मंगलवार, 13 नवंबर 2012

मरुथल की छाती फोड़कर निकलने वाला जीवन्त अंकुर किसी सिचाई की मांग नहीं करता।

योरोपीय सभ्यता प्राचीन यूनानी सभ्यता को अपने आदि स्रोत के रूप में स्वीकार करती है। निसन्देह ईसा पूर्व यूनान में विश्व की कुछ महानतम प्रतिभायें देखने को मिलती हैं। सुकरात ,प्लेटो (अफलातून )और अरिस्टों टल (अरस्तू )का नाम तो शिक्षित समुदाय में सर्वविदित ही है पर बुद्धि परक मीमांसा का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ प्राचीन यूनानी प्रतिभा ने अपनी अमिट छाप न छोड़ी हो इसी प्राचीन यूनान में स्पार्टा के नगर राज्य में मानव शरीर की प्राकृतिक विषमताओं से लड़ने की आन्तरिक क्षमता को मापने का एक अद्धभुत प्रयोग किया था। ऐसा माना जाता है कि स्पार्टा नगर राज्य में जन्म लेने वाला प्रत्येक शिशु नगर के छोर पर स्थित एक विशाल समतल प्रस्तर पर निर्वस्त्र छोड़ दिया जाता था । दिन रात के चौबीस घन्टे उसे अकेले चीखते,चिल्लाते छांह ,धूप ,प्रकाश,अन्धकार और कृमि कीटों से उलझते -सुलझते बिताने पड़ते थे । आंधी आ जाय या मूसलाधार वर्षा उसे आठ पहर ममता रहित उस चट्टान पर निर्वस्त्र काटने ही होते थे । इस दौरान यदि प्रकृति उसका जीवन समाप्त कर दे तो स्पार्टा का प्रशासन उसे मात्र भूमि की माटी में अर्पित कर देता था और यदि वह बच जाय तो उसका हर प्रकार से लालन -पालन कर उसे स्पार्टा नगर राज्य का समर्थ चट्टानी पेशियों वाला जागरूक नागरिक बनाया जाता था ।प्राचीन इतिहास के मनीषी पाठक जिन्होंने विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का गहनतम अध्ययन किया है जानते ही हैं की स्पार्टा नगर राज्य और एथेन्स  के नगर राज्य में बहुत लम्बे समय तक संघर्ष की स्थिति रही थी और अन्तत :अपनी सारी सम्रद्धि ,वैभव और ज्ञान विपुलता के बावजूद स्पार्टा का पलड़ा भारी रहा था । हमें स्वीकार करना ही होगा कि मरुथल की छाती फोड़कर निकलने वाला जीवन्त अन्कुर किसी सिचाई की मांग नहीं करता। ब्यक्ति का आन्तरिक सामर्थ्य जिसमें शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का कान्चनमणि संयोग शामिल है उसे जीवन संग्राम में अपराजेय योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित करती है। काया का बाह्य आकार अन्तर की विशालता का प्रतीक नहीं होता।शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता किन्ही उन आन्तरिक शक्तियों से प्रतिचालित होती है जिन्हें मानव के वरण -अवरण की प्रक्रिया के द्वारा लाखो -लाख वर्षों में पाया है।बौद्धिक कुशाग्रता और जिसे हम प्राण शक्तियां प्राणवत्ता के रूप में जानते हैंवो  भी चयन -अचयन की लाखों वर्षों की दीर्घ प्रक्रिया से गुजर कर आयी है। हर श्रेष्ठ मानव सभ्यता  प्राचीन या अर्वाचीन इसी विरासत में पायी असाधारण आन्तरिक क्षमता को प्रस्फुटन -पल्लवन का काम करती है ।पोषण ,सिंचन और संरक्षण पाकर भी कुछ लता ,पादप- तरु थोड़ा बहुत बढ़कर सीमित विकास को समेटे विलुप्त होने की सनातन प्रक्रिया का अंश बन जाते हैं।और कुछ हैं जिन्हें ओक ,बरगद और देवदार बनना होता है। शताब्दियाँ उनको छूकर निकल जाती हैं और वे सिर - ताने खड़े रहते हैं।पर आकार की विशालता ही श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है। रग पेशियों की द्रढ़ता प्रभावित अवश्य करती है पर सनातन नहीं होती।कुछ पैरों से निरन्तर दलित,मलिन होने वाली वनस्पति प्रजातियाँ भी हैं जो काल की कठोर छाती पर अपनी कील ठोंककर अजेय खड़ी हैं।विनम्र घास और सदाबहारी निरपात और प्रान्तीय लतायें इसी श्रेणी में आती हैं। सनातन धर्म वाले सनातन  भारत का विश्व को यही सन्देश है कि केवल आन्तरिक ऊर्जा,दैवी स्फुरण , प्रज्ञा पारमिता या समाधिस्त संचालित जीवन ही काल को जीतकर अकाल पुरुष तक ले जाता है ।      

             व्यक्ति का चाहना या न चाहना निर्मम प्रक्रति के विस्मयकारी और अबाधित गतिमयता में कोई परिवर्तन ला पाता है इस पर मुझे सन्देह है।पर यदि चाहना का कोई सकारात्मक प्रभाव होता है तो मैं चाहूँगा कि माटी अपनी अमरता अपने कलेवर में समेंट लेने वाली मन्त्र -पूत सामिग्री से सन्चित करे निर्वात दीप्त शिखा की भांति प्रकाश पुंजों की श्रष्टि ही उसके साधन बने और साध्य भी।आकाश गंगा की तारावलियां और ज्योतित पथ उसे अमरत्व का ऊर्ध्वगामी पथ दिखायें -इसी कामना के साथ ।

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