रविवार, 2 दिसंबर 2012

माटी की विरासत (गतांक से आगे )

  ' माटी 'परिवार विदेशी परम्पराओं के अन्धानुकरण में विश्वाश नहीं रखता ।वह औपनिशिदिक युग की विवेक और मीमान्सा पद्धति में विश्वास करता है ।ब्रम्हाण्ड के मूल में क्या है यही प्रश्न तो केनोपनिषद नें उठाया था ।केना का अर्थ है किसके द्वारा अर्थात वह कौन सी परमशक्ति है जो चेतन- अचेतन को गतिमान या नियन्त्रित करती है और फिर त्रिकालदर्शी श्रुतिकार स्वयं उत्तर प्रास्तुत करतें हैं ये वह शक्ति है जो मस्तिष्क को चिन्तन शक्ति से सुनियोजित करती है ।यह स्वयं में मष्तिष्क की  विचार सीमा से परे है पर मानव मष्तिष्क को अपनी असीमित ऊर्जा का एक अन्श देकर यह गतिमान करती रहती है ।यही शक्ति आँखों को द्रष्टि देती है ,कानों को श्रवण शक्ति  देती है और श्वांस प्रक्रिया का नियमन करती है ।इन्द्रियों की गतिमयता और क्रियाशीलता उसी परम शक्ति से संचालित है और यही कारण है कि मष्तिष्क चिन्तन के श्रेष्ठतम क्षणों में उस शक्ति का अभाष करके भी उसका सम्पूर्ण आंकलन नहीं कर पाता ।एक कौंध भरी झलक उसे यह अहसास तो कराती है किसी ब्रम्हाण्ड व्यापी परमसत्ता के कौतूहलपूर्ण प्रचलन प्रक्रिया का ।यह अहसास मानव जनित किसी भी भाषा में सम्पूर्णत :व्यक्त नहीं हो पाता ।इस अहसास को प्रत्येक व्यक्ति अपनी आंन्तरिक क्षमता के अनुरूप अनुभव करता है और यदि सदाशयी और आत्म प्रेरित ऐसे कुछ व्यक्ति मिल बैठे तो उच्च आदर्शों से प्रेरित एक नयी चिन्तना का प्रकाश फ़ैल उठता है ।भारत में एक लम्बे काल से कार्यरत कई प्रकाशन मनोंभूमि में नयी ऊर्जा लाने का काम नहीं कर रहें हैं ।वे भूंडी सम्पन्नता का प्रदर्शन करते हैं और विदेशी संस्कृति के क्रीतदास बनते जा रहें हैं ।भोग वादी व्यवस्था इन मण्डलियों में चरम परिणित पर पहुँच चुकी हैं भले हे वह समाज सेवा और विपन्नता उन्मूलन की चादर ओढ़े हुये हों ।"माटी "भारत की उभरती प्रतिभा को जीवन्त आदर्शों की ऊर्जा से अनुप्रेरित करने के लिये आगे आयी है ।प्रतिभा अपनें में देश काल और प्रस्तार की सीमाओं से परे होती है उसे कटघरे में बाँध कर नहीं रखा जा सकता पर उसे यदि मानव कल्याण की ओर प्रेरित कर दिया जाय तो उसमें अपार संभावनायें छिपी रहती हैं ।यदि प्रेरक शक्ति बचकाने चिन्तन की उपज हो और यदि उसमें इन्द्रिय विलास का रसायन घुला हो तो प्रतिभा मानव जाति के लिये वरदान की जगह अभिशाप भी बन सकती है ।अन्तर्राष्ट्रीय जगत में इतनें उदाहरण हैं नकारात्मक चिन्तन और नकारात्मक शक्ति प्रयोग के जिन्होंने मानव जाति का अकल्पनीय अहित किया है ।भारत के सन्दर्भ में भी इस प्रकार के अनेक खलनायक और चारवाकीय चिन्तक पाये जाते है ।पर भारत की सबसे अनूठी विशेषता रही है पथ भ्रमित विस्फोटक प्रतिभा पर कल्याणकारी मानवीय मूल्य पद्धति का नियन्त्रण ।यह मूल्य पद्धति धर्म ,नैतिकता ,आत्माहुति और तपश्चरण आदि कई नामों से व्यक्त होती रही है ।परतन्त्रता के काल में एक लम्बे दौर से गुजरनें के बाद भारतीय जीवन मूल्य की चमक जब कुछ धीमी पड़ी थी तब इसे फिर से प्राच्छालन पद्धति द्वारा बंकिम चन्द्र ,राम मोहन राय ,सुब्रमणयम भारती ,आदि आदि ने प्रान्जलता प्रदान की थी और फिर तो   महापुरुषों का एक युग ही शुरू हो गया ।बलिदान, त्याग और आत्म उत्सर्ग की होड़ लग गयी ।राष्ट्रीय गौरव के लिये सब कुछ निछावर करने की भारतीय ऋषि परम्परा अपने सम्पूर्ण वेग से उभर पड़ी । पर      आज स्वतन्त्रता के बाद एक बार फिर हमारे जीवन की ,हमारे जीवन मूल्यों की वेगमयी धारा शैवाल भरे वर्तुल चक्रों में फंस गयी है ।हम हीन भाव से ग्रस्त हो रहे हैं ।हमारी मातायें ,बहनें बेटियाँ नारी शरीर  के सौन्दर्य का बाजारीकरण  मन्त्र अपनानें लग गयीं  हैं ।तभी तो कविवर पन्त को लिखना पड़ा "आधुनिके तुम और सभी कुछ एक नहीं तुम नारी "

                                                     सौन्दर्य प्रसाधनों का बाजार भारतीय विश्व सुन्दरियों के बलबूते पर फलनें -फूलनें लगा है ।महिलायें कभी बृद्धा न बनना चाहें यह तो समझ में आ सकता है पर पुरुष भी हास्यास्पद वासना से प्रेरित होकर सदैव तरुण ही बना रहना चाहें ये पाश्चात्य क्लब सभ्यता की विशेष देन ही है ।प्रत्येक माटी -पाठक को इस पतनशील मनोंवृत्ति को रोकनें के लिये प्रतिबद्धित होना पड़ेगा ।बालपन का अपना सौन्दर्य है और तरुणाई का अपना शक्ति प्रस्तार। पर वार्धक्य भी एक गौरव की बात ही है अवमानना ,तिरस्कार या उपेक्षा की नहीं। सतत ऋषि साधना से ही भारत की सामूहिक आयु  रेखा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन रेखा से ऊपर जा सकेगी ।हम मात्र कैप्सूल और इंजेक्शन लेकर ही लम्बे जीवन की कामना न करें वरन सहज जीवन शक्ति को प्रकृति के सामन्जस्य पूर्ण सहभागी बनकर प्राप्त करें।तभी तो सुदूर सहस्त्रों वर्ष पूर्व वृक्षों की अविरल व्यूह रचना में बैठे या सरिता तटों पर विचरते ऋषि ने गाया था -
                                                                  "जीवेन शरद : शतम
                                                                     श्रणुयाम शरद :शतम
                                                                    पुब्रयाम शरद :शतम
                                                                  अदीन :शाम शरद :शतम ।।"
                                           यह है भारतीय जीवन की कामना विकलांग ,पलंग सेवी निष्क्रिय जीवन की नहीं वरन स्वस्थ्य निर्माण समर्पित उच्चतर सोपानों की ओर बढ़ते निरन्तर ऊर्ध्वगामी जीवन स्पन्दनों की । और भारत ही नहीं पाश्चात्य संस्कृति में आशावादी कवियों का स्वर बुढ़ापे को नकारात्मक द्रष्टि से न लेकर सहज स्वीकारता हुआ हमें अपनी ओर बुलाता है
                                                       " Grow old along with me
                                                           for the best in yet to come
                                                          the last for which the first was made ."       

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