प्रेम क्या है ,अगर इस बहस में पड़ा जाये तो मै ही क्या कई लोग भी घंटो विचार के बाद अलग अलग निष्कर्ष पर ही पहुचेंगे , पर मै जिस निष्कर्ष पर पंहुचा सिर्फ उसकी बात करना चाहूँगा , मेरे विचार में प्रेम ईश्वर द्वारा रचित कोई भाव नहीं अपितु स्वयं ईश्वर ही है ,कुछ मित्रो को शायद ईश्वर के अस्तित्व से भी काफी प्रश्न होंगे पर उनके लिए मेरा उत्तर सिर्फ इतना है की आप प्रेम को ही ईश्वर मान लीजिये। तर्क वितर्क से परे होता है प्रेम और ईश्वर का भी आधारभूत तत्व भी तर्क वितर्क सभी से परे यही है. अब बात करते है की समस्या कहा आती है ,कुछ लोगो का कहना की आज कल सच्चा प्रेम नहीं रह गया है ,लोग धोखा करते है , बस जरा ध्यान से देखा जाये तो समस्या की जड़ आपके सामने ही दिख रही है ,लोग धोखा करते है , जैसे हम ईश्वर को खोजने के लिए भटकते रहते है ,तरह तरह के कर्म करते है ,जबकि ईश्वर स्वयं हमारे अन्दर ही है,उसी प्रकार हम प्रेम को दूसरो में खोजते है ,खुद में उसे खोजने वाले विरले ही है और हम अपना दोष दूसरो पे दे देते है की आज कल सच्चा प्रेम रह ही नहीं गया। कभी स्वयं के बारे में भी विचार करना बहुत आवश्यक है की क्या हम प्रेम की कामना करने के अतिरिक्त प्रेम करते भी है ? न्यूटन के गति विषयक तृतीय नियम "क्रिया प्रत्क्रिया के नियम से " इसे वैज्ञानिक आधार दिया जा सकता है। जब आप किसी को प्रेम करेंगे ही नहीं तो कौन आपको प्रेम करेगा ? आखिर आपको क्रिया तो करनी ही होगी।
मै खुद एक प्रश्न से हमेशा घिरा रहता हु की आखिर प्रेम की पहचान कैसे करे ,ये हो क्या सकता है ,आखिर ईश्वर के भी अनेक रूप होते है ,"हरी अनंत हरी कथा अनंता " तो मैंने बड़े विचार के बाद ये पाया की जहा भी स्वयं को भूलने अर्थात स्वयं का हित ,स्वयं का आधार, वस्तुतः स्वयं को ही त्यागने की प्रवत्ति पाई जाये वहा प्रेम हो सकता है। प्रेम का दूसरा नाम ही है त्याग ,बिना त्याग के प्रेम की कल्पना भी सिर्फ उसी प्रकार है जैसे ये कल्पना करना की प्यासा कुए के पास न जाकर ,कुआ उसके पास आएगा . अगर आप त्याग नहीं कर सकते तो प्रेम भी नहीं कर सकते। क्योकि प्रेम त्याग की मांग करता है ,खुद को भूलने की मांग करता है। मै ये नहीं कहता की आप अपने हितो को त्याग दे ,पर अगर आप अपना हित कुछ यु देखने लगे की आप त्याग को भूल ही गए तो आप प्रेम को पा ही नहीं सकते। एक माँ स्वयं के हितो को छोड़ कर अपनी संतान का भला चाहती है,बस यही प्रेम है ,यही स्वर्गिक भाव है ,यही ईश्वर है , कइयो उद्धरण है , किसी को अपनी मात्र भूमि से प्रेम है ,कोई प्रकृति से प्रेम करता है ,किसी को किसी और से प्रेम है ,पर सिर्फ एक बात इन सब में पाई जाती है ,
जिससे प्रेम है उसके लिए त्याग भी है। और जब हम प्रेम करना सीख जाते है तो हमें प्रेम मिलता भी है ,पर एक बात यहाँ पर ध्यान देने योग्य है की अगर आप स्वार्थ से ग्रस्त हो कर कहेंगे की भाई हम तो प्रेम करते है तो बस तृतीय नियम आपके लिए वैसी ही प्रतिक्रिया लायेगा। वस्तुतः ये सोच कर की देखो प्रेम करेंगे तो प्रेम मिलेगा लो प्रेम करते है आप प्रेम को समझ ही नहीं सकते क्यों की यहाँ ये मिलेगा जैसा सब्द आ गया जो स्वार्थ की पहचान है और बस यही से फिर पूरी बात का विरोध होने लगता है। तो प्रेम करिए इसके बिना आप अधूरे ही रहेंगे ,जरा विचार करियेगा।
इस गंग प्रेम की प्रखर धार में ,
बह जाता ये चेतन मन ...
होती है पीड़ा कष्ट बहुत ,
पर मिलता है अदभुत आनंद ..
प्रेम के कारन जग है जीवित ,
प्राण भरे ये है अमृत ..
ये गूड रहस्यों की है माला ,
मन के सागर की उदंड तरंग ...
प्रेम नहीं कोई कोमल पथ ,
है तप से सिंचित एक उपवन ..
नहीं यहाँ स्थान कटुता का ,
भावो का होता वंदन ..
करुणा है आधार प्रेम का ,
त्याग है इसके कण कण में ..
मानव भी बन जाये ,देवो के तुल्य
बस जाये जो ये मन में ....
इस गंग प्रेम की प्रखर धार में ,
बह जाता ये चेतन मन ...
"अमन मिश्र "