क्या कहा मर्द हूँ मै
,फौलादी छाती है
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
इसलिए कि मैंने साथ सत्य का लिया सदा ,
पर पाया जग का सत्य सबल की माया है ।
नैतिकता ताकत के पिंजड़े में पलती है ,
आदर्श छलावे की सम्मोहक छाया है ।
मै बुद्ध ,गान्धी को पढ़ गलती कर बैठा ,
सोचा दरिद्र नारायण हैं ,पग पूजूंगा ।
अपनी मछली वाली चट्टानी बाहों में ,
ले खड्ग सत्य का अनाचार से जूझूंगा ।
थे कई साथ जो उठा बांह चिल्लाते थे ,
समता का सच्चा स्वर्ग धरा पर लाना है ।
सोपान नये जय- यात्रा के रचने होंगे,
गांधी दर्शन का लक्ष्य मनुज को पाना है ।
पर चिल्लाकर हो गया बन्द उन सबका मुख ,
इस लिये कि उनके मुँह को दूजा काम मिला।
हलवा- पूड़ी के बाद ,पान से शोभित मुख ,
दैनिक पत्रों में छपा झूठ का नाम मिला ।
वे कहते अब भारत से हटी गरीबी है ,
रंगीन चित्र अब अन्तरिक्ष से आयेगें ।
अब उदर-गुहा में दौड़ न पायेंगे चूहे ,
भू कक्षा में वे लम्बी दौड़ लगायेंगे।
वे कहते बहुतायत की आज समस्या है ,
भण्डार न मिल पाते भरने को अब अनाज।
सब भूमि- पुत्र लक्ष्मी -सुत बनकर फूल गये ,
दारिद्र्य अकड कर बैठ गया है पहन ताज
छह एकड़ का आवास उन्हें अब भाता है ,
गृह- सज्जा लाखों की लकीर खा जाती है ।
हरिजन -उद्धार मन्च से अब भी होता है ,
हाँ बीच -बीच में अपच जँभाई आती है ।
मै आस -पास गिरते खण्डहर हूं देख रहा ,
सैय्यद चाचा का कर्जा बढ़ता जाता है।
प्रहलाद सुकुल ने खेत लिख दिये मुखिया को,
धनवानों का सूरज नित चढ़ता जाता है ।
चतुरी की बेटी अभी ब्याहने को बैठी ,
पोखरमल के घर रोज कोकिला गाती है।
क्या कहा मर्द हूँ मै फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रूलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
कल के जो बन्धु -बान्धव थे ,थे सहकर्मी ,
सत्ता का देने साथ द्रोण बन भटक गये।
है उदर- धर्म पर बिका धर्म मानवता का ,
सच्चाई के स्वर विवश गले मे अटक गये।
युग़- पार्थ मोह से ग्रस्त खडा है धर्म छेत्र ,
है उसका क्या कर्तब्य न अब तक भान हुआ।
गाण्डीव शिथिल सो रहा पार्ष्व में अलसाया ,
चुप है विवेक का कृष्ण न गीता ज्ञान हुआ।
ताली पर देकर ताल थिरकते हैं जनखे ,
सत्ता- कीर्तन अब अमर काब्य कहलाता है।
भाषा भूसा बन गयी ,बीन भैंसे सुनती ,
हर क्षीण-वीर्य गजले गा मन बहलाता है।
वर्ण्-युक्त देह सतरंगी साड़ी से ढककर ,
कविता कामाक्षी कृमि बटोरे कर लाती है।
क्या कहा मर्द हूँ मै, फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
इसलिए कि मैंने साथ सत्य का लिया सदा ,
पर पाया जग का सत्य सबल की माया है ।
नैतिकता ताकत के पिंजड़े में पलती है ,
आदर्श छलावे की सम्मोहक छाया है ।
मै बुद्ध ,गान्धी को पढ़ गलती कर बैठा ,
सोचा दरिद्र नारायण हैं ,पग पूजूंगा ।
अपनी मछली वाली चट्टानी बाहों में ,
ले खड्ग सत्य का अनाचार से जूझूंगा ।
थे कई साथ जो उठा बांह चिल्लाते थे ,
समता का सच्चा स्वर्ग धरा पर लाना है ।
सोपान नये जय- यात्रा के रचने होंगे,
गांधी दर्शन का लक्ष्य मनुज को पाना है ।
पर चिल्लाकर हो गया बन्द उन सबका मुख ,
इस लिये कि उनके मुँह को दूजा काम मिला।
हलवा- पूड़ी के बाद ,पान से शोभित मुख ,
दैनिक पत्रों में छपा झूठ का नाम मिला ।
वे कहते अब भारत से हटी गरीबी है ,
रंगीन चित्र अब अन्तरिक्ष से आयेगें ।
अब उदर-गुहा में दौड़ न पायेंगे चूहे ,
भू कक्षा में वे लम्बी दौड़ लगायेंगे।
वे कहते बहुतायत की आज समस्या है ,
भण्डार न मिल पाते भरने को अब अनाज।
सब भूमि- पुत्र लक्ष्मी -सुत बनकर फूल गये ,
दारिद्र्य अकड कर बैठ गया है पहन ताज
छह एकड़ का आवास उन्हें अब भाता है ,
गृह- सज्जा लाखों की लकीर खा जाती है ।
हरिजन -उद्धार मन्च से अब भी होता है ,
हाँ बीच -बीच में अपच जँभाई आती है ।
मै आस -पास गिरते खण्डहर हूं देख रहा ,
सैय्यद चाचा का कर्जा बढ़ता जाता है।
प्रहलाद सुकुल ने खेत लिख दिये मुखिया को,
धनवानों का सूरज नित चढ़ता जाता है ।
चतुरी की बेटी अभी ब्याहने को बैठी ,
पोखरमल के घर रोज कोकिला गाती है।
क्या कहा मर्द हूँ मै फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रूलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
कल के जो बन्धु -बान्धव थे ,थे सहकर्मी ,
सत्ता का देने साथ द्रोण बन भटक गये।
है उदर- धर्म पर बिका धर्म मानवता का ,
सच्चाई के स्वर विवश गले मे अटक गये।
युग़- पार्थ मोह से ग्रस्त खडा है धर्म छेत्र ,
है उसका क्या कर्तब्य न अब तक भान हुआ।
गाण्डीव शिथिल सो रहा पार्ष्व में अलसाया ,
चुप है विवेक का कृष्ण न गीता ज्ञान हुआ।
ताली पर देकर ताल थिरकते हैं जनखे ,
सत्ता- कीर्तन अब अमर काब्य कहलाता है।
भाषा भूसा बन गयी ,बीन भैंसे सुनती ,
हर क्षीण-वीर्य गजले गा मन बहलाता है।
वर्ण्-युक्त देह सतरंगी साड़ी से ढककर ,
कविता कामाक्षी कृमि बटोरे कर लाती है।
क्या कहा मर्द हूँ मै, फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
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