बुधवार, 25 जुलाई 2012

विदा एक सेनानी को !

                                 हमारी आजादी की उम्र बढ़ रही है और इसके लिए लड़ने वाले लोगों की संख्या कम हो रही है। हाँ एक और सेनानी कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल भी विदा हो गयीं. आजाद हिंद फौज की रानी   झाँसी  रेजीमेंट की  कमांडर , कानपूर की  वयोवृद्ध डॉक्टर और पूरे शहर के लिए माँ बनी रहीं खास तौर पर गरीब और असहाय इंसानों के लिए तो दवा से लेकर रुपये पैसे तक जैसे भी सहायता कर सकती थी करती रहीं। उनके क्लिनिक की आया या नर्स कभी उनके लिए वर्कर नहीं रही बल्कि उनकी बेटियां रहीं और सभी  से वे बच्चों की तरह ही प्यार करती रहीं। उनके मरीज उनको मसीहा समझते  थे और वह थी भी मसीहा .






                                 













             
   

उनका जन्म 24 अक्टूबर 1914 को मद्रास में  एस स्वामीनाथन स्वामीनाथन और अन्ना कुट्टी के घर में हुआ था। 1938 में मद्रास  मेडिकल  कॉलेज से एम बी बी एस किया  था। उन्होंने डाकटरी के पेशे में वाकई भगवान की तरह से ही किया और उस धर्म को निभाया जिसे डॉक्टर अपने पेशे को शुरू करने से पहले शपथ लेते हैं। वे गरीबों और असहायों के इलाज में सदैव ही निःस्वार्थ रूप से लगी रहीं। फिर चाहे युद्ध की विभीषिका में घायल हुए लोग हों या दंगों  में हुए घायलों  की सेवा  और  इलाज का मौका हो या फिर आजाद हिंद फौज के सैनिकों के इलाज का मौका हो। 
                        जब  सुभाष चन्द्र बोस ने 19 फरवरी 1942 में आजाद हिंद फौज का गठन किया और दो जुलाई 1943 को नेताजी ने  सिंगापुर आकर  जो भाषण दिया तो उससे डॉ सहगल इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने उनके आह्वान पर आजाद हिंद फौज में शामिल होने का निर्णय ले लिया . नेताजी ने उसके साहस और लगन को देख कर उनको रानी झाँसी रेजिमेंट का कमांडर बना दिया. उनकी सक्रियता से ही आजाद हिंद फौज में महिलाओं की संख्या में वृद्धि  हुई.  वे नेताजी के कंधे से कन्धा मिला कर काम करती रहीं और उनकी रेजिमेंट ने अंग्रेजों से भी दो चार हाथ किये और गिरफतार करके भारत लायीं गयीं.
                  उन्होंने 1946 में   आजाद हिंद फौज के ही प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और फिर कानपुर को अपनी कर्म स्थली बना लिया. वे सोच से वामपंथी थी लेकिन उनका स्वभाव गाँधीवादी था . वे मजदूरों और गरीबों के लिए संघर्ष ही नहीं  करती रही बल्कि उनके लिए बहुत कुछ करती रही. कोई गरीब महिला उनके क्लिनिक आई नहीं कि  उससे फीस न  लेने का निर्देश और  ही दवा भी  मुफ्त  देने की हिदायत भी देती थीं। 

मेरी उनसे मुलाकात एक मरीज के रूप में ही हुई थी लेकिन उनके चेहरे का तेज और बिखरती हुई ममता के  के कारण ही वे महिलाओं की पहली पसंद थीं. उन्होंने और डॉक्टर की तरह से प्रसव करने में सर्जरी को हथियार बनाने के स्थान पर  सदैव ही नॉर्मल डिलीवरी को प्राथमिकता देती थी. वे मानवता की पुजारिन थी. उनके जीवन के इतने सारे किस्से हें कि शायद उनके साथ रहने वालों के एक एक अनुभव भी बटोरे जाय तो जो छवि सामने आती है वह मनुष्य के रूप में उनको पूज्यनीय बनाता था.
                   सिर्फ दो वाकये सुनने को मिले जो उनकी महानता को प्रदर्शित करते हें - उनके एक माकपा  कार्यकर्ता जटाशंकर श्रीवास्तव की मृत्यु के बाद उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही ख़राब थी इसकी जानकारी जैसे ही उनको हुई उन्होंने वही उनके घर पर ही सप्ताह में एक दिन बैठने का निर्णय लिया और वहाँ बैठने पर जो भी फीस उन्हें मिलती थी वह वे उनकी पत्नी को दे देतीं. मानवता कि ऐसी मिशाल और भी हें. एक बार एक रैली से लौटते हुए बस से गिरकर उनके एक कार्यकर्ता की मृत्यु हो गयी और ये मानी हुई बात है कि ऐसे लोग बहुत अमीर नहीं हुआ करते हें. उसके लिए उन्होंने उनके इलाके में ही जाकर सप्ताह में एक दिन बैठने के निर्णय लिया और उस कमाई को उस कामरेड की पत्नी को देती रहीं. ये सेवा भावना और दया का भाव वह भी निःस्वार्थ रूप से की गयी सेवा का कोई दूसरा उदाहरण मिलता ही नहीं है.
                      जीवन भर मानव मात्र की सेवा करती रहीं और फिर न रहने पर भी आँखें अपनी दान कर दी , जिससे दो लोगों को दुनियाँ देखने का अवसर मिलेगा. अपने पार्थिव शरीर को मेडिकल कॉलेज को विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए दान कर दिया. सब कुछ यही से लिया और यही देकर चल दीं.  ऐसे इंसान सदियों में पैदा होते हें. ऐसी महान आत्मा को मेरा बार बार नमन .