शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

क्या कहा मर्द हूँ मै, फौलादी छाती है , फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?

क्या कहा मर्द हूँ मै ,फौलादी छाती है
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
इसलिए कि मैंने साथ सत्य का लिया सदा ,
पर पाया जग का सत्य सबल की माया है ।
नैतिकता ताकत के पिंजड़े में पलती है ,
आदर्श छलावे की सम्मोहक छाया है ।
मै बुद्ध ,गान्धी को पढ़ गलती कर बैठा ,
सोचा दरिद्र नारायण हैं ,पग पूजूंगा ।
अपनी मछली वाली चट्टानी बाहों में ,
ले खड्ग सत्य का अनाचार से जूझूंगा ।
थे कई साथ जो उठा बांह चिल्लाते थे ,
समता का सच्चा स्वर्ग धरा पर लाना है ।
सोपान नये जय- यात्रा के रचने होंगे,
गांधी दर्शन का लक्ष्य मनुज को पाना है ।
पर चिल्लाकर हो गया बन्द उन सबका मुख ,
इस लिये कि उनके मुँह को दूजा काम मिला।
हलवा- पूड़ी के बाद ,पान से शोभित मुख ,
दैनिक पत्रों में छपा झूठ का नाम मिला ।
वे कहते अब भारत से हटी गरीबी है ,
रंगीन चित्र अब अन्तरिक्ष से आयेगें ।
अब उदर-गुहा में दौड़ न पायेंगे चूहे ,
भू कक्षा में वे लम्बी दौड़ लगायेंगे।
वे कहते बहुतायत की आज समस्या है ,
भण्डार न मिल पाते भरने को अब अनाज।
सब भूमि- पुत्र लक्ष्मी -सुत बनकर फूल गये ,
दारिद्र्य अकड कर बैठ गया है पहन ताज
छह एकड़ का आवास उन्हें अब भाता है ,
गृह- सज्जा लाखों की लकीर खा जाती है ।
हरिजन -उद्धार मन्च से अब भी होता है ,
हाँ बीच -बीच में अपच जँभाई आती है ।
मै आस -पास गिरते खण्डहर हूं देख रहा ,
सैय्यद चाचा का कर्जा बढ़ता जाता है।
प्रहलाद सुकुल ने खेत लिख दिये मुखिया को,
धनवानों का सूरज नित चढ़ता जाता है ।
चतुरी की बेटी अभी ब्याहने को बैठी ,
पोखरमल के घर रोज कोकिला गाती है।
क्या कहा मर्द हूँ मै फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रूलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
कल के जो बन्धु -बान्धव थे ,थे सहकर्मी ,
सत्ता का देने साथ द्रोण बन भटक गये।
है उदर- धर्म पर बिका धर्म मानवता का ,
सच्चाई के स्वर विवश गले मे अटक गये।
युग़- पार्थ मोह से ग्रस्त खडा है धर्म छेत्र ,
है उसका क्या कर्तब्य न अब तक भान हुआ।
गाण्डीव शिथिल सो रहा पार्ष्व में अलसाया ,
चुप है विवेक का कृष्ण न गीता ज्ञान हुआ।
ताली पर देकर ताल थिरकते हैं जनखे ,
सत्ता- कीर्तन अब अमर काब्य कहलाता है।
भाषा भूसा बन गयी ,बीन भैंसे सुनती ,
हर क्षीण-वीर्य गजले गा मन बहलाता है।
वर्ण्-युक्त देह सतरंगी साड़ी से ढककर ,
कविता कामाक्षी कृमि बटोरे कर लाती है।
क्या कहा मर्द हूँ मै, फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?

रविवार, 25 नवंबर 2012

प्रतिभा किसी देश काल से न बंधकर सम्पूर्ण मानव जाति को सम्बोधित करती है

                            कितनी बार ऐसा होता है कि हम भीड़ -भाड़ से हटकर एकान्त में बैठना चाहते हैं ।तपस्वी ,साधु और गुफावासी ऋषि -मुनि एकान्त  में रहकर ही परम सत्य की खोज करते है ।अपने अपने मापदण्डों के अनुसार वे इस परम सत्य का साक्षात्कार भी कर लेते हैं ।विश्व की हर सभ्यता में एक काल ऐसा रहा है जब अन्तिम सत्य पा जाने का दावा करने वाले खोजियों ने मनुष्य को संसार छोड़कर मुक्ति ,मोक्ष या अन्तिम सत्य की तलाश में लग जाने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया ।एकान्तवास कर सत्य अन्वेषण की इस पुकार को मिथ्या कह कर नकार देना अनुचित ही होगा ।पर इस सत्य को भी हमें स्वीकार करना ही होगा कि मानव सभ्यता के लगभग सभी टिकाऊ मूल्य जो सभ्यता के आधार स्तंम्भ बने हैं सामूहिक जीवन से ही प्राप्त हुये हैं ।एकान्तवासियों के लिए भी सामाजिक सम्पर्क की आवश्यकता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना मनन चिन्तन के लिये एकान्त  की।सुदूर अतीत में शायद कभी ऐसा रहा हो जब अकेला व्यक्ति अपने भरण पोषण के लिये प्रकृति संसाधन एकत्रित  कर लेता हो पर बिना हम जोलियों के सहवास के उसे जीवन निरर्थक ही लगता होगा।विगत के सन्दर्भ आज उतने सटीक नहीं हैं और अब हम एकान्त वास की कल्पना अपने जीवन के उन प्राईवेट क्षणों से जोड़ सकते है जब हम दिन के चौबीस घन्टों में अपने निजी आवासों पर होते हैं ।पारिवारिक जीवन भी विशाल मानव समुदाय से अलग हटकर अक प्रकार का एकान्तवास ही है ।जो हमें जीवन के बड़े सत्यों की तलाश में प्रवृत्त करता है ।समाज शास्त्री आज एक मत से यह सिद्धांत स्वीकार कर चुके हैं कि सामूहिक  जीवन में ही मानव विकास की अजेय विजय यात्रा का सूत्रपात किया था और आज भी मानव समाज की सामाजिक भावना ही हमें विकास के लम्बे दौर में पहुंचा सकेगी ।व्यक्ति परिवार का भाग होता है ,परिवार ग्राम का ,ग्राम कबीले का ,कबीला क्षेत्र का ,क्षेत्र छोटे या बड़े राष्ट्र का और राष्ट्र छोटे या बड़े भूखण्ड का तथा भूखंडों की ईकाइयाँ अन्तर राष्ट्रीय समुदाय का।चेतना की ये सामूहिक ऊँचाइयाँ मानव विकास के सोपानो को चिन्हित करती हैं।हममें से अभी भी कुछ कबीले ,कुछ क्षेत्र या कुछ भूखण्ड अन्तर्राष्ट्रीय मानव समुदाय का एक सहज अंग नहीं बन सके हैं क्योंकि उनका चिन्तन विकास की पूरी गति नहीं प्राप्त कर सका है ।सच तो यह है की जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है उसका चिन्तन भी उतना ही बड़ा होता है।इस बड़े चिंन्तन  के लिये आधुनिक या अत्याधुनिक होना ही आवश्यक नहीं है ।ऐसा चिंतन कम से कम भारतीय संस्क्रति के प्रभात में भी देखा जा सकता है ।अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्ध कवि JohnDonneनें सत्रहवीं शताब्दी में ही कहा था "यह मत पूंछने जाओ कि चर्च का घण्टा बजकर किसकी मृत्यु की सूचना दे रहा है  वह तुम्हारी अपनी मृत्यु की सूचना है क्योंकि तुम मानव जाति का एक अविभाज्य अंग हो ।"आज विश्व का लगभग सभी शिक्षित जन समुदाय इस सत्य को स्वीकार कर चुका है भौगोलिक,क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सीमायें मात्र प्रबन्धन पटुता के लिये बनायी गयी हैं उन्हें मानव जाति को विभाजित करने के लिए स्तेमाल नहीं करना चाहिये।कौन ऐसा शिक्षित भारतवासी है जिसने अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा के चुनाव में गहरी दिलचस्पी न दिखायी हो।या फिर बँगला देश में शेख हसीना की जीत पर खुशी का इज़हार न किया हो।ऐसा इसलिये है कि अब किसी भी राष्ट्र के हित उसके पड़ोसी राष्ट्रों के साथ तो मिले जुले हैं ही पर साथ ही उन हितों का सम्बन्ध समस्त मानव जाति के विकास से भी है।ब्रिटेन में प्रधान मंत्री मैकमिलन ने साउथ अफ्रीका के अपने दौरे के दरमियान जब यह बात कही थी कि रंग भेद एकाध दशक में इतिहास के कूड़े कचरे में फेंक देने वाली नीति के रूप में जाना जायेगा तब साउथ अफ्रीका के श्वेत नेताओं ने उनकी तीखी आलोचना की थी।पर प्रधान मन्त्री मैकमिलन नें जिस दूर द्रष्टि का परिचय दिया था वह आज इतिहास का अमर सत्य है ।यदि कोई शिक्षित आधुनिक युवक चाहे वह किसी भी देश का हो अज यह मानता है कि रंग भेद के कारण या जाति भेद के कारण वह जन्म से ही अन्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ है तो उसे एक मानसिक रोगी ही करार दिया जायेगा ।विज्ञान ,कला ,साहित्य खेल ,शौर्य ,राजनीति अन्तरिक्ष अनुसन्धान और सत्य धर्म की खोज -कोई भी  तो ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमे हर रंग ,हर जाति ,और हर नस्ल के श्रेष्ठ लोगों नें अपनी पहचान न बनायी हो राजनीति के सत्ता गलियारों में आज उन विदेश मन्त्रियों को सच्चे राष्ट्रीय सेवको के रूप में लिया जाता है जो अपनी कुशल दूरगामी द्रष्टि के द्वारा विश्व जनमत को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं ।सच तो यह है कि अन्तरराष्ट्रीय संगठनों से जुड़े रहने वाले प्रबुद्ध मनीषी प्रशासन को विशालता का एक नया आयाम देने में समर्थ होते हैं ।भारत के मध्ययुगीन सभ्यता में कुछ समय ऐसा था जब शारीरिक श्रम की महत्ता को पूरे गौरव के साथ स्वीकार नहीं किया गया ।हिन्दी भाषा के कुछ शब्द जो कर्म वाचक संज्ञाओं या विशेषणों के रूप में प्रयोग होते थे अपना महत्व खोकर हीन भाव के प्रतीक बन गये ।भाषा के विचारकों को इन शब्दों को नयी प्रान्जलता देकर फिर से सार्थक ऊचाइयों पर पहुचाने का प्रयास करना चाहिये ।जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के शोधार्थिओं ने कुछ आवश्यक काम किया है ।माटी इस दिशा में किये जा रहे प्रयत्नों की तलाश में है और भाषा शास्त्रियों से संपर्क साधे हुये है ।सार्थक सामाजिक श्रम से जुड़े कुछ समुदाय स्वयंम भी इस दिशा में प्रयत्न शील हैं ।उनके प्रयत्नों को एक वैज्ञानिक आधार देने की आवश्यकता है ।गहरी सूझ बूझ वाले माटी के पाठक इस बात से भली भाँती परचित होंगे की हम अपने लेखों और रचनाओं में विश्व के जाने माने विचारकों की बातें उद्धत करते रहते हैं।ऐसा इस लिए है कि हम यह बताना चाहते हैं कि अपने सर्वोत्कर्ष रूप में  ।माटी कई बार प्रतिभा किसी देश काल से न बंधकर सम्पूर्ण मानव जाति को सम्बोधित करती हैअपनी रचनाओं में ऐसे शब्द समूहों को भी निखारती रहती है जो अर्थ संकुचन के कारण व्यापक स्तर पर प्रयोग नहीं किये जाते ।ग्राम सभ्यता जे जुड़े कई शब्द कल तक भले ही ऊँचे कद के योग्य न माने गये हों पर आज तो उन्हें पूरे आदर के साथ स्वीकारना होगा।हलवाहा यदि हलधर होकर अपने पौराणिक प्रसंगों के कारण गरिमा मण्डित हो जाता है या पापी यदि तन्तुवाय के रूप में सार्थक वनता है तो हमें इन शब्दों का संसकारी करण करना होगा।ये मात्र सुझाव की एक द्रष्टि है।इस दिशा में भाषा विदों द्वारा कई अधिक सार्थक प्रयोग किये जा सकते हैं ।हो सकता है हमारे कुछ सफल राजनीतिज्ञ समाज के उन वर्गों से उठ कर आये हों जिन्हें भाषा की क्षेत्रीय मान्यताओं ने उपेक्षित किया हो।मुझे  विशवास है कि उनका वैदूर्य हिन्दी भाषा के शब्द संसकारी करण में भी एक भूमिका निभायेगा।

हम माटी के रचनाकार और पाठक सृजन की रहस्यमयी ईश्वरीय सृष्टि में कुछ और ज्योतिपुंज जोड़ सकेंगें?

                                            हिन्दी  भाषा में स्तरीय साहित्य का सृजन करने वाली प्रतिभा अभी तक आर्थिक निर्भरता का पायदान नहीं सहेज पायी है ।विश्वविद्यालयों में लगाई गयी पुस्तकें और सरकारी अनुदानसे संरक्षित प्रकाशनों की बात छोड़ दें तो ललित साहित्य का लेखन हिंदी में अभी भी दो जून की रोटी जुटाने में असमर्थ है।राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त करने वाली लगभग चालीस करोड़ भारतीयों की मात्रभाषा         साहित्यकारों को यदि जीवन यापन का मूलभूत आधार भी प्रदान नहीं कर पाती तो हमें कंही गहरे जाकर हिन्दी -भाषा भाषियों की मनोवैज्ञानिक  टटोल करनी होगी।आश्चर्य है कि हिन्दी भाषा -भाषी मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार अपनी मासिक आमदनी का एक प्रतिशत भी ललित साहित्य पर ब्यय करना नहीं चाहता।उसे अपनें अन्तर्मन की परिष्कृति के लिए श्रेष्ठ साहित्य की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती।वह हल्के फुल्के अखबारी चुटकुलों ,सिने तारिकाओं की प्रेम कहानियों और अपहरण और बलात्कार की नशीली खुराकों से अपने को एक भ्रामक छलना में घेर कर जीवन यापन करता रहता ह।उसे लगता ही नहीं कि भीतर का परिमार्जन उत्क्रष्ट विचारों और सर्वकालीन सांस्क्रतिक मूल्यों के विना संम्भव ही नहीं हो पाता।इसके पीछे हिंदी भाषा -भाषी प्रदेशों की भीषण गरीबी तो है ही पर साथ ही कहीं धार्मिक प्रवचनों की वाचिक परम्परा से निरंतर जुड़े रहने की अपरिहार्यता भी है ।उसे शताब्दियों से यही समझ दी जाती रही है कि धार्मिक प्रवचनों और दैनिक पूजा अनुष्ठानों से उसे आत्मदीप्ति मिल जाती है और बाकी अन्य ललित साहित्य कुछ विशेष पढ़ाकू या लिखाकू लोगों के बीच चर्चा के लिए ही लिखा जाता है।ऐसा संभवत :इसलिए भी रहा है कि परतन्त्रता के सैकड़ों वर्ष के लम्बे काल में पौराणिक कथा कहानियों और क्षेत्रीय साधुओं ,संन्तों और महन्तों के माध्यम से ही उन्हें भौतिक जीवन से परे मानव अस्तित्व के रहस्यात्मक पहलुओं से परचित कराया जाता था।स्वर्ग -नर्क,मोक्ष ,जन्म ,पुनर्जन्म ,वैभव ,दारिद्र्य ,वर्ग .वर्ण .लिंग और फेथ सभी कुछ एक बहुत पुरानी घिसी -पिटी तर्क पद्धति से भजनीकों और अर्ध शिक्षित ज्योतिषियों और पुरोहितों द्वारा सामन्य जन मानष में  भर दिए गए थे।वहां कोई तर्क नहीं था।वहां कोई प्रश्न नहीं था।वहाँ गणित की सम्पूर्ण समाधान क्षमता बतायी गयी बातों को सहज रूप से स्वीकार करनें में व्योहस्त होती थी।विपुल ब्रम्हाण्ड के विस्मय भरे रहस्य को जान लेने का अदम्य जीवट संजोये मानव मस्तिष्क की अपार क्षमता का घिसे -पिटे मार्ग के अतिरिक्त और भी कोई मार्ग हो सकता है ऐसा मानना शताब्दियों तक हिन्दी भाषा -भाषी समाज में असुरत्व की ओर बढ़ना माना जाता था।जीवन जीने की शत -शहस्त्र मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों को एक काष्ठ घेरे में बन्द  कर किसी पूर्व निश्चित लीक पर चलने की बाध्यता ने हिन्दी भाषी समाज को काफी हद तक संवेदन शून्य बना दिया।ललित साहित्य को निरर्थक समझ कर उस पर किये गए व्यय को भी कही न कहीं लीक से अलग हटकर चलना मान लिया गया। यह धारणा इतनी गहरायी से अधिकाँश हिन्दी बोलने वालों के मन में जड़ें जमा चुकी हैं कि साहित्य पर किया गया व्यय अपव्यय के रूप में स्वीकृत हो चुका है।संभ्रांन्त ,प्रतिष्ठित ,अतिशिक्षित और उच्च पदस्त हिन्दी भाषा भाषी घरों में भी हिन्दी के ललित साहित्य की श्रेष्ठ रचनायें यदा कदा ही देखने को मिलती हैं।अंग्रजी में छपी भारतीय लेखकों की भारतीय परिवेश से नितान्त कटी  हुई किस्सा कहानियां  वहाँ वहुतायत से देखने को मिलेंगी पर हिन्दी के तरुण रचनाकारों की कोई भी पुस्तक वहां मिलना शायद मुमकिन ही  नहीं है ।यह बात दूसरी है कि ऊँची कक्षाओं में लगायी गयी कुछ उपन्यास ,कहानियाँ या आलोचना -ग्रन्थ वहाँ मिल जायँ ।
                                     व्यापार में सफल होने वाले लोग या राजनीति में तिकड़म से ऊँचाई में पहुचे हुये लोग शायद यह समझते हों कि कविता ,कहानी ,उपन्यास या साहित्य की ललित विधा के अन्य प्रकार विना प्रयास के ही जन्म ले लेते हैं।उनके लिये किसी साधना या लम्बे समय की मनोवैज्ञानिक तैय्यारी की आवश्यकता नहीं होती।उन्हें यह जान लेना चाहिये कि एक श्रेष्ठ कविता ,एक श्रेष्ठ कहानी ,एक श्रेष्ठ संस्मरण ,एक श्रेष्ठ औपन्यासिक कृति,एक श्रेष्ठ निबन्ध या लिखित अभिव्यक्ति का एक और कोई श्रेष्ठ आकार एक गहरी साधना और एक लम्बे समय की माँग करता है हाँ इसके लिये एक विशेष प्रकार की प्रतिभा भी अपेक्षित होती है जिसे प्रक्रति जन्य कहा जा सकता है।एक ब्रैड मैन ,एक सचिन तेन्दुलकर ,एक सोवर्स या एक धोनी निरन्तर अभ्यास के द्वारा ही श्रेष्ठता के शिखर पर पहुचें हैं पर मात्र अभ्यास या समय उन्हें उस ऊँचाई पर नहीं ले जा सकता जिस पर वे खड़े हैं।यदि उनमें नैसर्गिक खेल प्रतिभा न होती।अपने श्रेष्ठतम प्रदर्शन के दौरान क्रिकेट प्रेमी समाज उन्हें आदर और सम्मान के साथ ही साथ एक ऐसी आर्थिक सुद्रढ़ता भी प्रदान करता है जो उन्हें पूरे जीवन के लिये सशक्त और सामर्थ्यवान बना देता है।श्रेष्ठ साहित्यकार के लिये हिन्दी भाषा-भाषी समाज ऐसा क्यों नहीं कर पाता इस पर हमें मनन करना होगा।प्रेम चन्द्र जी और निराला जी का सारा जीवन अदम्य जीवट और भीषण  संघर्ष की कहानी रहा है ।जिन साह्त्यकारों का पारवारिक आधार आर्थिक रूप से सुद्रढ़ रहा हो उनकों छोड़ दें तो वाकी के लिये यदि आजीविका का अन्य कोई मार्ग नहीं है तो साहित्य रचना अभाव के संकट भरे द्वारों की ओर ही ढकेलती रहती है।विश्वविद्यालय या महाविद्यालय या माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षण कार्य पा जाने वाले साहित्यकार भले ही आर्थिक सुरक्षा पा जाते हों पर डिग्रियों की उच्चतम ध्वजा पताकाओं से दूर रहने वाले सैकड़ों सशक्त साहित्यकार अभाव का  दयनीय जीवन विताने पर विवश हैं।सरकार उनके लिये कुछ करे या न करे यह सरकार चलाने वालों की अपनी सोच है ।पर हम शिक्षित भाषा -भाषी लोगों का यह कर्तब्य अवश्य बन जाता है कि हम श्रेष्ठ रचनाओं और उन रचनाओं को प्रकाशित करने वाली पत्रिकाओं को खरीद कर पढ़ने की आदत डाले।साहित्य अपने भब्यतम रूप में ईश्वरीय गौरव से मण्डित होता है।ईश्वर की आराधना करने वाला व्यक्ति जैसे पूजा को अपनी दिनचर्या का एक अनिवार्य तत्व मानता है ठीक वैसे ही हिन्दी भाषा -भाषी साहित्य प्रेमियों को ललित साहित्य को जन मानस तक पहचानें वाली रचनाओं और पत्रिकाओं को खरीद कर पढ़ने की आदत डालनी होगी।हम कोटि कोटि जन यदि अपने सशक्त ,चरित्रवान ,तरुण शब्द शिल्पियों का संवर्धन ,सरंक्षण नहीं कर सकते तो निश्चय ही हमारे लिये शर्म की बात है।निरन्तर सरकारी आश्रय की मांग करना यह स्वीकार करना होगा कि हम हिन्दी भाषी वैसाखियों के बिना सांस्क्रतिक विकास के मार्ग पर चल ही नहीं सकते।
                                                         "माटी "निरन्तर इस चेष्टा में निरत है कि उसमें स्थान पाने वाली श्रेष्ठ रचनाओं के रचयिताओं को सम्मान- राशि के रूप में प्रोत्साहन दिया जाय।हम नहीं जानते कि हमारे सीमित साधन हमें कब उस आर्थिक आधार भूमि पर खड़ा कर पायेंगे जहां हम अपनी आंतरिक इच्छाओं को मूर्तरूप दें सकें।पर हमारे प्रयास के ईमानदारी में कोई खोट नहीं हैं ऐसा विश्वाश  हम अपने रचनाकारों को दिलाना चाहेंगे ।"माटी" के सौभाग्य से प्रतिभाशील लेखकों की उत्क्रष्ट रचनायें हमें मिलती जा रहीं हैं ।सभी रचनाओं का प्रकाशन प्रत्येक अंक में संभव नहीं हो पाता पर हम चुनी हुई रचनाओं को सुविधा नुसार आगामी मासिक अंकों में प्रकाशित करते रहेंगें ।यदि पाठक किसी रचनाकार के बारे में अधिक जानकारी पाना चाहें तो सम्पादकीय कार्यालय से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं ।प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि वे साहित्य की समझ रखने वाले अपने अन्य साथियों को भी माटी पढने के लिये प्रेरित करें । सिनेमा या क्रिकेट का इन्टरटेन्मेंट (मनोरन्जन )सामन्य जन तक भी सीधे पहुँच जाता है पर साहित्य को समझने ,सराहने के लिये एक उच्च मानसिक स्थिति की आवश्कता होती है ।"माटी "के प्रबुद्ध पाठक ज्ञान -विज्ञान के प्रसार का केन्द्र बिंदु बनकर साहित्यिक पुनर्जीवन के लिये नयी चेतना के चक्रों का निर्माण कर सकते हैं।चेतना के जिस धरातल पर आज मानव जाति खाड़ी है उसमें धरती का छोटापन और उभर कर हमारे सामने खड़ा हो गया है।भारत का चंद्रयान सितारों की खोज करके वापस आ गया है।विश्व मानव की तारपथी दौड़ में भारत भी कहीं खड़ा है इसका अहसास हमें गर्व से भर देता है। हम "माटी "के रचनाकार और पाठक सृजन की रहस्यमयी ईश्वरीय सृष्टि में कुछ और ज्योति पुंज जोड़ सकेंगे ।इसी कामना के साथ -
गिरीश कुमार त्रिपाठी

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

भारत आशा भरी द्रष्टि लेकर उन नवयुवक जन प्रतिनिधियों की ओर देख रहा है जो भरत परम्परा को पुनर्जीवित करने की क्षमता रखते हों

                            भारत के महानगरों की सड़कों पर भारत की आश्चर्य जनक विभिन्नता के अभावोत्पादक छवि चित्र देखे जा सकते हैं ।अपार वैभव की झलक के साथ दारुण ह्रदय विदारक भुखमरी ,उल्लास और करुणा का मर्म भेदी द्रश्य प्रस्तुत कर देते हैं \साढ़े आठ प्रतिशत से लेकर नौ प्रतिशत तक बढ़ी हुई आर्थिक विकास गति 40-50लाख से ऊपर की गाड़ियों में दोलायित रहती है।जब किसी क्रासिन्ग पर लाल बत्ती इन गाड़ियों को कुछ देर के लिये रोकती है तो इनके आस -पास कितनी ही याचना भरी आँखें गाड़ी में बैठी महिलाओं के कानों से झूलते स्वर्ण कुण्डल निहारती हुई दिखाई पड्ती हैं।आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता का यह  भयानक अन्तर गाड़ियों के पीछे लम्बी लगी मोटर साइकिलों में थोड़ा बहुत सन्तुलन पा लेता है पर राजमार्ग के फुटपाथ से लगे किनारों पर श्रमिकों की साइकिलों की लम्बी लाइनें वर्ग विभाजन की निचली रेखाओं सी जान पड़ती हैं। शासन व्यवस्था का प्रत्येक तन्त्र सभ्य समाज की सामाजिक व्यवस्था के प्रारम्भ से ही यह दावा करता रहा है कि शासन तन्त्र न्याय की समानता तो देगा ही पर उसके साथ आर्थिक समानता के लिये भी प्रयत्न शील रहेगा ।इतना अवश्य है कि आर्थिक समानता ज्यामित की रेखाओं की तरह एक जैसी नहीं होंगी पर इतना अवश्य होगा कि जिस आधार पर यह खड़ी की जायेगी वह आधार अपने युग के सभ्य जीवन स्तर का बोझ उठा लेने में समर्थ होगा ।अधिकाँश भारतवासी यह मानते हैं कि आर्थिक समानता की कुछ ऐसी ही व्यवस्था महानायक श्री राम के राज्य में स्थापित हो सकी थी और सम्भवत :इसीलिये महात्मा गान्धी के स्वराज्य  की कल्पना राम राज्य से मेल खाती थी ,जैसा अतीत में था वैसा ही चित्र आज भी दिखाई पडता है ।हर राजनितिक पार्टी आम आदमी की खुशहाली का काम करने का दावा करती है पर आम आदमी की परिभाषा अर्थवान निरूपण के सभी प्रयासों को नकारती दिखाई पड़ती है ।स्वर्ण धूलि में लोटते कार्पोरेट जगत के डायरेक्टरों के मुकाबले में दस हजार मासिक तनख्वाह पाने वाला चौकीदार ,चपरासी एक आम आदमी ही है और इन चौकीदार ,चपरासियों के मुकाबले में फटी धोती में शिशु को संभ्भाले कटोरी फैला कर भीख मांगती हुई दयनीय नारी को हम क्या कह कर पुकारें इसके लिये शब्द पाना कठिन होता है ।जनता से या जनता जनार्दन से जो अर्थपूर्ण ध्वनियाँ उच्चरित होती हैं उनकों एक सुस्पष्ट व्याख्या में बाँधना एक दुष्कर कार्य है ।हीरों के जगमगाते अम्बारों और गन्दली नालियों में पलते शिशु समूहों के बीच का अंन्तर  तो सभी को स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है ।हाँ, यह दूसरी बात है कि कामन वेल्थ गेम्स के आयोजन के पखवारे में विदेशि यों की आँखे इस द्रश्य को न देख सकें इसके लिये पुलिस के आतंक के बल पर कोई अल्पकालीन व्यवस्था भले ही कर ली जाय ।
                       पर हम जिस अपार विभिन्नता की बात कर रहें हैं वह केवल आर्थिक धरातल पर ही सिमट कर नहीं रह जाती ।महानगरीय सड़कों पर आप वेष -भूषा ,केश -राशि का रख - रखाव ,वाहन चालन की भद्रता -अभद्रता और मौखिक मुद्राओं के न जाने कितने आश्चर्य भरे रूप देखे जा सकते हैं ।इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशाब्ध की समाप्ति तो होने जा रही है पर आप भारत की महानगरी की सड़कों पर बाइसवीं सदी के परिधानों ,प्रकारों ,और उत्तेजक आचरणों की झांकियां भी प्रचुर मात्रा में सहेज सकते हैं ।इसके साथ ही साथ साम्राज्यवाद का उन्नीसवीं सदी  वाला बोलचाल का वह लहजा भी सुननें को मिल जाएगा जब Properको Propah कहा जाता था और My lord मिलार्ड कहना वकील होने की शान मानी जाती थी ।इतना ही नहीं कई बार आप अट्ठारहवीं शताब्दी या उससे पीछे के मध्य युगीन काल की झलकियाँ भी पा सकतें हैं जब फारसी अपने हुस्न पर थी और खाने खाना होना दरबारी गौरव का चरम शिखर था ।महिलाओं की वेशभूषा की विभिन्नता ,उनकी केश -राशियों की गुम्फन -अगुम्फन शैली कभी हमें अजन्ता के गुफाकाल के चित्रण तक पहुंचाती दिखाई पड़ती है ।तो कभी उस आच्छादन युग की ओर जब अन्धकार ही नारी आकृति को देख सकता था।इतनी अपार विभिन्नता के साथ भारत सहस्त्रों काल से चलता ,रुकता , बढ़ता ,ठहरता ,गिरता -सँभलता ,गति मान रहा है और जब तक मानव श्रष्टि है शायद गतिमान रहेगा ।ज्ञात इतिहास के समुद्रगुप्त विक्रमादित्य काल को पहले इतिहास के विद्यार्थियों को स्वर्ण काल के रूप में चित्रित कर पढ़ाया जाता था पर अब कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले इतिहास विदों ने उसे स्वर्ण काल न कहकर पुकारने की अपील की है ।उनका कहना है कि उस काल में भी आम आदमी या सामन्य जन शोषित ही था ।प्रगति की क्या व्याख्या है इसे तो प्रगतिशील कहे जाने वाले विचारक ही जाने इनमें से कई विचारक तो राम -राज्य को भी शोषण व्यवस्था से मुक्त नहीं पाते ।पर सब इतिहासों से उठकर एक ऐसा इतिहास होता है जो अप्रयास ही संस्कारों द्वारा हमें मिलता है ।यही विश्वास हमें बताता है कि स्वयं मर्यादा में अपनी इ च्छा से बंधकर ही जब कोई शासक मर्यादा पुषोत्तम हो जाता है तो जन मानष उसे भगवान् के रूप में पूजने लगता है ।हमें अपने शासकों से जो हमारे ही प्रतिनिधि हैं इसी मर्यादा की अपेक्षा है ।पर्ण कुटी में रहकर राज्य का संचालन करना रामानुज भरत के जीवन की सबसे बड़ी सफलता थी और भारत आशा भरी द्रष्टि लेकर उन नवयुवक जन प्रतिनिधियों की ओर देख रहा है जो भरत परम्परा को पुनर्जीवित करने की क्षमता रखते हों ।

पहले अंडा या मुर्गी ढाक के वही तीन पात

                         यिज्ञान और टेकनालाजी अपने में विकास के अपार संभावनाए छिपाये है ।पिछले डेढ़ -दो दशक में संसार ने जितना परिवेर्तन देखा है उतना पिछली कई शताब्दियों में भी संभव नहीं हो पाया था ।जब औद्योगिक क्रान्ति अपने चरम पर पहुँच चुकी थी ।तब ऐसा लग रहा था कि मध्य युगीन व्यवस्था बहुत कुछ आदिम सभ्यता का ही प्रतिरूप है ।पर आज सूचना प्रौद्योगिकी ,कम्प्यूटरीकरण और अन्तरिक्ष प्रसार पद्धतियों में औद्योगिक क्रान्ति को आदिम सभ्यता के विकास की एक छोटी मंजिल के रूप में ही प्रस्तुत करना प्रारम्भ कर दिया है ।बहु विध्य पाठकों को यह बताने की आवश्यकता "माटी "नहीं समझती कि आने वाले वर्षों में कागज़ का प्रयोग नाम -मात्र को ही रह जायेगा ।इलेक्ट्रानिक मीडिया ही विश्व सम्पर्क का सबसे सशक्त संचार साधन बन कर उभर चुका है ।पर कागज़ पर लिखे शब्द हों या स्वचालित परदे पर उभरे ट्वीट ब्लॉग ,ट्वीटर या प्रशासनिक प्रचार तथा सांख्यिक गड़नायें सबमे शब्द और अंक के महत्व को पूरी महत्ता के साथ स्वीकार हे करना पड़ेगा।चिंतन का मूर्त रूप शब्द या सांकेतिक शब्द चिन्हों के द्वारा ही संभव है ।और इसलिये सम्प्रेष्ण का प्रकार बदल जाने पर भी सम्प्रेष्ण की अनिवार्यता या महत्ता कभी कम नहीं हो सकती।गहन चिंतन और गहन भावानुभूति के सम्राठों को तकनीकी नवीनताएँ कुछ देर के लिये भ्रमित भले ही कर दे पर उनके पास जो अक्षय कोष है उसकी भागीदारी के बिना मानवता के उज्वल भविष्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती।विज्ञान ने भी इधर हाल ही में अत्यन्त गहरे दार्शनिक प्रश्नों के कुछ विज्ञान सम्मत उत्तर प्रस्तुत किये है ।दर्शन का सबसे मूल प्रश्न है जीवन के आविर्भाव की गुत्थी को सुलझाना।अंग्रेजी में बहुधा फिलासफी के विद्यार्थियों से प्रश्न पूंछा जाता है कि पहले अंडा या मुर्गी ।अब यदि मुर्गी नहीं थी तो अंडा कहाँ से आया ?और यदि अंडा नहीं था तो मुर्गी कहाँ से आयी ?और यदि कुछ नहीं था तो न कुछ में से कुछ कैसे पैदा हो गया ?महर्षि भारद्वाज से लेकर यूनान के अफलातून तक और ब्रिटेन के बर्टेंड रसल से लेकर भारत के राधाक्र्ष्णन तक सभी ने इन प्रश्नों के अपने अपने उत्तर प्रस्तुत कियें हैं ।ब्रिटेन में अभी हाल ही में अत्यन्त उच्च स्तरीय प्रयोगशाला परीक्षणों में यह पाया गया है कि मुर्गी के अंडे के ऊपर जो कडा छिलका होता है वह जिस प्रोटीन से बनता है वह प्रोटीन केवल एक मुर्गी के भीतर ही बन सकता है।इस प्रोटीन का वैज्ञानिक नाम Ovocleidin-17 है और यह प्रोटीन ही मुर्गी के अंडे के ऊपर एक कड़ा खोल बना सकती है ।अब अगर यह प्रोटीन मुर्गी के भीतर ही बन सकता है तो स्पष्ट है कि मुर्गी को पहले होना चाहिये और अंडे को बाद में बात अगर यहीं तक रहती तो शायद  समस्या का हल हो गया होता पर फिर  प्रश्न उठता है कि यदि अण्डा नही था तो मुर्गी कहाँ से आयी ?समस्या हल भी हो गयी और हल में से समस्या फिर उठ खड़ी हुयी।विकासवादी वैज्ञानिक यह कहते हैं कि शायद  प्रोटीन Ovocleidin-17अपने गैर ठोस या तरल रूप में धरती के वातावरण में कहीं फ़ैली हुई थी और उसी ने सबसे पहले कुछ अज्ञात कारणों से अन्डे का रूप लिया होगा ।अब समस्या खड़ी होती है उन अज्ञात कारणों के निरूपण की ।ढाक के वही तीन पात फिर जहां के तहाँ अब विज्ञान के शोधार्थी और आगे बढ़ते है वे कहते है कि हर अण्डा एक प्रकार का नहीं होता अण्डों का बनना मुर्गी के अण्डों के बनने सेबहुत  पहले शुरू हो चुका था ।अलग -अलग पक्षी अलग अलग किस्म की प्रोटीन से अपने अंडे बनाते हैं।दरअसल समस्या पक्षी जगत से बहुत पीछे हमें उस काल में ले जाती है जब डायनासोर धरती के अधिकाँश भागों में फैले थे ।यह सरीस्रपों का ज़माना था और वे भी अण्डों के द्वारा ही म्रत्यु की अमिट विभीषिका को मिटाकर नयी स्रष्टि को जन्म देते थे ।पक्षी जगत तो इन्ही सरीस्रपों से विकसित होकर लाखों वर्ष बाद अस्तित्व में आया ।अन्डे बनाने वाली प्रोटीन की कई किस्में पहले से ही स्रष्टि की अद्दभुत प्रयोगशाला में उपस्थित थी और बाद में इन्ही प्रोटीनों में से Ovocleidin-17एक नया रूप लेकर अस्तित्व में आयी ।यह विकासवादी वैज्ञानिक कहते हैं कि मुर्गी और अन्डे वाला प्रश्न वैज्ञानिक सन्दर्भों में अधिक सार्थक नहीं लगता ।न तो अण्डा पहले था न मुर्गी ।इनसे बहुत पहले थे सरीस्रपों के नाना रूप और आकार। दैत्याकार ,मध्यम ,लघु तथा द्रश्य और अद्रश्य अनगिनित जीवकणों की अप्रतिहत अविरल अनन्त कोटि धारा प्रवाह के अस्तित्व को ही वैज्ञानिक उत्तर के रूप में ही स्वीकारना चाहिये।वैज्ञानिक शोधकर्ताओं के लिये और विकासवादी पण्डितों के लिए यह विस्मयकारी वैज्ञानिक उत्तर प्रणाली भले ही शोध संतोष प्रदान कर दे पर हम सामन्य जनों के लिये तो यह प्रश्न अबूझा ही खडा है कौन पहले था अण्डा या मुर्गी।गहरायी से इस प्रश्न पर झाँक के देखें तो इसमें वेदान्त का सबसे गूढ़ प्रश्न छिपा हुआ है ।जीवात्मा और जीवात्मा को परिवेष्ठित करने वाला कलेवर इन दोनों में से प्राथमिक कौन है ।सबसे पहले दैव है या पदार्थ और क्या दैव और पदार्थ अनन्य रूप से जुड़े तो नहीं हैं ।"माटी "का सम्पादक तो माटी में ही मानव जीवन की अनन्य संभावनायें तलाशने में लगा है और 'माटी "को ही ब्रम्ह का प्रतीक मान कर उसकी पूजा अर्चना की आराधना करता है।ज्ञान -विज्ञान ,धर्म -धारणा ,स्पन्दन और स्तंभ्भन ,शुक और शायिका सभी में उसे मृत्तिका में घुले -मिले परमतत्व के दर्शन होते हैं ।ऊर्ध्वगामी अंकुरों को मेरा नमस्कार समर्पित है।

                                                                                                              गिरीश कुमार त्रिपाठी
                                                                                                         

बुधवार, 21 नवंबर 2012

कसाब को एकाएक फांसी के पीछे कहीं कोई काला सच तो नहीं है ?


( यह मेरे अपने व्यक्तिगत विचार है किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए )
       
     २६/११ के हमले के दोषी अजमल कसाब को आज लगभग ४ साल बाद एकाएक फांसी की सजा सुनकर मन को तो बहुत सुकून मिला | फांसी दी गयी इस बात से पूरे हिन्दुस्तान नहीं अपितु पूरे विश्व के लोग खुश हुए होंगे | पता नहीं क्यूँ हमे ऐसा लग रहा है कि इसके पीछे भी कोई राज छिपा हो सकता है | बिना किसी पूर्व जानकारी के एकाएक ऐसा होना मेरे शक का कारण है |

       अभी कुछ दिन पहले ही हमारी मीडिया की ही खबर थी की जो काम हिन्दुस्तान की सरकार पिछले तीन चार सालों में नहीं कर पायी है उसे हिन्दुस्तानी मच्छरों ने कर दिखाया है | इस काम के लिए मच्छरों का शुक्रिया अदा करता हूँ | वह काम यह था कि हिन्दुस्तान की सरकार आज तक अजमल कसाब की केवल मेहमान नवाजी की थी लेकिन मच्छरों ने जब उसकी मेहमान नवाजी की तो उस सुअर को डेंगू हो गया और मरने की कगार पर पहुँच गया था | अभी तो हम इस बात का इन्तजार कर रहे थी कि हमारी बिकाऊ मीडिया अभी हमे बताएगी की कितना उसके इलाज में खर्च हुआ लेकिन उससे पहले उसकी मौत की खबर आ गयी | ऐसे में हमारे दिल में बहुत से सवाल उठे हैं | उन सवालों से अवगत कराता हूँ ......
      
        कहीं सरकार ने यह तो नहीं किया कि उसकी मौत हुई हो डेंगू से और इसके बाद उसको फांसी की सजा दिखा रही हो | अगर ऐसा नहीं है तो सरकार के फैसले में पारदर्शिता क्यूँ नहीं थी ? अभी सुबह कुछ लोगों से बात चीत के दौरान यह पता चला कि कसाब को डेंगू हुआ है यह खबर मीडिया के द्वारा फैलाई हुई अफवाह है | मुझे तो पता नहीं क्यूँ ऐसा लगता है जब भी कहीं सरकार फंस जाती है तो वह उस खबर को मीडिया की अफवाह बताने के सिवाय कोई और चारा ही नहीं रहता है |
दूसरी बात सरकार किन गद्दारो से डरकर चुपचाप कसाब को फांसी दे दी, अगर कसाब को चौराहे पर खडा करके मारा जाता तो यह आतंकवादियो के लिये सबक का काम करता. पहले उनको खिला पिला कर मोटा मुरगा बनाओ फिर चुपचाप फांसी देना समझ मे नही आया.
तीसरी बात भारत की जनता और 26 नवम्बर 2008 के शहीदो के परिवार कैसे इस बात पर विश्वास करे कि कसाब को वाकई फांसी हुयी है कही ऐसा न हो कि ........ जैसे सद्दाम हुसैन के विडियो अमेरिका ने सार्वजनिक करके पूरे विश्व को सन्देश दिया था कि अमेरिका से टकराने का अंजाम क्या होता है भारत सरकार ने वैसा क्यो नही किया??

       दोस्त बात कुछ भी हो लेकिन कोई राज जरूर है इस एकायक फांसी के पीछे |जैसे सारी  करतूतें एक एक कर खुली है वैसे यह भी वक्त आने पर खुलेगी |

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

"माटी " के प्रकाशन की क्या आवश्यकता आ पड़ी ?

                      आप पूछ सकते है -और यह पूछना सर्वथा उचित ही होगा -हिन्दी में निकल रही न जाने कितनी पत्रिकाओं और प्रसारिकाओं के बावजूद "माटी "  के प्रकाशन की क्या आवश्यकता आ पड़ी ?ऐसा तो नहीं कि यह पत्रिका आपकी पहचान शून्यता को भरने का खोखला उपाय है -या कि आपके व्यक्तित्व की पराजित मनोचेतना छपाई के माध्यम से कोई मनोवैज्ञानिक उपचार तलाश रही है ? और भी अनेक उल्टे- सीधे , उलझे -सुलझे प्रश्न इस बारे में उठाये जा सकते हैं इस सन्दर्भ में मुझे इतना ही कहना है कि इस भूग्रह पर मेरी जीवन यात्रा का अपना एक अनुभव है और वह  मुझे विशिष्ट और निराला लगता है -भले ही दूसरों के लिये उसमें कुछ नया न लगे , मेरा विश्वाश है कि इस धरती पर मेरा आगमन और सफ़र के दौरान सन्चित जीवन मूल्य बाहिरी दुनिया से संचयित होने के बाद मेरी आन्तरिक चेतना की अग्नि में पक कर मेरी अपनी विशिष्टता की छाप  पा चुके हैं अत:मुझे उन जीवन मूल्यों को ब्यक्त करने का और समकालीन स्रजनात्मक मनीषा में  समानान्तर उभर रहे साथियों के सहयोग पाने का पूरा अधिकार है ।"माटी "का प्रकाशन इस दिशा में एक प्राराम्भिक कदम है।हो सकता है एक एक कदम आगे बढ़कर हम मानव निर्माण की उस मंजिल पर बढ़ चलें जो कंही मानव  समानता के आदर्शों की ओर पहुँचाती हो ,हो सकता है कि कुछ सिरफिरे साथी मेरे साथ चल पड़ें और फिर काफिला बन जाय और फिर यदि अकेला भी चलना हो तो उसमें संकोच क्या ?क्योंकि खोना तो कुछ है ही नहीं ,एकांत में ही आत्म अनुभूति का सच्चा ज्ञान हो  पाता है ,न जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है कि हम ' माटी 'से कटकर कांक्रीट की मीनारों पर जा खड़े हुए हैं ?हम से मेरा अर्थ हिन्दी भाषा भाषी राज्यों का मध्यम वर्गीय जन समुदाय , मध्यम वर्ग  में भी यों तो कई स्तर हैं और सबसे निचले स्तर के घरों में अभी माटी की गन्ध आती है पर ज्यों ज्यों हम स्तर की ऊँचाई की ओर बढ़ते है यह गन्ध खडखडिया वाहनों की विषाक्त वहिर्गत साँसों में बदल जाती है माना कि तकनीकी युग में वृन्दावन में होनी वाली रास लीला की कल्पना ,उपहास की बात बन जाती हैं। माना कि सन्चार प्राद्योगिकी के युग में प्रवासी के गीतों की बात बचकानी लगती है ,माना कि अनुष्ठान से पवित्र नर -नारी सम्बन्ध की कल्पना प्रगतिशील कहे जाने वाले नर नारियों   के ओछे मजाक का विषय बन चुकी है पर मुझे कुछ ऐसा लगता है कि मैं अपने पूरे जीवन भर अप्रगतिशील कहे जाने का बोझ उठाना अच्छा समझूंगा बजाय इसके कि मैं भारत के सांस्क्रतिक अतीत और चिर प्रेरक जीवन मूल्यों से कट जाऊँ और मैं समझता हूँ कि मेरे जैसे कोटि -कोटि प्रौढ़ और बृद्ध तो इस चिंतन में मेरे साथ खड़े ही होंगे पर सम्भवत : कोटि -कोटि तरुण भी इन मुद्दों पर मेरे साथ खड़े होने में अपनी हेठी नहीं समझेंगे।यह सत्य हैअटूट और निर्विवाद सत्यकि काल सबको खा जाता है पर यह भी उतना ही अटूट और निर्विवाद सत्य है कि मानव सभ्यता में कंही कुछ ऐसा भी है जो कालजयी है और जिसके बिना सभ्य मानव की कल्पना भी नहीं की जा सकती इन्ही जीवन मूल्यों में हैं नर -नारी के शारीरिक सम्बन्ध की नैष्ठिक पवित्रता।इन्ही जीवन मूल्यों में है पशु प्रवृत्ति से पायी गयी काम चेतना  पर सभ्यता द्वारा निर्धारित सयंम व्यवस्था ।इन्ही जीवन मूल्यों में शामिल है वैभव के बेलगाम प्रदर्शन पर ज्ञानी पुरुषों का आक्रोश और सच्चे संतों द्वारा उसकी भर्त्सना ।वैदिक ऋचाओं  से लेकर बुद्ध और गान्धी तक आने वाली अपरिग्रह की विचारधारा यदि आधुनिक अर्थशास्त्र नकारता है तो उसे "माटी "स्वीकार नहीं करती ।माटी का और माटी से जुड़े हुए सामान्य जन व मनीषियों का यह निरन्तर प्रयास रहेगा कि जनता के लिये विधि पूर्वक भेजे गये सौ पैसे सत्रह या पांच बनकर उन तक न पहुचें इस दिशा में निन्यानवे का चक्कर माटी स्वीकार करती है।सौ की पूरी संख्या तक पहुचने के लिये वह सदैव कृत -संकल्पित रहेगी ।यक्ष के प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर का यह बताना कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि लोग अपने आस -पास निरन्तर मरते हुए ब्यक्तियों को देखते हैं और फिर भी वे दुष्कर्मों की ओर और तेजी से झुकते हैं यह मानकर कि म्रत्यु उनके पास आयेगी ही  नहीं ।हमें इन पथ भ्रष्ट नर पशुओं को म्रत्यु का यह अहसास देना है जो उन्हें आचरण की पवित्रता पर सोचने को बाध्य करे ।हमारा प्रयास होगा कि माटी आप तक ताजी कटी हुई फसलों की सुगन्ध पहुचाये । हमारा प्रयास होगा कि "माटी " आपको "तमसो मा ज्योतिर्गमय "के व्यवहारिक रूप से रूबरू करे ।हमारा प्रयास होगा कि माटी बिल्लेसुर को विल्वेश्वर और बलचनमा को बालचन्द्र के रूप में देखने के लिये प्रेरित करे पर उन्हें अपनी मिट्टी में ही खड़ा करके विकसित होने दे।हम जानते हैं कि यह भगीरथ प्रयास है।हम जानते हैं कि यह टिटहरी का समुद्र भर देने का निष्फल प्रयास है।हम जानते हैं कि यह गिलहरी का लोट पोट कर सेतु निर्माण में सहयोग करने की सी हास्यास्पद योजना है।पर फिर भी न जाने क्यों माटी का संयोजक मण्डल और प्रेरक पुरुष चक्र मर मिटने की अदम्य लालसा लेकर आगे चल पड़ा है।अधूरे प्रयासों की श्रंखला भी मानव विकास की चिरन्तन प्रक्रिया में अनुल्लेखनीय नहीं मानी जानी चाहिये ।और फिर क्या पता अमस की पर्तों में ज्योति किरण कोई मार्ग बना ही ले।यह ठीक है कि हमसब मिट्टी के मटके हैं पर क्या यहआश्च्रर्य नहीं है कि मिट्टी का मटका भी राम राम बोल लेता है।कवि की यह पंक्ति "Dust Thou art,to dust returneth."एक अकाट्य सत्य है । पर एक ऐसी माटी भी होती है जो कभी नहीं मरती -जो मरण में से भी चिरन्तन जीवन के बीज स्फुरित करती है।"माटी "उपनिषद के मनीषियों को जन्म नहीं दे सकती ,ना ही "माटी "के माध्यम से बुद्ध ,गान्धी ,मार्टिन लूथर या मण्डेला आ पायेंगे पर" माटी "निश्चय ही किसी सूरदास (रंगभूमि ),बावन दास (मैला आँचल ),किसी पवेल (माँ ),किसी दशरथ मांझी (बिहार) ,या किसी बिलकिस बानों (गुजरात )को आगे ला पायेगी ऐसा हमारा विश्वास है ।                                        
                                 प्रगतिशील चिन्तकों ,विचारकों ,समर्थ जुझारू शब्दशिल्पियों और आदर्श के प्रति समर्पित सृजन शील रचना कारों से उर्जावान रचनाये पाकर "माटी "अपने को गौरवान्वित अनुभव करेगी ।"माटी " की गुणवत्ता या स्तरहीनता पर सुयोग्य पाठकों की प्रतिक्रियाएं साभार प्रकाशित की जायेंगी पर इतना तो अनुरोध आप मानेगे ही कि पत्रिका को पूरा पढ़े बिना अपनी प्रतिक्रियायें न भेजें ।
                                     
                       

सोमवार, 19 नवंबर 2012

घृणा से ही जन्म लेगा सर्व दर्शी प्यार

   तोड़ना है मुझे प्रस्तर का प्रचण्ड प्राकार 
   ताकि बंधकर छटपटाती है परिध में जो 
   बहें उन्मुक्त जीवन - दायिनी रस -धार । 
   है सरल विध्वंश कहते मुकुटधारी 
   तुम करो निर्माण 
   शीत ,आतप ,बूँद सर पर ही सहे हैं 
   सहस बरसों से 
   खपाये हैं तुम्ही ने प्राण 
   और छत किनको मिली है ?
   तोड़ना है छत ,परिधि .प्राचीर
   जहाँ संरक्षित लुटेरे ,मुफ्तखोरे 
   स्वयं को कहते सुधन्वा वीर।
   हर मनुज यदि जन्म लेगा तो जियेगा 
   ज्ञान का ,विज्ञान का ,यह शुद्ध ,सुन्दर मर्म 
   जो ब्यवस्था सत्य यह दफना रही है 
   तोड़ना उसका सभी का धर्म ।
   उभय कर ऊपर उठाये मै प्रतिश्रुत हो रहा हूँ आज 
   जनम सार्थक कर सको तो आज कर लो 
   राम का यह काज ।
   रँगी मूंछे ,लपलपाती जीभ 
   यह डरौना है ,न तन में तान 
   स्वास्थ्य का सरगम नहीं संगीत यह 
   क्षय -क्षरित द्रुत म्रत्यु का यह गान 
   इस डरौने पर करो तुम बज्र -मुष्टि प्रहार 
  भित्ति की हर ईंट बनकर ढह गिरेगी क्षार 
  उग रहे सूरज तुम्हारी साक्षी 
  ध्वंस हो निर्माण का आधार 
  डूबते सूरज तुम्हारी शपथ ले कर कह रहा हूँ 
  घृणा से ही जन्म लेगा सर्व दर्शी प्यार ।

रविवार, 18 नवंबर 2012

आइये हम मृत्यु को ललकारने की हिम्मत पा लें

                         भारत की सांस्क्रतिक परम्परा और धार्मिक प्राणपरता यह मान कर चलती है की मनुष्य का जीवन प्रभु की एक दुर्लभ देन है ।गोस्वामी जी की इस पंक्ति से तो आप ,हम सब परिचित ही हैं -"बड़े भग्य  मानुस तन पावा।"प्राक्रतिक विज्ञान भी यह मानकर चलता है की मानव अरबों वर्षों की विकास प्रक्रिया का चरम प्रतिफल है।अब यदि मनुष्य होकर भी हम मात्र अपने लिये जीते हैं तो इस जीनें  में और पशु जीवन में अंतर ही क्या ?मुझे चार्ल्स डिकन्स की बहुचर्चित कहानी क्रिसमस कैरल की याद आती है जिसमें एब्ने क्रूज को जब उसके मित्र पावल गोन का भूत मिलता है और उससे अपनी आत्मा की दारुण व्यथा की बात करता है तो एब्ने क्रूज उससे कहता है कि तुम तो एक अत्यन्त सफल व्यापारी थे इस पर ईथर में गूँजता उसके मृत मित्र का उत्तर आता है -कैसा व्यापारी ?मैनें मानव जाति के लिये क्या किया ?मैंने अपने अतिरिक्त दूसरों के लिये क्या कभी त्याग या बलिदान का भाव पाला ।कैसा वैभव ?अपने इन्द्रिय सुख के अतिरिक्त क्या उस वैभव से मैंने वृहत्तर मानव कल्याण की संयोजना की ।
                                                                                            बन्धुओं मानव जीवन निश्चय और अनिश्चय का एक ऐसा समुच्चय है जो विज्ञान की सारी चमत्कारी विशेषताओं के बावजूद अनुत्तरित है ।निश्चय इस लिये जो जन्मा है वह मरेगा अवश्य और अनिश्चय इसलिये कि उस महाप्रयाण की बेला गोधूलि की धुंधलके की  भाँति झिपी -अनझिपी रहती है।यही कारण है कि न जाने कितनी बार महामानव भी चाहते हुए कल की तलाश में बहुत कुछ नहीं कर पाते।हमें याद रखना है कि हमारे पास समय कम है और हमारे संकल्पों के यात्रा अत्यन्त कठिन और एक प्रकार अन्तहीन है।हमारे रास्ते में कितने ही मनमोहक पड़ाव आते हैं जहां रुकने का मन होता है।हम विचलित होते हैं अपने लक्ष्य पद से और सुहावन मरीचकाओं में भटकते हैं।हमें राबर्ट फ्रास्ट की उन अमर पंक्तियों को कभी नहीं भूलना चाहिये जिन्हें पंडित जवाहर लाल नेहरु ने अपनी राइटिंग टेबिल ग्लास के नीचे लगा रखा था।
 "The woods are lovely dark and deep
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep"
अभी कहाँ आराम बदा,यह मूक निमंन्त्र्ण छलना है ।
अरे अभी तो मीलों मुझको ,मीलों मुझको चलना है ।।
                         बन्धुओ अपने को दूसरों से बड़ा मानने का भाव अहंकार से जन्मता है और अहंकार सामाजिक समर्पण के रास्ते में रूकावट बन कर खड़ा हो जाता है इसलिये यह कहना कि हमारा जीवन अन्य लोगों के मुकाबले में कहीं अधिक स्वच्छ और सुथरा होना चाहिये ,शायद उपदेश की सी बात लगे पर इसमें दो राय नहीं हैं कि भारतवर्ष का लगभग समूचा तन्त्र जाल प्रशासन की भ्रष्ट लाल फीताशाही में फंसा हुआ है ।भ्रष्टाचार मिटाने के न जाने कितने संकल्प शीर्षस्थ पर बैठे राजनीतिज्ञों के किये थे और करते जा रहे थे पर भारत का हर सामान्य नागरिक यह मान कर चल रहा है कि प्रशासन की स्वच्छता एक असंभव उपलब्धि बनती जा रही है।असंभव   को संभव कर दिखाना असाधारण साहस की मांग करता है।उस साहस को उत्पन्न किया जाता है जन चेतना जगाने वाली सामाजिक संस्थाओं ,संगठनों ,क्लबों और प्रकाशनों के द्वारा।अर्नाल्ड ट्वायनबी नोबेल पुरस्कार विजेता इतिहासकार कहते है कि असाधारण जन नायक एक विशिष्ट चेतना से भरी सामाजिक गुणवत्ता के उपज होते हैं।हम इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठा सकते हैं।हमारा आचरण ,हमारी भाषा ,हमारा व्यवहार ,हमारी सेवा वृत्ति और हमारी निर्मलता ,क्रांतिकारी चारित्रिक पवित्रता को जन्म दे सकती है।असत्य के खिलाफ भीरु बन कर बैठे रहना,घोर अनाचार के प्रति उदासीन रहना और ऐन्द्रिक कर्दभ में गले तक डूबे रहना भारतीय समाज का अभिशाप हो चुका है।आइये हम अपने भीतर वह शक्ति पैदा करें कि हम किसी भी अनुचित दबाव के आगे नो कहने की हिम्मंत रखें।निहारिकाओं से भरा आकाश हमारा लक्ष्य हो।नाबदान के गलीज में बुद बुद करते कीड़ों को मानव जीवन की अस्मिता का ज्ञान नहीं होता।प्रकाश का दिब्य पुन्ज,पावनता का दिब्य आलोक हमारे चारो ओर व्याप्त है यदि हममें आत्म मन्थन कर उसे पाने की शक्ति है।सभी कुछ परिवर्तनशील है।आज का यह कदाचार,यह तुच्छता ,यह राजनीतिक लम्पटता चिरस्थाई नहीं है।परिवर्तन सनातन है।कविवर पन्त ने परिवर्तन को वर्तुल वासुकिनाद का रूपक देते हुए लिखा है :-
                                         "  शत शत फेनोच्छासित स्फीत फुत्कार भयंकर।
                                           घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अम्बर ।।
                                            विश्व तुम्हारा गरल दन्त कन्चुक कल्पान्तर ।
                                           अखिल विश्व ही विवर ,वक्र कुन्डल दिग मण्डल ।।  
                                           अये वासुकि सहस्त्र फन "
                                          मित्रो मुझे आप भले ही अतिरिक्त आशावादी कहें पर मुझे क्षितिज पर नये प्रभात की अरुणिमा का आभास हो रहा है।घोर जाड़े के बाद भी तो  वसन्त   का शुभ आगमन होता है।
"If winter comes can spring be for behind."
                           आइये हम नये युग के सार्थवाह बने।आइये हम म्रत्यु को ललकारने की हिम्मत पा लें ताकि जो अम्रत है,जो सत्य है ,जो सनातन है ,ऐसा शुद्ध परमार्थ भाव हममें जग सके।मेरा विश्वाश है कि माटी परिवार अपने चरण चिन्हों की ऐसी छाप अपने भू क्षेत्र में छोड़ सकेगा जिसका अनुसरण करके मानव जीवन को उद्देश्य प्राप्ति हो सके।
                                                    "O God !Illumine what is dark in me ."

शनिवार, 17 नवंबर 2012

माटी की विरासत

मानव विकास का वैज्ञानिक विश्लेषण आधुनातन शिक्षा का एक अनिवार्य अंग बन गया है । ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि न्रतत्वशास्त्र के प्रामाणिक ज्ञान के बिना जीवन मूल्यों के विकास की विश्वसनीय व्याख्या अधूरी रह जाती है। वैज्ञानिक विकासवाद दस लाख वर्ष से अधिक किसी कुहासे भरे अतीत से वानर मानव से प्रारम्भिक आदि मानव के विकास की कहानी दुहराता रहा है।इस विकास के कुछ विश्वसनीय प्रस्तरीकृत अस्थि पिन्जर और पाषाण उपादान मिलने से ऐसा लगता है कि विकास की यह अनवरत धारा सत्य से बहुत हट कर नहीं है।पर भारतीय मनीषा इस दिशा में एक सनातन विकास व्यवस्था की बात करती रही है जो प्रगति के अन्तिम छोर तक जाकर विनिष्ट हो जाती है और फिर विनाश में छिपे सृजन के बीच से पुन:प्रस्फुटित होकर प्रगति के और अधिक उच्चतर सोपानों की ओर चल पड़ती है । सतयुग ,त्रेता ,द्वापर और कलयुग की विभाजन प्रक्रिया के पीछे एक ऐसी ही विश्लेषण पद्धति सक्रिय रही होगी। ऐसे विभाजन को रूढ़ अर्थों में लेना अवैज्ञानिक होगा क्योंकि कलियुग के साथ अपार तकनीकी संम्भावनाओं का जुड़ाव रहता है जब कि सतयुग मानव की बाल सुलभ सरलता और सहज ज्ञान से जुड़ता है ।जैसे जैसे यह बाल सुलभ सरलता  यानि ईश्वरीय सम्पर्क  की आसन्नता कम होती जाती है वैसे वैसे सांसारिक ज्ञान का विकास, चातुर्य जो कालान्तर में छल छदद्म में बदलता है बढ़ता जाता है ।यह विकास होकर भी विकास नहीं रहता क्योंकि आत्म तत्व का विस्मरण हमें शुचिता और सरलता से दूर करके मूल पशुत्व की ओर ढकेलता है ।मानव इन्द्रियों के एक सामूहिक संयत्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता।द्वापर में तुला के दोनों पलड़े लगभग बराबर से रहते हैं और रह रह कर वहिरावलोकन और अन्तरावलोकन में अदलाव -बदलाव होता रहता है ।कलियुग आते ही यन्त्र शक्ति परमात्म शक्ति पर भारी पड़ती दिखायी पड़ती है।इन्द्रिय सुख के अनूठे और अकल्पनीय साधनों की भरमार हो उठती है।भक्षण वृत्ति संम्पोषण वृत्ति पर हावी हो जाती है।भाषा के अर्थवान शब्द विपिरीतार्थक बन जाते हैं। चातुर्य का अर्थ हेराफेरी बुद्धिमान का अर्थ धूर्त और सफलता का अर्थ परपीडन कुशलता में बदल जाता है ।गीता  के अर्जुन सर्वभावेन परन्तय न रहकर सर्व विनाशक आत्म रत भोगी बन जाते हैं ।विकास की यह अद्दभुत गाथा सतत अवाधित अपरिहार्य और अथक रूप से गतिमान रहती है |कुछ ऐसी ही व्यवस्था के कलुष भरे मार्ग से आधुनिक  मानव गुजर रहा है।इन्द्रिय सुख की मिथ्या मरीचका के पीछे वह इतना भ्रमित हो चुका है कि परस्पर सौमनस्य ,सहकारिता और सहभागिता के उन ऊर्जापूर्ण विचारों से वह बहुत दूर जा चुका है जिन विचारों ने उसे चार पैरों पर चलने वाले नर मानव से प्रज्ञा मंडित मानव बनने की ओर विकसित किया था।प्रक्रति के स्वाभाविक दौर में इन्द्रिया जब सुख भोगने के योग्य नहीं रहती तब वह सुरा,मारीजुवाना और Ecstasy की तलाश में दौड़ता है ताकि इन्द्रिय सुख के कुछ क्षण और जुटाये जाँय।और फिर यौवन पार करते ही या उससे पहले ही मानसिक रोगों से भरी खचाखच दीर्घाओं के अतिरिक्त और कहीं  रहने का मार्ग ही कहाँ रह जाता है ।इस घोर कलियुग में भी जिसे वैज्ञानिक विकासवाद मानव के चरम उत्थान की गाथा कह रहा है कहीं कुछ बिन्दु हैं जंहा पहुच कर मानव मनीषा अन्तरावलोकन कर कर सनातन सत्यों को खोजती है ।ऐसे बिन्दु हैं उन मानव मनीषियों द्वारा खोजे गये संजीवनी जीवन मन्त्र जो इस कलयुग के बीच  भी आत्मा की सतयुगी गरिमा और शुचिता को अक्षुण रख सकें हैं ।ऐसे ही महापुरुषों में उदाहरणार्थ राम क्रष्ण परमहंस ,विवेकानन्द ,स्वामी रामतीर्थ .महर्षि दयानन्द ,महर्षि रमण ,महर्षि कणवे ,रवीन्द्र  नाथ ,व महात्मा गान्धी आदि आदि में हमें नव सृजन के सतयुगी बीज देखने को मिलते है ।हमें विकास की नयी परिभाषाओं को खोजने के लिये संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के सर्वोच्च पद पर बैठे पूर्व राष्ट्रपति की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। मोनिका लिवंगस्की से कामातुर आचरण करने वाले राष्ट्रपति क्लिंटन जो वयस्क पुत्री के पिता हैं भले ही अमेरिका में अनादर के पात्र न हों पर वह भारतीयों के लिए आदर्श नहीं सकते ।हमें इस दिशा में भारत के अतीत में आदर्श खोजने होंगे और सहस्त्रों वर्ष पूर्व मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का ही अनुशरण करना होगा।आधुनिक भारतमें  भी यदि हम पांच प्रतिशत अत्याधुनिक पश्चिमी दासता वाले वर्ग को छोड़ दें ,जो अभी जीवन मूल्यों के उस विघटन स्थल से थोड़ा ऊँचे हैं जहाँ नर नर न रहकर नर पशु बन जाता है" माटी "का प्रकाशन इन्ही जीवन मूल्यों की तलाश की ओर एक छोटा पर विश्वास  भरा प्रयास है ।संकल्प की शक्ति ही मन्त्र शक्ति होती है और नये जीवन मूल्यों का उद्दभव निर्मम भौतिक वाद की खाद से ही सम्भव हो पायेगा ।
                                                               आज के इस निराशा संत्राष ,और आत्म जड़ता से भरे तुमुल कोलाहल के बीच रहकर भी प्रत्येक जिज्ञासु को ज्ञान सागर में गोता लगाकर सच्चे मोती खोजने होंगे ।हठ धर्मिता या जेहादी जनून किसी भी काल में भारतीय संस्क्रति का अपरिहार्य अंग नहीं रहा है हम हर युग और हर काल में विशुद्ध बुद्धि की कसौटी पर कसने के पश्चात ही मूल्यों और समाज रचना की संहिताओं को स्वीकार करते रहें हैं। ऐसा ही हमें आज भी करना है ।दरअसल जनूनीपन कुछ धर्मों का ही अंग नहीं है यह आज विज्ञान कहे जाने वाले आधनिक धर्म प्रवंचना का भी अंग बन गया है।विज्ञान का कोई भी सकारात्मक अनुयायी इस बात का हठ नहीं करेगा कि जो कुछ उसने जाना है वही अन्तिम सत्य है ।ईजाक न्यूटन के काल में सर्वमान्य  वैज्ञानिक मान्यतायें आइन्स्टाइन के युग तक पहुँच कर अपनी सार्थिकता से वन्चित हो गयीं ।और अब तो प्रक्रति की रहस्यमयी प्रक्रिया को सुलझाने का दावा करने वाले नोबेल लारियेट भी नेति नेति की पुकार लगाने लगे हैं। क्लोनिंग की समस्यायें और अल्पकालीन जिजीविषा उभर कर सामने आ चुकी है ।
                                                                   जैविक गुण सूत्रों का सूक्ष्म विश्लेषण नयी मीमान्साओं की मांग कर रहा है ।बौनी मानव बुद्धि ब्रम्हाण्ड के अपार विस्तार में उलझ कर दिशा हीन सी  हो गयी है ।प्रोफ़ेसर हाकिन्स ब्लैक -होल की थियरी लेकर रहस्य व्याख्या का प्रयत्न कर रहें हैं जबकि आकाश गन्गाओं का उत्फूर्जन और विकरण किसी भी नियम संहिता को चुनौती दे रहा है।सत्य अभी बहुत दूर है और सत्य को क्या कोई मरणशील शरीर में पलती चक्षुबिन्दुओं से देख सकने की क्षमता रखता है।ज्ञान -विज्ञान का अहंकार कुछ राष्ट्रों को इतना निरंकुश बना चुका है की वे  संसार को एक ठोकर मारने वाला खिलौना समझ बैठे हैं।उनका दं म्भ है की वे मानव मात्र के नियामक हैं और वे मानव सन्तति को अपनी इच्क्षा के अनुसार आरोपित जीवन पद्धतियों में बाँध देंगे।भारत यह अहंकार न जाने कितनी बार देख चुका है और अभिमान से भरी न जाने कितनी संस्क्रतियों को रेत के विशाल विस्तारों में बदलता देख चुका है।केवल मानव संस्कृति ही नहीं देव संस्कृति भी अहंकार के इस विस्फोट से कितनी बार निर्मूल हो चुकी है ।तभी तो महाकवि प्रसाद ने कामायनी में मनु से यह विचार व्यक्त करवायें हैं ।
                                                              देव न थे, वे देव न हम हैं
                                                             सब परिवर्तन के पुतले
                                                             हाँ की गर्व रथ में तुरंग सा      
                                                             जो चाहे जितना जुत  ले ।
                                             तो मित्रो हमें दंम्भ नहीं सकारात्मक आत्म गौरव से प्राण शक्ति लेनी होगी ।पाश्चात्य जीवन पद्दति को सर्वोत्तम मानकर अपनी जीवन पद्धति को हीन भाव से देखना दासत्व की पहली पहचान है।भारत भारती की जिस पंक्ति ने स्वतन्त्रता सं ग्राम के निर्णायक क्षणों में राष्ट्र में प्राण फूंके थे वह शक्ति आज फिर और अधिक सार्थक हो उठी है ।"हम कौन थे क्या हो गये सोचो विचारों तो सही। "माटी का प्रकाशन भारतीय अस्मिता की अमर गौरव गाथा को हर आट बाट में प्रसारित करने का रचनात्मक प्रयास है।हम चाहेंगे की संसार से आती हुई हवाओं की ताजगी हम अवश्य लें ताकि हममें और अधिक स्वस्थ रक्त का संचरण हो सके पर श्वास प्रक्रिया का सयंत्र तो हमारी अपनी स्वस्थ देह में ही परिपुष्टता पा सकेगा।अन्धी गुलामी मानसिक वैश्या वृत्ति है और नयी पीढ़ी को हम इस ओर नहीं बढ़ने देंगे।महान उपलब्धियां सहज और सीमित प्रयासों को भक्ति तत्परता के साथ निरन्तरता देने से आती हैं।अपने सीमित साधनों लेकिन अपार विश्वाश का बल लेकर माटी इस दिशा में सक्रिय है।पत्रिका प्रकाशन के नाम पर हमारे देश में बहुत से प्रकाशन ऐसे हैं जो भोंडी नक़ल के अतरिक्त और कुछ नहीं।पाश्चात्य जीवन में भी काफी कुछ ऐसा है जो यदि अनुकरणीय नहीं तो ग्रहणीय तो अवश्य कहा जा सकता है पर निराशा की बात तो यह है की जीवन्त स्पन्दनों को छोड़कर मृत औपचारिकताओं के पीछे दौड़ना हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता बनती जा रही है।इसमें बहुत कुछ दोष हमारी शिक्षा पद्धति का रहा है मानव विकास की भ्रामक धारणाये फैलाना और प्रजातीय विशेषताओं की विरुदावली गाना साम्राज्यवादी व्यवस्था का एक संयोजित संयत्र रहा है ।भारत विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति का प्रतीक होने के नाते इस संयत्र का और उसके परिणाम स्वरुप देशीय संस्कृति के अधपतन का विशेष लक्ष्य बनता रहा है।स्वतन्त्रता के पश्चात भी राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी का "हे राम"और वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाने रे "को भुलाकर हम भ्रामक मार्क्सवादी भूल भुलैयों में फंस गये।फलस्वरूप भारत का इतिहास हमारे राष्ट्रीय महापुरुषों  के उपहास का कारण बन गया ।हमारी सर्वसहिष्णु धार्मिक परम्परायें और हमारी मूल राष्ट्रधर्मिता ठिठौली भरी वाग्मिता के घेरे में फंस गयी ।लगभग पांच दशकों तक ऐतिहासिकता के नाम पर जो कुछ पढ़ाया गया वह मात्र एक आरोपित और विकृत साम्यवादी दर्शन का आरोपित रूप था ।अयोध्या नगरी और मथुरा नगरी की ईशा पूर्व अस्तित्व संभावनाओं और प्रस्तार संभावनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाये गये ।मानव श्रष्टि के सर्वोत्तम विकास संभावनाओं से परिपूर्ण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और निष्काम कर्म अमर  विचारक वंशीधर श्री कृष्ण के अस्तित्त्व पर बचकानी टिप्पणि याँ लिखीं गयी।एक क्षण को भी इन छद्द्म इतिहासकारों ने यह नहीं सोचा की वे मात्र तत्कालीन शासन से झूठी प्रशंसा और झूठी कागजी मुद्रा पाने के लिये राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं।ऐसे ही कपूतों ने परतन्त्रता के लम्बे काल प्रस्तार में माँ भारती का मुंह काला किया है।प्रभात की नयी बयार चल निकली है अन्धकार की अभेद्य चादर भेद कर रश्मि रथ पर सवार राष्ट्रीय चेतना का भास्कर गतिमान हो चुका है।माटी का सम्पादक मण्डल इस दिशा में अग्रगामी पहल करेगा और असत्य के अम्बारों को अग्नि समर्पित करके उसकी भस्म से नयी मान्यताओं का संवर्धन संपोषण करेगा।हम चाहते हैं कि प्रत्येक पाठक यह मान कर चले कि अपने और अपने परिवार के प्रति उसका उत्तरदायित्व तभी पूरा माना जायेगा जब वह राष्ट्रीय चेतना के लिये निरन्तर समर्पित रहेगा और यदि आवश्यकता पड़े तो महत्तर हितों के लिये लघुत्तर हितों का परित्याग करेगा।ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य के विचारकों ,कवियों और सृजन कारों ने भारतीय दर्शन को सदैव ही हीन भाव से देखा हो कवि वर्ड्सवर्थ जब यह लिखता है।
"trailing clouds of glory ,do we come from God
That is our home or our birth is but a sleep and a forgetting."
तो वह भारतीय जीवन दर्शन को ही अंग्रेजी स्वरों में ढाल रहा है या आधुनिक काल में जब T.S.Eliot यह लिखते हैं ।" Have measured my life in coffee spoon "तो वे एक तरीके से भारतीय दर्शन में अन्तर्निहित जीवन की उच्चतर भावभूमि की तलाश की बात ही करते हैं।अमेरिकन  Emersonऔर  Thoreau  तो भारतीय दर्शन से अनुप्राणित ही हैं इतना होने पर भी अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान रखने वाला सामान्य भारतवासी भी विकलांग शिक्षा के कारण पाश्चात्य जीवन पद्धति अपनाने की गुलामी लेकर बड़ा होता है।उसे नहीं बताया जाता है कि हम पहनाव -उढ़ाव,खान-पान ,स्वागत -समारोह य अन्य सांसारिक रीति -रिवाजों के न जाने कितने विविधता भरे मार्गों से गुजर चुके हैं । हम कितनी बार कन्ठ लंगोट लगा चुके हैं ,कितनी बार सुत्थ्न पहिन चुके हैं और कितनी बार सुरा -सुन्दरी का अप्रतिबन्धित जीवन दर्शन जी चुके हैं।इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो भारत नहीं जानता और सच पूछो तो यह भारत का फेका हुआ जीर्ण -शीर्ण आवरण तन्त्र या केन्चुल है जो दुनिया आभूषण समझ कर पहिन रही है।हाँ कुछ है ऐसा जो भारत का,भारतीय जीवन दर्शन का ,भारतीय आचारसंहिता का और भारतीय अस्मिता का प्राण तत्व है।और जिसे संसार के कुछ अत्यन्त विशिष्ट आत्म सम्पन्न व्यक्ति ही समझ पाये हैं यह है भारत की जल में पलकर भी कमल जैसी निर्लिप्त रहने की क्षमता। यह है भारत की निष्काम समर्पण भावना -"त्वमैव वस्तु गोविन्दम तुभ्य मेव समर्पये "
                                                                              माटी किसी भी एकांगी दर्शन में विश्वाश नहीं करती।एक समन्वित जीवन पद्धति ,अनेकान्त दर्शन से अनुप्रेरित जीवन द्रष्टि और ब्रम्हांडीय विस्तार की प्राणवत्ता उसका आधार है।हर धर्म के मूल में मानव कल्याण की भावना सन्निहित है \सर्वे भवन्तु सुखिन :सर्वे सन्तु निरामय :।सुदूर अतीत से गूँज कर आता यह स्वर हमें जकझोर देता ,अनुप्रेरित करता है और प्राणवान बनाता है -तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्यो माँ अम्र्तम गमयेत
                                                                                         आइये महाकवि मिल्टन के इन शब्दों के साथ हम अपनी बात समाप्त करें ।
           "  Illumine what is dark in me Raise and support to the heigth of that argument so that I may justify the ways of God to man "
                                    माटी संस्क्रति उत्थान के इस श्रम साध्य मार्ग पर चल निकली है ।हम आपके सहयोग की आकांक्षा करते हैं और महाकवि गुरु रवीन्द्र का यह अमर सन्देश हमारे पास है "यदि तोर डाक शुने ,केऊ न आसे।तबे तुम एकला चलो ,एकला चलो ,एकला चलो रे ।।" तो आइये इस चिरपरचित शेर को एक बार फिर दोहरावें "हम अकेले ही चले थे जानिबे मंजिल मगर .हमसफ़र मिलते गये और कारवाँ बनता गया ।"

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

मुझे प्यार चाहिए

काम का उन्माद नहीं ,
मन की उद्दंडता नहीं ,
चित्त में चंचलता नहीं ,
निर्मल भावों  से भरा ,
प्यारा सा संसार चाहिए ...

मुझे प्यार चाहिए ........

बंधन न हो अश्रु के ,
नयन न रोके मुझे ,
गरिमा के बंधन से बंधा ,
भविष्य का निर्माण चाहिए ,

मुझे प्यार चाहिए ........    "अमन मिश्र "

बुधवार, 14 नवंबर 2012

"प्रताप" की सौवी वर्षगांठ पर केबीए की ओर से समस्त ब्लागर्स को बधाई

9 नवम्बर 2012 से "प्रताप" की 100वी जयंती का आगाज हुआ है. इस अवसर पर कानपुर ब्लागर्स असोसिएशन पाठको को हार्दिक बधाई प्रेषित करता है. 9 नवंबर, 1913 को गणेशशंकर विद्यार्थी जी ने  हिंदी साप्ताहिक पत्र  "प्रताप" के नाम से निकाला और प्रकाशन के 7 वर्ष बाद 1920 ई. में विद्यार्थी जी ने उसे दैनिक कर दिया. "प्रताप" किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा. उसमें देशी राज्यों की प्रजा के कष्टों पर विशेष सतर्क रहते थे. "चिट्ठी पत्री" स्तंभ "प्रताप" की निजी विशेषता थी. विद्यार्थी जो स्वयं तो बड़े पत्रकार थे ही, उन्होंने कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि बनने की प्रेरणा तथा ट्रेनिंग दी. भगत सिह 'प्रताप" मे "बलवंत सिह के नाम से लिखते थे. विद्यार्थी जी "प्रताप" में सुरुचि और भाषा की सरलता पर विशेष ध्यान देते थे. सरल, मुहावरेदार और लचीलापन लिए  एक नई शैली का इन्होंने प्रवर्तन किया.
आज जब प्रेस की विश्वसनीयता पर इतने सवाल उठाये  रहे है, कहा जा रहा है कि मीडिया बिक गया है मीडिया मे चल रही खबरे पूंजीपतियो द्वारा बनायी गयी होती है इत्यादि. ऐसे मे "प्रताप" की बहुत याद आती है. यह सच है कि आज जितने भी अखबार निकल रहे है वह सब बडे बडे पूंजीपतियो के है इन पूजीपतियो के हित और सम्बन्ध राजनेताओ से लेकर कार्पोरेट जगत से जुडे है. ऐसे मे प्रश्न उठना लाजिमी है क़ि खबरे बनायी गयी है या वास्तविक है. आप अनुमान नही लगा सकते है आज का पत्रकार पुलिस से भी ज्यादा खतरनाक हो गया है मैने एक दिन देखा कि चौराहे पर पुलिसवाले ने एक ट्रक से वसूली की तब तक एक पत्रकार वहा पहुच गया या और उसने उस पुलिसवाले से वसूली कर ली. अब पूंजीपति समूहो  के प्रतिबद्ध रवैये और स्थानीय पत्रकारो के वसूलाना अन्दाज ने पत्रिकारिता की दुर्गति कर दी है. ऐसे मे "प्रताप" की बहुत याद आती है.  
एक बार विद्यार्थी जी के सम्मान में ग्वालियर स्टेट में महाराज सिंधिया ने रात्रि भोज का आयोजन किया और उपहारस्वरूप उन्हें एक शॉल भेंट की. विद्यार्थी जी इस बात को समझ गए कि महाराज यह शॉल उपहार स्वरूप नहीं, बल्कि सुविधा-शुल्क के तौर पर दे रहे हैं, ताकि प्रताप में कभी भी ग्वालियर स्टेट के विरुद्ध कोई टिप्पणी प्रकाशित न हो. इच्छा ना होते हुए भी विद्यार्थी जी ने महाराज से शॉल ले लिया, ताकि उनका अपमान न हो, किंतु उन्होंने इस शॉल को अपने जीवन में एक बार भी प्रयोग न किया. वह बक्से में पड़े-पड़े ही बेकार हो गया. 
आज इस किसिम का उदाहरण दुर्लभ है. वर्तमान समय मे इंटरनेट ने एक विकल्प दिया है जहा बिना कोई अधिक पूंजी निवेश के सच बात कही जा सकती है. लिखी जा सकती है और पढी जा सकती है. विद्यार्थी जी की परम्परा को आगे बढाया जा सकना मुमकिन है.यह बताते हुये प्रसन्नता हो रही है कि कानपुर ब्लागर्स असोसिएशन नकल माफियाओ के विरुद्ध सफलतापूर्वक अभियान चला कर एक  उदाहरण प्रस्तुत किया है.
आज ब्लागर्स पर महती जिम्मेदारी है कि वह पूंजीपतियो द्वारा गढे जा रहे संजाल को तोडते हुए विद्यार्थी जी द्वारा  "प्रताप" के माध्यम से रचे गये प्रतिमानो को पुनर्स्थापित करे.
पुनश्च "प्रताप" की सौवी वर्षगांठ पर केबीए की ओर से समस्त ब्लागर्स को बधाई

साहित्य जब उद्द्योग का रूप ले लेता है

साहित्य जब उद्द्योग का रूप ले लेता है तब उसमें सत् का अंश लगभग न के बराबर हो जाता है ।1990के बाद आर्थिक प्रगति के दौर में भारतवर्ष ने जीवनमूल्यों की तराश के लिये अमरीकी अर्थशास्त्र के औजार अपना लिये।शायद यह एक  अनिवार्यता बन गयी थी क्योंकि तकनीकी विस्तार के स्तंम्भित कर देने वाले दौर में दुनिया से अलग हटकर रहना संभव ही नहीं है। आर्थिक प्रगति की इस होड़ा -होंड़ी में साम्य वादी देश चीन को भी यह स्वीकार करने पर बाध्य होना पड़ा है कि "To be Wealthy is to bee honourable."एक पार्टी की हुकूमत होने पर भी चीन ने मुक्त बाजार का व्यापार नियम स्वीकृत कर लिया है और आज उसकी अर्थव्यवस्था संसार की सबसे तेजी से बढ़ रही आर्थिक प्रगति का बेमिसाल उदाहरण बन गयी है। भारत ने अपनी बहुलवादी जनतान्त्रिक परम्परा के कारण चीन की आर्थिक प्रगति को पछाड़ देने की ताकत तो नहीं दिखा पायी है पर फिर भी 8-9 प्रतिशत की,उसकी आर्थिक प्रगति संसार की दूसरे नम्बर की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था मानी जाने लगी है ।यह सभी कुछ शुभ है क्योंकि शायद कुछ दशकों के बाद भारत की गरीबी में एक थमाव आ जाय पर ऐसा तभी होगा यदि आचरण की पवित्रता धन लोलुपता की कालिमा से कलुषित न हो उठे। पर हम जो कहना चाहते हैं उसे तब तक स्पष्ट नहीं किया जा सकता जब तक अर्थशास्त्र के कुछ मूलभूत सिद्धांतो को हम ठीक ढंग से न समझ लें।बोतल में बंद जिन को ढाट से कसकर नियन्त्रित किया जा सकता है।पर कसाव के हटते ही उसका धूमिल वायुवीय प्रस्तार गगन को आच्क्षादित कर लेता है। इस प्रस्तार को फिर से संकुचित कर नियन्त्रण की सीमा में ले आना एक अद्दभुत कौशल की बात है।और इसके लिये राष्ट्रव्यापी इच्क्षा  शक्ति की आवश्यकता होती है।एकल राजनीतिक दल वाले चीन में सत्ता का दण्ड विधान इतना कठोर है कि प्रत्येक सरकारी भ्रष्टाचारी को मौत फन्दा अपने  सामने लटकता दिखायी पड़ता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहां लगभग न के बराबर है। लौह शिकंजों से नियन्त्रित उनकी अर्थव्यवस्था इसलिये अवाधित गति से बढ़ती जा रही है।भारत के बीसों परस्पर विरोधी राजनैतिक स्वर और कई स्तरों वाली न्याय व्यवस्था किसी भी सोद्देशीय  नियन्त्रण को यदि अस्संभव नहीं तो दुरूह अवश्य बना देती है ।अभिव्यक्ति की तथा कथित स्वतन्त्रता मन की अपवित्रता को लुभावने आवरणों में ढाक कर कानूनों के रंगीन ताने बाने बुनती रहती है। सदैव से यह कहा जाता रहा है कि भारत एक धर्म प्राण देश है।पूज्य  गांधीजी तो राजनीति को धर्म से अलग करके देखते ही नहीं थे । उनके लिये राजनीति में आने वाला व्यक्ति सन्यासी का समानार्थी था जिसे अपने को मिटाकर दूसरों को पल्लवित करना होता है। पर गांधीजी युग मसीहा थे पर संसार मसीहाओं के स्मृति   जलसे तो सजाता है पर उनके दिखाये मार्ग पर चल ही नहीं पाता क्योंकि शायद चल पाना असंभव ही है।इस समय का सत्य तो यह है की भारत में धर्म भी एक इंडस्ट्री बन चुका है। और किसी भी उद्योग का सबसे पहला लक्ष्य अपने को विस्तारित करना और दूसरों के लिये नवीनता और सन्तोष प्रदान करने के नाम पर उद्योग के संचालकों के लिये अपार वैभव एकत्रित करना।धर्म के अनेकानेक पन्थ उद्योगपतियों,बड़े व्यापारियों,प्रवासी भारतीयों और काले धन के ढेर पर बैठे शेखों ,सेठों और तस्करों से सन्चालित हो रहें हैं ।                               
                  जब धर्म की व्याख्या ही बदल रही है तो साहित्य का सद्द कैसे अछूता रह सकता है इसलिये अब साहित्य भी एक उद्द्योग है।अंग्रेज़ी में जिसे क्राइम कहते हैं उसी के शताधिक रूप आज के साहित्य में झलकते दिखाई पड़ते हैं। अपराध सोने की गलियों को पार करता हुआ नारी योनि की कुहाओं में पाठकों को भरमाता रहता है। पवित्रता का आवरण ओढ़ कर भी सांकेतिक शब्दों और वाक्य रचनाओं के द्वारा मानव की पशु वृत्ति को सभ्यता का प्रगति वाहक बनाया जा रहा है। जो बिक रहा है वही साहित्य है।धर्म को भी बिकवाली के दौर में लाने के लिये पौराणिक सन्दर्भों के छलावे में नयी -नयी किस्सा कहानियों से अभिभूषित किया जा रहा है। अब भारतीय परम्परा में पला पुसा हिन्दी का रचनाकार यदि अपने को इस दौर में अपने को अपंग पा रहा है तो उसका इसमें क्या दोष। एन .डी .ए .सरकार के पूर्व प्रधान मन्त्री शब्द -शिल्पी,काव्य श्रष्टा और प्रखर मनीषी श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने एक बार कहा था कि वे बिक रहें हैं। यानि उनकी रचनायें बिक रही हैं। यही उन रचनाओं की सार्थकता का प्रमाण है। हम नहीं जानते की अब वे कितना बिक रहें हैं या प्रतिबद्धित खरीददारों के अतिरिक्त भी उनकी बिकवाली का दायरा कुछ बढ़ा है या नहीं। पर इसमें शक नहीं है की अपने समय के सच्चे विश्लेषक होने के नाते वे यह जानते थे की आने वाले विश्व में एक मात्र सच्चाई यही रहेगी कि कौन कितना बिक रहा है। चाहे राजनीति हो ,चाहे धर्म ,चाहे साहित्य ,चाहे उद्योग ,चाहे व्यापार ,चाहे विज्ञान ,चाहे तक्नालाजी, चाहे आकाश का शून्य ,चाहे धरती का ठोस धरातल सभी जगह जो सबसे अधिक बिकेगा वही सबसे अधिक प्रभावशाली माना जायेगा। न जाने क्यों हम इस द्रष्टिकोण से सहमत नहीं हो पाते। प्रत्येक व्यक्ति की चेतना उसे संसार के अन्य सभी व्यक्तियों से एक सर्वथा अलग अस्तित्त्व का भान कराती है।इस अनुभूति का सामयिक संदर्भों में भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करना ही साहित्य की प्राण धर्मिता है ।जीवन यापन के लिये शब्दों का शिल्पकार अपनी कला से यदि पर्याप्त सुविधाये जुटा ले तो यह उसके लिये गौरव की बात है और यदि ऐसा न भी हो तो उसे जीवन यापन के लिये विधि सम्मत अन्य मार्गों की तलाश में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।अवकाश के क्षणों में चिन्तन की गहराई उसे जहां कंही ले जाती है उसे शब्द बद्ध करने में उसे जो सुख मिलेगा वह झूठी प्रशंसा और मोल तोल से अलग एक दिब्य पुलक भरी अनुभूति काअहसास दे पाने में समर्थ होगा। सच्चे संन्त जिस प्रकार परमसत्ता की झलक पाकर शब्द सामर्थ्य खोकर मूक  हो जाते है वैसे ही अन्तस चेतना की गहरी अनुभूति रचनाकार को पहले मूक कर देती है और फिर प्रभाव की तीब्रता कुछ कम होने पर उसे शब्दों में संजोने का साहस दे पाती है।न जाने कितने अजूबे प्रथ्वी की छाती पर खड़े किये जा चुके हैं और खड़े होते रहेंगे । मिश्र के परामिडों से लेकर दुबई के सो मन्जिला टावर तक और ताजमहल से लेकर मुकेश अम्बानी के स्वप्न सौंध तक । अनूठे गढ़न की प्रक्रिया चल रही है पर फिर भी हमारे चारो ओर इतना अनगढ़ा पड़ा हुआ है। सच्ची इन्सानी सभ्यता की नीव भी तो अभी तक नहीं भर पायी है । Nation State की धारणा भी अभी तक पुष्ट नहीं हुई है । फिर Global Village की धारणा की पुष्टि होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता ।वनमानुष से हम अर्ध मानुष ही बन पाये हैं। हाँ बीच बीच में गौरी शंकर या कन्चन जंगा की कुछ चोटियाँ हमें इस बात की झलक अवश्य दिखा देती रही है की मानव कितनी ऊंचाई तक पंहुच सकता है।सितारों के इस झिलमिल संसार का सह्रदय और सुविज्ञ दर्शक बन पाना भी नर जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । माटी तो मर कर भी अमर है, मिट कर भी अमिट है। सिरों पर सजे हुए ताज और भिखारी के हांथों की लकुटिया सभी को मिट्टी की गोद में सोना है ।पर इस अंतिम शयन तक पहुचने के पहले हमने प्रकाश के कितने उजास अपने ओक में भरने की कोशिश की है यही हमारे जीवन की सार्थकता है । उगते और अस्त होते हुए सूर्य का सौंदर्य और दोपहर के सूर्य का प्रकाश  हमें जीवन के अनिवार्य नियमों की शिक्षा देता है। क्या हुआ यदि हिन्दी का सुरुचिपूर्ण साहित्यकार विदेशी भाषाओं की कौंध में पहचाना नहीं जा रहा है ?क्या हुआ यदि आज हिन्दी के माध्यम से मानव सभ्यता के सनातन सत्यों को प्रकट करने वाला शब्द शिल्पी उपहास का पात्र बनाया जा रहा है ? क्या हुआ यदि ग्राम्य जीवन की धूल भरी गलियों से नव रचना के जीवांश खोजने वाला श्रष्टा दार्शनिक सार्थकता की मन्जिल पाने में असमर्थ हो रहा है ।यह दौर भी मानव इतिहास की विस्मरण गाथाओं का एक हिस्सा बनकर रह जायेगा ।चर्चित होने के लिये ,मुख मुद्रित होने के लिये, पदार्थी होने के लिये , बाजार में बिकने के लिए खड़ा होना चाटुकारिता का धर्म हो सकता है पर साहित्यकार की आत्मा का सन्देश नहीं। हम हिन्दी के तरुण रचनाकारों से संकट के इस घड़ी में साहस की मांग करते हैं ।न जाने कहाँ से न जाने किस फिल्म  की सुनी हुई दो तीन पंक्तियाँ स्मृति पटल पर उभर आयी हैं ।
              "न सर छुपा के जियो  ,न सर झुका के जियो  ,
              ग़मों का दौर भी आये तो सर उठा के जियो "

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

मरुथल की छाती फोड़कर निकलने वाला जीवन्त अंकुर किसी सिचाई की मांग नहीं करता।

योरोपीय सभ्यता प्राचीन यूनानी सभ्यता को अपने आदि स्रोत के रूप में स्वीकार करती है। निसन्देह ईसा पूर्व यूनान में विश्व की कुछ महानतम प्रतिभायें देखने को मिलती हैं। सुकरात ,प्लेटो (अफलातून )और अरिस्टों टल (अरस्तू )का नाम तो शिक्षित समुदाय में सर्वविदित ही है पर बुद्धि परक मीमांसा का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ प्राचीन यूनानी प्रतिभा ने अपनी अमिट छाप न छोड़ी हो इसी प्राचीन यूनान में स्पार्टा के नगर राज्य में मानव शरीर की प्राकृतिक विषमताओं से लड़ने की आन्तरिक क्षमता को मापने का एक अद्धभुत प्रयोग किया था। ऐसा माना जाता है कि स्पार्टा नगर राज्य में जन्म लेने वाला प्रत्येक शिशु नगर के छोर पर स्थित एक विशाल समतल प्रस्तर पर निर्वस्त्र छोड़ दिया जाता था । दिन रात के चौबीस घन्टे उसे अकेले चीखते,चिल्लाते छांह ,धूप ,प्रकाश,अन्धकार और कृमि कीटों से उलझते -सुलझते बिताने पड़ते थे । आंधी आ जाय या मूसलाधार वर्षा उसे आठ पहर ममता रहित उस चट्टान पर निर्वस्त्र काटने ही होते थे । इस दौरान यदि प्रकृति उसका जीवन समाप्त कर दे तो स्पार्टा का प्रशासन उसे मात्र भूमि की माटी में अर्पित कर देता था और यदि वह बच जाय तो उसका हर प्रकार से लालन -पालन कर उसे स्पार्टा नगर राज्य का समर्थ चट्टानी पेशियों वाला जागरूक नागरिक बनाया जाता था ।प्राचीन इतिहास के मनीषी पाठक जिन्होंने विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का गहनतम अध्ययन किया है जानते ही हैं की स्पार्टा नगर राज्य और एथेन्स  के नगर राज्य में बहुत लम्बे समय तक संघर्ष की स्थिति रही थी और अन्तत :अपनी सारी सम्रद्धि ,वैभव और ज्ञान विपुलता के बावजूद स्पार्टा का पलड़ा भारी रहा था । हमें स्वीकार करना ही होगा कि मरुथल की छाती फोड़कर निकलने वाला जीवन्त अन्कुर किसी सिचाई की मांग नहीं करता। ब्यक्ति का आन्तरिक सामर्थ्य जिसमें शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का कान्चनमणि संयोग शामिल है उसे जीवन संग्राम में अपराजेय योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित करती है। काया का बाह्य आकार अन्तर की विशालता का प्रतीक नहीं होता।शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता किन्ही उन आन्तरिक शक्तियों से प्रतिचालित होती है जिन्हें मानव के वरण -अवरण की प्रक्रिया के द्वारा लाखो -लाख वर्षों में पाया है।बौद्धिक कुशाग्रता और जिसे हम प्राण शक्तियां प्राणवत्ता के रूप में जानते हैंवो  भी चयन -अचयन की लाखों वर्षों की दीर्घ प्रक्रिया से गुजर कर आयी है। हर श्रेष्ठ मानव सभ्यता  प्राचीन या अर्वाचीन इसी विरासत में पायी असाधारण आन्तरिक क्षमता को प्रस्फुटन -पल्लवन का काम करती है ।पोषण ,सिंचन और संरक्षण पाकर भी कुछ लता ,पादप- तरु थोड़ा बहुत बढ़कर सीमित विकास को समेटे विलुप्त होने की सनातन प्रक्रिया का अंश बन जाते हैं।और कुछ हैं जिन्हें ओक ,बरगद और देवदार बनना होता है। शताब्दियाँ उनको छूकर निकल जाती हैं और वे सिर - ताने खड़े रहते हैं।पर आकार की विशालता ही श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है। रग पेशियों की द्रढ़ता प्रभावित अवश्य करती है पर सनातन नहीं होती।कुछ पैरों से निरन्तर दलित,मलिन होने वाली वनस्पति प्रजातियाँ भी हैं जो काल की कठोर छाती पर अपनी कील ठोंककर अजेय खड़ी हैं।विनम्र घास और सदाबहारी निरपात और प्रान्तीय लतायें इसी श्रेणी में आती हैं। सनातन धर्म वाले सनातन  भारत का विश्व को यही सन्देश है कि केवल आन्तरिक ऊर्जा,दैवी स्फुरण , प्रज्ञा पारमिता या समाधिस्त संचालित जीवन ही काल को जीतकर अकाल पुरुष तक ले जाता है ।      

             व्यक्ति का चाहना या न चाहना निर्मम प्रक्रति के विस्मयकारी और अबाधित गतिमयता में कोई परिवर्तन ला पाता है इस पर मुझे सन्देह है।पर यदि चाहना का कोई सकारात्मक प्रभाव होता है तो मैं चाहूँगा कि माटी अपनी अमरता अपने कलेवर में समेंट लेने वाली मन्त्र -पूत सामिग्री से सन्चित करे निर्वात दीप्त शिखा की भांति प्रकाश पुंजों की श्रष्टि ही उसके साधन बने और साध्य भी।आकाश गंगा की तारावलियां और ज्योतित पथ उसे अमरत्व का ऊर्ध्वगामी पथ दिखायें -इसी कामना के साथ ।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

मेरा उपहार


             रात्रि बारह बजे से ही जन्मदिन के बधाइयों कोई सन्देश से तो कोई कॉल करके दे रहा है | सबसे पहली शुभेच्छा उसकी ही थी जिसका पिछले छः सालों से पहला होता है | कुछ लोग उपहार स्वरुप कुछ दिए |
फिर यूँ ही बैठा था तो किसी ने  कहा आज के दिन का सबसे अच्छा उपहांर तुम्हारे लिए कौन सा होगा तो हमने कहा आज बिना किसी प्रकार का नुकसान किये हुए दीपवाली मना ले और इस पर्यावरण को प्रदूषण से बचा ले यहीं हमारे लिये सबसे अच्छा उपहार होगा |  सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं .........

माटी चाहेगी कि समर्थ रचनाकार अपनी सबल अभिव्यक्तियाँ कलात्मक रूप में सवांर कर माटी में प्रकाशनार्थ भेज कर हमें गौरवान्वित करेंगें।

धरती पर जीवन का आविर्भाव क्यों और कैसे हुआ -इस विषय पर विश्व के मनीषियों के मत- मतान्तर युगों युगों से ध्वनित होते रहे हैं । मानव आविर्भाव के पीछे आकस्मिक संयोजन की शक्ति थी या कोइ दैवी विधान इस बात को लेकर भी सहस्त्रों ग्रन्थों ,उपग्रन्थों की रचना हुई है । माटी का सम्बन्ध माँ भारती के रजकणो से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसलिये माटी भारतीय दर्शन की पक्ष धर है ।और यह मानकर चलती है कि ऊर्ध्वमुखी विकास निरन्तर परमसत्ता की ओर ले जाने का सोद्देश्य प्रयास है।आर्ष मनीषियो ने सौ वर्षों तक स्वस्थ्य रूप से जीने की मानवीय क्षमता  का न केवल उपदेश दिया है बल्कि इस जीवनावधि के लक्ष्य को प्राप्त कर शत- सहस्त्र रूप में इसे व्यवहारिक धरातल पर भी सिद्ध करके दिखाया है।मानव प्रजाति के बेजोड़ शोधकर्ता फ्रान्स के महान बुद्धिजीवी लेवी स्ट्रास ने पूरे सौ वर्ष जीकर विश्व के समक्ष मानव के शतायु होने की क्षमता को पूर्ण रूप से चरितार्थ कर दिखाया है ।भारत में तो कर्मयोगियों और जितेन्द्रिय महापुरुषों के ऐसे अनगिनित उदाहरण उपस्थित हैं ।कृमि -कीटों ,पशु -पक्षियों,सरी -स्रपों ,जलचरों और नभचरों की भी अपनी अपनी आयु सीमाएं हैं। भूमण्डल भी परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरता रहता है ।जलनिधि ,मरुनिधि बन जाते हैं ।और पर्वत श्रंखलायें क्षार -क्षार होकर अनेकानेक रूप लेती रहती हैं । शायद विनाश ,नव श्रष्टि और निरन्तर परिवर्तन का यह क्रम हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं पर भी उतने प्रभावी रूप से लागू होता है जितना कि पदार्थ निर्मित ब्रम्हांड की प्रत्येक वस्तु पर। पदार्थवादियों की द्रष्टि में पदार्थ ही परम सत्ता है।और इसलिये वह भले ही असंख्य रूपों में परिवर्तित हो पर उस परिवर्तन में उसका अम्रत्व निश्चित होता है ।हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी जन्म,विकास और म्रत्यु की न जाने कितनी सरड़ीयाँ पार की हैं।इसलिये माटी शाश्वत निरन्तरता का दावा नहीं कर सकती पर जिस इच्छाशक्ति से उसका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ है वह इच्क्षाशक्ति शक्ति  अभी तक समुद्र की विक्षोभ भरी लहरियो के बीच अटल लाइट हाउस की तरह अपने केंन्द्र पर स्थित है।यदि माटी के सुधी पाठक अपने आदर ,विश्वाश और ज्ञान की ऊर्जा हमें प्रदान करते रहेंगे तो माटी अपने अस्तित्व की निरन्तरता के लिये नयी शक्ति लेकर आगे बढ़ती जायेगी ।                                    

              शरद ऋतु का आगमन रचनात्मक प्रतिभा के लिये वैचारिक क्षमता के  शक्ति मान तत्व प्राक्रतिक परिवर्तनों में बिखेर जाता है। ऋषियों ने जब जीवेन शरद : शतम के बात कही थी तो सम्भवत : वर्ष का प्रारम्भ भी शरद ऋतु से ही माना जाता होगा। मैथली शरण जी ने कहा भी तो है कि शीत में ही सत होता है।माटी चाहेगी कि समर्थ रचनाकार अपनी सबल अभिव्यक्तियाँ कलात्मक रूप में सवांर कर माटी में प्रकाशनार्थ भेज कर हमें गौरवान्वित करेंगें। विश्व के इतने बड़े जन समुदाय की अभि व्यक्ति का माध्यम होकर भी हिन्दी का कोई शब्द शिल्पी अभी तक अन्तराष्ट्रीय ख्याति अर्जित नहीं कर सका है।अपनी विभिन्न बोलियों को समावेशित करने के बाद हिन्दी का स्थान विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली दो -तीन भाषाओं में आ जाता है।पर विस्तार के इस अपार वैभव को अभी तक एक अन्यतम छवि के रूप में वह परिवर्तित नहीं कर सकी है । हम जानते हैं कि अनेक कारणों में से भारत की पराधीनता भी इसका एक प्रमुख कारण है।पर अब जब हम एक आर्थिक और सामरिक शक्ति के रूप में विश्व पटल पर उभर कर आ रहे हैं।तो हमें हिन्दी के रचनाकारों से विश्वस्तरीय रचनाओं की अपेक्षा करनी ही होगी।और इसके लिये चाहिये अध्ययन की विशालता। संस्क्रत के अतिरिक्त विश्व की प्रमुख भाषाओं का साहित्यिक परिचय यदि मूल भाषा के माध्यम से हो नहीं तो कम से कम अंग्रेजी भाषा के माध्यम से।  साथ ही रचनाकारों को, आधुनिकतम तकनीकीविकास , सूचना प्रोद्योगकीय और अंतरिक्ष प्रवेश के मूलभूत सिद्धान्तों से भी परचित होना होगा। जीवन मूल्यों की सनातनता सुनिश्चित करने के लिये उन्हें सामाजिक अग्निपरीक्षा से निकाल कर विश्वस्तरीय मान्यताओं से संयुक्त करना होगा।माटी यह विज़न अपने सामने रख कर चल रही है।हम जानते हैं हमारी क्षमतायें सीमित हैं और माटी से सबन्धित प्रतिभाये भी असीमित नहीं हैं।पर अपनी सीमाओं में हम माटी के पन्नो पर काल को चुनौती देने वाले अक्षर उद्द्गारों को समाहित करने का अथक प्रयत्न करते रहेंगे।इस दिशा में हमारी प्रतिबद्धता किसी भी सन्देह से ऊपर है।हाँ हमें चाहिये आपका भरपूर प्यार और यदि आपको आवश्यक जान पड़े तो रचनात्मक सुझाव और समालोचना द्रष्टि।इस अवसर पर आप सबके जीवन में दीपावली का त्यौहार और कपासी चाँदनी उल्लास बिखेरती रह माटी की झोली में भी चांदनी की ये मिठास भरी खीलें पड़ती रहें यही हमारी कामना है ।

तुम मुझे तारो न तारो राम

तुम मुझे तारो न तारो राम 
मै नहीं करता तुम्हे बदनाम 
पतित पावन नाम की देकर दुहाई 
मै न दंगल के लिये ललकारता हूँ 
दीन बन्धू की सुजस चर्चा बहुत है 
दींन बनना हेय पर मै मानता हूँ ।
अब निरंकुश राज्य सत्ता
चल न पायेगी कंही पर 
राय लेने द्वार पर आना पड़ेगा 
है बने रहना अगर सत्ता शिखर पर 
जो कहें हम गीत वह गाना पड़ेगा ।
घिस गये हैं वोल सदियों के चलन से

हो गये खोटे पुराने दाम
"धनिक की दुनिया अभी तक है सुरक्षित
पर न निर्धन के रहे अब राम "
इसलिये अब दीन को दुनिया दिला दो
तुम कुबेरों के रहो मेहमान
तुम मुझे तारो न तारो राम
मै नहीं करता तुम्हे बदनाम ।।
दूसरे का छीनना हक़ आज का युग धर्म है
न्याय का लेबल लगा अन्याय करना कर्म है
पूर्ण संरछण सुनहरे चोर तुमसे पा रहे हैं
दीन बलि देकर सभी से दीनबन्धु कहा रहे हैं
दीन बनकर इसलिये अब द्वार आना ब्यर्थ है
पाप संरक्षित तुम्ही से, पतित का क्या अर्थ है ?
विक गये तुम , किन्तु निष्ठा अभी कवि की अनबिकी है
तरण -नौका की स्वयं पतवार लेकर
वह डटा है
हट गये तुम मार्ग से
या
(छद्दम लीला कर रहे हो )
पर नहीं अब तक हटा
सामान्य- ज्ञान विश्वाश है ।
घंटियाँ घन्टे बहुत हैं बज चुके
पूज्य अब कवि के लिये
बस
जन समर्पित मुक्ति -मार्गी काम है ।
तुम मुझे तारो न तारो राम
मैं नहीं करता तुम्हे बदनाम ........

रविवार, 4 नवंबर 2012

कानपुर के कॉलेज में तालिबानी फरमान, बुर्का जरूरी और मोबाइल बैन


कानपुर में एक गर्ल्स कॉलेज ने तालिबानी फरमान जारी किया है। वहां पढ़ने वाली छात्राओं के लिए बुर्का और स्कार्फ अनिवार्य कर दिया गया है। अब कॉलेज में मुस्लिम लड़कियां केवल बुर्का पहनकर ही आ सकती हैं। यहां तक कि कॉलेज में अब गर्ल्स सेलफोन लेकर भी नहीं आ सकती हैं। मुस्लिम जुबली गर्ल्स इंटर कॉलेज के मैनेजमेंट ने यह फरमान सुनाया है।

मैनेजमेंट ने आदेश दिया है कि इस नियम का सख्ती से पालन करना होगा। नए फरमान के खिलाफ जाने पर कॉलेज ने छात्राओं को निकालने की धमकी दी है। कॉलेज प्रशासन ने कहा कि यह फैसला इस्लामिक संस्कृति को प्रमोट करने के लिए किया गया है। स्कूल सोसायटी के एक मेंबर ने कहा कि इसमें गलत क्या है? यहां की ज्यादातर छात्राएं अपने मन से बुर्का पहन कर आती हैं।

इसके साथ यदि अलग से स्कार्फ ले लेंगी तो क्या फर्क पड़ जाएगा। उन्होंने कहा कि इस्लामिक देशों की लड़कियां हमेशा स्कार्फ रखती हैं। इसमें इस्लामिक संस्कृति की झलक मिलती है। उन्होंने मोबाइल के प्रतिबंध पर कहा कि इमर्जेंसी की हालात में गर्ल्स, कॉलेज के प्रिंसिपल से संपर्क कर सकती हैं। कॉलेज की ज्यादातर लड़कियों ने इस तालिबानी फरमान का विरोध किया है। लड़कियों ने सेल फोन बैन करने पर कहा कि यह हमारी सुरक्षा के लिए जरूरी है। हम इससे परिवार के संपर्क में हमेशा रहते हैं। उन्होंने स्कार्फ को भी अनिवार्य करने पर आपत्ति जतायी है।(नवभारत टाईम्स की खबर्)
अब सवाल उठता है कि बुरका पहनना घूंघट लेना जींस न पहनना सही है या गलत. समाज मे आजादी के नाम पर व्यभिचार के खुल्ले खेल को देखकर लगता है कि शायद यह एक प्रतिरोधात्मक कदम है. किंतु यह शायद ही है सन्देहास्पद ही है. जब तक व्यक्ति स्व नियंत्रण मे नही आता तब तक ना कोई बुर्का ना घूघट ना खाप ना कोई बाह्य नियंत्रण नंगनाच को रोक पायेगा और जब स्वनियंत्रण हो जाता है दिगम्बरी घूमे या सारी दुनिया दिगम्बरी हो जाये कोई फरक नही पडेगा. तब तक तालिबानी खापी आदेशो पर बवाल झेलते रहिये.

ऐ प्रेम तुम हो क्या?

 ऐ  प्रेम तुम हो क्या?
 समर्पण का  नाम ,
या निर्मल सा एक भाव ?

 किसी ने  पाया  तुम्हे उजाले में,
किसी  ने अंधेरो में पाया,
कोई कहता है की सुख हो तुम ,
कोई कहे दुःख  की छाया .
ऐ  प्रेम तुम हो क्या?

एक  सरसराहट से ,
       एक झनझनाहट से ,
मीठी सी बोली से ,
   चुभते से बाणों से .
    एक एहसास हो   , 
      जो अनकहा है ,
या  पन्ना  जिंदगी का ,
जो अनछुआ है .
 ऐ  प्रेम तुम हो क्या ?

कोई त्याग में देखता है तुम्हे ,
कोई ममता में मानता है ,
किसी के लिए शांति हो तुम ,
कोई युद्ध से  जानता  है .
दिव्यता की मूरत हो  ,
या  सुन्दर सा ख्वाब हो  .
  ऐ  प्रेम तुम हो क्या?
 ऐ  प्रेम तुम हो क्या?
                                                 "अमन मिश्र "