्ड धर्मी देह बन्धित चेतना नि:सार है
राष्ट्र की सीमा गगन का छोर पीछे छोडती है
ऊर्ध्व- कामी हर पुलक की कामना ही प्यार है
आज वामन नर डगों में अन्तरिक्ष समों रहा
टिमटिमाती तारिका पद -वन्दना का अर्थ ही क्या ?
'पिण्ड में ब्रम्हाण्ड है 'यह आर्ष वाणी
स्रष्टि के हर तार पर चिर सत्य की झंकार है
आज विघटन की दलीलें सर पटक कर रो रहीं हैं
हर जनूनी अन्धता की यह करारी हार है
कल मनुज तारा पथों पर स्वत :चालित-यान दोलित
ज्योति- नगरों में जगायेगा नयी पहचान के स्वर
श्याम ,पांडुर ,श्वेत लोहित वर्ण ,हिलमिल रहेंगे ,
तपश्चरण प्रधान होगा फिर मिलेंगे नये वर
उठ रहा हो जब त्रिकाली आशुतोषी नाद डिमडिम
क्षणिक जीवी रंजना का अर्थ ही क्या ?

रविवार, 27 जनवरी 2013

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

दुनिया  का ये दस्तूर पुराना है ,
खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

राहे हजार मिलेंगी ,मंजिल की तरफ .
बस सही राह चुन के मंजिल को पाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

चाहत तो यहाँ सब माँगते ही रहते ,
किसी की चाहत को खुद के लिए पाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

कहेंगे लाखो तुझे दुनिया पे एक बोझ ,
उन लाख को ,एक  नयी राह दिखाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

न मिलेगी तुझे अपने दर्द की दावा इस दुनिया में ,
ज़माने का गम बस खुद से मिटाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

रोना है तुझे बहुतो  के  जाने के बाद ,
सब याद करे तुझको ,कुछ ऐसा कर दिखाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .  .
                                                     "अमन मिश्र"  

note : चित्र गूगल से साभार

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

कुण्ठाओं की जननी --नक़ल

                                              यह सामान्य ज्ञान की बात है कि मौखिक भाषा ही ध्वनियों का प्रारम्भिक अर्थवान स्वरुप रही होगी । एक बहुत लम्बे अंतराल के बाद जिसका प्रस्तार सम्भवत : शत सहस्रों वर्ष रहा हो -मानव जाति  नें रेखाओं , चित्रों और परिवर्तित होने वाले प्रकृति रूपों को आधार बनाकर लिपियों (लिपि ) को विकसित किया । मौखिक ज्ञान की स्मृति भण्डारण प्रक्रिया अक्षर बद्ध होकर संग्रहित होने लगी। व्यक्ति के जीवन -मरण से मुक्त होकर अक्षर बद्ध -ज्ञान भविष्य की पीढ़ियों के लिए धरोहर बनने लगा। गड़नान्क और शून्य की खोज उसे सितारों की ओर उड़ा ले चली। पिछली पीढ़ी का संग्रहित अनुभव जन्य ज्ञान और अंतर द्रष्टि से सचेती मान्यतायें अगली पीढी के लिये प्रगति- सोपान  बन गयीं । चल पड़ा मानव सभ्यता का सार्थवाह अबूझ प्रकृति के रहस्य-मय रूपों में छिपी ज्ञान मणियों की तलाश में। और यह तलाश चाँद और मंगल से गुजरती हुयी सौर मंडल के पार नीहारिका वीथियों में आज भी गतिशील है। ज्ञानी होने की सनद अब द्वार -पंडितों की मौखिक परीक्षा में सिमटनें से आनाकानी करने लगी। उसे एक विस्तृत फलक की आवश्यकता जान पड़ी और परीक्षा का लिखित रूप संवर्धित होने लगा। जानकारी के असीम प्रस्तार नें परीक्षा के मौखिक स्वरूप को आनुषांगिक बना दिया। विशेष रूप से संयोजित तर्क प्रयोग और प्रमाण पर आधारित ज्ञान नें एक उपसर्ग और जोड़कर विज्ञान का बाना धारण किया। पर विज्ञान का अपार फैलाव ने लिखित परीक्षा  के माध्यम से ही अपने साधकों की श्रेष्ठता -अश्रेष्ठता निश्चित करनें का निर्णय किया और व्यवहारिक प्रयोगशालीय परीक्षा वहां भी आनुषांगिक होकर रह गयी। अब इस लिखित परीक्षा से छुटकारा कहाँ ? प्रारम्भ में हमने इसे सहज स्वीकृति से कन्धों पर उठा लिया। अब यह पुरातन बोझ सिन्दबाद के बुड्ढे की भाँती हमारा गला जकड़े पड़ा है। शायद मानव -प्रकृति की पहचान में हमसे कहीं भूल हो गयी है। या ज्ञान और परीक्षा का समीकरण खण्डित हो गया है। सनद लक्ष्य बन गयी है। ज्ञान कूकुर की भाँती दुत्कारा जा रहा है। भारत की कुछ विशिष्ट  संस्थाओं को छोड़ दें तो यह कहा जा सकता है कि नक़ल भीडतंत्र का बहुमत बटोर चुकी है। बहुरूपिये इसका संचालन कर रहें हैं और राष्ट्रहन्ता इसको संवर्धन दे रहें हैं। आप मुझसे सहमत हों -यह माँग मैं नहीं करता। पर मुझे अपने व्यक्तिगत अनुभव के प्रति ईमानदार होने का हक़ तो दीजिये। यह कहना शायद समीचीन न हो कि मर्ज अब लाइलाज हो चला है पर अभी तक के सारे नुस्खे बेअसर ही साबित हुए हैं।दरअसल लिखित परीक्षाओं  की सार्थकता सम्बन्धी भ्रमात्मक अवधारणाओं की धुंध हमारी दूरगामी द्रष्टि अवरुद्ध कर रही है।लिखित परीक्षाओं की उच्च -स्तरीय सफलता को हम परीक्षार्थी के संभावित विकास से अनिवार्य रूप से जोड़ चुकें हैं और यहीं से त्रासदी का लम्बा सिलसिला शुरू होता है ।
                                           विकास की  सामान्य परिभाषा सड़कें ,बिजली ,पानी ,संचार ,यंत्रिकी ,विश्वशनीय स्वास्थ्य सेवांये और प्रदूषण मुक्त पर्यावरण के साथ जुडी हुई हैं ।प्रारम्भिक शिक्षा भी हमारा संवैधानिक दायित्व है ।नोबेल लारयेट ,अमर्त्य सेन शिक्षा को गरीबी उन्मूलन की दिशा में अन्य योजनाओं से कहीं और अधिक प्रभावी मानते हैं।प्रारम्भिक शिक्षा पार कर आगे चलने वाला प्रत्येक विद्यार्थीकुछ अपवादों को छोड़करविकास की बहु प्रचारित सुविधाओं का सुख भोगी बनना चाहता है ।उसके पास विकास को अन्तर -परिमार्जन या मानवीय मूल्यों से जोड़कर देखनें की द्रष्टि ही नहीं होती। द्रष्टि हो तो तब जब उसका परिवेश -घर ,स्कूल ,परिजन ,पुरजन उसे जाने अनजाने उस मानवीय अस्मिता से अवगत करा सके जो मानव जाति को सहस्त्रों वर्षों की कठिन साधना के फलस्वरूप सांस्कृतिक विरासत के रूप में मिली है ।

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

ज्ञान ही शक्ति है

  आंग्ल भाषा का यह त्रिशब्दी कथन " Knowledge is power" आज के युग में जितना सार्थक है उतना शायद मानव इतिहास के किसी काल में नहीं रहा है। ज्ञान -विज्ञान के अभूतपूर्व प्रचार -प्रसार के कारण ज्ञान -विज्ञान का साहित्य अब अध्ययन  -अध्यापन की द्रष्टि से प्राथमिकता  पा चुका है। ललित साहित्य अब बहुत कुछ फिल्मों ,टी .वी .,शोज ,ग्लैमर ,एडवरटाइजमेन्ट्स  और हल्के -फुल्के हास -परिहास की क्षणिकाओं में सिमटता जा रहा है। मेरा मानना है कि ललित साहित्य और ज्ञान -विज्ञान के साहित्य के बीच कोई ऐसी विभाजक रेखा नहीं होनी चाहिये जो दोनों को एक दूसरे  से अलग कर दे। ललित साहित्य का सहारा लेकर ज्ञान -विज्ञान भारत के घर -घर ,गाँव -गाँव ,में अपनी पहुच बना सकता है। शुष्क तथ्यों को और जटिल सूत्रों को नीरसता का बोझ दबा देता है और वे सहज स्वीकृत नहीं पाते। आवश्यकता है ज्ञान -विज्ञान के ऐसे समर्थ अधिकारी विद्वानों की जो बोध -गम्य भाषा के द्वारा उदाहरणों , किस्सा -कहानियों और भारतीय परम्परागत धार्मिक विचारधाराओं से आज की नयी खोजों और विश्व स्वीकृत मूल्यों को जन मानस तक पंहुचा सके। मुझे लगता है कि विज्ञान को बालकों और किशोरों में मनोरंजक ढंग से पहुचाने के लिये विज्ञान की धारणाओं पर आधारित ललित साहित्य के सृजन की बहुत अधिक आवश्यकता है। इसे एक राष्ट्रीय चुनौती के रूप में स्वीकार करना होगा। पश्चिम के देशों में तथा जापान और चीन में भी विज्ञान पर आधारित प्रचुर ललित सामग्री उपलब्ध है पर हिन्दी भाषा में इस दिशा में समर्थ प्रयास देखने को नहीं मिल रहे हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हिन्दी भाषा- भाषी क्षेत्र में वैज्ञानिक सोच अभी जीवन के सहज धरातल पर उतर कर व्यवहार के रूप में नहीं ढल पायी है। कोई भी ज्ञान जब तक हमारी सोच का अविभाज्य अंग नहीं बनता तब तक उसे ललित साहित्य के माध्यम से व्यक्त करना काफी दुष्कर होता है।रोबोट को लेकर लिखी जाने वाली कहानियाँ ,वार्तायें और नाटकीय रचनायें प्राणवान नहीं बन पाती क्योंकि रोबोट का किताबी ज्ञान हमारे सामान्य व्यवहार में कहीं परिलक्षित नहीं होता। ऐसा इसलिये भी है क्योंकि अभी हम अत्याधुनिक वैज्ञानिक सुविधाओं से अपरिचित ही हैं।परिचय है भी तो केवल सतही किताबों ,द्रश्य चित्रों और अधकचरी चर्चाओं के माध्यम से। रोबोट की कौन  कहे अधकांश हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र के समर्थ शब्दकार अभी तक Email,Internet,और  broad Band जैसी आधुनिक संचार प्रणाली के सामान्य ज्ञान से भी वंचित हैं। इस दिशा में घर -घर तक दूर संचार प्रणाली के साधनों को पहुचाने का भारत सरकार का प्रयास निश्चय ही सराहनीय है। समाजशास्त्र के अध्येता आज एक स्वर से यह कहते सुने जाते हैं कि मानव की सोच उसके आस -पास के वातावरण और उसकी व्यक्तिगत तथा उसके समाज की साझा परिस्थितियों से बनती -बिगड़ती है। मनुष्य की सोच शून्य से गिरने वाला कोई ऐसा फल नहीं है जो उसे एकान्त में मिल जाय। Technocracy के आज के युग में हमें अपनी प्राचीन पूजा पद्धतियों को भी नवीन भेष -भूषा से सजा -बजा कर प्रस्तुत करना पड़ रहा है। महेश योगी . रवि शंकर , स्वामी रामदेव ,बापू आशाराम तथा भगवान अघोरेश्वर सभी अपनी साधना पद्धतियों को वैज्ञानिक आधार देने में प्रयासरत हैं और इसमें  उन्हें काफी सफलता मिली है । पाश्चात्य जगत भी उनकी खोजों के प्रति आश्वस्त दिखाई पड़ रहा है । अब गुफाओं के स्थान पर योग साधना के लिये Air Conditioned हाल चुने जाने लगे हैं ।और वन्य प्रान्तरों का एकान्त Hill Resorts में बदल चुका है।शरीर की सन्चालन प्रक्रिया के नाप -तौल के लिये हमनें आधुनिक मेडिकल इंस्ट्रूमेंट्स को अपना लिया है और ऐसा करना उचित भी है क्योकि विकास की गति सत्य -प्राप्ति की नवीन खोजों को स्वीकार कर लेने से ही संम्भव होती है । वैज्ञानिक चिन्तन हमारे रहन -सहन , खान -पान , रीति -रिवाज़ , उत्साह -समारोह और हमारी जीवन -म्रत्त्यु सम्बन्धी धारणाओं पर भी एक कल्याणकारी नजर डालनें में समर्थ है। बिना गहराई से जाँच किये सभी कुछ स्वीकार कर लेना हानिकारक हो सकता है पर बिना गहराई जाँच किये बहकावे में आकर किसी अच्छी प्रथा को छोड़ देना भी हानिकारक हो सकता है।इसलिए प्रज्ञा युक्त तर्क और संशोधन के लिए सहज मनोवृत्ति बनाकर ही हम अपनी परम्पराओं की उपादेयता की पहचान कर सकते हैं। जिस प्रकार सोच आकाश से नहीं गिरती वैसे ही परम्परायें भी किसी ईश्वरीय विधि -विधान से बनकर नहीं आतीं। विश्व के सभी श्रेष्ठ समाजशास्त्री आज इस बात पर सहमत हैं कि बीते कल में किसी मानव समाज के लिए जो उपयोगी था वह आज हानिकारक भी हो सकता है। प्रथाएँ , मान्यताएँ ,परम्परायें और यहाँ तक कि नैतिक अवधारणायें भी बहुत कुछ समय की दें होती हैं। सहस्त्रों वर्षों की विकास प्रक्रिया में मानव सभ्यता न जाने कितने टेढ़े -मेढ़े मार्गों से गुजर कर आयी है। हजारों लाखों मनुष्यों की नर -वालियाँ , हजारों लाखों नारियों का शरीर शोषण और हजारों लाखों धर्म मन्दिरों और संस्कृति स्मारकों का तहश -नहश मानव इतिहास का एक दुखद पहलू रहा है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि उजले पखवारे अधिक समय तक नहीं टिक पाये जबकि अन्धेरे का राज्य अटूट रूप से चलता रहा है। इस प्रकार की व्यवस्था में विशिष्ट भैगोलिक परिस्थितयों में और अपने समय के ऐतिहासिक सन्दर्भों में जीवन ,सम्पत्ति और मर्यादा की रक्षा के लिए नये -नये नीति विधान बनाये गए। अनेक आचरण पद्धतियाँ विकसित की गयीं और नर -नारी सम्बन्धों को नयी -नयी व्याख्याओं  में प्रस्तुत किया गया। यह ठीक है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अभी तक युद्ध की विश्व व्यापी विभीषका से हम  बचे हुए हैं पर छोटे -मोटे पचासों  युद्ध  तो दुनिया में होते ही रहें हैंऔर होते ही रहेंगे। भारत विभाजन की विभीषका नें लाखों पंजाबी घरों में नयी सोच का संचार किया क्योंकि अपनी प्रगति और स्थापना के लिए नए सामाजिक सम्बन्धों की आवश्यकता थी।लाखों भारतीय आज योरोप ,अमेरिका और विश्व के अन्य देशों में जाकर बस कर अपनी सोच में परिवर्तन लाने की आवश्यकता को माननें पर विवश हो रहे हैं।जैसे -जैसे हिन्दी भाषा -भाषी समाज में आर्थिक प्रगति का विस्तार होगा और जैसे -जैसे टेक्नोलाजी पर आधारित उनकी जीवन शैली विकसित होगी उनकी रचना धर्मिता में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जायेगा। हम अपने पुराने और श्रेष्ठ रचनाकारों का आदर करेंगे और अपने समय के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में लिखे गए उनके साहित्य के मूल्यों का सही आंकलन करेंगें पर हमें अपनी पीढ़ी और अपने युग के लिए नए मूल्यों की तलाश भी करनी होगी।किसी युग में बहु पत्नी प्रथा शायद समाज के लिये कल्याणकारी रही हो पर आज तो निश्चय ही यह विनाशकारी है। किसी युग में अबाध वंश ब्रद्धि शायद कल्याणकारी रही हो पर आज तो यह निश्चय  ही वांछनीय नहीं है । किसी युग में छुआ -छूत की प्रथा शायद सामाजिक सन्दर्भों में सार्थक रही हो पर आज तो वह निरर्थक बोझ ही है। किसी युग में अंग्रेजी का ज्ञान पश्चमी दासता का सूचक रहा हो पर आज  तो वह निश्चय ही ज्ञान -विज्ञान की प्रगति के लिए आवश्यक है। ऐसी ही अनेक धारणायें और मान्यतायें परिवर्तन की मांग करती हैं। अनावश्यक पशु बलि , अपढ़ ओझाओं और तान्त्रिकों में अन्ध विश्वास , प्रकृति के स्वाभाविक कार्यक्रम से होने वाले परिवर्तनों को किसी विशिष्ट मानव समूह के कर्मों का फल बताना यह सभी बातें वैज्ञानिक चिन्तन पर ही अपना खरा -खोटापन साबित कर सकती हैं। पुरातन संस्कृति को भी नयी शक्ति पाने के लिये नये आसवों की आवश्यकता है। माटी नूतन और पुरातन का आदर्श समन्वय चाहती है। घर के बड़े -बूढ़े विवेक पूर्ण मार्गदर्शन करते रहें और उनके बताये राह पर ओज भरी तरुणाई चलती रहे तभी किसी गृह का संचालन सफल माना जाता है। हन्दी भाषा -भाषी क्षेत्रों के लिये भी अपने प्राचीन और कालजयी मूल्यों की अगुवाई में नवीन नैतिक अवधारणाओं को शामिल करना होगा तभी निकट भविष्य में प्रगति की गाथा लिखी जाने लायक सफलता मिल सकेगी। हजारों वर्षों के लम्बे इतिहास में लाखों वर्ग मील फैले भारतीय महाद्वीप में बहुत कुछ ऐसा भी है जो शायद अब निरर्थक हो गया है। हम उसे बटोर कर एक कोने में रख देंगे। जो नयी विचार सामग्री हमें आज जीवन यापन के लिये आवश्यक लग रही है उसे हम स्वीकार कर एकत्रित करेंगें। पर समय परिवर्तन शील है। कोने में बटोर कर रखे हुये साज सामान में से कौन सी चीज कल हमारे काम आ जाये ऐसा ध्यान भी हमें रखना होगा। इसी प्रकार आज के सहेजे मूल्यों में आने वाले दिनों में कौन सा मूल्य निरर्थक हो जाय ऐसा मानने के लिए भी हमें तैयार रहना होगा।
                                                यूनानी साहित्य की बहुचर्चित गाथाओं में सिसीफस की कहानी से आप परिचित ही होंगे।सिसीफस पहाड़ की चोटी पर बार -बार पत्थर के एक विशाल टुकड़े को गोलाकार बनाकर टिकाना चाहता था। आकार देनें में तो उसे सफलता मिल जाती थी पर ज्यों ही वह गोलाकार विशाल प्रस्तर की निर्मित चोटी पर टिकाता वह वर्तुल आकार लुढककर नीचे पहुँच जाता ।  जीवन भर सिसीफस इस कठिन कार्य में लगा रहा पर हर बार उसका यह प्रयास लुढ़कन की राहों से चलकर तलहटी पर पहुँच गया। आज के युग में सिसीफस को विशालकाय वर्तुल प्रस्तर खण्ड को टेक्नोलोजी की मदद से उत्तुंग शिखर पर टिका देने की सफलता मिल जाती। बीते कल की कल्पना उड़ाने आज का ठोस सत्य बन रही हैं। माटी ईश्वर की अपार कृपा में विश्वाश रखती है और माटी परिवार प्रभु से माँगता है कि उसके द्वारा तराशी गयी शब्द आकृतियाँ आदर्श की ऊँचाइयों पर स्थायी रूप से टिकी रहें।'माटी परिवार 'सम्पूर्ण हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र को अपनी बाहों में समेट  ले।

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन -विहंगावलोकन


सामान्यत : " इतिहास " शब्द से राजनीतिक व सांस्कृतिक  इतिहास का ही बोध होता है ,किन्तु वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से सम्बन्ध न हो । अत : साहित्य भी इतिहास से असम्बद्ध नहीं है ।साहित्य के इतिहास में हम प्राक्रतिक घटनाओं व मानवीय क्रिया -कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक द्रष्टि से करतें हैं ।यद्यपि इतिहास के अन्य क्षेत्रों की तुलना में साहित्य का इतिहास-दर्शन एवं उसकी पद्धति भी अब भी बहुत पिछड़ी हुई है ,किन्तु फिर भी समय -समय पर इस प्रकार के अनेक प्रयास हुए हैं जिनका लक्ष्य साहित्येतिहास को भी सामन्य इतिहास के स्तर पर पहुचाने का रहा है ।
हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की परम्परा का आरम्भ उन्नीसवीं सदी से माना जाता है ।यद्यपि उन्नीसवीं सदी से पूर्व विभिन्न कवियों और लेखकों द्वारा अनेक ऐसे ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी जिनमें हिन्दी के विभिन्न कवियों के जीवन- वृत्त एवं कृतियों का परिचय दिया गया है ,जैसे -चौरासी वैश्वन की वार्ता .दो सौ बावन वैश्वन की वार्ता ,भक्त माल ,कवि माला ,आदि -आदि किन्तु ,इनमें काल -क्रम ,सन -संवत आदि का अभाव होने के कारण इन्हें इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती । वस्तुत :अब तक की जानकारी के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास -लेखन का सबसे पहला प्रयास एक फ्रेच विद्वान गासां द तासी का ही समझा जाता है जिन्होनें अपनें ग्रन्थ में हिन्दी और उर्दू के अनेक कवियों का विवरण वर्ण -क्रमानुसार दिया है।इसका प्रथम भाग 1839 ई o में तथा द्वितीय 1847 ई o में प्रकाशित हुआ था। 1871 ई o में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ ,जिसमें इस ग्रन्थ को तीन खण्डों में विभक्त करते हुए पर्याप्त संशोधन -परिवर्तन किया गया है । इस ग्रन्थ का महत्त्व केवल इसी द्रष्टि से है कि इसमें सर्व प्रथम हिन्दी -काब्य का इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है तथा कवियों के रचना काल का भी निर्देश दिया गया है ।अन्यथा कवियों को काल -क्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्णक्रम से प्रस्तुत करना ,काल -विभाजन-एवं युगीन प्रवृत्तियों के विवेचन का कोई प्रयास न करना ,हिन्दी के कवियों में इतर भाषाओं के कवियों को घुला -मिला देना आदि ऐसी त्रुटियाँ हैं जिनके कारण इसे "इतिहास "मानने में संकोच होता है ।फिर भी ,उनके ग्रन्थ में अनेक त्रुटियों व न्यूनताओं के होते हुए भी हम उन्हें हिन्दी -साहित्येतिहास -लेखन की परम्परा में ,उसके प्रवर्तक के रूप में ,गौरव पूर्ण स्थान देना उचित समझते हैं ।
तासी की परम्परा को आगे बढ़ाने का श्रेय शिवसिंह सेंगर को है ,जिन्होंनें "शिव सिंह सरोज "(1883)में लगभग एक सहस्त्र भाषा-कवियों का जीवन -चरित्र उनकी कविताओं के उदाहरण सहित प्रस्तुत करनें का प्रयास किया है ।कवियों के जन्म काल ,रचना काल आदि के संकेत भी दिये गये हैं ,यह दूसरी बात है कि वे बहुत विश्वशनीय नहीं हैं ।इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ का भी महत्त्व अधिक नहीं हैं ,किन्तु फिर भी इसमें उस समय तक उपलब्ध हिन्दी -कविता सम्बन्धी ज्ञान को संकलित कर दिया गया है ,जिससे परवर्ती इतिहासकार लाभ उठा सकते हैं -इसी द्रष्टि से इसका महत्त्व है ।
सन 1888 में ऐशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में जार्ज ग्रियर्सन द्वारा रचित 'The Modern vernacular of Hindustan' का प्रकाशन हुआ ,जो नाम से इतिहास न होते हुए भी सच्चे अर्थों में हिन्दी -साहित्य का पहला इतिहास कहा जा सकता है ।इस ग्रन्थ के अन्तर्गत ग्रियर्सन नें हिन्दी -साहित्य का भाषा की द्रष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए स्पष्ट किया है कि इसमें न तो संस्कृत -प्राक्रत को शामिल किया जा सकता है और न ही अरबी -फारसी -मिश्रित उर्दू को ।ग्रन्थ को काल खण्डों में विभक्त किया गया है तथा प्रत्येक अध्याय काल विशेष का सूचक है।प्रत्येक काल के गौड़ कवियों का अध्याय विशेष के अंन्त में उल्लेख किया गया है।विभिन्न युगों की काब्य प्रवृत्तियों की व्याख्या करते हुए उनसे सम्बधित सांस्कृतिक परिस्थतियों और प्रेरणा -स्रोतों के भी उद्दघाटन का प्रयास उनके द्वारा हुआ है ।
मिश्र बन्धुओं द्वारा रचित 'मिश्र बन्धु 'चार भागों में विभक्त है ,जिसके प्रथम तीन भाग 1913 ई o में प्रकाशित हुआ।इसे (ग्रन्थ को )परिपूर्ण एवं सुव्यवस्थित बनाने के लिए उन्होंनें इसमें लगभग पाँच हजार कवियों को स्थान दिया है तथा ग्रन्थ को आठ से भी अधिक काल खण्डों में विभक्त किया है ।इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें कवियों के विवरणों के साथ -साथ साहित्य के विविध अंगों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है तथा अनेक अज्ञात कवियों को प्रकाश में लाते हुए उनके साहित्यिक महत्त्व को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।आधुनिक समीक्षा- द्रष्टि से यह ग्रन्थ भले ही बहुत सन्तोष जनक न हो ,किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इतिहास लेखन की परम्परा को आगे बढ़ाने में इसका महत्त्व पूर्ण योगदान है |
हिन्दी साहित्येतिहास की परम्परा में सर्वोच्च स्थान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास '(1929)को प्राप्त है ,जो मूलत :नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'हिन्दी शब्द सागर 'की भूमिका के रूप में लिखा गया था तथा जिसे आगे परिवर्धित एवं विस्तृत करके स्वतन्त्र पुस्तक का रूप दिया गया\ इस ग्रन्थ में आचार्य शुक्ल नें साहित्येतिहास के प्रति एक निश्चित व सुस्पष्ट द्रष्टिकोण का परिचय देते हुये युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में साहित्य के विकास क्रम के व्यवस्था करनें का प्रयास किया इस द्रष्टि से कहा जा सकता है कि उन्होंनें साहित्येतिहास को विकासवाद और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का परिचय दिया।साथ ही उन्होंनें इतिहास के मूल विषय को आरम्भ करनें से पूर्व ही काल -विभाग के अन्तर्गत हिन्दी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार सुस्पष्ट काल -खण्डों में विभक्त करके अपनी योजना को एक ऐसे निश्चित रूप में प्रस्तुत कर दिया कि जिसमें पाठक के मन में शँका और सन्देह के लिये कोई स्थान नही रह जाता । यह दूसरी बात है कि नवोपलब्ध तथ्यों और निष्कर्षों के अनुसार अब यह काल विभाजन त्रुटि पूर्ण सिद्ध हो गया है ,किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अपनी अति सरलता व स्पष्टता के कारण यह आज भी बहुप्रचलित और बहुमान्य है । इस प्रकार, हम देखते हैं कि हिन्दी -साहित्य -लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनका इतिहास ही कदाचित अपने विषय का पहला ग्रन्थ है जिसमें अत्यन्त सूक्ष्म एवम व्यापक द्रष्टि ,विकसित द्रष्टिकोण ,स्पष्ट विवेचन -विश्लेष्ण व प्रामाणिक निष्कर्षों का सन्निवेश मिलता है। इतिहास लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का महत्व सदा अक्षुण रहेगा ,इसमें कोई सन्देह नहीं।
आचार्य शुक्ल के इतिहास -लेखन के लगभग एक दशाब्दी के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस क्षेत्र में अवतरित हुए। उनकी 'हिन्दीसाहित्य की भूमिका ' क्रम और पद्धति की द्रष्टि से इतिहास के रूप में प्रस्तुत नहीं है ,किन्तु उसमें प्रस्तुत विभिन्न स्वतन्त्र लेखों में कुछ ऐसे तथ्यों और निष्कर्षों का प्रतिपादन किया गया है जो हिन्दी -साहित्य के इतिहास -लेखन के लिये नयी द्रष्टि ,नयी सामग्री और नयी व्याख्या प्रदान करते हैं\ जहाँ आचार्य शुक्ल की ऐतिहासिक द्रष्टि युग की परिस्थितियों को प्रमुखता प्रदान करती है ,वहाँ आचार्य द्विवेदी नें परम्परा का महत्व प्रतिष्ठित करते हुए उन धारणाओं को खण्डित किया जो युगीन प्रभाव के एकांगी द्रष्टिकोण पर आधारित थीं ।'हिन्दी साहित्य की भूमिका के अनन्तर आचार्य द्विवेदी की इतिहास -सम्बन्धी कुछ और रचनायें भी प्रकाशित हुई। हिन्दी साहित्य उद्दभव और विकास ,हिन्दी साहित्य का आदि काल आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास की -विशेषत : मध्य कालीन काब्य के स्रोतों व पूर्व -परम्पराओं के अनुसन्धान तथा उनकी अधिक सहानुभूतिपूर्ण व यथा तथ्य व्याख्या करने की द्रष्टि से आचार्य द्विवेदी का योगदान अप्रतिम है।
आचार्य द्विवेदी के ही साथ -साथ इस क्षेत्र में अवतरित होने वाले एक अन्य विद्वान डा o राम कुमार वर्मा हैं ,जिनका 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ' सन 1938 में प्रकाशित हुआ था।इसमें 693 ई o से 1693 ई o तक की कालाविधि को ही लिया गया है।सम्पूर्ण ग्रन्थ को सात प्रकरणों में विभक्त करते हुए सामान्यत : आचार्य शुक्ल के ही वर्गीकरण का अनुसरण किया गया है।डा o वर्मा ने स्वयम्भू को ,जो कि अपभ्रंश के सबसे पहले कवि हैं ,हिन्दी का प्रथम कवि माना है और यही कारण है कि उन्होंने हिन्दी -साहित्य का आरम्भ 693 ई o से स्वीकार किया है ।ऐतिहासिक व्याख्या की द्रष्टि से यह इतिहास आचार्य शुक्ल के गुण -दोषों का ही विस्तार है ,कवियों के मूल्याँकन में अवश्य लेखक नें अधिक सह्रदयता और कलात्मकता का परिचय दिया है ।अनेक कवियों के काव्य-सौन्दर्य का आख्यान करते समय लेखक की लेखनी काव्यमय हो उठी है ,जो कि डा o वर्मा के कवि -पक्ष का संकेत देती है।शैली की इसी सरसता व प्रवाहपूर्णता के कारण उनका इतिहास पर्याप्त लोकप्रिय हुआ है।
विभिन्न विद्वानों के सामूहिक सहयोग के आधार पर लिखित इतिहास -ग्रन्थों में 'हिन्दी -साहित्य 'भी उल्लेखनीय है ,जिसका सम्पादन डा o धीरेन्द्र वर्मा ने किया है।इसमें सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य को तीन कालों -आदि काल ,मध्य काल ,एवं आधुनिक काल -में विभक्त करते हुए प्रत्येक काल की काब्य -परम्पराओं का विवरण अविछिन्न रूप से प्रस्तुत किया गया है। कुछ दोषों के कारण इस ग्रन्थ की एक रूपता ,अन्विति एव संश्लेषण का अभाव परिलक्षित होता है ,फिर भी ,हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परम्परा में इसका विशिष्ट स्थान है।
उपर्युक्त इतिहास -ग्रंथों के अतिरिक्त भी अनेक -शोध प्रबन्ध और समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखे गए हैं जो हिन्दी साहित्य के सम्पूर्ण इतिहास को तो नहीं ,किन्तु उसके किसी एक पक्ष ,अंग या काल को नूतन ऐतिहासिक द्रष्टि और नयी वस्तु प्रदान करते हैं ।ऐसे शोध- प्रबन्ध या ग्रन्थ हैं -डा o भगीरथ मिश्र का हिन्दी काव्य शास्त्र का इतिहास ,डा o नगेन्द्र की रीतिकाव्य की भूमिका ,श्री विश्व नाथ प्रसाद मिश्र का हिन्दी साहित्य का अतीत ,डा o टीकम सिंह का हिन्दी वीर काव्य ,डा o लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय का आधुनिक काल सम्बन्धी शोध प्रबन्ध आदि ऐसे शताधिक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं जिनके द्वारा हिन्दी साहित्य के विभिन्न काल खण्डों ,काव्य रूपों ,काव्य धाराओं ,उपभाषाओं के साहित्य आदि पर प्रकाश पड़ता है ।अत :आवश्यकता इस बात की है कि इन शोध -प्रबन्धों में उपलब्ध नूतन निष्कर्षों के आधार पर अद्यतन सामग्री का उपयोग करते हुए नए सिरे से हिन्दी -साहित्य का इतिहास लिखा जाये । ऐसा करने के लिए आचार्य शुक्ल द्वारा स्थापित ढाँचे में आमूल -चूल परिवर्तन करना पड़ेगा क्योंकि वह उस सामग्री पर आधारित है जो आज से पैसठ सत्तर वर्ष पूर्व उपलब्ध थी ,जबकि इस बीच बहुत सी नयी सामग्री प्रकाश में आ गयी है ।
इस प्रकार गासां द तासी से लेकर अब तक की परम्परा के संक्षिप्त सर्वक्षण से यह भली भांति स्पष्ट हो जाता है कि लगभग एक शताब्दी तक की ही अवधि में हिन्दी -साहित्य का इतिहास लेखन ,अनेक द्रष्टियों ,रूपों और पद्धतियों का आकलन और समन्वय करता हुआ संतोषजनक प्रगति कर पाया है। इतना ही नहीं कि हमारे लेखकों नें विश्व -इतिहास -दर्शन के बहुमान्य सिद्धान्तों और प्रयोगों को अंगीकृत किया है ,अपितु उन्होंने ऐसे नए सिद्धान्त भी प्रस्तुत किये हैं जिनका सम्यक मूल्याँकन होने पर अन्य भाषाओं के इतिहासकार भी उनका अनुसरण कर सकते हैं ।
                                                                        प्रस्तुति गिरीश त्रिपाठी