रविवार, 6 नवंबर 2011

बेचैनी

आज आफिस में मैं बहुत ही अच्छे मूड में हूँ अपनी फाईल निपटा के नागर जी दवरा लिखित चैतन्य महाप्रभु किताब के आखरी चार पन्ने समाप्त करती हूँ मन खुश है कोई भी ऐसे महापुरुष के बारे में पढ कर मेरा मन हमेशा ही प्रफुल्लीत हो जाता है होटो से अपनी लिखी हुई एक पुरानी कविता फूट पड़ी तब तक मन हुआ चाय  पी जाये घंटी पे हाथ जाता ही है की चपरासी के दर्शन होते है मैम जी बाटनी मैम आप से मिलना चाहती है आरे मैं आश्चर्य चकित होती हूँ उन्हें परमिशन की क्या आवश्यकता आने दो ,जी वो कहा कर चला जाता है .
  अरे  सुगंधा  जी क्या बात है सब ठीक तो है मेरे आफिस में आप टीचर तो कभी भी आ सकते है फिर ये औपचारिकता क्यों ?
 सुगंधा   जी - मैम आज बात सिर्फ पढाई की नहीं है 
मैं - तो जो है वो कहो , और सुगंदा जी शुरू हो जाती है मैम - मैं इस महीने  लेट आई कई वार उसका उस दिन  वो कारन था उस दिन जो नहीं आ पाई सही टाइम से उसका ......... वो मुझे कारण  गिनाती है और लगातार तीस मिनिट तक वो अपनी सारी समस्या मुझे सुना कर प्रसन्न दिखाई देती है . सुगंधा   जी कहती है मैम मै बहुत बेचैन थी आप ने मेरी समस्या सुन ली अब मेरी बेचैनी दूर हो गई . बेचैनी भी बड़ी आजीब होती है जब होती है तो उसके आगे हमें कुछ नहीं दिखाई पड़ता ऐसा लगता है की ये इक रस्ते की और इशारा कर रही होती है . हमारे जेहन मे जब रास्ता साफ होता है , तो बेचैनी नहीं होती. वहा तो होती ही तब है , जब कुछ धुंधला होता है . सो वहा रस्ते  की धुंधलाहट ही बेचैनी है . और यह सचमुच सकारात्मक हो सकती है और वहा सकारात्मक तब होती है जब हम उस बेचैनी के सुर को पहचानते है . और कुछ करने को तैयार हो जाते है . हम अपनी इच्छा को कर्म मे बदलने की ठानते है तो बेचैनी कम हो जाती है . जब- जब हमें कुछ अधूरापन होता है तो बेचैनी होती है उसे भरने के लिए हमें कुछ करना होता है यही शायद बेचैनी का सुर है . आखिर उस बेचैनी के बिना हम अपना अधूरापन कैसे दूर कर सकते है . बेचैनी के वारे मे इतना सब सोचते-सोचते पता ही नहीं चला कब घर जाने का टाइम हो गया . चपरासी अन्दर आता है मैम चाये लाऊ ये मुझे टाइम की याद दिलाने की उसका तरीका है मैं जानती हूँ वो बेचैन है पान मसाला खाने के लिए जो मेरे जाने
 के बाद ही हो सकता है मैं उसकी बेचैनी समझते हुए अपनी सीट छोड़ देती हूँ . घर का ख्याल आते ही मैं बेचैन हो जाती हूँ अरे मुझे तो अभी बहुत सा काम .................                

बुधवार, 2 नवंबर 2011

श्री शम्भूरत्न त्रिपाठी: सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानो के भारतीय करण के पुरोधा(Shri Shambhu Ratan Tripathi: A Great Scholar of Indology)

आज कानपुरब्लॉग के माध्यम से जिनका परिचय   देने जा रही हूँ वो एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिनमे विन्रमता, श्रद्धा , निष्ठा, मनिस्वता, तेजासिव्ता, मधुरवाणी, शिष्ट आचरण, एक साथ सरे गुण समाये थे ये थे श्री शम्भूरत्न त्रिपाठी 
श्री शम्भू रत्न जी का जन्म बलहापारा (घाटमपुर,कानपुर देहात ) को हुआ था जन्म की तारीख का तो ठीक-ठीक पता नहीं पर ऐसे व्यक्तित्व के लिए जन्म की तारीख कोई मायने नहीं रखती है. त्रिपाठी जी उतर-प्रदेश के पहले समाज -शास्त्री थे जिन्हें भारत सरकार ने उनके लेखन के लिए एक नहीं कई बार पुरस्कृत किया . उन्होंने अनेक छदम नाम जैसे राजीव लोचन शर्मा, आचार्य अश्वघोष नाम से कई कहानिया ,लेख और मनु जैसे प्रसिद   
पत्र में समीक्षा लिखी उन्होंने कई प्रसिद्द पुस्तकों का अनुवाद भी किया .
शम्भू रत्न जी में ज्ञान और प्रतिभा नैसगिर्क थी जिसे उन्होंने अपने चिंतन की प्रखरता से निखारने का कार्य किया उनके व्यकितत्व की पहचान निरन्तरता, तत्परता, तन्म्यनताऔर जागरूकता थी उनकी योग्यता क्षमता  और दक्षता , उनके साहित्य, भूगोल, समाजशास्त्र जैसे विषयों में लिखी गई उनकी पुस्तको को पढने में मिलती है . वे एक ऐसे समाज सेवी थे जिन्होंने अपनी सेवा का कभी प्रचार नहीं किया, उनकी समाजसेवा में कोई राजनेता की प्रक्रति नहीं थी क्योकि उनकी मूल प्रक्रति एक लेखक की थी इसलिए उन्होंने लेखन को ही अपना कर्मछेत्र बनाया.बहुत  ही सादगी पसंद श्री त्रिपाठी  जी का व्यक्तित्व उनके कृतित्त्व में देखने को मिलता है उनकी लिखी पुस्तक "गाँधी धर्म और समाज "में वे गाँधी जी के धार्मिक समाजशास्त्र का व्यवस्थित विश्लेषण विवेचन करते हुए कहते है "मेरे मत से गाँधी जी अंशत: राजनीतिग थे विशेषत: धर्म तत्व चिन्तक थे और सर्वाशत:वैज्ञानिक, सामाजिक विचारक थे. परिस्थितियों के कारन उन्हें राजनीती को अंगीकार करना पड़ा था. परंपरा और संस्कारो के प्रभाव से वह धार्मिक हुए थे. किन्तु मूलवृत्ति उनकी वैज्ञानिक की थी, स्वभाव उनका सत्य-शोध का था और अभिरुचि उनकी समाज में थी ". त्रिपाठी जी अपनी लेखनी के माध्यम से गाँधी जी को एक नए गाँधी के रूप में सामने लातेहै जिसने विशुद्ध   समाज -वैज्ञानिक के रूप में ही धर्म पर विचार किया. वे कहते है उन्होंने (गांधीजी) ने विश्व के प्रमुख धर्मो का  और तटस्थ पर्यवेक्षण  - परिक्षण  तथा आकलन अनुशीलन करके सार्वभौम और सार्वकालिक सत्य नियम उद्घाटित किए. उनके निष्कर्ष प्रत्येक धर्म और प्रत्येक समाज के लिए व्यवहार्य है .                          
जन सामान्य से मिली अनौपचारिक मान- सम्मान ऐसा पुरस्कार होता है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व में आध्यात्मिक एवं नौतिक ऊँचाई के कारण मिलता है. दुसरो की नि: स्वार्थ सहायता करना, किसी के दू: ख को अपना समझ कर उसके काम  आना त्रिपाठी जी जेसे संत ह्रदय व्यक्ति ही कर सकता थे . व्यक्ति अपने पद, धन से समाज में सम्मान नहीं पता बल्कि अपने तन से किये गये सद्कर्मो से समाज में सम्मान पता है. श्री शम्भू रत्न त्रिपाठी जी ने एस बात को सत्य करके दिखा दिया. उन्होंने ना कभी पद का लोभ किया और ना धन को अपने जीवन में स्थान दिया. उन्होंने तो अपनी लेखनी के माध्यम से हजारो लोगो के जीवन की दिशा निर्धारित की.
श्री शम्भूरात्न जी  १९७१मे विश्व प्रसिद्ध योगी स्वामीराम (हिमालयन इंटरनेश्नल इंस्टीट्यूट ऑफ़ योगा एंड फिलासफी) के संपर्क में आये. दोनों के संपर्क के माध्यम थे डॉ श्री नारायण अग्निहोत्री. त्रिपाठी जी ने स्वामीराम का शिष्यतत्व ग्रहण किया. यह उनके जीवन का निर्णायक मोड़ था. यहा से उन्होंने सच्चे अर्थो में एक कर्मनिष्ट यति की रहा पकड़ी. कालगति के साथ- साथ उनकी अध्यात्मिक वृत्तिया उत्तरोत्तर उच्च स्तर को प्राप्त होती रही. उनके लेखन में भी एस बात की पुष्टिहोती है. सिद्ध  संत और योगी एवं मादाम ब्लावतास्की(अलौकिक योगिनी )इसके सजीव उदहारण है. जीवन के अंतिम वर्षो में त्रिपाठी जी स्वयं को आध्यात्मिकता में डूबा लिया. सन १९८८ में इस महान मनस्वी का देहावसान हुआ .                                                                                      

वो शाम....!


रात के आँचल को ढकती हुई,वो धूल की शाम
चाँद की जुल्फों में खिलती हुई,वो फूल की शाम 
गाँव को लौटते  चरवाहे का वो अज़नबी सा गीत 
दिन के हारे हुए सूरज पे जैसे शाम की जीत..

उड़ते पंछियों की मस्त धुन में गाती वो शाम
भीनी-भीनी सी ख़ुश्बुओं का जश्न मनाती वो शाम 
आज तक याद हैं, हँसती हुयी वो रात की शाम 
हमारे प्यार की वो पहली मुलाक़ात की शाम..

गाँव से दूर टीले पे गड़ा वो पत्थर 
जिसपे बैठा था,मैं इक अज़नबी की तरह
वो बिखरे-बिखरे से बाल,सूनी पलकों पे वो धूल के कण..

किसकी तलाश थी,कुछ भी पता नही 
वो कौन राह थी,कुछ भी पता नही 
माथे पर उमड़ती थी,लकीरे कितनी 
पर किसकी चाह थी,कुछ भी पता नही..

याद हैं तुमको हवा का वो मदहोश झोंका
जिसमे मदहोश हुआ,आज तक मदहोश हूँ मैं,
हर तरफ गूंजती है आज तक शहनाइयो की गूंज,
कांपते लब हैं मग़र आज तक ख़ामोश हूँ मैं..

याद है मेरी तरफ़ देखकर वो मुस्कराना तेरा 
एकटक देखना,कभी वो पलकें चुराना तेरा 
मैं तो बस मर ही गया था उस इक पल के लिए
मुझे इक ज़िन्दगी सी दे गया,वो शर्माना तेरा.. 

वो इक ख्वाब था या मासूम निगाहों का प्यार 
वो ख़ुदा का था कोई तोहफ़ा या बारिश की फुहार 
वो हिना की थी कोई खुश्बू या इबादत-ए-हयात 
वो ख़ुशी थी,मोहब्बत थी या ज़िन्दगी का सबात..

मैं तुझे ढूंढ़ता हूँ आज तक,हर रात में जुगनू की तरह 
मैं तुझे पूजता हूँ आज तक,हर फूल में खुश्बू की तरह
ऐसा भटका हूँ,तितली का टूटा हुआ पर हूँ जैसे 
ऐ ख़ुदा तू ही बता,क्यों अधूरा सा सफ़र हूँ जैसे...

मेरे मालिक तू इस तरह मेरा इम्तहान न ले 
दफ़्न कर दे मुझे,मेरी ज़िन्दगी की जान न ले 
वो जा रहा है मुझे छोड़कर,इक अज़नबी की तरह 
जिसने ग़र सांस भी ली हैं,तो मेरी मोहब्बत के साथ..

मैं उदास बाग़ सा हूँ,हर फूल बिखर गया जिसका 
इक मुसाफ़िर हूँ,कारवां गुज़र गया जिसका 
पता है ऐ मेरे हमदम,मैं आज भी वही पर हूँ 
फ़र्क हैं,उसी पत्थर पे बैठा आज एक पत्थर हूँ..

वो चराग़ जो जला था,हमारी पहली मुलाक़ात के साथ 
बुझ गया आज तेरी शहनाइयो की रात के साथ......


आशीष अवस्थी 'सागर' 
मोबाइल नंबर..9936337691 
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

कानपुर के एक मन्दिर मे शिव के साथ अंग्रेज अफसर की परिक्रमा

शहर में गंगा नदी के किनारे भगवतदास घाट पर बना भगवान शिव का करीब डेढ़ सौ साल पुराना मंदिर है, जहाँ लोग शिवलिंग के साथ-साथ एक अंग्रेज अफसर की मूर्ति की भी परिक्रमा करते हैं।

अंग्रेज की यह प्रतिमा इस मंदिर के दरवाजे पर भगवान गणेश और माँ दुर्गा की मूर्ति के बीच स्थापित है। काले घोड़े पर सवार हाथों में हंटर और रोबीली मूँछों वाले इस अंग्रेज अफसर के बारे में शहरवासियों का कहना है कि यह कर्नल स्टुअर्ट की मूर्ति है, जिसे उसने 1857 में मंदिर की स्थापना के समय लगवाया था, लेकिन जिले के अधिकारी इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं।

कानपुर के बीचोबीच गंगा नदी के पावन तट पर बना भगवतदास घाट काफी मशहूर घाट है। यहाँ पर प्रतिदिन दर्जनों लोगों का अंतिम संस्कार किया जाता है। इसी घाट के एक कोने पर भगवान शिव का एक छोटा-सा मंदिर है।

इसी मंदिर के दरवाजे पर विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों के बीच इस अंग्रेज अफसर की मूर्ति भी स्थापित है। मंदिर के एक पुजारी पंडित कैलाश अवस्थी बताते हैं कि सुबह-शाम सैकड़ों शिवभक्त शिवलिंग पर जल चढ़ाने के बाद मंदिर की परिक्रमा करते हैं और इसके साथ अन्य देवी-देवताओं के साथ इस अंग्रेज अफसर की भी परिक्रमा करते हैं।

वंदेमातरम संघर्ष समिति से जुड़े आलोक मेहरोत्रा बताते हैं कि हमने जब इंटरनेट पर कानपुर का इतिहास खंगाला तो उसमें यह जानकारी मिली कि करीब डेढ़ सौ साल पहले कर्नल स्टुअर्ट कानपुर में था।

गंगा नदी में स्नान करने वाले भक्त चाहते थे कि नदी के किनारे एक छोटा-सा मंदिर बन जाए, लेकिन अंग्रेज अफसर स्टुअर्ट ऐसा नहीं करने दे रहा था।

बाद में वह इस शर्त पर राजी हुआ कि मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्ति के साथ-साथ उसकी मूर्ति भी स्थापित हो और उसकी भी पूजा हो, इसलिए ऐसा किया गया।

 इस अंग्रेज अफसर की केवल परिक्रमा ही नहीं होती है, बल्कि देवी-देवताओं की मूर्ति के बीच में स्थापित होने के कारण लोग अज्ञानतावश इसकी पूजा-अर्चना करते हैं और इसे भोग भी लगाते हैं।

अंग्रेज अफसर की पूजा की बात पुजारी अवस्थी भी स्वीकारते हैं और कहते हैं कि लोग इस बारे में हमसे कुछ पूछते नहीं और हम बताते भी नहीं हैं। हम यह नहीं जानते कि यह मूर्ति इस अंग्रेज अफसर की है और मंदिर में कब स्थापित हुई है। बहरहाल  मंदिर में अंग्रेज अफसर की मूर्ति हर भारतवासी के माथे पर बदनुमा दाग है।  जुल्म करने वालों की पूजा कतई नहीं होनी चाहिए ।
( साभार वेब दुनिया  21/10/2007)