भारतीय परम्परा प्रतिभा को अबाध रहने की स्वतंत्रता तो देती है पर उसे मानव कल्याण के विपरीत दिशा में बहने से बाधित करती है ।इसीलिये प्रतिभा पर आभिजात्य संस्कारों का ,परित्रिष्टित जीवन द्रष्टि का और धार्मिक नियंत्रणा का अनुशासन रखा जाता है ।आज सर्वश्रेष्ठ प्रतिभायें खरीद -फरोख्त का बाजारू माल बन चुकी हैं ।Knowledge Industry वणिक वृत्ति संचालित होकर मानव जीवन के उच्चतर लक्ष्यों की अवहेलना कर रही है ।जो कुछ है सब बिकाऊ है । इंग्लैंड के इतिहास में कुछ इसी प्रकार के प्रश्न सोलहवीं शताब्दी में उठे थे जब मार्लो ने अपना बहु चर्चित नाटक डा 0 फास्ट्स लिखा था उसमें भी आत्मशोधक डॉ0 फास्ट्स शैतान Mephosto-thilis की बातों में आकर सुरा -सुन्दरी के अबाधित भोग के लिये अपनी आत्मा का सौदा करते हैं ।इस युग में अपनी सारी लम्बी चौड़ी मानवीय कल्याण की घोषणाओं के बावजूद अमेरिकन संस्कृति वस्तुत: जुगुप्सापूर्ण विलास संस्कृति बन कर रह गयी है ।भारत में बुद्ध धर्म की वज्रयानी परम्परा मुद्रा और माया के चक्कर में फँसकर पतन की जिस निम्न छोर पर पहुँच गयी थी कुछ वैसा ही आज अमेरिकन जीवन पद्धति में घटित होता दिखाई देता है ।शक्ति और वैभव का अभिमान काल के प्रवाह में एक क्षणिक उन्माद ही है उसे किसी भी राष्ट्र को सनातन मान कर नहीं चलना चाहिये। उत्थान पतन का कालचक्र सतत गतिमान रहता है जो ऊर्ध्व पर है उसे नीचे आना ही होगा पर चक्र की गति यदि सहज रहे तो ऊर्ध्वत्व का बिन्दु कुछ अधिक देर तक टिका रहता है । ऐसा कुछ आज पाश्चात्य सभ्यता में दिखाई नहीं देता । भारत नें एक अत्यन्त लम्बे काल तक मानव सभ्यता के सर्वोच्च स्थान पर अपने को प्रतिस्थापित किया था और यह दीर्घ जीवन इसलिये पा सका था क्योंकि उसने स्वाभाविक कालचक्र की पतन गति को संयम और आत्म अनुशासन के दोनों हाँथो से पकड़कर धीमां कर रखा था ।पिछले लगभग एक सहस्त्राब्दी से हम अन्धकार की चपेट में आ गये थे पर ऐसा लगता है कि यह भी श्रष्टि रचयिता की भारत को सीख देनें की एक दैवी योजना थी।अन्तता :हमारी इस देव भूमि से परम पिता को एक विशेष लगाव तो है ही ।" माटी " आस्तिकता के इन आयामों को स्वीकार करती है । नास्तिकता के किसी भी स्वर को हम पूरी शक्ति के साथ नकारते हैं और हम विश्श्वास करते हैं कि हम देव पुत्र हैं ,कि हममें कहीं ईश्वरीय स्फुल्लिंग है , कि हम मानव शरीर से देवत्व के सोपानों की ओर बढ़ सकते हैं । उन अनीश्वर वादी Nihilist विचारकों को हम भुस के तिनकों से अधिक महत्त्व नहीं देते जो मानव शरीर को मात्र पशु प्रव्रत्तियों का संचयन बताते हैं ।हम महर्षि अरविन्द के साथ खड़े हैं जो चाहते थे कि हर मानव महामानव बनें और यह महामानव अपने आन्तरिक विकास की चरम उपलब्धि के क्षणों में ईश्वरीय गरिमा से मंडित हो सकेगा।विकासवाद भी विकास की प्रक्रिया में Mutation के चरम महत्त्व को स्वीकार करता है और हमारा विश्वास है कि यह म्युटेशन भी श्रष्टि नियन्ता की मानव कल्याण प्रेरित भाव भूमि से ही सन्चालित होता है ।द्रष्टि का लंगड़ापन और भ्रामकता ही हमें विभिन्नता का बोध कराती है।अन्यथा विश्व के सभी मानव ज्योति शिखा से स्फुरित सर्वव्यापी स्फुल्लिंगों से ही अनुप्राणित हैं । कितना रक्त बहाया है मानव जाति ने गोर काले के भेद को लेकर ,सम्प्रदाय विभिन्नता के नाम को लेकर , पूजा पद्धतियों के टकराव को लेकर ,और भेष -भूषा को लेकर।कितनें क्षुद्र स्वार्थो की नीव पर तथा कथित धर्म साम्राज्यों की स्थापना की गयी , कितनी विजय गाथायें निरीह पवित्र उषा जैसी धवल माँ ,बहिन बेटियों के शरीरों को कलुषित करके लिखी गयीं। "माटी " इन सबको धिक्कारती है ।जहाँ कहीं भी पशु वृत्ति है ,जहां कंहीं भी अवाध भोग की भावना है ,जहां कहीं भी नंगे शोषण का मनो भाव है माटी उस द्वार को कभी नहीं खटखटायेगी।हम प्रतिबद्धित होते हैं सभी झूठे दम्भों को परित्याग कर एक नये विश्व समाज संरचना की ओर जो राष्ट्रधर्मिता की सुद्रढ़ नीव पर निर्मित होगा।हम संकल्पित होते हैं छुद्र ईर्षाओं ,स्वार्थों और टोली बन्दियों से मुक्त सहज स्पन्दित सरल सहभागी जीवन जीने के लिये जो भारत की मूल नैतिक धारणाओं से अनुप्राणित हो।वस्तुत : हम जड़ और चेतन के अन्तर को मिटाकर ब्रम्हांडीय स्रष्टि की एकता के संपोषक हैं प्रथम मानव का यह चिन्तन कितना संपुष्ट और सार्थक है :-
" ऊपर हिम था नीचे जल था
एक तरल था एक सघन
एक तत्त्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन "
एक तरल था एक सघन
एक तत्त्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन "
इस अखण्ड एकात्म भाव के प्रति समर्पित होकर हम विश्व चेतना का एक अंग बन सकेंगे।भारत का अतीत गण व्यवस्था का प्रहरी था जहाँ से निकले अंकुर डिमोक्रेसी के नाम पर इंग्लैंड तथा योरोप के अन्य देशों से छोटा मोटा परिवर्तन लेकर अमेरिका पहुँचे हैं। तभी तो आज संसार यह मानने को विवश हो चूका है कि भारतीय चेतना में जनतंत्र का रक्त स्पन्दन उसके अस्तित्त्व की अनिवार्यता रहा है। French Revolution के आदर्श Equality ,Liberty और Fraternity, समानता , स्वतंत्रता और बन्धुत्व पाश्चात्य देशों में आज धूमिल पड़ गये हैं और केवल औपचारिकता के लिये दोहराये जा रहें हैं।पर फ्रांस ने जो कुछ कहा था वह तो भारत का ही उधार लिया गया दर्शन था इसलिये हमारे लिये ,हमारी राष्ट्रीय धर्मिता के लिये ,हमारी वैश्विक जीवन द्रष्टि के लिए तो इन शब्दों के प्रति स्वागत भाव रहा है और रहेगा। तोड़ो इन जाति पांति के बन्धनों को ,तोड़ो इन क्षेत्रीय प्रतिबन्धों को ,तोड़ो इन मानसिक मकड़ी जालों को हम सब भारत वासी हैं ,आर्य पुत्र हैं ,हिन्दुस्तानी हैं ,इन्डियन हैं ,हममें जन्म से बड़े -छोटे होने का भाव किसी काल में साम्राज्यवादी विभाजक तत्त्वों द्वारा आरोपित कर दिया गया। वह हमारा मूल स्वर नहीं है वह तो वस्तुत : कुलीन तन्त्रीय इंग्लॅण्ड जैसे पाश्चात्य देशों का स्वर रहा है।और वंहा भी समानता के प्रेरक उद्दघोष्कों नें यही कहा था
"When Adam delved and Eve span
Who was then a gentle man."
तो आइये माटी के साथ हम एक जुट होकर चल पड़ें।अकेले हम सब परिचय हीन हैं ,छोटे हैं , अधूरे हैं विखन्डित हैं और अपेक्षाकृत असमर्थ हैं पर सब मिलकर हम सार्थक बनते हैं।विश्व में एक अर्थवान श्रष्टि रच सकते हैं और ब्रम्हांड रचयिता के इस अपार श्रष्टि सागर में कुछ परिचय के अधिकारी बन जाते हैं। माटी का प्रत्येक पाठक समष्टि चेतना में अपनें अहँकार को विसर्जित कर महादेवी जी के उस भाव गरिमा से आलोड़ित हो सकता है जो इन पंक्तियों में व्यक्त है ।
"क्षुद्र हैं मेरे वुद वुद प्राण
तुम्हीं में श्रष्टि तुम्हीं में नाश
सिन्धु को क्या परिचय दें देव
बिगड़ते बनते बीच बिलास ।"
मात्रभूमि ,राष्ट्रभूमि को माटी परिवार के शत शत प्रणाम ।।
"When Adam delved and Eve span
Who was then a gentle man."
तो आइये माटी के साथ हम एक जुट होकर चल पड़ें।अकेले हम सब परिचय हीन हैं ,छोटे हैं , अधूरे हैं विखन्डित हैं और अपेक्षाकृत असमर्थ हैं पर सब मिलकर हम सार्थक बनते हैं।विश्व में एक अर्थवान श्रष्टि रच सकते हैं और ब्रम्हांड रचयिता के इस अपार श्रष्टि सागर में कुछ परिचय के अधिकारी बन जाते हैं। माटी का प्रत्येक पाठक समष्टि चेतना में अपनें अहँकार को विसर्जित कर महादेवी जी के उस भाव गरिमा से आलोड़ित हो सकता है जो इन पंक्तियों में व्यक्त है ।
"क्षुद्र हैं मेरे वुद वुद प्राण
तुम्हीं में श्रष्टि तुम्हीं में नाश
सिन्धु को क्या परिचय दें देव
बिगड़ते बनते बीच बिलास ।"
मात्रभूमि ,राष्ट्रभूमि को माटी परिवार के शत शत प्रणाम ।।
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