साहित्य जब उद्द्योग का रूप ले लेता है तब उसमें सत् का अंश लगभग न के
बराबर हो जाता है ।1990के बाद आर्थिक प्रगति के दौर में भारतवर्ष ने
जीवनमूल्यों की तराश के लिये अमरीकी अर्थशास्त्र के औजार अपना लिये।शायद यह
एक अनिवार्यता बन गयी थी क्योंकि तकनीकी विस्तार के स्तंम्भित कर देने
वाले दौर में दुनिया से अलग हटकर रहना संभव ही नहीं है। आर्थिक प्रगति की
इस होड़ा -होंड़ी में साम्य वादी देश चीन को भी यह स्वीकार करने पर बाध्य
होना पड़ा है कि "To be Wealthy is to bee honourable."एक पार्टी की हुकूमत
होने पर भी चीन ने मुक्त बाजार का व्यापार नियम स्वीकृत कर लिया है और आज
उसकी अर्थव्यवस्था संसार की सबसे तेजी से बढ़ रही आर्थिक प्रगति का बेमिसाल
उदाहरण बन गयी है। भारत ने अपनी बहुलवादी जनतान्त्रिक परम्परा के कारण चीन
की आर्थिक प्रगति को पछाड़ देने की ताकत तो नहीं दिखा पायी है पर फिर भी
8-9 प्रतिशत की,उसकी आर्थिक प्रगति संसार की दूसरे नम्बर की सबसे तेजी से
बढ़ रही अर्थव्यवस्था मानी जाने लगी है ।यह सभी कुछ शुभ है क्योंकि शायद
कुछ दशकों के बाद भारत की गरीबी में एक थमाव आ जाय पर ऐसा तभी होगा यदि
आचरण की पवित्रता धन लोलुपता की कालिमा से कलुषित न हो उठे। पर हम जो कहना
चाहते हैं उसे तब तक स्पष्ट नहीं किया जा सकता जब तक अर्थशास्त्र के कुछ
मूलभूत सिद्धांतो को हम ठीक ढंग से न समझ लें।बोतल में बंद जिन को ढाट से
कसकर नियन्त्रित किया जा सकता है।पर कसाव के हटते ही उसका धूमिल वायुवीय
प्रस्तार गगन को आच्क्षादित कर लेता है। इस प्रस्तार को फिर से संकुचित कर
नियन्त्रण की सीमा में ले आना एक अद्दभुत कौशल की बात है।और इसके लिये
राष्ट्रव्यापी इच्क्षा शक्ति की आवश्यकता होती है।एकल राजनीतिक दल वाले
चीन में सत्ता का दण्ड विधान इतना कठोर है कि प्रत्येक सरकारी भ्रष्टाचारी
को मौत फन्दा अपने सामने लटकता दिखायी पड़ता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
वहां लगभग न के बराबर है। लौह शिकंजों से नियन्त्रित उनकी अर्थव्यवस्था
इसलिये अवाधित गति से बढ़ती जा रही है।भारत के बीसों परस्पर विरोधी
राजनैतिक स्वर और कई स्तरों वाली न्याय व्यवस्था किसी भी सोद्देशीय
नियन्त्रण को यदि अस्संभव नहीं तो दुरूह अवश्य बना देती है ।अभिव्यक्ति की
तथा कथित स्वतन्त्रता मन की अपवित्रता को लुभावने आवरणों में ढाक कर
कानूनों के रंगीन ताने बाने बुनती रहती है। सदैव से यह कहा जाता रहा है कि
भारत एक धर्म प्राण देश है।पूज्य गांधीजी तो राजनीति को धर्म से अलग करके
देखते ही नहीं थे । उनके लिये राजनीति में आने वाला व्यक्ति सन्यासी का
समानार्थी था जिसे अपने को मिटाकर दूसरों को पल्लवित करना होता है। पर
गांधीजी युग मसीहा थे पर संसार मसीहाओं के स्मृति जलसे तो सजाता है पर
उनके दिखाये मार्ग पर चल ही नहीं पाता क्योंकि शायद चल पाना असंभव ही है।इस
समय का सत्य तो यह है की भारत में धर्म भी एक इंडस्ट्री बन चुका है। और
किसी भी उद्योग का सबसे पहला लक्ष्य अपने को विस्तारित करना और दूसरों के
लिये नवीनता और सन्तोष प्रदान करने के नाम पर उद्योग के संचालकों के लिये
अपार वैभव एकत्रित करना।धर्म के अनेकानेक पन्थ उद्योगपतियों,बड़े
व्यापारियों,प्रवासी भारतीयों और काले धन के ढेर पर बैठे शेखों ,सेठों और
तस्करों से सन्चालित हो रहें हैं ।
जब धर्म की व्याख्या ही बदल रही है तो साहित्य का सद्द
कैसे अछूता रह सकता है इसलिये अब साहित्य भी एक उद्द्योग है।अंग्रेज़ी में
जिसे क्राइम कहते हैं उसी के शताधिक रूप आज के साहित्य में झलकते दिखाई
पड़ते हैं। अपराध सोने की गलियों को पार करता हुआ नारी योनि की कुहाओं में
पाठकों को भरमाता रहता है। पवित्रता का आवरण ओढ़ कर भी सांकेतिक शब्दों और
वाक्य रचनाओं के द्वारा मानव की पशु वृत्ति को सभ्यता का प्रगति वाहक बनाया
जा रहा है। जो बिक रहा है वही साहित्य है।धर्म को भी बिकवाली के दौर में
लाने के लिये पौराणिक सन्दर्भों के छलावे में नयी -नयी किस्सा कहानियों से
अभिभूषित किया जा रहा है। अब भारतीय परम्परा में पला पुसा हिन्दी का
रचनाकार यदि अपने को इस दौर में अपने को अपंग पा रहा है तो उसका इसमें क्या
दोष। एन .डी .ए .सरकार के पूर्व प्रधान मन्त्री शब्द -शिल्पी,काव्य
श्रष्टा और प्रखर मनीषी श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने एक बार कहा था कि वे
बिक रहें हैं। यानि उनकी रचनायें बिक रही हैं। यही उन रचनाओं की सार्थकता
का प्रमाण है। हम नहीं जानते की अब वे कितना बिक रहें हैं या प्रतिबद्धित
खरीददारों के अतिरिक्त भी उनकी बिकवाली का दायरा कुछ बढ़ा है या नहीं। पर
इसमें शक नहीं है की अपने समय के सच्चे विश्लेषक होने के नाते वे यह जानते
थे की आने वाले विश्व में एक मात्र सच्चाई यही रहेगी कि कौन कितना बिक रहा
है। चाहे राजनीति हो ,चाहे धर्म ,चाहे साहित्य ,चाहे उद्योग ,चाहे व्यापार
,चाहे विज्ञान ,चाहे तक्नालाजी, चाहे आकाश का शून्य ,चाहे धरती का ठोस
धरातल सभी जगह जो सबसे अधिक बिकेगा वही सबसे अधिक प्रभावशाली माना जायेगा। न
जाने क्यों हम इस द्रष्टिकोण से सहमत नहीं हो पाते। प्रत्येक व्यक्ति की
चेतना उसे संसार के अन्य सभी व्यक्तियों से एक सर्वथा अलग अस्तित्त्व का
भान कराती है।इस अनुभूति का सामयिक संदर्भों में भाषा के माध्यम से
अभिव्यक्त करना ही साहित्य की प्राण धर्मिता है ।जीवन यापन के लिये शब्दों
का शिल्पकार अपनी कला से यदि पर्याप्त सुविधाये जुटा ले तो यह उसके लिये
गौरव की बात है और यदि ऐसा न भी हो तो उसे जीवन यापन के लिये विधि सम्मत
अन्य मार्गों की तलाश में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।अवकाश के क्षणों में
चिन्तन की गहराई उसे जहां कंही ले जाती है उसे शब्द बद्ध करने में उसे जो
सुख मिलेगा वह झूठी प्रशंसा और मोल तोल से अलग एक दिब्य पुलक भरी अनुभूति
काअहसास दे पाने में समर्थ होगा। सच्चे संन्त जिस प्रकार परमसत्ता की झलक
पाकर शब्द सामर्थ्य खोकर मूक हो जाते है वैसे ही अन्तस चेतना की गहरी
अनुभूति रचनाकार को पहले मूक कर देती है और फिर प्रभाव की तीब्रता कुछ कम
होने पर उसे शब्दों में संजोने का साहस दे पाती है।न जाने कितने अजूबे
प्रथ्वी की छाती पर खड़े किये जा चुके हैं और खड़े होते रहेंगे । मिश्र के
परामिडों से लेकर दुबई के सो मन्जिला टावर तक और ताजमहल से लेकर मुकेश
अम्बानी के स्वप्न सौंध तक । अनूठे गढ़न की प्रक्रिया चल रही है पर फिर भी
हमारे चारो ओर इतना अनगढ़ा पड़ा हुआ है। सच्ची इन्सानी सभ्यता की नीव भी तो
अभी तक नहीं भर पायी है । Nation State की धारणा भी अभी तक पुष्ट नहीं हुई
है । फिर Global Village की धारणा की पुष्टि होने का तो कोई प्रश्न ही
नहीं उठता ।वनमानुष से हम अर्ध मानुष ही बन पाये हैं। हाँ बीच बीच में गौरी
शंकर या कन्चन जंगा की कुछ चोटियाँ हमें इस बात की झलक अवश्य दिखा देती
रही है की मानव कितनी ऊंचाई तक पंहुच सकता है।सितारों के इस झिलमिल संसार
का सह्रदय और सुविज्ञ दर्शक बन पाना भी नर जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है
। माटी तो मर कर भी अमर है, मिट कर भी अमिट है। सिरों पर सजे हुए ताज और
भिखारी के हांथों की लकुटिया सभी को मिट्टी की गोद में सोना है ।पर इस
अंतिम शयन तक पहुचने के पहले हमने प्रकाश के कितने उजास अपने ओक में भरने
की कोशिश की है यही हमारे जीवन की सार्थकता है । उगते और अस्त होते हुए
सूर्य का सौंदर्य और दोपहर के सूर्य का प्रकाश हमें जीवन के अनिवार्य
नियमों की शिक्षा देता है। क्या हुआ यदि हिन्दी का सुरुचिपूर्ण साहित्यकार
विदेशी भाषाओं की कौंध में पहचाना नहीं जा रहा है ?क्या हुआ यदि आज हिन्दी
के माध्यम से मानव सभ्यता के सनातन सत्यों को प्रकट करने वाला शब्द शिल्पी
उपहास का पात्र बनाया जा रहा है ? क्या हुआ यदि ग्राम्य जीवन की धूल भरी
गलियों से नव रचना के जीवांश खोजने वाला श्रष्टा दार्शनिक सार्थकता की
मन्जिल पाने में असमर्थ हो रहा है ।यह दौर भी मानव इतिहास की विस्मरण
गाथाओं का एक हिस्सा बनकर रह जायेगा ।चर्चित होने के लिये ,मुख मुद्रित
होने के लिये, पदार्थी होने के लिये , बाजार में बिकने के लिए खड़ा होना
चाटुकारिता का धर्म हो सकता है पर साहित्यकार की आत्मा का सन्देश नहीं। हम
हिन्दी के तरुण रचनाकारों से संकट के इस घड़ी में साहस की मांग करते हैं ।न
जाने कहाँ से न जाने किस फिल्म की सुनी हुई दो तीन पंक्तियाँ स्मृति पटल
पर उभर आयी हैं ।
"न सर छुपा के जियो ,न सर झुका के जियो ,
ग़मों का दौर भी आये तो सर उठा के जियो "
"न सर छुपा के जियो ,न सर झुका के जियो ,
ग़मों का दौर भी आये तो सर उठा के जियो "
भाई गिरीश जी अगर साहित्य उद्योग का रूप ले ले तो भी कुछ बात है. यह तो चीकट-धंधे का रूप लिए पड़ा है ...
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