रविवार, 16 दिसंबर 2012

नवागत का स्वागत


आओ अनजाने
इस धरती की छाया में स्वागत तुम्हारा है 
आये हो उषाकाल 
कहकर पुकारा जिसे
ऋषियों ने ब्रम्ह-बेला 
किन्तु जिस गृह में तुम आये  निर्देशित हो 
संचारित वहां है धुआँ 
सुलगती अंगीठी का 
मन की घुटन सा

तिक्त ,मारक ,कसैला।
सूरज उगेगा अभी
कलरव जागेगा अभी 
एक स्वर तुम्हारा और 
उसमें घुल जायेगा 
किसी अर्थशास्त्री की 
सांख्यकी का योग बन 
नयी लोक सभा के भीषण शब्द -युद्ध में 
चावल के पानी पर जीते 
शिशु -आँकड़ों का 
एक नया प्रष्ठ खुल जायेगा।
अनाहूत आये हो 
मेरे लिये श्रष्टा पद लाये हो
दो बड़े भाई बहिन 
प्रस्तुत हैं स्वागत को
 ब्रम्ह -सहोदर मैं 
विपुल मुख -विपुल बाहु 
बकनें दो योजना -विधायकों को
रोने दो फूट -फूट
वन्ध्या बनी कल्पना के गायकों को
आसव -जन्मा तुम अनाहूत 
फिर भी अनामत के अतिथि तुम 
मेरे अभावों की अर्चना स्वीकार करो ।
श्रष्टि-विपुलता की क्षमता तो
पुरुष का पुरुषार्थ है
शास्त्र यही कहते हैं
नव शिशु, आओ
अपनी विरासत स्वीकार करो।
नंगापन -भु ख़मरी
खंड -खंड स्वप्न सौंध
कुंठा दहलीज
मन की परत तले कसमसाता
विप्लव -बीज
सभी तो मिलेगा तुम्हे
मानव -शिशु हो
मानव विरासत से फिर भगना क्या?
और यह असम्भव नहीं
बुद्ध की आत्मा
गान्धी की प्राण-शक्ति
तुममें निखर आये
शत सहस्त्र असफल प्रयोगों के बाद ही
कोई सत्य उगता है
संभ्भव है तुम वह सत्य हो
नहीं तो प्रयोग
जो अन्तिम सत्य तक पहुचाने की कड़ी है
और इस अर्थ में तुम
क्षितिज पर उग रहे रक्तिम -वेश
 कल के अग्रज हो
मानव शिशु धरती की छाया में
स्वागत तुम्हारा है ।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें