रविवार, 2 दिसंबर 2012

माटी की विरासत ........


                                        सभ्यता के उषा काल में ही पौरत्य प्रतिभा नें वसुधैव कुटुम्बकम का दर्शन प्रतिपादित किया था ।भारतीय मनीषी यह जान गये थे कि मेरे तेरे का दर्शन लघु चिन्तना की उपज है जो उदार है विशाल बुद्धि है और निसर्ग के लय ताल की गति समझता है उसके लिये तो सारी वसुधा ही कुटुम्ब है। न जाने कितनी सहस्त्राब्दियों के बाद आज सारे संसार का प्रबुद्ध वर्ग इस सत्य को स्वीकार कर पाया है । आज के बहुप्रचलित शब्द " ग्लोबल इकनामी ",ग्लोबल विज़न ,और वैश्विक जीवन पद्धति भारत के चिन्तन  के अभिन्न ,अबाधित और सर्वमान्य जीवन लक्ष्य रहे हैं ।" माटी " इस सेवा भावना से काम करने का प्रयास कर रही है कि युग के प्रवाह में इन सनातन मूल्यों पर पड़ जाने वाली धूल और गर्द को साफ़ पोंछ कर विश्व जन मानष के समक्ष प्रस्तुत कर दे ।अहंकार की भावना से सर्वथा मुक्त केवल सम्पूर्ण समर्पित भाव से और नि :स्वार्थ सेवा भावना से प्रेरित होकर हम इस दिशा की ओर चलें हैं ।हम जानते हैं कि हमारा यह प्रयास राम जी की सेवा में लगी गिलहरी के प्रयास से और अधिक कुछ नहीं है । पर हमें इस बात का गर्व है कि हम राजनीति के विद्दयुत प्रकाश और चकाचौंध वाली छवि से सर्वथा मुक्त हैं।हो सकता है कालान्तर में कुछ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त  व्यक्ति हमारे साधना मार्ग पर हमसे मिलकर चलनें का प्रयास करें पर हम ऐसा किसी निराधार प्रशंसा ,प्रचार या सांसारिक लाभ के लिये कभी नहीं होने देंगें । हमारा मार्ग तो पारस्परिक सौहाद्र ,निश्छल समर्पण और सहज त्याग के तीन पायों पर बनाया गया है इस मार्ग पर जो चलेगा उसे राजनीतिक सत्ता और वैभव मद घरौंदों को पददलित  कर आगे बढ़ना होगा । माटी के लेखक ,पाठक मानव प्यार के उस विश्वव्यापी आवासीय आत्म संगीत गुन्जित भवन निर्माण की ओर बढ़ रहें हैं जिसकी कल्पना संत कबीर ने की थी -
                                                       
   " जाति नहीं पांति नहीं ,वर्ग नहीं क्षेत्र नहीं ,
      रंग नहीं , रूप नहीं , नर -नारी का लिंग भेद नहीं
      अस्तित्व नहीं ,अनस्तित्व नहीं , केवल सब कुछ होम कर देने वाला मानव प्यार "
       "कबीरा यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं
        सीस काटि भु  हि में धरै सो पैठे घर मांहि "
                   या
       "कबिरा खड़ा बजार में लिये लकुटिया हाथ
       जो घर जारे आपनों सो चले हमारे साथ "
                                     तो बन्धुओं माटी आपसे आत्माहुति की मांग करती है।हमारे पास देने के लिये है केवल आपके प्रति अपार श्रद्धा ,आपके आदर्श सांसारिक जीवन में अनुगामी बननें की कामना और आपके लिये आत्मा से निकलते सच्ची प्रशंसा के स्वर।पर हम आपको वैभव ,पदाधिकार का दंभ्भ और चित्रपटों की चमक नहीं दे पायेगे ।हम चाहेंगे विवेकशील भारतीय नैतिक परम्परा के सजग विचारक होने के नाते आप स्वयं निर्णय लें कि  क्या हमारा मार्ग आप को हम तक आने के लिये प्रेरित नहीं करता।सकारात्मक और सहज स्वीकृत मिलने पर आप अनुभव करेंगे कि मानव जीवन का लक्ष्य देह सुख पर आधारित पश्चिमी जीवन मूल्यों से कहीं बहुत अधिक ऊँचा है । मुझे याद आता है ब्रिटिश कौंसिल में आयोजित एक परिचर्चा का सन्दर्भ । कुछ ख्याति प्राप्त विद्वानों के बीच शिक्षा के सच्चे स्वरूप पर नोंक -झोंक हो रही थी।विश्वविद्यालयों से पी .एच .डी . और डी .लिट् .पाये हुए कुछ दंम्भी अंग्रेजी  दां शिक्षा का सम्बन्ध उपाधि के मानकों से जोड़ रहे थे मुझसे रहा नहीं गया और मैनें कहा कि यदि उपाधि मानकों से ही ज्ञान का अटूट सम्बन्ध है तो रवीन्द्र नाथ और अकबर को तो अशिक्षित हे कहा जायेगा । यही क्यों भारत रत्न अब्दुल कलाम भी बिना थीसिस लिखे ही राष्ट्र के लिये सम्मान का प्रतीक बन गये हैं।ललित कलाओं के क्षेत्र में तो विश्वविद्यालीय शिक्षा अधिकतर लंगड़ा बना देने का काम करती है और दर्शन तथा विज्ञान के क्षेत्र में भी वह केवल उन्हीं को लाभान्वित करती है जिनमें संस्कार बद्ध नैसर्गिक प्रतिभा के उत्पादक बिन्दु सन्निहित होते हैं। तभी तो सी .बी .रमन ने बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता के नोबल प्राइज़ पाया और तभी तो भारतीय मनीषा नें सहस्त्रों वर्ष पूर्व जीरो खोजकर आज की वैज्ञानिक इन्फार्मेशन टेक्नालाजी युग की नींव रख दी थी।जीरो के खोज के बिना कम्प्यूटर की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।         

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