मै हिमालय सा अटल
नम -शयनिका पर काल-कीलित ध्रुव कला हूँ
सोचता था
एक हल्की कालिमा जब नाक के नीचे लगी थी खेलने।
मनुजता के मूल्य मेरे पैर के घुंघरूं बनेंगे
और गुरु की खोज में सब भटकते जाबाल
चिन्तन -स्फुल्लिंग ले
वन वैनली आग ,स्वाहा कर सकेंगे झूठ खर पतवार
धरती राख से सोना जनेगी -सोचता था।
गगन चूनर ओढ़ वर्तुल नृत्य में डूबी धरित्री
खिलखिला हंसती रही इस चिन्तना पर
बढ़ गयी परछाइयां जब दोपहर ढलने लगी।
सोचता तब भी रहा पर
बीज उगने में समय कुछ लग गया है
कोख में जो शक्ति का शुभ संपुजन है
समय पाकर कल्प तरु बनकर जनेगा।
किन्तु गहरे कहीं भीतर वह तरुण विश्वाश
घुट -घुट मर रहा था ,हर गली हर मोड़ पर
आदर्श की लाशें पड़ी थीं
क्रीट क्रमि जिन पर लगे थे रेंगनें।
तर्क अपने आप को देता रहा
लचक ही तो उर्ध्वगामी शान्ति का अन्दाज है
मूल्यहीन नहीं हुई है यह धरा
वायु अब तक सांस लेने योग्य है।
सत्य म्रग -छौने भरेंगे फिर कुलाँचे सोचता था।
थिरकने कुछ और देकर झूम में झूमी धरा
छांह लम्बी और लम्बी हो गयी
शुभ्र वर्णी धूप पाण्डुर रूप के
द्वार पर वार्धक्य के हँसने लगी।
गान्धी ,नेहरु महज इतिहास बन कर रह गये।
सोचता हूँ आज मैं
अटलता की बात कोरा दम्भ है
सत्य युग से अलग हटकर
अहं का विस्फोट है
शब्द की हर धार
जो अवसाद का तम चीरती है
म्रत्यु -गामी युग व्यवस्था पर
करारी चोट है ।
चल रहा है जो नहीं वह हीन है
चुक चुका जो न बहुत महान था
साज का सरगम सदा यों ही बजा है
भिन्नता का बोध सीमित ज्ञान था।
इसलिये अब मानता हूँ
नये युग के फिर नये आदर्श उभरेंगे
नये परिवेश संवरेंगे
नयी युग चेतना के प्रति
दुरा -गृह मुक्त होना है
हमारे सत्य के अतिरिक्त भी सच है
समय -सापेक्ष शाश्वत है
हमें इस बोध से फिर युक्त होना है।
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