सोमवार, 24 दिसंबर 2012

माटी की सीमायें


 माटी की अपनी सीमायें हैं।सीमारहित तो कुछ होता ही नहीं । यदि सीमा रहित कुछ है तो वह है असीम ब्रम्हाण्ड या उसके पीछे सृजन की कोई सत्ता।गणितज्ञ Infinity को एक कल्पना मात्र मानते हैं,पर इस कल्पना का आधार लिये बिना सांख्यकीय की अपार  संभावनाएँ चरितार्थ ही नहीं की जा सकती।भूमण्डल भी तो असीम ब्रम्हाण्ड में एक क्षुद्रतम कण ही है ।हाँ इस छोटेपन से लघुता के अस्तित्व पर कोई प्रश्न चिन्ह खड़ा करना उचित नहीं होगा। लघुता का अपना महत्त्व है वैसे ही जैसे चमत्कृत कर देने वाली विशालता का। महर्षि कणाद भी तो यही कहते हैं जो कण में है वही असीमित नीलाभ विस्तार में है । जो पिण्ड में है वही पर्वत प्रसार में है पर माटी की जिन सीमाओं की चर्चा मैं कर रहा हूँ उसका सम्बन्ध उसके कलेवर ,उसकी साज सज्जा और उसमें संजोयी गयी विचार सामग्री से है। इसे एक गर्व भरा कथन नहीं समझना चाहिये पर यह सच है कि माटी में छपने के लिये शताधिक रचनायें हमारे पास आ रहीं हैं उनमें से काफी कुछ रचनायें छपने योग्य होकर भी छप नहीं पा रहीं हैं। क्योंकि माटी का कलेवर एक सीमा के भीतर ही अपनी गुण वत्ता संजोये रख सकता है।9 प्रतिशत प्रतिवर्ष आर्थिक विकास वाले भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी में निकलनें वाली  कोई भी साहित्यिक पत्रिका केवल रचनाओं के बल पर अपना नैरन्तर्य कायम नहीं रख सकती। प्रकाशन की निरन्तरता बनाये रखने के लिये उसे बहुराष्ट्र्वादी कम्पनियों से या सरकार से विज्ञापनों की आवश्यकता होती है । यदि माटी अपनी विचारधारा किसी राजनैतिक पार्टी को गिरवी रख दे तो हो सकता है कि उसे किसी छद्म रूप से वित्तीय सहायता मिल जाय पर अपनी लघु काया में भी माटी वैचारिक स्वतन्त्रता का मुकुट बांधे हुए है। उसके प्रकाशन के पीछे आदर्शों के लिये प्राणाहुति करनें की प्रेरणा ही काम कर रही थी और यही प्रेरणा सदैव उसकी जीवन्तता बनी रहेगी। माटी में जिन रचनाकारों नें अभी तक स्थान नहीं पाया हैं उन्हें छुद्र नहीं होना चाहिये। हम एक बार अपने पास आयी हुई सभी रचनाओं का पुनरीक्षण कर रहें हैं और जहाँ तक संम्भव होगा सभी स्तरीय रचनायें प्रकाशित की जांयेंगी। आज के तकनीकी युग में गूगल और याहू नयी पीढी के लिये क्रेज बनते जा रहें हैं। वेबसाइट और सर्फिंग तथा ब्राउजिंग का नयापन युवकों को अपनी ओर खींच रहा है । पर इतना सब होते हुये भी माटी अभी तक इस विश्वाश को पाल रही है कि गहरी वैचारिक उपलब्धि और विशालता के लिये श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकायें और पुस्तकें ही टिकाऊ आधार प्रदान कर सकती हैं ।
                                                शाश्वत जीवन मूल्यों को रचनाओं के माध्यम से अपने में समाहित करने वाली माटी मासिक का नाम कई बार भ्रामक धारणाएँ पैदा कर देता है। एस .के .रावत जो पत्रिका के एक पाठक हैं और जिनकी अभिव्यक्ति के माध्यमों पर गहरी पकड़ है नें हमें लिखा है कि माटी मध्यम वर्ग के लिये तो श्रेष्ठ पाठन सामग्री प्रस्तुत कर रही है।पर दलित वर्ग के   लिये उदबोधक रचनाओं का उसमें पूरा समावेश नहीं हैं । मैं अपने बहुविध्य पाठकों को यह कहना चाहूँगा कि माटी नामांकन का अर्थ माँ भारती की गोद में पलती सभी सन्तानों के प्रति सम्मान के प्रतीकार्य में लिया जाना चाहिये । हम वर्ग संघर्ष में विश्वाश नहीं करते। हम सहयोग ,समन्वय ,समरसता और समान अवसर के पक्षधर हैं। हाँ इतना अवश्य है कि अतीत की समाज व्यवस्था में जो उपेक्षित रहें हैं और जिनकी प्रतिभा सामाजिक संरचना के कारण पूरा विकास नहीं पा पायी है उन लोगों को कुछ विशिष्ट अधिकारों और सुविधाओं के द्वारा आर्थिक प्रगति की मुख्य धारा से जोड़ा जाय। भारत की सभी राजनैतिक पार्टियाँ इस विचारधारा की समर्थक हैं।उनकी आर्थिक विचारधारा और सांस्क्रतिक अवधारणा में अन्तर हो सकता है पर इस  बात पर सभी एक मत हैं कि आर्थिक द्रष्टि से पीड़ित और वर्ण व्यवस्था के दुर्पयोग से दंशित व्यक्ति समूहों को प्रगति की दौर में औरों से दो ,एक कदम आगे खड़ा किया जाय ताकि वे लम्बे समय तक पिछड़ते न रह जायं।राजनैतिक और आर्थिक द्रष्टि से दलित कहे जाने वाले वर्ग और पिछड़े कहे जाने वाले व्यक्ति समूहों नें स्वतन्त्र भारत में अच्छी प्रगति दिखाई है । उनका राजनीतिक सशक्तीकरण तो इस सीमा तक पहुँच गया है कि पुरानी वर्ण व्यवस्था अब सर के बल खड़ी होकर एक नया आकार लेती जा रही है। माटी भारत की मिट्टी में जन्में छोटे-बड़े ,गरीब -अमीर ,दलित -अभिजात्य ,श्रमिक -पूंजीपति ,निम्न -मध्यम ,उच्च और उच्चतम सभी वर्गों को प्यार से अपने आगोश में समेटना चाहती है।हजारों हजार वर्षों से भूगोल ,इतिहास और बाजारी व्यवस्था की विभिन्नताओं नें मानव समाज के स्तर में बहुत बड़ा अन्तर ला दिया है। यह अन्तर बहुत शीघ्र नहीं मिट सकता पर एक दो शताब्दियों तक यदि आतंक वाद से मुक्त होकर जनतांत्रिक व्यवस्था चल जाय तो इस बात की पूरी संभावना है कि समानता का एक स्वीकार्य ढांचा विश्व मानव के सामने खड़ा हो जायगा। वैसे यह कह देना भी यंहा समीचीन होगा कि एक ऐसी समानता जिसमें सभी आर्थिक या सामाजिक महत्ता की द्रष्टि से एक जैसे हो जाँय कभी भी सम्भव नहीं है।ऐसा न तो कभी था और न ही कभी होगा।ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी के लीडर और दस वर्ष तक प्रधानमन्त्री के पद पर रहने वाली मार्गेट थ्रेचर जोर देकर यह बात कहती थीं कि एक सपाट समानता न तो प्रकृति का नियम है और न ही यह मानव समाज का नियम बन सकता है।लौट महिला के नाम से जाने जाने वाली थ्रैचर कहती हैं ,"In Equality is the law of nature ." हमारा सामान्य अनुभव हमें बताता है न तो आकार प्रकार में , न ही बुद्धि के पैमाने पर और न ही पुरुषार्थ की तराजू पर संसार के नर -नारियों को एक समान स्तर पर खड़ा किया जा सकता है। भिन्नता तो रहेगी ही जो आलसी हैं ,भीरु हैं और पलायन वादी हैं वे प्रगति की दौर में उनसे पिछड़ ही जायेंगे जो पुरुषार्थी हैं ,निरन्तर क्रियाशील हैं और जोखिम उठाकर नयी मन्जिलों से अनछुये लक्ष्यों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। कट्टर साम्यवादी दर्शन आज के युग में विकलांग हो गया है क्योंकि मनोविज्ञान और समाजशास्त्र की अधिक ठोस खोजों नें सर्व हारा के सम्पूर्ण अधिपत्य वाले सिद्धांत को अवैज्ञानिक और अव्यवहारिक साबित कर दिया है । हाँ ऐसी विश्व व्यवस्था बनायी जा सकती है जिसमें धरती का प्रत्येक नर -नारी जीवन यापन  के उस निम्नतर स्तर तक लाया जा सके जो उसके युग की वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों से सम्भव हो सकेगा । हमारा अनुभव है कि हर सबल ,समर्थ और सफल उद्योगपति ,व्यापारी ,नेता या हुनरमंद केवल भ्रष्टाचार के बल पर ही उंचाई नहीं पाता। बहुत से ऐसे भी हैं जो अपनी भीतरी ताकत और मजबूत इरादों की कुब्बत से आर्थिक दौर में आगे निकल जाते हैं।हाँ ऐसे लोग भी बहुत हैं जो भीतर से खोखले हैं लेकिन सम्बन्धों  या परिस्थितियों की अनुकूलता उन्हें ऊँचाई पर बिठा देती है । इस संसार का तानाबाना इतना जटिल है कि कोइ भी राजनैतिक व्यवस्था सारी मानव जाति को संतुष्ट कर दे ऐसा सम्भव ही नहीं है। इतिहास में ऐसे मोड़ भी आते हैं जब चकाचौंध कर देने वाली झूठी विचारधारा किसी राष्ट्र का मन मोह लेती है। आखिरकार हिटलर जर्मनी की जनता की बांह पकड़कर ही खड़ा हुआ था। माटी यह नहीं मानती कि संसार में कोई भी रेस , जाति , देश या क्षेत्र अपनें में सर्वगुण संपन्न है और विधाता नें उसे विशेष ढंग से गढ़ा है। हम असमानता में समानता और समानता में असमानता लाकर एक ऐसे सहनशील समाज का निर्माण करना चाहते हैं जिसमें व्यक्ति की विशेषताओं का सम्मान हो पर सामान्य ,साधारण नागरिक भी सम्मान पूर्वक जीने का अधिकारी हो। घ्रणा का दर्शन खूनी दरवाजे की ओर ही ले जाता है। जब विश्वाश टूट जाता है तो उसमें मानव मूल्यों का विधान ढीला पड़ने लगता है अब देखिये अमरीका में पूर्व राष्ट्रपति अबुल कलाम की एयर पोर्ट पर तलाशी ली गयी। कुछ दिन पहले अगस्त 2009 के दूसरे सप्ताह में शाहरुख खान को भी अमरीका में हवाई अड्डे पर 2 घंटे रोककर पूँछ ताछ की गयी थी । शाहरुख का कहना था कि चूंकि उनके नाम के पीछे खान लगा है इसलिये उन पर पूँछ -ताँछ को एक प्रकार की मानसिक यन्त्रणा में बदल दिया गया। अमरीका में ऐसा सब इसीलिये तो हो रहा है कि ओसामा बिन लादेन नें जिस घ्रणा के दर्शन को बढ़ाकर आतंकवाद के जिन को निकाल खडा किया है उससे अमरीका हर खान को या यों कहें हर विदेशी मुसलमान को शक की निगाह से देखने लगा है। भारत का विभाजन इसी घ्रणा और धार्मिक उन्माद के कुहासे में हुआ था। भारत के कुछ नेता छिछली राजनीति के बहकावे में आकर जिन्ना की तारीफ़ करने लगे हैं पर माटी यह मानती है कि हिन्दुस्तान का बटवारा करके जनूनी मुस्लिम नेताओं नें अपनी कौम का बहुत बड़ा नुक्सान किया है। घ्रणा का यह दर्शन अगर बढ़ता चला गया तो कब और कैसे मानव फिर से दो पैरों पर चलनें वाला नर पशु न बन जाय कहा नहीं जा सकता। :"माटी ' तो असीम आकाश की नीलाभ छाया में माँ धरित्री की गोद में पलते हर देश ,हर वर्ग ,हर रंग और हर प्रजाति के नर -नारियों को बुद्ध और गान्धी , महावीर और नानक द्वारा दिया गया प्यार और  भाई चारे का सन्देश ही पहुचाना चाहेगी।प्रधान मन्त्री नें फिर से हमें कुछ दिन पहले हमें आगाह किया था कि पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन नयी और अत्यन्त भयानक साजिशों में लगे हैं और उनके पास आधुनिकतम शस्त्र  और सँचार सुविधायें हैं। हम यह कामना करतें हैं भारत वर्ष नें जो एकता 1965 ,1971और कारगिल के युद्ध के समय दिखाई थी वैसी ही हम हिन्दुस्तानी एक हैं की भावना सदैव सदैव के लिये हमारे बीच पनपती रहे। यही वह शक्ति है जो फिर से हमें राष्टों का सिरमौर बना सकतीहै ।
                                                                   

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