एक
रोज जब गीले मौसम की हथेली पर मधुमास लिखकर पतझर जा रहा था और शीत के
बादलो को धुनकर धूप बुन रही थी सूरज का लिहाफ, उस रोज सान्ध्य रवि के पास
बैठा एक कवि बोता रहा सपनो के बीज. धानी होती रही कागज की धरती. जीवन की
चौख़ट पर जब जब ये मधुमास आया तब तब तुम्हे याद किया मलयानिल से बतियाती
"जूही की कली ने" तुम्हे याद किया था गंगा के घाट पर ठहरी "महुआ गन्ध" ने.
तुम्हे याद किया था "बावरी बनवेला" ने तुम्हारा रास्ता देखती रही नर्गिस.
ठूंठ हुये कचनार पर छाया हुआ वसंत भी ढूंढता रहा तुम्हारी सीपी आंखे...
लेकिन मुझे तो वो पूरा मधुमास गढना था जो राग विराग हंसी तंज दुलार और
दुत्कार के लम्हो मे बंटी जिन्दगी जी कर चला गया, फिर कभी ना आने के लिये.
उस सूरज को कलम की रोशनी मे कैसे उतारू? लाख लाख शब्द जुटा कर भी कहा पूरी
होगी वो तस्वीर....
तो क्या कूची उठा लू
कौन है वो?
उसे अपोलो कहू
निराला कहू ,
सूर्यकांत कहू
सुर्ज कुमार कहू
बडभागी था वो कमरा जहा भरे जाने के इंतजार मे मुद्दतो से खाली पडे थे मिट्टी बरतन. दीवारो मे चूहे के बिल नमक , मिर्च की पुडियो और प्याज की गांठो को रखने के काम मे साभार लाये जा रहे थे. उसी कमरे मे पतझर के साथ वसंत रहता था. उसी तरह जैसे ओस के साथ चान्दनी दिनके साथ रात. जीवन की तमाम विपन्नताओ की बीच मन की सम्पन्नताओ के साथ महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला".
.....अहा जिन्दगी(उपमा ऋचा) से
तो क्या कूची उठा लू
रंग दू रंगो मे निराला को
आदमियो मे उस सबसे आला को?
किंतु हाय...
कैसे खीचू, कैसे बनाऊ उसे
मेरे पास कोई मौलिक रेखा भी तो नही है?
उधार रेखाये कैसे लू,
इसके उसके मन की...
तो क्या करू
कैसे खीचू कैसे बनाऊ
लाख शब्दो के बराबर
एक तसवीर (भवानी प्रसाद मिश्र)
कहा
से शुरु करू उस वसंत की कहानी दारगंज की तंग गलियो से, जहा सवा रूपये
वाले बाटा के फ्लीट उन बिवाईयो वाले कदमो के साथ घूमते या फिर उन बेशऊर
दुकानो से जहा कलम थामने वाले वे हाथ मुट्ठी मे दुअन्नी दबाये लहसुन और
मिर्च ढूंढते थे. सर पर रखे उस पुराने ऊनी टोप से या बदन पर चढे उस फटे कोट
से जो दिन मे लिबास और रात मे लिहाफ होता था. या फिर उस सीले, अन्धेरे
कमरे से जो आसरा था उस वसंत का... कहा वो कमरा वो बरसो से बिना धुला रूठा
रूठा आंगन, वो बिना पल्लो की आलमारी, वो औन्धी पडी 4-6 किताबे, वो मैल चढे
दरवाजे और कहा ग्रीक देवता जैसी दिव्य प्रतिमा.कौन है वो?
उसे अपोलो कहू
निराला कहू ,
सूर्यकांत कहू
सुर्ज कुमार कहू
बडभागी था वो कमरा जहा भरे जाने के इंतजार मे मुद्दतो से खाली पडे थे मिट्टी बरतन. दीवारो मे चूहे के बिल नमक , मिर्च की पुडियो और प्याज की गांठो को रखने के काम मे साभार लाये जा रहे थे. उसी कमरे मे पतझर के साथ वसंत रहता था. उसी तरह जैसे ओस के साथ चान्दनी दिनके साथ रात. जीवन की तमाम विपन्नताओ की बीच मन की सम्पन्नताओ के साथ महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला".
.....अहा जिन्दगी(उपमा ऋचा) से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें