सोमवार, 19 नवंबर 2012

घृणा से ही जन्म लेगा सर्व दर्शी प्यार

   तोड़ना है मुझे प्रस्तर का प्रचण्ड प्राकार 
   ताकि बंधकर छटपटाती है परिध में जो 
   बहें उन्मुक्त जीवन - दायिनी रस -धार । 
   है सरल विध्वंश कहते मुकुटधारी 
   तुम करो निर्माण 
   शीत ,आतप ,बूँद सर पर ही सहे हैं 
   सहस बरसों से 
   खपाये हैं तुम्ही ने प्राण 
   और छत किनको मिली है ?
   तोड़ना है छत ,परिधि .प्राचीर
   जहाँ संरक्षित लुटेरे ,मुफ्तखोरे 
   स्वयं को कहते सुधन्वा वीर।
   हर मनुज यदि जन्म लेगा तो जियेगा 
   ज्ञान का ,विज्ञान का ,यह शुद्ध ,सुन्दर मर्म 
   जो ब्यवस्था सत्य यह दफना रही है 
   तोड़ना उसका सभी का धर्म ।
   उभय कर ऊपर उठाये मै प्रतिश्रुत हो रहा हूँ आज 
   जनम सार्थक कर सको तो आज कर लो 
   राम का यह काज ।
   रँगी मूंछे ,लपलपाती जीभ 
   यह डरौना है ,न तन में तान 
   स्वास्थ्य का सरगम नहीं संगीत यह 
   क्षय -क्षरित द्रुत म्रत्यु का यह गान 
   इस डरौने पर करो तुम बज्र -मुष्टि प्रहार 
  भित्ति की हर ईंट बनकर ढह गिरेगी क्षार 
  उग रहे सूरज तुम्हारी साक्षी 
  ध्वंस हो निर्माण का आधार 
  डूबते सूरज तुम्हारी शपथ ले कर कह रहा हूँ 
  घृणा से ही जन्म लेगा सर्व दर्शी प्यार ।

1 टिप्पणी:

  1. डूबते सूरज तुम्हारी शपथ ले कर कह रहा हूँ
    घृणा से ही जन्म लेगा सर्व दर्शी प्यार ।
    जैसे भी हो प्यार का प्र्कटीकरण आवश्यक है

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