गुरुवार, 31 मार्च 2011

छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर विश्वविद्यालय: भ्रष्ट विश्वविद्यालय

कानपुर विश्वविद्यालय:भ्रष्ट विश्वविद्यालय दिनांक २५ मार्च से कानपुर विश्वविद्यालय की परीक्षा प्रारंभ हुयी जिसमे पहला पेपर कला स्नातक संकाय की तीनो वर्षो में समाजशास्त्र का था।परीक्षा शुरू होने से पहले कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो- सहगल ने परीक्षा में नक़ल रोकने के लिए अनेक नियम बनाये जिनका सीधा सम्बन्ध छात्र,अध्यापक और प्रिंसिपल तथा प्रबंधक से है। जिनका पालन परीक्षा के समय होना है यदि कॉलेज में सामूहिक नक़ल पकड़ी जाती है या छात्र नक़ल करते हुए पकड़ा जता है तो उपरोक्त सभी व्यक्ति अर्थ दंड के भागीदार होगे जिससे नक़ल विहीन परीक्षा संपन्न हो सके.पर परीक्षा शुरू होने के पहले दिन से ही समझ में आने लगा की ये सारे नियम व्यर्थ के बने हुए है .असल में परीक्षा में इन नियमो से कोई लेना देना नहीं है ।कानपुर विश्वविद्यालय की परीक्षा शुरू होते ही कानपुर विश्वविद्यालय की परीक्षा की हकीकत खुल के सामने आने लगी.इस सत्र में संस्थागत और व्यतिगत दोनों प्रकार छात्रो की परीक्षाये साथ साथ हो रही है व्यक्तिगत छात्रो की परिक्षाए स्ववित्त पोषित महाविद्यालय में भी परीक्षा सेंटर बनाये गए है जबकि पिछले सत्र में संस्थागत और व्यक्तिगत छात्रो की परीक्षाये अलग अलग समय पर हुई थी .इस वर्ष कानपुर विश्वविद्यालय की परीक्षा में धांधली और भ्रष्टाचार अधिक देखने को मिल रहा है.पिछली साल जिन वित्तविहीन महाविद्यालय ने नक़ल विहीन परीक्षा करवाई थी इस साल ये महाविद्यालय भी नक़ल की दौड़ में शामिल हो गए है .अब आप इसका कारण जानना चाहेगे तो इसका कारण यह की इस साल वित्तविहीन कॉलेज की छात्र संख्या में आई गिरावट है क्योंकि आज हर माँ बाप यह चाहते है कि उसका बच्चा अच्छे अंको से पास हो कोई भी छात्र या उसके माँ बाप ये नहीं चाहते कि उसका बच्चा फेल हो और इस सब बातो में स्ववित्तपोषित महाविद्यालय अहम् भूमिका निभाते है तथा बहुत से वित्तविहीन कॉलेज नक़ल विहीन परीक्षा कराते थे जिसका नुकसान इन कॉलेज को इस बार भुगतना पड़ा .नतीजा ये निकला कि वित्तविहीन कॉलेज कि काफी सीट खाली बनी रही और स्ववित्तपोषित कॉलेज कि लगभग सभी सीट समय से पहले ही फुल हो गयी है.कानपुर विश्वविद्यालय कि चल रही परीक्षायो में इस साल दोनों प्रकार के महाविद्यालय ने नक़ल विहीन परीक्षा ना कराने कि कसम खा रखी है .इस सत्र में कानपुर कि परीक्षायो में जम के नक़ल करायी जा रही है.किसी कॉलेज में बोल के नक़ल कराई जा रही है तो कही पर छात्र किताब रख कर नक़ल कर रहे है .हद तो यहाँ तक हो गयी गलत विषय के प्रश्न पत्र तक छात्रो में बांटे गए जिसके कारण ३0 मार्च का कला स्नातक प्रथम वर्ष का शिक्षाशास्त्र  का पेपर लीक होने की बजह से रद्द हो गया.भ्रष्टाचार का दूसरा उदाहरण देखिये कानपुर विश्विद्यालय ने इस साल नक़ल रोकने के लिए जो सचल दल गठित किये है उन में से बहुत से लोग वे शामिल है जिनका खुद का महाविद्यालय है या फिर इनके रिश्तेदार महाविद्यालय चला रहे है.शायद इन लोगो ने ले दे के सचल दल में अपना नाम पडवा लिया है .अब ज़रा इस सचल दल कि हकीकत जाने कानपुर विश्वविद्यालय द्वारा गठित सचल दल के अधिकांश व्यक्ति स्ववित्तपोषित महाविद्यालय के प्रबंधको से मिले हुए है जो कॉलेज में आने से पहले ही फोन द्वारा अपने आने कि सूचना कॉलेज के प्रबंधक को पहले से ही दे देते है जिससे सचल दल के आने से पहले ही कॉलेज से नक़ल को साफ़ कर दिया जाता है.कानपुर विश्वविद्यालय से सम्बध्द स्ववित्त पोषित महाविद्यालय कि हालत बहुत भी खराब है पहली बात तो यह ही इन कॉलेज के मानक केवल कागजो में ही सीमित होते है .कॉलेज कि वास्तविक हकीकत कुछ और ही होती ही.कॉलेज कि वास्तविक तस्वीर यह होती हैं कि साल भर इन स्ववित्त पोषित कॉलेज में ना तो टीचर होते हैऔर ना ही छात्र होते ही ये दोनों ही केवल परीक्षा के समय ही देखे जाते ही.हां इसमें भी एक और घोटाला भी है वो यह है कि विश्वविद्यालय के मानक के अनुरूप टीचर केवल कॉलेज कागज में होते है बाकि के परीक्षा कराने के लिए टीचर माफ़ करना इनको टीचर तो नहीं कहा जा सकता अगर इनको दैनिक मजदूर कहे तो , तो शायद उचित रहेगा,इन को बाहार से बुलाबाया जाता है जो स्ववित्तपोषित कॉलेज में परीक्षा में नक़ल की व्यवस्था संभालते है।स्ववित्तपोषित कॉलेज के प्रबंधक के आदेश पर परीक्षा में नक़ल कराने में ये लोग ही अहम भूमिका निभाते है.ये दैनिक मजदूर ही स्ववित्त पोषित कॉलेज के प्रबंधको आदेश पर नक़ल कराते है.बहुत से स्ववित्तपोषित महाविद्यालय इस प्रकार से नक़ल कराते है कि परीक्षा के अंत में ३० मिनट पहले से नक़ल करवाना शुरू करते है और परीक्षा ख़त्म होने के १५ मिनट बाद तक नक़ल कराते रहते है यानी परीक्षा १० बजे ख़त्म होनी है तो नक़ल ९.३० बजे से शुरू होती है और १०.१५ बजे तक चलती रहती है.१०.१५ पर नकलचियो कॉपी जमा कराई जाती है.हद तो तब हो गयी जब प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी कानपुर विश्वविद्यालय की नक़ल विहीन परीक्षा कराने का झूटा दावा जनता के सामने पेश करने लगी.कानपुर विश्वविद्यालय की परीक्षा की वास्तिविक तस्वीर तो ये है.

मंगलवार, 29 मार्च 2011

चटक चिरैया मटक मटक के












चटक चिरैया मटक मटक के
रोज भोरहरे आती
नन्हे पंखो को फटक फटक के
मीठे गीत सुनाती 
भोर की निंदिया हौले हौले  
दूर कही उड़ जाती
अधखुली फूली आखों से 
चटक चिरैया ढूंढी जाती
वो सपनो से मुझे जगा कर
अब न कही दिख पाती
इतनी दूर जब जाना ही था 
तो चटक चिरैया  क्यों आती

रविवार, 27 मार्च 2011

संवेदना









माँ के साथ कहीं  
से आ रही थी
कुछ दूर चंद लोगों  की
भीड़ लगी थी

लोग घेर के खड़े   थे
गिरी हुई बाइक को
कुछ सहारा दे रहे थे
दो नौजवानों को

दोनों ही लड़के
गुस्सा रहे थे
अपशब्दों की धाराए     
बहा रहे थे

"किसे सम्मान दे
रहे हैं " सोचा मैंने
और जरा पास गयी
तो देखा मैंने

अगले पहिये के नीचे
दबा हुआ पड़ा था
काला, आवारा
मरियल-सा कुत्ता

सांस बहुत धीरे से
चल रही थी
कराहने की दम भी उसमे
बची नहीं थी

जीभ लटकी दिख रही थी
आँख आधी मुंद गयी थी 
कंकाल-से शरीर से
रुधिर धारा बह रही थी

भीड़ ने हमदर्दी  से
कुसूर उसपे मढ़ दिया
"बीच राह चलता था
बेचारा मर गया "

रुकी नहीं ज्यादा  देर
आगे बढ़ गई मैं
भीड़ में फिर क्या हुआ
जान यह न सकी मैं

थोड़े  ही दिनों बाद
निकली जब उसी जगह से
दुर्गन्ध आई भयानक
वहीँ एक कोने से

कूड़े के साथ पड़ी थी
लाश उस निरीह की
आँखों की जगह गड्ढे थे
पूँछ तक अकड़ गयी थी

सिहरी इक बार मैं
पर सदैव की तरह
रुकी नहीं ज्यादा देर
आगे बढ़ गयी मैं

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

अवधारणात्मक संकट

समाज अवधारणात्मक  संकट के दौर  से गुजर रहा है .अवधारणात्मक   संकट का तात्पर्य  यह है कि आज व्यक्ति मुलभुत संदर्भो  को दो अथों में परिभाषित करने का आदी हो गया है .अपने लिया कुछ ओर अन्यो के लिए कुछ  ओर स्वयम कर्तव्यविमुख  हो कर दुसरो को कर्तव्य का उपदेश देना .अपने बच्चो तथा परिवार के लिए सब कुछ न्यौछावर  करने वाला व्यक्ति रास्ट्र ओर समाज के लिए अब सोचता ही नही .साधन ओर साध्य का विवेक ही समाप्त हो गया है .एसी स्थिति  में हमे केवल साध्य दिखाई दे रहा है साधन पवित्र है या अपवित्र इसकी पहचान विलुप्त होती जा रही है साध्य कि पवित्रता का विलोप ही अपराधी करन का कारन है एस प्रकार अपराधी करण ओर अवधारणात्मक  संकट समाज में उथल पुथल क़ी स्थिति  निर्मित  कर देते है एसी स्थिति  में जीवन मरण का प्रश्न पैदा  जाता है .असितत्व रक्षा  का सवाल पैदा हो जाता है ओर जहा नेतिकता का अंत होगा वही से अनेतिक कार्यो का आरंभ होगा .आज अगर हमे समाज में बढ़ाते अपराधी करण पर अंकुश लगाना है तो हमे परम्परिक भारतीय सामाजिक मूल्यों क़ी पुन्: स्थापना करनी होगी .

गुरुवार, 24 मार्च 2011

वह मूक क्रांतिकारी : गणेश शंकर विद्यार्थी !







आज २५ मार्च उनकी पुण्य तिथि है. वह खामोश क्रांतिकारी - बहुत शोर शराबे से नहीं बने थे. उन्हें मूक क्रांतिकारी के नाम से भी जाना जा सकता है. अपने बलिदान तक वे सिर्फ कर्म करते रहे और उन्हीं कर्मों के दौरान वे अपने प्राणों कि आहुति देकर नाम अमर कर गए.
वे इलाहबाद में एक शिक्षक जय नारायण श्रीवास्तव के यहाँ २६ अक्तूबर १८९० को पैदा हुए. शिक्षक परिवार गरीबी से जूझता हुआ आदर्शों के मार्ग पर चलने वाला था और यही आदर्श उनके लिए संस्कार बने थे. हाई स्कूल की परीक्षा प्राइवेट तौर पर पास की और आगे की शिक्षा गरीबी की भेंट चढ़ गयी. करेंसी ऑफिस में नौकरी कर ली. बाद में कानपुर में एक हाई स्कूल में शिक्षक के तौर पर नौकरी की.
वे पत्रकारिता में रूचि रखते थे, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उमड़ते विचारों ने उन्हें कलम का सिपाही बना दिया. उन्होंने हिंदी और उर्दू - दोनों के प्रतिनिधि पत्रों 'कर्मयोगी और स्वराज्य ' के लिए कार्य करना आरम्भ किया.
उस समय 'महावीर प्रसाद द्विवेदी' जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ बने हैं, ने उन्हें अपने पत्र 'सरस्वती' में उपसंपादन के लिए प्रस्ताव रखा और उन्होंने १९११-१३ तक ये पद संभाला. वे साहित्य और राजनीति दोनों के प्रति समर्पित थे अतः उन्होंने सरस्वती के साथ-साथ 'अभ्युदय' पत्र भी अपना लिया जो कि राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ा था.
१९१३ में उन्होंने कानपुर वापस आकर 'प्रताप ' नामक अखबार का संपादन आरम्भ किया. यहाँ उनका परिचय एक क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में उदित हुआ. 'प्रताप' क्रांतिकारी पत्र के रूप में जाना जाता था. पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की खिलाफत का खामियाजा उन्होंने भी भुगता.
१९१६ में पहली बार लखनऊ में उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हुई, उन्होंने १९१७-१८ में होम रुल मूवमेंट में भाग लिया और कानपुर कपड़ा मिल मजदूरों के साथ हड़ताल में उनके साथ रहे . १९२० में 'प्रताप ' का दैनिक संस्करण उन्होंने उतारा. इसी वर्ष उन्हें रायबरेली के किसानों का नेतृत्व करने के आरोप में दो वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गयी. १९२२ में बाहर आये और पुनः उनको जेल भेज दिया गया. १९२४ में जब बाहर आये तो उनका स्वास्थ्य ख़राब हो चुका था लेकिन उन्होंने १९२५ के कांग्रेस सत्र के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया.
१९२५ में कांग्रेस ने प्रांतीय कार्यकारिणी कौंसिल के लिए चुनाव का निर्णय लिया तो उन्होंने स्वराज्य पार्टी का गठन किया और यह चुनाव कानपुर से जीत कर उ. प्र. प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य १९२९ तक रहे और कांग्रेस पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र भी दे दिया. १९२९ में वह उ.प्र. कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और १९३० में सत्याग्रह आन्दोलन ' की अगुआई की. इसी के तहत उन्हें जेल भेजा गया और ९ मार्च १९३१ को गाँधी-इरविन पैक्ट के अंतर्गत बाहर आये.
१९३१ में जब वह कराची जाने के लिए तैयार थे. कानपुर में सांप्रदायिक दंगों का शिकार हो गया और विद्यार्थी जी ने अपने को उसमें झोंक दिया. वे हजारों बेकुसूर हिन्दू और मुसलमानों के खून खराबे के विरोध में खड़े हो गए . उनके इस मानवीय कृत्य के लिए अमानवीय कृत्यों ने अपना शिकार बना दिया और एक अनियंत्रित भीड़ ने उनकी हत्या कर दी. सबसे दुखद बात ये थी कि उनके मृत शरीर को मृतकों के ढेर से निकला गया. इस देश की सुख और शांति के लिए अपने ही घर में अपने ही घर वालों की हिंसा का शिकार हुए.
उनके निधन पर गाँधी जी ने 'यंग' में लिखा था - 'गणेश का निधन हम सब की ईर्ष्या का परिणाम है. उनका रक्त दो समुदायों को जोड़ने के लिए सीमेंट का कार्य करेगा. कोई भी संधि हमारे हृदयों को नहीं बाँध सकती है.'
उनकी मृत्यु से सब पिघल गए और जब वे होश में आये तो एक ही आकार में थे - वह था मानव. लेकिन एक महामानव अपनी बलि देकर उन्हें मानव होने का पाठ पढ़ा गया था.
कानपुर में उनकी स्मृति में - गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय और गणेश उद्यान बना हुआ है. आज के दिन उनके प्रति मेरे यही श्रद्धा सुमन अर्पित हैं.

बुधवार, 23 मार्च 2011

गणेश शंकर "विद्यार्थी " जी की जन्मस्थली कानपुर नही

कानपुर के इतिहास के बारे में  भ्रामक जानकारिया कानपुर की बेबी वेबसाइट पर पडी   हुई है इसमें एक ऐतिहासिक गलत जानकारी विद्यार्थी जी के बारे में है की वह कानपुर में पैदा हुए जबकि कानपुर उनकी जन्मस्थली और इलाहबाद में उनका जन्म हुआ था.आजादी की लड़ाई में अतुलनीय योगदान देने वाले इस शहर के नामकारन और वर्तनी तक को लेकर जितना विवाद है उतना शायद किसी भी जिले को लेकर नही हुआ है. २४ मार्च १८०३ को कानपुर को जिला घोषित किया गया था और अब्राहम बेलांड पहले कलेक्टर बने थे. जिले का दर्जा मिलने के बाद सरसैया घाट स्थित एक बंगले में एक कचहरी बनाई गयी तथ १५ परगनों में जिले को बांटा गया ये परगने है-जाजमऊ बिठूर बिल्हौर शिवराजपुर डेरापुर रसूलाबाद भोगनीपुर सिकंदर अकबरपुर घाटमपुर साढ़-सलेमपुर, औरैया कन्नौज कोड़ा और अमौली. इस प्रकार कानपुर लगभग २०८  वसंत देख चुका है . शहर को औदौगिक महत्व तो मिला पर इसके पुरातात्विक महत्व को नजरअंदाज कर दिया गया. विश्व में पहले मंदिर का निर्माण यही (भीतरगांव) हुआ. बिठूर को तो  पुरातात्विक केंद्र के रूप में मान्यता मिली हुई है. कविता के पहले बोल यही फूटे थे (वाल्मिक आश्रम ). आज जरूरत इस  बात बातहै कि कानपुर के इतिहास के बारे में सरल भाषा में तथ्य सामने लाये जय ताकि आम जनमानस उससे परिचित हो सके

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

कानपुर ब्लोगर्स और समस्त बंधू बांधवों को होली की शुभकामना











धरा गगन क्षितिज  पर 
कर रहे थे  ठिठोली 
जब से मै उनसे मिली
तब से खेल रही हूँ होली 

सात फेरों  के सात रंग से
सतरंगी चूनर ओढ़ लिया
होली के रंगों से प्रियतम
हर जनम का रिश्ता जोड़ लिया 

सबके जीवन में ऐसे ही
रंग भरे पावन होली 
नेह खुशी  उमंग के रंग 
सब पर छलकाए ये होली 

कानपुर ब्लोगर्स  और समस्त  बंधू बांधवों को  होली  की शुभकामना के साथ 
                                                किरण पवन मिश्रा   

गुरुवार, 17 मार्च 2011

गेहूं बनाम गुलाब

बगिया में है खिल रहे , शुभ्र   धवल गुलाब
उर्ध्वाधर ग्रीवा,चन्द्रकिरण में नहाये हुए

भ्रमर गीत  गुनगुना रहे , मुदित मन रहा नाच
आती सोंधी सुगंध छन के  , है घनदल छाये हुए .

मधुकर का मिलन गीत ,  पिक की विरह तान
मंदिर की दिव्य वाणी   , मस्जिद की   अजान

कलियों की चंचल  चितवन , पुष्प  का मदन बान
लतिका का कोमल गात, देख रहा अम्बर विहान

कोयल की  मधुर कूक ,क्या क्षुधा हरण  कर सकती है ?
कर्णप्रिय  भ्रमर गीत , माली का  पोषण कर सकती है ?

सुमनों के सौरभ हार, सजा सकते है  पल्लव केश
बिखरा सकते है खुशबू, बन सकते है देवो का अभिषेक

पर क्या ये सजा सकते है , दीन- हीन आँखों में ख्वाब ?
हमे जरुरत है किसकी ज्यादा , सोचिये गेंहू बनाम गुलाब?

मंगलवार, 15 मार्च 2011

संजय वन का करुण रुदन

किदवई नगर चौराहे से थोड़ी दूर चलने पर तार बंगलिया नाम से मशहूर सड़क मिलती है इसी सड़क के किनारे तार बंगलिया के एक टुकड़े को संरक्षित कर इसे संजय वन का नाम दिया गया इसके बगल में जूही फोरेस्ट रेंज भी है . संजय वन समस्त दक्षिण क्षेत्रवासियों के लिए नंदन कानन से कम नही है सुबह सुबह यहाँ की चहलपहल देखते ही बनती है कही कोइ ताली बजा के गा रहा है कोई जोर जोर से प्राणायाम कर रहा है कई समूह में हस रहे है बगल के मंदिर में योग क्रिया चल रही है बाहर मत्थे और फ्रूट चाट बिक रहा है . संजय वन का मेरी जिन्दगी में अहम् भूमिका थी जिसकी चर्चा फिर कभी करूंगा .आज मै किरन  के साथ वहा  शाम को गया था अचानक मुझे रोने और सिसकने की आवाज सुनायी दी मैंने ध्यान से देखा तो एक मानवाकृति घायल और कृशकाय अवस्था में नाली के पास दिखी मै लपक कर उसके पास गया और पूछा की आप कौन है उसने कहा मै तुम्हारा प्यारा संजय वन हूँ मैंने उसे सहारा दिया फिर ऐसी गति का कारन पूछा तो पता चला की यहाँ के पदों पर योजना बद्ध रूप से कुल्हाड़ियाँ चलायी जा रही है वह मुझे  उन जगहों  पर ले गया जहा मैदान सफाचट था बगल में चौकी दार के कमरे के पास दूध की बिक्री हो रही थी वह तमाम गाये बंधी थी अर्थात यहाँ पशुपालन भी हो रहा था . वृक्षारोपड़  हेतु  प्रयुक्त जमीन ठूंठ सी पडी थी वह के मुख्यद्वार की शोभा तो होर्डिंग्स थी म्युसियम पर ताला लगा था .अन्दर एक जोड़ा भी टहल रहा था वह के पूर्व चौकीदार ने बताया की यहाँ सब की मिली भगत है . मै हतप्रभ रह गया जिसे हम प्यार करते है उसकी यह दशा जो हमें ठंडी छांव देता है उसके साथ ऐसा  सलूक मेरी यह पोस्ट महज ब्लॉग की शोभा बढाने हेतु नही है वरन संजय वन की दुर्गति रोकने हेतु है . वह के कुछ स्नैप्स आप लोग भी देखिये . मेरी प्रिंट मीडिया के ब्लॉगर बंधुओं से निवेदन  है कि वे इस मुद्दे को जनता तक ले जाए ताकि फिर कही से ऐसा करुण रुदन सुनायी न दे

                                        संजय वन का मुख्यद्वार है या प्रचार माध्यम


               मुख्य प्रवेश द्वार के ठीक बाद चौकीदार के लिए केबिन जिसमे हमेशा ताला लटका रहता है
                                            म्यूजियम जो आज तक खुला ही नही

                                         कुछ बोलोगे तो इसी तरह हाथ तोड़ कर मुह में गुम्मे भर दिए जायेगे
                                        
                                         जानवरों को बाँधने से प्रभावित क्षेत्र

                                           संजय वन के  अन्दर बंधे जानवर
  
                                          पशु  शाला के अन्दर दुधारू गाये
                                              कंडे का कारोबार


                                            कटे पटे पेड़
                             
                                             वन के अन्दर सब सफाचट है

                                           मोती झील नही तो संजय वन सही
                                             गिरे हुए दरख़्त के साथ मै
                                           फलता फूलता धंधा दूध का
           
                                         कटे हुए पेड़
                                           मेरी सहायक  किरण
                                 
                                             योग के नाम पर जय हो
                
                                          जुलाई  में रोपित पौधों की दुर्गति
                                        
                                           वन का कबाड़ घर

पी के  टुन्न एक नशेड़ी




सोमवार, 14 मार्च 2011

कानपुर अतीत के साये में -2




आज इस कड़ी में पेश है सिकन्दरा की ऐतिहासिक मस्जिद ..................सिकन्दरा में एक ऐतिहासिक प्राचीन मस्जिद है.यह मस्जिद सिकन्दरा के पूर्व चेयरमान मुन्ना कुरैशी के मकान के पीछे है .इस मस्जिद के सन्दर्भ में सिकन्दरा के मूल निवासी डॉ अश्वनी कटियार बताते है की इस मस्जिद का निर्माण मुग़ल काल किया गया था.प्रारंभ में यह मस्जिद एक हवेली के अन्दर हुआ करती थी जिसका निर्माण मुग़ल काल में हुआ था.धीमे धीमे लोगो ने इस मुग़ल कालीन हवेली को तोड़ कर अपने मकान बना लिए है.इस मस्जिद में तीन दरवाजे है.इस मस्जिद के आस पास लोगो ने मकान बना कर इसको चारो ओर से धेर लिया है.आज की हालत देख कर यह लगता है की आने वाले समय में शायद इसके अवशेष भी शेष बचे.

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

कानपुर कनकैया जहां बहती गंगा मैया

ज्यादा दिन नही हुये जब कानपुर "मैनचेस्टर आफ इंडिया" कहलाता था.यहां दिनरात चलती कपङे की मिलों के कारण.आज मिलें बंद है और कानपुर फिलहाल कुली कबाङियों का शहर बना अपने उद्धारक की बाट जोह रहा है.कानपुर को धूल,धुआं और धूर्तों का शहर बताने वाले यह बताना नहीं भूलते कि प्रसिद्ध ठग नटवरलाल ने अपनी ठगी का बिसमिल्ला (शुरुआत)कानपुर से ही किया था.

कानपुर अपने आसपास के लिये कलकत्ता की तरह है. जैसे कलकत्ते के लिये भोजपुरी में कहते हैं-लागा झुलनिया(ट्रेन)का धक्का ,बलम कलकत्ता गये.इसी तरह आसपास के गांव से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक जिसका मूड उखङा वो सत्तू बांध के कानपुर भाग आता है और यह शहर भी बावजूद तमाम जर्जरता के किसी को निराश करना अभी तक सीख नहीं पाया.

टेनरियों और अन्य प्रदूषण के कारण कानपुर में गंगा भले ही मैली हो गयी हो,कभी बचपन में सुनी यह पंक्तियां आज भी साफ सुनाई देती हैं:-

कानपुर कनकैया

जंह पर बहती गंगा मइया
ऊपर चलै रेल का पहिया
नीचे बहती गंगा मइया
चना जोर गरम......

चने को खाते लछमण वीर
चलाते गढ लंका में तीर
फूट गयी रावण की तकदीर
चना जोर गरम......

कितना ही चरमरा गया हो ढांचा कानपुर की औद्धोगिक स्थिति का पर कनपुरिया ठसक के दर्शन अक्सर हो ही जाते हैं, गाहे-बगाहे.एक जो नारा कनपुरियों को बांधता है,हिसाबियों को भी शहंशाही-फकीरी ठसक का अहसास देता है ,वह है:-

झाङे रहो कलट्टरगंज,
मंडी खुली बजाजा बंद.


कनपरिया टकसाल में हर साल ऐसे शब्द गढे जाते हैं जो कुछ दिन छाये रहते हैं और फिर लुप्त हो जाते हैं.कुछ स्थायी नागरिकता हासिल कर लेते है.चिकाई /चिकाही, गुरु ,लौझड़ जैसे अनगिनत शब्द स्थायी नागरिक हैं यहां की बोली बानी के.गुरु के इतने मतलब हैं कि सिर्फ कहने और सुनने वाले का संबंध ही इसके मायने तय कर सकता है ."नवा(नया) है का बे?" का प्रयोग कुछ दिन शहर पर इतना हावी रहा कि एक बार कर्फ्यू लगने की नौबत आ गयी थी. चवन्नी कम पौने आठ उन लोगों के परिचय के लिये मशहूर रहा जो ओवर टाइम के चक्कर में देर तक (पौने आठ बजे)घर वापस आ पाते थे.आलसियों ने मेहनत बचाने के लिये इसके लघु रूप पौने आठ से काम निकालना शुरू किया तो चवन्नी पता ही नही चला कब गायब हो गयी

कनपुरिया मुहल्लों के नामों का भी रोचक इतिहास है.

तमाम चीजें कानपुर की प्रसिद्ध हैं. ठग्गू के लड्डू (बदनाम कुल्फी भी)का कहना है:-

1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं

2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की

3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.

4.बदनाम कुल्फी --
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब

5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो--
शराब नहीं ,जलजीरा.


मोतीझील ( हंस नहीं मोती नहीं कहते मोतीझील ),बृजेन्द्र स्वरूप पार्क,कमला क्लब,कभी सर्व सुलभ खेल के मैदान होते थे.आज वहां जाना दुर्लभ है. कमला टावर की ऊंचाई पर कनपुरिया कथाकार प्रियंवदजी इतना रीझ गये कि अपनी एक कहानी में नायिका के स्तनों का आकार कमला टावर जैसा बताया.

नाना साहब ,गणेश शंकर विद्धार्थी,नवीन,सनेही जी ,नीरज आदि से लेकर आज तक सैकङों ख्यातनाम कानपुर से जुङे हैं.

एक नाम मेरे मन में और उभरता है.भगवती प्रसाद दीक्षत "घोड़ेवाला" का.घोङेवाले एकदम राबिनहुड वाले अंदाज में चुनाव लङते थे.उनके समर्थक ज्यादातर युवा रहते थे.हर बार वो हारते थे.पर हर चुनाव में खङे होते रहे.एक बार लगा जीत जायेंगे.पर तीसरे नंबर पर रहे.उनके चुनावी भाषण हमारे रोजमर्रा के दोमुहेपन पर होते थे.एक भाषण की मुझे याद है:-

जब लड़का सरकारी नौकरी करता है तो घरवाले कहते हैं खाली तन्ख्वाह से गुजारा कैसे होगा?ऐसी नौकरी से क्या फायदा जहां ऊपर की कमाई न हो.वही लङका जब घूस लेते पकङा जाता है तो घर वाले कहते है-हाथ बचा के काम करना चाहिये था.सब चाहते हैं-लड्डू फूटे चूरा होय, हम भी खायें तुम भी खाओ.

"डान क्विकजोट" के अंदाज में अकेले चलते घोङेवाले चलते समय कहते-- आगे के मोर्चे हमें आवाज दे रहे है.

सन् 57 की क्रान्ति से लेकर आजादी की लङाई,क्रान्तिकारी,मजदूर आन्दोलन में कानपुर का सक्रिय योगदान रहा है.शहर की बंद पङी मिलों की शान्त चिमनियां गवाह हैं ईंट से ईंट बजा देने के जज्बे को लेकर हुये श्रमिक आन्दोलनों की.ईंटे बजने के बाद अब बिकने की नियति का निरुपाय इन्तजार कर रही हैं.


आई आई टी कानपुर,एच बी टी आई ,मेडिकल कालेज से लैस यह शहर आज कोचिंग की मंडी है.आज अखबार कह रहा था कि अवैध हथियारों की भी मंडी है कानपुर.

कानपुर के नये आकर्षणों में एक है -रेव-3.तीन सिनेमा घरों वाला शापिंग काम्प्लेक्स. मध्यवर्गीय लोग अब अपने मेहमानों को जे के मंदिर न ले जाकर रेव-३ ले जाते हैं.पर मुझसे कोई रेव-3 की खाशियत पूंछता है तो मैं यही कहता हूं कि यह भैरो घाट(श्मशान घाट) के पीछे बना है यही इसकी खाशियत है.बमार्फत गोविन्द उपाध्याय(कथाकार)यह पता चला है कि रेव-3 की तर्ज पर भैरोघाट का नया नामकरण रेव-4 हो गया है और चल निकला है.


कानपुर में बहुत कुछ रोने को है.बिजली,पानी,सीवर,सुअर,जाम,कीचङ की समस्या.बहुत कुछ है यहां जो यह शहर छोङकर जाने वाले को बहाने देता है.यह शहर तमाम सुविधाओं में उन शहरों से पीछे है जिनका विकास अमरबेल की तरह शासन के सहारे हुआ है.पर इस शहर की सबसे बङी ताकत यही है कि जिसको कहीं सहारा नहीं मिलता उनको यह शहर अपना लेता है.

जब तक यह ताकत इस शहर में बनी रहेगी तब तक कनपुरिया(झाङे रहो कलट्टरगंज) ठसक भी बनी रहेगी.

यह लेख साढ़े तीन साल पहले जब लिखा गया था तब शहर में हवाई अड्डा और गंगा बैराज बनने की बात थी। आज दोनों बन गये हैं।
                                                                  ...साभार  अनूप शुक्ल  (कानपुरनामा)

गुरुवार, 10 मार्च 2011

मेरे गुरु डॉ वी. एन. सिंह की कलम से

धूप

गोधूली की धूप
मटमैली सी
पेड़ों को आगोश में लिए
फुनगियों फुनगियों पर पसर गयी

आदमी

गुणा, भाग जोड़ घटाने में
बीत गयी ज़िंदगी पूरी
अब तो आदमी
भाग दे काटता है
आदमी को आदमी से

तितली सी यादें

तितली सी उड़ती यादें
पौधों, फूलों पत्तियों पर
पंख फैलाए मचलती मडराती
मेरे पास आती
हवा के हलके झोंके से
फिर जाने कहाँ उड़ जाती

रात

सूरज के डूबने से
रात नहीं होती
दिल का चिराग
बुझता है
रात आती है

...बसंत बहुत चुभा तभी










एक बार तुमने पूछा था
क्या बसंत देखा है कही
तुमसे मिलकर खेतो के रस्ते
एक बार हस्ते हस्ते
घर को आयी थी मै 
बसंत दिखा था तभी
तुमसे बिछुड़ के पगडंडियों  से
न जाने कहाँ   
चली थी मै
कटीली झाड़ी ने दामन थामा था मेरा 
बसंत  बहुत चुभा तभी 

मंगलवार, 8 मार्च 2011

के आई टी कानपुर का कुलगीत the kulgeet of kanpur institute of technology (kit kanpur)




कानपुर इंस्टीटयूट ऑफ़ टेक्नोलोजी  का कुलगीत लिखने का उत्तरदायित्व जब मुझे सौपा गया तो मेरे लिए दुविधा वाली बात थी. मै कभी  किसी के कहने से लिख नही पाता जब मन में मौज हो तो कलम अपने आप चल जाती है. चूंकि इस कालेज से मेरा जुड़ाव है सो मैंने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और परिणाम आपके सामने है 


राष्ट्र सृजन के पावन पथ पर 
श्रम की नगरी  गंगा तट पर, 
शिक्षा का बढ़ा तब गौरव
केआईटी  का हुआ जब उदभव.

ऊर्जित मेधा के साथ चले हम
गुणवत्ता के साथ बढे हम,
अभिनव तकनीक प्रायोगिक हो 
सरल अनंत ज्ञान सब संभव.

स्वप्न हुए साकार यहाँ पर 
जीवन को आकार यहाँ पर ,
स्थितियों को गति प्रदान कर
सर्वत्र फैलता यश सौरभ.

जयति जयति विद्या प्रदायिनी
जयति जयति जय ज्योति दायिनी,
विश्व विजय की अभिलाषा है 
मन्त्र सत्य शिव सुन्दर भव. 
                                                       PAWAN KUMAR MISHRA
                                                       ASSISTANT PROFESSOR OF
                                                       INDUSTRIAL SOCIOLOGY
                                                       K.I.T. KANPUR            


शनिवार, 5 मार्च 2011

जब किसी के लिए मन में श्रद्धा और प्यार होता है तो मन कवि हो जाता है.

जब किसी के लिए  मन में श्रद्धा और प्यार होता है तो मन कवि हो जाता है. मेरा मन भी कुछ इस तरह पिछले कई  सालो से महसूस कर रहा है. ये भाव मै इस मंच के द्वारा प्रस्तुत कर रही हूँ. आप सब जानते है कि मेरे भाव किनको समर्पित है अगर नही जानते है तो अपने आप पता चल जाएगा.

                                                                   










                     १.
कुछ बीते हुए लम्हों से मुलाकात हुयी
कुछ भूले हुए सपनो से बात हुयी
अतीत में निहारने का मन जब हुआ
आपकी यादों से शुरुआत हुयी
पलकों पे छाया है आपका ही जादू
लोग कहते है कि ये उदास हुयी

                  २.
तुम मेरा स्वप्न नहीं
जीवन की सच्चाई हो
यथार्थ हो मेरा
और अक्षय अरुणाई हो
जीवन का स्पंदन हो
धड़कन की शहनाई हो



मौत की नसीहत


एक दिन स्वप्न में मौत से   मै मिला, जिंदगी की वसीयत पता चल गयी  ! 
जिंदगी-मौत का भेद मन से मिटा, मौत की जब नसीहत पता चल गयी !! 

मौत कहने लगी- हे मनुज आज सुन, सोचता है कि तू जिंदगी है बड़ी  !
हूँ नहीं मैं अकेली दुखद कष्ट-जड़, जिंदगी भी मेरे संग में है जुड़ी !!

जिंदगी के लिए तू भटकता रहा, जिंदगी के लिए तूने साधन चुने !
हैं वही आज कारण तेरी मौत के, ढूढने में जिन्हें तेरे तन-मन घुने !! 

है नहीं  जल प्रदूषण  रहित झील अब, सांस के हेतु है प्राणवायु नहीं !
भूमि भी है नहीं अन्न के हेतु अब , आदमी के लिए आदमी है नहीं  !!

बुलबुला जिंदगी का तेरी ऐ मनुज , आज परमाणुओं पर है बैठा हुआ  !
तेरे द्वारा ही निर्मित ये खंजर तेरा , आज तेरी ही आँतों में पैठा हुआ  !!

जान से भी अधिक चाहता था जिसे , मारने को उसे आज तैयार है !
भाई के भी लिए मन में नफरत भरी, आज पैसे से ही बस तुझे प्यार है !!

आदमी-आदमी से घृणा कर रहा , क्या यही है  तुझे जिंदगी ने दिया ?
नहीं मारती हूँ तुझे ऐ मनुज, विष का प्याला है  तूने स्वयं पी लिया !!

हे मनुज तू अगर ऐसे चलता रहा, मेड़ जीवन कि तेरे खिसक जाएगी !
फिर नहीं दोष दे पायेगा तू मुझे, जिंदगी खुद-ब-खुद मौत बन जाएगी !!
जिंदगी खुद-ब-खुद मौत बन जाएगी........................................................
   

गुरुवार, 3 मार्च 2011

और लो ! फिर आ पहुंची उषा. ..ईशा त्रिपाठी "अनुसुईया"















गिर गयी उषा के हाथ से
सिन्दूर की दानी
और बिखर गयी लाली .
धुंध का लिहाफ ओढ़े
पड़ी हुई वसुंधरा ने
जब ली अंगड़ाई, तो
चिड़ियाँ भी चह्चहायीं .
सुनकर खगों का शोर
दिनकर ने भी आँखें मलीं
और नींद भरा, लाल मुख 
लेकर उपस्थित हो गए .
उषा ने लाली समेटकर
चन्दन का तिलक सूर्य के
माथे पर लगा दिया,
और फिर वो कहाँ लोप हुई
सूरज ने ध्यान ना दिया .
और कुछ ही देर में
नीले समंदर के बीच
दीख पड़ा सबको
इक आग का गोला .
उस आग ने सबको तपाया
पर आई फिर संध्या की छाया.
संध्या जो आई तो
अनल कुछ शांत हो गया,
लपटें चली गयीं
बचा बस लाल कोयला .
इतने में आ पहुंची निशा,
माथे पे चाँद की बिंदिया ,
और काले आँचल में उसके
तारों की अबरक चमके ,
कुछ को सुलाया
कुछ को जगाया निशा ने .
कई प्रहर वह ठहरी रही
पर अंततः थक ही गयी,
और लो !
फिर आ पहुंची उषा.   

मंगलवार, 1 मार्च 2011

शिव का वास्तविक स्वरूप

शिव के बारे में अधिकतर लोंग अल्प या भ्रामक ज्ञान रखते है . यही कारण है की जब कोइ अन्य मजहब का व्यक्ति शिव के बारे में पूछता है तो हम न तो शिव जी  के बारे में ठीक बता पाते है और न ही उन कुतर्को को सही जवाब दे पाते है जो शिव और शिव लिंग के बारे में प्रचारित किये जा रहे  हैं . इस के लिए शिव का यथार्थ स्वरुप जानना आवश्यक है .
                                      शिव एक तत्व हैं .
शिव  तत्व से तात्पर्य  विध्वंस या क्रोध से है .दुर्गा शप्तशती के पाठ से पहले पढ़े जाने वाले मंत्रो में एक मन्त्र है 
'' ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामी नमः स्वाहा ''
दुर्गा शप्तशती में आत्म तत्व ,विद्या तत्व के साथ साथ शिव तत्व का शोधन परम आवश्यक माना गया है इस के बिना ज्ञान प्राप्ति आसंभव है .जरा सोचिये अगर हम किसी बच्चे को क्रोध करने से बिलकुल ही रोक दे तो क्या उस का सर्वांगीर्ण विकास संभव है .बच्चे का जिज्ञासु स्वभाव मर जायेगा  और वो दब्बू हो जायेगा .
शिव तत्व विध्वंस का का प्रतीक है. सृजन और विध्वंस अनंत श्रंखला की कड़ियाँ है जो बारी बारी से घटित होती हैं .ज्ञान ,विज्ञानं ,अद्यात्मिक , भौतिक, जीवन के किसी भी  छेत्र में  यह  सत्य है .
ब्रह्मांड की बिग बैंग थेओरी  इस  बात को प्रमाणित करती है . ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक महा विस्फोट के बाद हुई .. विस्फोट से स्रजन हुआ न की विनाश .
ऋषि मुनियों ने अनेक चमत्कारिक  खोजे की है पर शिव तत्व की खोज अदभुद थी जो ब्रह्माण्ड के सारे रहस्य खोलते हुए जीवन मरण के चक्र से मुक्त करती थी .शिव का  महत्त्व  इतना है की वे सब से ज्यादा पूज्य है .इसी लिए कहा गया है की 
सत्यम शिवम् सुन्दरम 
                               अर्थात 
शिव ही सत्य है 
सत्य ही शिव है 
शिव ही सुन्दर है    
.                                         शिव और शक्ति 
शिव और शक्ति मिल कर ब्रम्हांड का निर्माण करते है .इस श्रसटी में कुछ भी एकल नही है अच्छाई है तो बुराई है ,प्रेम है तो घ्राण भी है .यदि एक सिरा है तो दूसरा शिरा भी होगा .एक बिंदु के भी दो सिरे होते है .
जिस वक्त सिर्फ १ होगा उसी  वक्त    मुक्ति हो जाएगी क्यों की कोइ भी वास्तु अकेले नही होती है अर्थात दोनों एक साथ मिलने पर ही मुक्ति संभव है .
एक परमाणु पर कोइ आवेश नही होता है पर जब उस से एक इलेक्ट्रान निकल जाता है तो उस पर उतना ही धन  आवेश आ जाता है जितना की इलेक्ट्रान पर ऋण आवेश . इस प्रकार आयन (इलेक्ट्रान निकलने के बाद परमाणु आयन कहलाता है ) और इलेक्ट्रान दोनों ही तब तक क्रियाशील रहते है जब तक वे फिर से न मिल जाये .
ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है , ऊर्जा और प्रदार्थ 
हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है और आत्मा  ऊर्जा है . बिना एक के  दूसरा अपनी अभिवयक्ति नही कर सकता . दया ,छमा, प्रेम आदि सारे गुण तो आत्मा रुपी दर्पण में ही प्रतिबिंबित होते है .
शिव प्रदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक है . दुर्गा जी 9  रूप है जो किसी न किसी भाव का प्रतिनिधित्व करते है .
अब जरा आईसटीन का सूत्र देखिये जिस के आधार पर आटोहान ने परमाणु बम बना कर  परमाणु के अन्दर छिपी अनंत ऊर्जा की एक झलक दिखाई  जो कितनी विध्वंसक थी सब  जानते है.
                                                          e / c =  m c 
इस के अनुसार  पदार्थ को पूर्णतयः ऊर्जा में बदला जा सकता है  अर्थात दो नही एक ही है  पर वो दो हो कर स्रसटी  का निर्माण करता है  .
ऋषियो ने  ये रहस्य हजारो साल पहले ही ख़ोज लिया था.  
 भगवान अर्ध नारीश्वर इस का प्रमाण है .
                          शिवलिंग क्या है ?
राम चरित्र मानस में शिव की स्तुति  की ये लाइन देखिये 
'' अखंडम अजन्म भानु कोटि प्रकाशम् ''
अर्थात जो अजन्मा है अखंड है  और कोटि कोटि सूर्यो के प्रकाश के सामान है .जिस का जन्म ही नही हुआ उस का फिर उस के लिंग से क्या तात्पर्य है .
ब्रह्म - अंड,
अर्थात ब्रह्माण्ड अंडे जैसे आकर का है .
शिवलिंग ब्रह्माण्ड का प्रतीक है . 
पूजा से हमें शक्ति मिलती है .शिवलिंग की पूजा शिव -शक्ति के मिलन  का प्रतीक है जो हमें सांसारिक बन्धनों से मुक्त करती है .
इन रहस्यों को जो जानता  है वो शिव भक्ति से सराबोर हो जाता है फिर वो किसी भी मजहब  का हो ..शिव जी के अनेक मुस्लिम भक्त भी है .
        

एक मुलाकात डा. कुमार विश्वास और जाकिर अली रजनीश जी के साथ


पिछले शुक्रवार यानि २५-०२-२०११ को हिंदी साहित्य को समृद्ध और लोकप्रिय करने में लगे दो व्यक्तियों से एक साथ मिलने का  मौका मिला. समय था कानपुर  इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलाजी में चल रहे तकनीकी  और सांस्कृतिक कार्यक्रम २०११ का दुसरा दिन .
एक तरफ जाकिर अली रजनीश जो की अबतक प्रकाशित लगभग ६५ किताबों के साथ बाल साहित्य और वैज्ञानिक विषयों पर कलम दौडाते रहे हैं तो दुसरी तरफ डा.कुमार विश्वास अपनी हिन्दी कविताओं  के माध्यम से युवा वर्ग के दिलो दिमाग में बस चुके हैं.
आइये सबसे पहले बात करते हैं डा. कुमार विश्वास के साथ हुई  एक छोटे मुलाकात की......
मिलने की चाहत तबसे थी जब पहली बार "कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है" सुना था. सम्पर्क का माध्यम  बना मेरे ब्लॉग मेरी अन्तराभिव्यक्ति के एक पोस्ट पर इनका एक कमेन्ट जो की अंततः मुलाकात तक का  कारण बना. जब हम लोग विश्वास जी से मिलने पहुचे तो वे टी.वि पर न्यूज देख रहे थे और समकालीन न्यूज पे अपना कमेन्ट दे रहे थे. औपचारिक मुलाकात के बाद वे परफार्मेंस देने जाने की तैयारी में लग गए और बीच-बीच में कुछ -कुछ पुछते और हमारे प्रश्नों का जवाब देते रहे. शक्ल से खुशमिजाज और सरल दिखने वाले विश्वास जी वास्तविक जीवन में भी कुछ ऐसे ही लगे. मेरे एक प्रश्न की आप लगभग कितने देर तक परफार्म करना पसंद करेंगे के जवाब में उन्होंने बड़ी सरलता से कहा की "जबतक odiens चाहेगी". अंततः हुआ भी कुछ ऐसा ही.तालियों के गडगडाहट के बीच वो दो घंटे से ज्यादा देर तक स्टेज पे रहे. एक प्रश्न के जवाब में की युवा उनको सुनना क्यों पसंद करते हैं उन्होंने कहा"  एक समय था जब कवि सम्मेलनों में जाने वालों की औसत उम्र ५० साल हुआ करती थी. ये मेरा अहंकार नहीं बल्कि मेरा आत्मविश्वास बोल रहा है कि आज कुमार विश्वास का नाम सुनते ही  ये २० साल हो जाती है. मैंने उनको वो सुनाने का प्रयास किया है जो की मैंने खुद महसूस किया है. मेरे पास, मेरी कवितावों में उन्हें कुछ अपना सा लगता है इसलिए सुनने आते हैं". मोबाइल, लैपटॉप पे कवितायेँ सुन कर वाह वाह करने से अलग उन्हें सामने सुनकर वाह-वाह करने का आनंद सुखद रहा.
अब बात करते हैं जाकिर अली रजनीश जी की. कार्यक्रम थोडा लंबा खिंच गया लेकिन ऐसे में भी अपनी यात्रा के थकन के बावजूद रजनीश जी ११.१५ तक हम लोगों के साथ रहे. ढलती रात को देखते हुए मैंने सुबह में उनसे मिलने का मन बनाया और उन्हें होटल तक छोड़ने को सोचा. जब मैंने उनके साथ होटल तक जाने की बात की तो उन्होंने बड़ी सरलता से यह कहते हुए मना कर दिया की कहा परेशान होओगे कल सुबह मिल लेंगे अभी मै अकेले ही चला जाऊंगा. सुबह लगभग ८.३० बजे जब मै पवन मिश्रा सर के साथ  होटल पहुंचा तो ये चाय की चुस्कियां ले रहे थे. बातों बातों में इन्होंने बताया की उनकी लगभग ६५ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं,साथ ही पराग,नंदन जैसी पत्रिकावों में ६०० से ज्यादा कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं. मुझे सबसे अच्छी बात लगी रजनीश जी की खुद की विकसित की गई लिपि  जिसे की उन्होंने अपने कालेज के समय में खुद से विकसित  किया था.  रजनीश जी ने अपने डायरी के पन्नों पर उकेरी टेढ़ी मेढ़ी लाइनों को दिखाते हुए बताया की "मै खुद की बने इस लिपि में ज्यादा सहज महसुस करता हूँ और केवल मै ही इसमें लिख और पढ़ सकता हूँ". मेरे और पवन सर के साथ हुए बातचीत के दौरान हम लोगों ने,जाति,धर्म,.विज्ञान ,राजनीति  आदि विभिन्न विषयों पर चर्चा की. 
अंततः समय के पाबंद हम लोग अपने-अपने रास्ते पर निकल तो लिए लेकिन मुलाकात के बाद ब्लॉग और मेल तक का यह संबंध अब भावनात्मक रिश्तों का रूप ले चूका है और इसे जाकिर अली रजनीश जी ने भी अपने एक पोस्ट के  माध्यम से जाहिर किया है.