" माटी " को पाँच वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। छपे शब्दों की नग्न बाजारी दौड़ में भारतीय तहजीब की सुसंस्कृत वेष भूसा पहनकर माटी ने दौड़ से बाहर करने वालों को एक चुनौती भरी ललकार लगायी है।माटी न केवल जीवित है बल्कि उसकी जीवन्तता में निरन्तर निखार आ रहा है।सुधी पाठक स्वयं जानते हैं कि छपाई और साज -सज्जा के स्तर पर माटी भले ही सामान्य स्तर पर खड़ी हो पर जंहाँ तक उसके भीतर समाहित रचनात्मक तत्त्वों का प्रश्न है उसका स्थान हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में सर्वोच्च श्रेणी में ही आता है।साज -सज्जा और छपाई वित्तीय विपुलता की मांग करते हैं और "माटी "का पाठक मध्य वर्गीय प्रबुद्ध नागरिक है जो स्वस्थ्य पठनीय विचार सम्पदा के लिये अपनी सीमित कमाई से बहुत अधिक राशि नहीं निकाल पाता। पूँजी जुटाने के लिये अस्मिता का सौदा करना माटी को सदैव नामन्जूर रहा है और रहेगा। प्रारम्भिक लड़खड़ाहट के बावजूद हमारे डगों में विश्वास भरी त्वरा शक्ति आती जा रही है और शीघ्र ही हमारा प्रसार हिन्दी भाषा -भाषी अन्तर -प्रान्तीय आयाम छूने लगेगा।इस बीच भारत के राजनीतिक क्षितिज पर नव जागरण की सुहावन लालिमा दिखाई पड़ने लगी है।ऐसा लगने लगा है कि एक समग्र राष्ट्रीय द्रष्टि फिर से उभर कर क्षेत्रीय विखण्डता से टक्कर लेने को सजग हो उठी है।यह उभार,स्वागत के योग्य है।क्योंकि अखण्ड राष्ट्रीय विचार पीठिका पर खड़े होकर ही हम भूगोल की वर्तुल सीमाओं को अपने आगोश में ले पायेंगे।जाग्रति का एक सबसे प्रबल पक्ष है भारत की अजेय तरुणाई का लोक रंजक और जन कल्याणकारी राजनीतिक परिद्रश्य में सशक्त योगदान।माटी तो चाहती ही है कि भारत की उर्वरा भूमि में लाखों हँसतें लहराते लाल राष्ट्र को फिर से संसार की श्रेष्ठतम कर्मभूमि और स्वस्थ्य भोग भूमि बनाने के लिये आगे आंयें।सम्भवत : धुंधलके को और अधिक साफ़ होने में अभी थोड़ी बहुत देर है पर ऐसा आभास अवश्य हो रहा है कि तमस की कालिमा छटनें लगी है।हमें सावधान होकर यह देखना होगा कि Sensex की उछालें हमारे लिये आर्थिक प्रगति का प्रतीक न बन जायें।दरिद्रता मानव जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है और हिन्दी भाषा -भाषी प्रदेशों का एक काफी बड़ा हिस्सा दरिद्रता की चपेट में है।इस वर्ग को दरिद्रता की श्रेणी से निकालकर सहनीय गरीबी के उपेक्षंणनीय क्षेत्र में लाकर खडा करने के लिये भी बहुत अधिक इच्छा शक्ति और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासनिक व्यवस्था की आवश्यकता है।हम यह मान कर चलते हैं कि चालिस और पचास वर्ष के बीच चलने वाले परिपक्व तरुणों के द्वारा भारत की राजनीति ऐसा कुछ असरदार कर दिखायेगी जो दरिद्रता का कलंक धो पोंछ कर साफ़ करने में सफल हो सकेगी।निकट भविष्य में भारत की आर्थिक प्रगति और न जाने कितने अम्बानी ,टाटा और सुनील मित्तल को उभार कर विश्व के सबसे धनी उद्योगपतियों की श्रेणी में स्थान दिला देगी।हम चाहते हैं कि केन्द्र का अक्षय कोष निरन्तर उन जरूरत मन्दों के लिये खुला रहे जो शताब्दियों से आर्थिक व्यवस्था के हाशिये पर खड़े रहे हैं।अकबर के प्रसिद्ध सभासद अब्दुल रहीम खान खाना जो महाभारत के कुन्ती पुत्र कर्ण की भांति अपने दान के लिये प्रसिद्द थे का एक दोहा हमें याद आता है -
"देन हार कोहु और है ,भेजत है दिन रैन
लोग भरम हम पर करैं ,ताते नीचे रैन ।"
माटी चाहती है की सरकारें आत्म श्लाधा से ऊपर उठ कर नीचे नैन करके वन्चित समुदाय की सेवा में निष्ठा पूर्वक लग जाने का व्रत लें।
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