सोमवार, 24 दिसंबर 2012

माटी की सीमायें


 माटी की अपनी सीमायें हैं।सीमारहित तो कुछ होता ही नहीं । यदि सीमा रहित कुछ है तो वह है असीम ब्रम्हाण्ड या उसके पीछे सृजन की कोई सत्ता।गणितज्ञ Infinity को एक कल्पना मात्र मानते हैं,पर इस कल्पना का आधार लिये बिना सांख्यकीय की अपार  संभावनाएँ चरितार्थ ही नहीं की जा सकती।भूमण्डल भी तो असीम ब्रम्हाण्ड में एक क्षुद्रतम कण ही है ।हाँ इस छोटेपन से लघुता के अस्तित्व पर कोई प्रश्न चिन्ह खड़ा करना उचित नहीं होगा। लघुता का अपना महत्त्व है वैसे ही जैसे चमत्कृत कर देने वाली विशालता का। महर्षि कणाद भी तो यही कहते हैं जो कण में है वही असीमित नीलाभ विस्तार में है । जो पिण्ड में है वही पर्वत प्रसार में है पर माटी की जिन सीमाओं की चर्चा मैं कर रहा हूँ उसका सम्बन्ध उसके कलेवर ,उसकी साज सज्जा और उसमें संजोयी गयी विचार सामग्री से है। इसे एक गर्व भरा कथन नहीं समझना चाहिये पर यह सच है कि माटी में छपने के लिये शताधिक रचनायें हमारे पास आ रहीं हैं उनमें से काफी कुछ रचनायें छपने योग्य होकर भी छप नहीं पा रहीं हैं। क्योंकि माटी का कलेवर एक सीमा के भीतर ही अपनी गुण वत्ता संजोये रख सकता है।9 प्रतिशत प्रतिवर्ष आर्थिक विकास वाले भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी में निकलनें वाली  कोई भी साहित्यिक पत्रिका केवल रचनाओं के बल पर अपना नैरन्तर्य कायम नहीं रख सकती। प्रकाशन की निरन्तरता बनाये रखने के लिये उसे बहुराष्ट्र्वादी कम्पनियों से या सरकार से विज्ञापनों की आवश्यकता होती है । यदि माटी अपनी विचारधारा किसी राजनैतिक पार्टी को गिरवी रख दे तो हो सकता है कि उसे किसी छद्म रूप से वित्तीय सहायता मिल जाय पर अपनी लघु काया में भी माटी वैचारिक स्वतन्त्रता का मुकुट बांधे हुए है। उसके प्रकाशन के पीछे आदर्शों के लिये प्राणाहुति करनें की प्रेरणा ही काम कर रही थी और यही प्रेरणा सदैव उसकी जीवन्तता बनी रहेगी। माटी में जिन रचनाकारों नें अभी तक स्थान नहीं पाया हैं उन्हें छुद्र नहीं होना चाहिये। हम एक बार अपने पास आयी हुई सभी रचनाओं का पुनरीक्षण कर रहें हैं और जहाँ तक संम्भव होगा सभी स्तरीय रचनायें प्रकाशित की जांयेंगी। आज के तकनीकी युग में गूगल और याहू नयी पीढी के लिये क्रेज बनते जा रहें हैं। वेबसाइट और सर्फिंग तथा ब्राउजिंग का नयापन युवकों को अपनी ओर खींच रहा है । पर इतना सब होते हुये भी माटी अभी तक इस विश्वाश को पाल रही है कि गहरी वैचारिक उपलब्धि और विशालता के लिये श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकायें और पुस्तकें ही टिकाऊ आधार प्रदान कर सकती हैं ।
                                                शाश्वत जीवन मूल्यों को रचनाओं के माध्यम से अपने में समाहित करने वाली माटी मासिक का नाम कई बार भ्रामक धारणाएँ पैदा कर देता है। एस .के .रावत जो पत्रिका के एक पाठक हैं और जिनकी अभिव्यक्ति के माध्यमों पर गहरी पकड़ है नें हमें लिखा है कि माटी मध्यम वर्ग के लिये तो श्रेष्ठ पाठन सामग्री प्रस्तुत कर रही है।पर दलित वर्ग के   लिये उदबोधक रचनाओं का उसमें पूरा समावेश नहीं हैं । मैं अपने बहुविध्य पाठकों को यह कहना चाहूँगा कि माटी नामांकन का अर्थ माँ भारती की गोद में पलती सभी सन्तानों के प्रति सम्मान के प्रतीकार्य में लिया जाना चाहिये । हम वर्ग संघर्ष में विश्वाश नहीं करते। हम सहयोग ,समन्वय ,समरसता और समान अवसर के पक्षधर हैं। हाँ इतना अवश्य है कि अतीत की समाज व्यवस्था में जो उपेक्षित रहें हैं और जिनकी प्रतिभा सामाजिक संरचना के कारण पूरा विकास नहीं पा पायी है उन लोगों को कुछ विशिष्ट अधिकारों और सुविधाओं के द्वारा आर्थिक प्रगति की मुख्य धारा से जोड़ा जाय। भारत की सभी राजनैतिक पार्टियाँ इस विचारधारा की समर्थक हैं।उनकी आर्थिक विचारधारा और सांस्क्रतिक अवधारणा में अन्तर हो सकता है पर इस  बात पर सभी एक मत हैं कि आर्थिक द्रष्टि से पीड़ित और वर्ण व्यवस्था के दुर्पयोग से दंशित व्यक्ति समूहों को प्रगति की दौर में औरों से दो ,एक कदम आगे खड़ा किया जाय ताकि वे लम्बे समय तक पिछड़ते न रह जायं।राजनैतिक और आर्थिक द्रष्टि से दलित कहे जाने वाले वर्ग और पिछड़े कहे जाने वाले व्यक्ति समूहों नें स्वतन्त्र भारत में अच्छी प्रगति दिखाई है । उनका राजनीतिक सशक्तीकरण तो इस सीमा तक पहुँच गया है कि पुरानी वर्ण व्यवस्था अब सर के बल खड़ी होकर एक नया आकार लेती जा रही है। माटी भारत की मिट्टी में जन्में छोटे-बड़े ,गरीब -अमीर ,दलित -अभिजात्य ,श्रमिक -पूंजीपति ,निम्न -मध्यम ,उच्च और उच्चतम सभी वर्गों को प्यार से अपने आगोश में समेटना चाहती है।हजारों हजार वर्षों से भूगोल ,इतिहास और बाजारी व्यवस्था की विभिन्नताओं नें मानव समाज के स्तर में बहुत बड़ा अन्तर ला दिया है। यह अन्तर बहुत शीघ्र नहीं मिट सकता पर एक दो शताब्दियों तक यदि आतंक वाद से मुक्त होकर जनतांत्रिक व्यवस्था चल जाय तो इस बात की पूरी संभावना है कि समानता का एक स्वीकार्य ढांचा विश्व मानव के सामने खड़ा हो जायगा। वैसे यह कह देना भी यंहा समीचीन होगा कि एक ऐसी समानता जिसमें सभी आर्थिक या सामाजिक महत्ता की द्रष्टि से एक जैसे हो जाँय कभी भी सम्भव नहीं है।ऐसा न तो कभी था और न ही कभी होगा।ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी के लीडर और दस वर्ष तक प्रधानमन्त्री के पद पर रहने वाली मार्गेट थ्रेचर जोर देकर यह बात कहती थीं कि एक सपाट समानता न तो प्रकृति का नियम है और न ही यह मानव समाज का नियम बन सकता है।लौट महिला के नाम से जाने जाने वाली थ्रैचर कहती हैं ,"In Equality is the law of nature ." हमारा सामान्य अनुभव हमें बताता है न तो आकार प्रकार में , न ही बुद्धि के पैमाने पर और न ही पुरुषार्थ की तराजू पर संसार के नर -नारियों को एक समान स्तर पर खड़ा किया जा सकता है। भिन्नता तो रहेगी ही जो आलसी हैं ,भीरु हैं और पलायन वादी हैं वे प्रगति की दौर में उनसे पिछड़ ही जायेंगे जो पुरुषार्थी हैं ,निरन्तर क्रियाशील हैं और जोखिम उठाकर नयी मन्जिलों से अनछुये लक्ष्यों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। कट्टर साम्यवादी दर्शन आज के युग में विकलांग हो गया है क्योंकि मनोविज्ञान और समाजशास्त्र की अधिक ठोस खोजों नें सर्व हारा के सम्पूर्ण अधिपत्य वाले सिद्धांत को अवैज्ञानिक और अव्यवहारिक साबित कर दिया है । हाँ ऐसी विश्व व्यवस्था बनायी जा सकती है जिसमें धरती का प्रत्येक नर -नारी जीवन यापन  के उस निम्नतर स्तर तक लाया जा सके जो उसके युग की वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों से सम्भव हो सकेगा । हमारा अनुभव है कि हर सबल ,समर्थ और सफल उद्योगपति ,व्यापारी ,नेता या हुनरमंद केवल भ्रष्टाचार के बल पर ही उंचाई नहीं पाता। बहुत से ऐसे भी हैं जो अपनी भीतरी ताकत और मजबूत इरादों की कुब्बत से आर्थिक दौर में आगे निकल जाते हैं।हाँ ऐसे लोग भी बहुत हैं जो भीतर से खोखले हैं लेकिन सम्बन्धों  या परिस्थितियों की अनुकूलता उन्हें ऊँचाई पर बिठा देती है । इस संसार का तानाबाना इतना जटिल है कि कोइ भी राजनैतिक व्यवस्था सारी मानव जाति को संतुष्ट कर दे ऐसा सम्भव ही नहीं है। इतिहास में ऐसे मोड़ भी आते हैं जब चकाचौंध कर देने वाली झूठी विचारधारा किसी राष्ट्र का मन मोह लेती है। आखिरकार हिटलर जर्मनी की जनता की बांह पकड़कर ही खड़ा हुआ था। माटी यह नहीं मानती कि संसार में कोई भी रेस , जाति , देश या क्षेत्र अपनें में सर्वगुण संपन्न है और विधाता नें उसे विशेष ढंग से गढ़ा है। हम असमानता में समानता और समानता में असमानता लाकर एक ऐसे सहनशील समाज का निर्माण करना चाहते हैं जिसमें व्यक्ति की विशेषताओं का सम्मान हो पर सामान्य ,साधारण नागरिक भी सम्मान पूर्वक जीने का अधिकारी हो। घ्रणा का दर्शन खूनी दरवाजे की ओर ही ले जाता है। जब विश्वाश टूट जाता है तो उसमें मानव मूल्यों का विधान ढीला पड़ने लगता है अब देखिये अमरीका में पूर्व राष्ट्रपति अबुल कलाम की एयर पोर्ट पर तलाशी ली गयी। कुछ दिन पहले अगस्त 2009 के दूसरे सप्ताह में शाहरुख खान को भी अमरीका में हवाई अड्डे पर 2 घंटे रोककर पूँछ ताछ की गयी थी । शाहरुख का कहना था कि चूंकि उनके नाम के पीछे खान लगा है इसलिये उन पर पूँछ -ताँछ को एक प्रकार की मानसिक यन्त्रणा में बदल दिया गया। अमरीका में ऐसा सब इसीलिये तो हो रहा है कि ओसामा बिन लादेन नें जिस घ्रणा के दर्शन को बढ़ाकर आतंकवाद के जिन को निकाल खडा किया है उससे अमरीका हर खान को या यों कहें हर विदेशी मुसलमान को शक की निगाह से देखने लगा है। भारत का विभाजन इसी घ्रणा और धार्मिक उन्माद के कुहासे में हुआ था। भारत के कुछ नेता छिछली राजनीति के बहकावे में आकर जिन्ना की तारीफ़ करने लगे हैं पर माटी यह मानती है कि हिन्दुस्तान का बटवारा करके जनूनी मुस्लिम नेताओं नें अपनी कौम का बहुत बड़ा नुक्सान किया है। घ्रणा का यह दर्शन अगर बढ़ता चला गया तो कब और कैसे मानव फिर से दो पैरों पर चलनें वाला नर पशु न बन जाय कहा नहीं जा सकता। :"माटी ' तो असीम आकाश की नीलाभ छाया में माँ धरित्री की गोद में पलते हर देश ,हर वर्ग ,हर रंग और हर प्रजाति के नर -नारियों को बुद्ध और गान्धी , महावीर और नानक द्वारा दिया गया प्यार और  भाई चारे का सन्देश ही पहुचाना चाहेगी।प्रधान मन्त्री नें फिर से हमें कुछ दिन पहले हमें आगाह किया था कि पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन नयी और अत्यन्त भयानक साजिशों में लगे हैं और उनके पास आधुनिकतम शस्त्र  और सँचार सुविधायें हैं। हम यह कामना करतें हैं भारत वर्ष नें जो एकता 1965 ,1971और कारगिल के युद्ध के समय दिखाई थी वैसी ही हम हिन्दुस्तानी एक हैं की भावना सदैव सदैव के लिये हमारे बीच पनपती रहे। यही वह शक्ति है जो फिर से हमें राष्टों का सिरमौर बना सकतीहै ।
                                                                   

रविवार, 23 दिसंबर 2012

हमारे सत्य के अतिरिक्त भी सच है


मै हिमालय सा अटल
नम -शयनिका पर काल-कीलित ध्रुव कला हूँ 
सोचता था 
एक हल्की कालिमा जब नाक के नीचे लगी थी खेलने।
मनुजता के मूल्य मेरे पैर के घुंघरूं बनेंगे 
और गुरु की खोज में सब भटकते जाबाल 
चिन्तन -स्फुल्लिंग ले 
वन वैनली आग ,स्वाहा कर सकेंगे झूठ खर पतवार 
धरती राख से सोना जनेगी -सोचता था।
गगन चूनर ओढ़ वर्तुल नृत्य में डूबी धरित्री 
खिलखिला हंसती रही इस चिन्तना पर 
बढ़ गयी परछाइयां जब दोपहर ढलने लगी।
सोचता तब भी रहा पर 
बीज उगने में समय कुछ लग गया है 
कोख में जो शक्ति का शुभ संपुजन है 
समय पाकर कल्प तरु बनकर जनेगा।
किन्तु गहरे कहीं भीतर वह तरुण विश्वाश 
घुट -घुट मर रहा था ,हर गली हर मोड़ पर 
आदर्श की लाशें पड़ी थीं 
क्रीट क्रमि जिन पर लगे थे रेंगनें।
तर्क अपने आप को देता रहा 
लचक ही तो उर्ध्वगामी शान्ति का अन्दाज है 
मूल्यहीन नहीं हुई है यह धरा 
वायु अब तक सांस लेने योग्य है।
सत्य म्रग -छौने भरेंगे फिर कुलाँचे सोचता था।
थिरकने कुछ और देकर झूम में झूमी धरा 
छांह लम्बी और लम्बी हो गयी 
शुभ्र वर्णी धूप पाण्डुर रूप के 
द्वार पर वार्धक्य के हँसने लगी।
गान्धी ,नेहरु महज इतिहास बन कर रह गये।
सोचता हूँ आज मैं 
अटलता की बात कोरा दम्भ है 
सत्य युग से अलग हटकर 
अहं का विस्फोट है 
शब्द की हर धार
जो अवसाद का तम चीरती है 
म्रत्यु -गामी युग व्यवस्था पर 
करारी चोट है ।
चल रहा है जो नहीं वह हीन है 
चुक चुका जो न बहुत महान था 
साज का सरगम सदा यों ही बजा है 
भिन्नता का बोध सीमित ज्ञान था।
इसलिये अब मानता हूँ 
नये युग के फिर नये आदर्श उभरेंगे 
नये परिवेश संवरेंगे 
नयी युग चेतना के प्रति 
दुरा -गृह मुक्त होना है 
हमारे सत्य के अतिरिक्त भी सच है 
समय -सापेक्ष शाश्वत है 
हमें इस बोध से फिर युक्त होना है।

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

इंतजार

ये कविता  मेरे द्वारा मेरे प्रेम को समर्पित .......

आँखे  है  पथराई  सी ,
एक  टक नजर  लगाये ,
लौट  के  आजा  तू ,
कोई  इंतजार  करता  है .

भूख  प्यास  सब   तज कर ,
 मन  में  अलख  जगाये ,
लौट  के  आजा  तू  ,
कोई  इंतजार  करता  है .

सीता  के  करुण रुदन  की ,
शबरी   के  चित दर्शन  की  ,
कठिन तपस्या मीरा  की ,
 इन  सब  की  याद  दिलाये ,
लौट  के  आजा  तू ,
 कोई  इंतजार  करता  है .

 अब  एक पल   न  देर  करो ,
 ये  धैर्य  के  पर्वत  टूट  रहे ,
आँखों से अश्रु निकलते है ,
और  झरने से है फूट रहे .

तुझको पाने   की  आस  लगाये ,
कोई  इंतजार  करता  है .

लौट  के  आजा ,कोई ....
लौट  के  आजा  तू ,
 कोई  इंतजार  करता  है . 
                                         " अमन  मिश्र "


                    note: चित्र गूगल से साभार

रविवार, 16 दिसंबर 2012

नवागत का स्वागत


आओ अनजाने
इस धरती की छाया में स्वागत तुम्हारा है 
आये हो उषाकाल 
कहकर पुकारा जिसे
ऋषियों ने ब्रम्ह-बेला 
किन्तु जिस गृह में तुम आये  निर्देशित हो 
संचारित वहां है धुआँ 
सुलगती अंगीठी का 
मन की घुटन सा

तिक्त ,मारक ,कसैला।
सूरज उगेगा अभी
कलरव जागेगा अभी 
एक स्वर तुम्हारा और 
उसमें घुल जायेगा 
किसी अर्थशास्त्री की 
सांख्यकी का योग बन 
नयी लोक सभा के भीषण शब्द -युद्ध में 
चावल के पानी पर जीते 
शिशु -आँकड़ों का 
एक नया प्रष्ठ खुल जायेगा।
अनाहूत आये हो 
मेरे लिये श्रष्टा पद लाये हो
दो बड़े भाई बहिन 
प्रस्तुत हैं स्वागत को
 ब्रम्ह -सहोदर मैं 
विपुल मुख -विपुल बाहु 
बकनें दो योजना -विधायकों को
रोने दो फूट -फूट
वन्ध्या बनी कल्पना के गायकों को
आसव -जन्मा तुम अनाहूत 
फिर भी अनामत के अतिथि तुम 
मेरे अभावों की अर्चना स्वीकार करो ।
श्रष्टि-विपुलता की क्षमता तो
पुरुष का पुरुषार्थ है
शास्त्र यही कहते हैं
नव शिशु, आओ
अपनी विरासत स्वीकार करो।
नंगापन -भु ख़मरी
खंड -खंड स्वप्न सौंध
कुंठा दहलीज
मन की परत तले कसमसाता
विप्लव -बीज
सभी तो मिलेगा तुम्हे
मानव -शिशु हो
मानव विरासत से फिर भगना क्या?
और यह असम्भव नहीं
बुद्ध की आत्मा
गान्धी की प्राण-शक्ति
तुममें निखर आये
शत सहस्त्र असफल प्रयोगों के बाद ही
कोई सत्य उगता है
संभ्भव है तुम वह सत्य हो
नहीं तो प्रयोग
जो अन्तिम सत्य तक पहुचाने की कड़ी है
और इस अर्थ में तुम
क्षितिज पर उग रहे रक्तिम -वेश
 कल के अग्रज हो
मानव शिशु धरती की छाया में
स्वागत तुम्हारा है ।


शनिवार, 15 दिसंबर 2012

सवाल

  जाते  हुए  देख  के  उन्हें ,
  मन  तू   उदास  क्यों  है ?
  गए  है  वो  तुझसे  दूर ,
  फिर  लौट  आने  के  लिए .
        मुड  के  देखा  होगा  उन्होंने ,
        ये  सवाल  क्यों  है ?
       गए  है  वो  तेरे  सवालों  का  जवाब,
         लाने  के  लिए .
              आँखे  क्यों   भरी भरी  सी  है,
              तेरी  उनके  जाने  के  बाद,
             आयेंगे  वो  फिर  से  तुझसे  नजरे  मिलाने  के  लिए .
                    बस  तू  रख  भरोशा  उन  पे ,
                    फिर  मिलेंगे  वो
                     इसे  बचाने के  लिए .
                जाते  हुए  देख  के  उन्हें ,
                मन  तू   उदास  क्यों  है ?

                                        "अमन मिश्र" ......

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

श्रद्धेय गणेश शंकर यिद्यार्थी जी की स्मृति में .


श्रद्धेय गणेश शंकर यिद्यार्थी जी की स्मृति में ......
आत्मवादी विचारक उस रहस्यमयी साधना की वकालत करतें हैं जो मानव को जीवन -मरण के चक्र से मुक्ति दे सके। अनात्मवादी विचारक मुक्ति ,निर्माण ,मोक्ष ,कैवल्य या स्वर्गारोहण जैसी मानसिक स्थितियों को एक निन्द्कीय आभाष के अतिरिक्त और कोई महत्त्व नहीं देना चाहते। पर इतना तो वे भी मानते हैं कि जन्म और म्रत्यु के बीच का
 देह यापन काल सामाजिक सेवा में अर्पित कर देने से अस्तित्व की सार्थकता उपलब्ध की जा सकती है। दोनों ही विचारधाराओं के महान चिन्तक जिस केन्द्र बिन्दु को जीवन सार्थकता का अनिवार्य तत्व मानते हैं वह है दीर्घकालीन सभ्यता में अर्जित स्थायी जीवन मूल्यों के लिए अथक प्रयास और स्वैच्क्षिक उत्सर्ग। इस कसौटी पर कानपुर-नगर में सामाजिक सेवा में रत बहुसंख्यक महान पुरुषों में प्रात : स्मरणीय श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी शीर्षस्थ स्थान पर बैठने के सच्चे हकदार हैं।पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने मानव मूल्यों की जो पहचान जन मानस पर बनायी वह उनके काल में तो सार्थक थी ही पर उसकी सार्थकता आज के सन्दर्भ में और अधिक महत्त्व पूर्ण हो गयी है। और सच पूंछो तो न केवल आज बल्कि आने वाले कल और आगत शताब्दियों में भी जैसे -जैसे मानव की भूमंडलीय पहचान स्थापित होगी वैसे -वैसे उसकी सार्थकता और अधिक विस्तार पाती रहेगी।गणेश शंकर जी का जीवन मानव भविष्य के उस स्वर्णिम विकास के लिये नींव की पत्थर का काम कर सकेगा जिसका स्वप्न महर्षि अरविन्द ,गुरुदेव रवीन्द्रनाथ और महात्मा गान्धी नें देखा था।किसी भी देश का अतीत अपनें में विरोधी संभ्भावनायें छिपाये रहता है। उसमें काफी कुछ चमकदार और टिकाऊ होता है पर चमकदार परतों के बीच में बहुत कुछ मलिन और उपेक्षणीय भी छिपा रहता है।मध्य कालीन इतिहास में धर्म और मजहब के नाम पर कुछ ऐसे धब्बे हिन्दुस्तान की सामासिक जीवन पद्धति पर छोड़ रखे हैं जिन्हें हम शब्दों की किसी भी कलाबाजी से मिटा पानें में असमर्थ रहें हैं। राष्ट्र पिता नें अंग्रेजों से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए यह कभी नहीं कहा था कि हमें अंग्रेज जाति से घ्रणा करनी चाहिये। वस्तुत : घ्रणा की कुत्सित मनों लहर उनके मानस जगत से सदैव के लिये विलुप्त हो गयी थी ।श्रद्धेय गणेश शंकर जी भी अतीत को भूलकर उसी भारत निर्माण का स्वप्न देखते थे जिसका आधार गान्धी ,नेहरु ,मौलाना आजाद और रफ़ी अहमद किदवई रख रहे थे। भारत नें बहुत बड़े बड़े बलिदान देखे हैं, इन वलिदानों ने न जाने कितने महाकब्यों को जन्म दिया है पर मेरी समझ में श्रद्धेय गणेश शंकर विद्यार्थी जी का बलिदान साम्प्रदायिक सौहाद्र के लिये किये गये वलिदान की सबसे प्रेरक और अनूठी मिसाल है।म्रत्यु तो एक अमिट सत्य है पर गणेश शंकर जी नें म्रत्त्यु को वरण करके म्रत्त्यु को पछाड़ दिया। म्रत्यु भले ही हर जगह अपनी विजय पताका फहराती हो पर उन्होंने मौत की छाती पर आदर्श की अमरता का विजय स्तम्भ खड़ा कर दिया।उनके जीवन की घटनाओं पर विद्वानों ने अपनी प्रेरक व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं और पत्रकार के रूप में उनकी महानता को वस्तुपरक विश्लेषण के द्वारा प्रस्तुत किया है।मैं "माटी "का सम्पादक श्रद्धेय गणेश शंकर जी के जीवन की महानता को विशेषणों से घेर कर संकुचित नहीं करना चाहता। उनके बलिदान नें उन्हें जिस सीढ़ी पर खड़ा कर दिया उस सीढ़ी को भाषा के विशेषण छू भी नहीं सकते।अपनें जीवन में तो वे महान थे ही अपनी म्रत्यु में उन्होंने महानता को भी एक नये पायदान पर पहुचा दिया । धन्य है कानपुर नगर की यह धरती जिसे ऐसे महान मानव की कर्म भूमि होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आइये हम सब इस अमर शहीद के बौने संस्करण बननें के लिये प्रभु से प्रार्थना करें ।।
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"अकेला चना भाड़ नहीं फाड़ सकता "

अर्नाल्ड ट्वायनवी ,नोबेल पुरुष्कार विजेता इतिहासकार की मान्यता है कि यदि कोई देश विदेशी तकनीक ,विदेशी भेष -भूषा ,विदेशी खान -पान और जीवन निर्वाह की विदेशी शैली स्वीकार कर लेता है तो उस देश में रहनेवाले मानव समाज के मूल्य बोधों में भी परिवर्तन हो जाता है ।इस परिवर्तन में एक लम्बा समय लग सकता है ।क्योंकि किसी भी देश का सम्पूर्ण समाज एक साथ विदेशी विचार धारा की समग्र पकड़ में नहीं आता ।कई स्तरों पर 
और कई खण्डों में यह परिवर्तन चलता रहता है ।यही कारण है कि कई बार शताब्दियों तक सविंधान में लक्षित जीवन मूल्य जन समुदाय के एक विशाल हिस्से के भाग नहीं बन पाते ।ट्वायनबी नें मानव सभ्यता के भिन्न -भिन्न खण्डों से उदाहरण प्रस्तुत कर अपनी बात को वैज्ञानिक तर्क पर आधारित करनें का प्रयत्न किया है ।बीसवीं शताब्दी के मध्य तक मानव विकास के दिग्गज विद्वान यह मानकर चलते थे कि संस्कृति का सम्बन्ध मानव जाति की भिन्न नस्लों के साथ जुडा रहा है।मानव जाति को पाँच .छह नस्लों में बांटकर उनके साथ संस्कृतियों की भिन्नता को ब्याख्यायित करनें का प्रयास होता रहता था।फिर आये वे विद्वान न्रातत्व शास्त्री जिन्होनें प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल को मिथकों ,कल्पानाओं और म्रत्यु तथा जीवन से सम्बंधित अनुमानों को एक दूसरे का पूरक बताया।उनका कहना था कि नस्लवादी सांस्क्रतिक ब्याख्यायें अवैज्ञानिक हैं। प्रागैतिहासिक काल की बचकानी ,अधपकी पशु मानव चिन्तन पर आधारित अनुमान और कल्पनायें ही मिथिकीय रूप लेकर ऐतिहासिक काल में दार्शनिक अवधारणाओं को जन्म दे सकी थीं ।इस प्रकार संस्कृति का सम्बन्ध विशिष्ठ ,सामन्य या निम्न नस्लों के आधार पर व्याख्यायित करनें का अर्थ सभ्यता की विकास वाली धारणा को जड़ मूल से नकारना होगा।सस्क्रतियों की विभिन्नतायें वस्तुत :भौगोलिक ,जलवायुकि ,ब्रम्हांडीय और जीवन संरक्षणीय कारणों की अपार विभिन्नताओं के कारण अपने प्रारम्भिक रूप में उद्द्भुत् हुई थी।सहस्त्रों वर्षों के लम्बे काल में वे एक दूसरे के घुलती -मिलती और टूटती -जुडती रहीं ।कहीं परस्त्रण हुआ कहीं संकुचन ।कहीं विस्फोटन हुआ कहीं अवगुंठन इस प्रकार विश्व की कोई भी संस्कृति अपने में इतनी विशिष्ट नहीं है कि उसे अन्य संस्क्रतियों सर्वथा अलग एक नयी मानव जीवन शैली के रूप में स्वीकार कर लिया जाय।बहुत गहरायी से झाँकने पर हम पायेंगे कि अपने प्रारम्भिक काल में संस्कृति सभ्यता के साथ अभिन्न रूप से जुडी थी।उदाहरण के लिये मानव द्वारा नग्न शरीर को आच्छादन देने की क्रिया को लीजिये। प्रजनन से जुड़े शरीर के कुछ अंगों को विकास के जिस दौर में मनुष्य ने मनुष्य ने ढक कर सभ्य बननें का प्रयास किया वह प्रागैतिहासिक काल के उस दौर में पहुचता है जहाँ मनुष्य वनमानुष से अलग होकर अगले दो पैरों पर हाँथ बनाने की आदिम चेष्टा में रत था।सभ्यता की यह प्रक्रिया गोर ,पीले ,काले ,गेहुंए आदि किसी भी रंग या नाक ,आँख के किसी भी डिजाईन सर बिल्कुल मुक्त वनमानुषों की शाखा में से निकलकर आने वाली आज की मानव जाति की सबसे आदिम पीढी से था।व्यक्तिगत रूप से वहां भी अपार विभिन्नता रही होगी पर सामूहिक रूप से नग्न ,द्विपद वनचारियों का एक ऐसा समूह अस्तित्व में आ गया था जो सीधे खड़े होकर प्रजनन के लिए प्रयुक्त होने वाले अपनें शारीरिक अंगों को देख सकता था। धीरे -धीरे शताब्दियों तक चलते हुये प्रजनन व्यापार में उसे यह लगा होगा कि मिथुन की प्रक्रिया अकेले एकान्त में अधिक आनन्द दायक और बाधारहित होती है।प्रजनन के लिये प्रकृति द्वारा बनाये गये इन शारीरिक अंगों को आच्छादन से ढक लेने में उसे पशुओं से अलग अपनी वशिष्ट पहचान बनाने का एक मार्ग मिल गया । सामूहिक रूप से स्वीकृत हो जाने पर वस्त्र धारण मानव सभ्यता की सबसे सबल आधारभूमि बननें लगा।प्रागैतिहासिक काल में आच्छादन की भिन्नता क्षेत्र विशेष की वानस्पतिक भिन्नता पर आधारित रही होगी।सहस्त्रों वर्षों के विकास क्रम में शरीर का यह आच्छादन सहस्त्रों रूप में अपना रूप ,रंग बदलता रहा है । इस शारीरिक आच्छादन को हमें किसी संस्कृति विशेष से जोड़कर देखना न तो वैज्ञानिक लगता है और न ही तर्क संगत ।यह समझ में आने वाली बात है कि प्रारम्भिक अवस्था में शरीर को किसी भांति ढक लेना ही आवश्यक होता होगा और फिर सैकड़ों पीढ़ियों तक मस्तिष्क की तन्त्रिकाएं विकसित होकर परिधान के नये नये आकार खोजती रहीं । हाँथ ,पैर , ग्रीवा ,कटि और वक्ष की बनावट नें विकसित मस्तिष्क से नये परिधान रूपा कटियों की मांग की और इस प्रकार आज संसार के फैशन बाजारों में परिधान का निराला पन सभ्यता और विशिष्टता का प्रतीक बन गया ।जो बात वस्त्रों पर लागू होती है वही भोजन की अपार विभिन्नताओं पर भी ।बाधा रहित प्रजनन नें विपुल श्रष्टि की योजना बनायी और समूहों में बटकर आदिम मानव जाति जीवन का जोखिम उठाती हुई घनें जगलों ,गहरे दलदलों ,जलते रेगिस्तानों और ऊंचे पहाड़ों में घूम फिर कर भोजन की सहज उपलब्धता की तलाश करती रही ।यद्यपि आज धरती पर अहार की अपार विभिन्नता और चक्राकार विपुलता है पर फिर भी अभी तक सम्पूर्ण मानव जाति को भोजन उपलब्ध करनें की योजनायें फलीभूत नहीं हो पायी हैं ।खान पान की इस विभिन्नता को भी किसी विशेष प्रजाति से जोड़ने का अर्थ आधारभूत कारणों की नासमझी से ही संभव है । जो बात भोजन और आच्छादन की विभिन्नता पर लागू होती है वही बात शीत ,आतप और बरसात से बचने के लिये घरौंदे बनाने पर भी लागू होती है। गुफाओं से निकलकर गुफानुमा घरौंदे और फिर द्विपदी होने के कारण ऊँचाई पर पड़ा कोई आवरण जो शरीर को ढककर भी सिर को सुरक्षित रखे। यह बहुत छोटी -छोटी आदिम क्रियायें मानव सभ्यता का आधार रही हैं। आज आसमान छूती अट्टालिकाओं की बगल में बने छोटे -छोटे पोलीथीन से ढके घरौंदे जिन्हें हम झुग्गी -झोपडी कहतें हैं दरअसल मस्तिष्क की एक ही चिन्तन प्रक्रिया से जन्में हैं। यह सोचना कि अट्टालिकायें गोरी संस्कृति का प्रतीक है और घरौंदे काली संस्कृति का महज एक बचकानी समझ ही मानी जायेगी । हम अर्नाल्ड ट्वायनवी को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार न करते हुये केवल इतना मान सकते हैं कि सभ्यता और संस्कृति निरन्तर एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है।पश्चिमी और पूर्वी संस्कृतियाँ कल तक बहुत अलग -अलग दिखायी पड़ रही थी पर आज एक मिली जुली विश्व संस्कृति समाज में उभर कर आती दिखाई पड़ती है। बंगाल के पूर्व मुख्यमन्त्री जब यह कहते हैं कि बाबरी मस्जिद का गिराना एक बारबैरिक घटना है तो वह सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि सभ्य मनुष्य मजहब के नाम पर हिन्सा या विध्वंस नहीं करता। आदिम या जंगली जातियां ही ऐसे काम कर सकती हैं।इस सबका अर्थ यह है कि विध्वंस और हिंसा से दूर रहना मानव सभ्यता का एक अनिवार्य गुण होना चाहिये ।अहिंसक बुद्ध और अहिंसक गाँधी इसीलिये बड़े हैं कि उन्होंने पशुबल को आत्मबल से नियंत्रित करने की बात कही है।इसी प्रकार विश्व की किसी भी सभ्यता में चोरी ,परस्त्रीगमन और बलात सम्पत्ति हरण निंदनीय कार्य माने जाते हैं।स्पष्ट है कि मानव संस्कृति में इनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान है और एक सभ्य मनुष्य तभी संस्कृत बनता है जब वह इन निन्दनीय कार्यों से ऊपर उठ जाता है। दरअसल तानाशाही और साम्राज्यवाद के युगों में चिन्तन भी अहंकार की सीढ़ी पर चढ़कर अपना सर ऊंचा करनें लगता है । एक युग था जब यूनान की सभ्यता दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी। फिर रोम विश्व सभ्यता का केन्द्र बन गया। साम्राज्यवादी ब्रिटेन सैकड़ों वर्षों तक यह सोचता रहा कि उसकी सभ्यता ही संसार को सर्वश्रेष्ठ संस्कृति को जन्म दे सकती है । आज सारी दुनिया के आगे उसके अंहकार का खोखलापन साबित हो चुका है।अमेरिका का एक वर्ग भी इस गलतफहमी में पड़ गया कि अमेरिकन सभ्यता ही विश्व संस्कृति का आधार बनेगी। सौभाग्य वश अमेरिका में विचारकों का एक शक्तिशाली वर्ग अभी भी स्वस्थ्य चिन्तन में लगा हुआ है। उसे इस बात का अभिमान नहीं है कि दुनिया अमरीका की राह पर चले पर इस बात पर आग्रह जरूर है कि दुनिया जनतंत्र की राह पर चले। अब जनतन्त्र की धारणा पर भी चीन की अपनी दार्शनिक व्याख्या है और ईरान की अपनी। इन विवादों में पड़कर हमें मानव संस्कृति को खण्ड रूपों में नहीं देखना होगा। विश्व संस्कृति का विकास आदिम मानव के अन्तरिक्ष मानव तक विकसित होनें की अमर गाथा है। राष्ट्रीय सभ्यताओं के अपने -अपने चेहरे हैं। उन चेहरों पर अपने अपने टॉप ,मुकुट ,पगड़ियां ,टोपियाँ और केश अलंकृतियां है पर विश्व संस्कृति का आधार बननें के लिये जो मूलभूत उपादान आवश्यक हैं वे भारत की पावन मिट्टी में जन्में -पलें हैं और सदैव जन्मते -पनपते रहेंगे। बुद्ध का अष्ट मार्ग , गान्धी का अहिंसा दर्शन , नानक का मानव समानता का मूल मन्त्र यही तो है मानव संस्कृति का मूल आधार। यदि पश्चिम इन्हें यह कहकर स्वीकार नहीं करता कि ये सब भारत में जन्में हैं तो हम भारतवासी अहिंसा , क्षमा और दया के देवता ईसा मसीह को भी भारतीय बना लेने के लिये सहर्ष प्रस्तुत हैं।सूफी पैगम्बर शेख सलीम चिस्ती तो हमारे पास हैं ही और यदि जिहादी अपना जनून छोड़ दें तो हम मुहम्मद साहब को भी अपने गले का हार बना सकते हैं। भारत ही है जिसने सेकुलरीजम की नास्तिकवादी व्याख्या को नकारा है और उसे सर्व धर्म समभाव में ढाला है । यदि धर्म को हिंसा के द्वार से हटाना है तो भारत की सर्व धर्म सम भाव की धारणा ही विश्व को स्वीकार करनी पड़ेगी।कब ऐसा होगा "माटी "नहीं जानती पर ऐसा हुए बिना विश्व संस्कृति का मूल आधार दृढ नहीं किया जा सकता यह बात "माटी "को भलीभांति विदित हैं।"माटी " का हर अंक इस दिशा में एक नयी ईंट जोड़ रहा है। जोड़नें के इस पावन कार्य में आप सबका सहयोग अत्यन्त मूल्यवान है।व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो उसे किसी श्रेष्ठ उपलब्धि के लिये विचारशील समुदाय से सहयोग पाने की आवश्यकता होती है।इस देशी कहावत में एक बहुत बड़ा सत्य छुपा हुआ है "अकेला चना भाड़ नहीं फाड़ सकता "यह ठीक है कि कवि गुरू रवीन्द्र नाथ नें एकला चलो ,एकला चलो की आवाज लगायी थी पर उनकी यह आवाज किसी पवित्र लक्ष्य की ओर सम्पूर्ण निष्ठा से समर्पित होने के लिये ही थी। यदि कोई अकेला भी महान लक्ष्य की ओर अविचल क़दमों से बढ़ता है तो उसके पीछे कारवाँ बनता जाता है। उर्दू शायर की इस पंक्ति में आत्म विश्वाश के साथ गहरी सूझ -बूझ भी झलकती है ,"हम अकेले ही चले थे जानिबे मंजिल मगर ,हमसफ़र मिलते गये और कारवाँ बनता गया ।" माटी परिवार भी अपने विस्तार की ओर है। हंम चाहेंगे कि यह विस्तार एक जनपथ से दूसरे जनपथ से घेरता हुआ राज्य की सीमाओं तक पहुँचे और फिर राज्य की सीमाओं के आर -पार राष्ट्रीय व्याप्ति का उल्लेखनीय मापान्क प्राप्त करे। अब्दुल रहीम खानखाना के दोहे कभी -कभी गहरी मार करते हैं क्योंकि उनमें सहयोगी जीवन की अचूक अभिव्यक्ति पायी जाती है। "माटी " में जन्म पाते प्रसून पादप पल्लवित होकर पुष्पित होते जा रहे हैं इसकी हमें अपार खुशी है। साहित्यकारों का गोत्र बढ़ते देख कर हम कविवर रहीम के निम्न दोहे से निश्छल प्रसन्नता का भाव ग्रहण कर सकते हैं

" रहिमन यों सुख हॉत है बढ़त देखि निज गोत
ज्यों बड़ी अखियाँ निरख आँखिन को सुख हॉत।"
इसी कामना के साथ

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

"Well begun is half done"

                            " Well begun is half done" जब दृढ निश्चय के साथ चल पड़े तो देर सबेर मन्जिल मिलेगी ही ,पर दृढ निश्चय को पूरी तरह से माप -तौल लेना प्रत्येक व्यक्ति के सामर्थ्य में नहीं होता।हम सब कई बार मिथ्या बड़पप्न का भ्रम पाले रहते हैं।अपनें भीतर ही छोटी -मोटी सफलता पा लेने के बाद हम अपने को सराहते रहते हैं।स्वाभमान शक्ति देता है पर मिथ्या अभिमान हमारी आन्तरिक शक्ति का अपब्यय है। हमें अपने साधारण होनें पर हीन भाव का शिकार नहीं बनना चाहिये।सच पूछो तो साधारण होकर ही असाधारण की ओर बढ़ा जा सकता है। अपनें जीवन के दैनिक सम्पर्क में हम भिन्न -भिन्न प्रकार के नर -नारियों के संपर्क में आते हैं। सच्ची सहजता एकान्त में ही होती है।थोड़ी बहुत सहजता परिवार में भी बनी रहती है । पर ज्यों ही हम बाहर के सम्पर्क में आते हैं सहज रहने का केवल बहाना बन जाता है। हम असहज हो जाते हैं। अन्जाने ही न जाने कितनें मुखौटे हमें लगाने पड़ जाते हैं। महापुरुषों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे हर स्थिति में सहज रहते हैं । उनके पास कई चेहरे नहीं होते वे स्थिरता के आत्म संयम से सजायी हुई मनोंभूमि पर खड़े रहते हैं। महान होना एक दुर्लभ उपलब्धि है।महानता का चोन्गा पहन लेना बहुत कठिन नहीं हैं पर चोंगा तो चोन्गा है कभी न कभी उतर ही जाता है। इसलिये उचित यही है कि हम जो हैं , जो हमारी स्वाभाविक सामर्थ्य है उसे हमसच्चे मन से स्वीकार करे, यदि हम सामाजिक सेवा की बात करें तो अपना निजी स्वार्थ उसमें शामिल न करें। प्रशंसा की अभिलाषा भी एक निजी स्वार्थ ही है। अपना दुःख तो सभी झेलते हैं पर दूसरे के दुःख का हिस्सेदार होना ही बड़ा होना है। सन्त ह्रदय की बात करते हुए गोस्वामी जी लिखते हैं -" संन्त  ह्रदय नवनीत समाना , कहा कविंन पर कह बन जाना ।"
"निज परिताप द्रवय नवनीता, पर दुःख द्रवै सन्त सुपुनीता ।"
                                 सामान्य लोगों का ख्याल है कि सन्त होना सरल हैपर नेता होना कठिन। शायद वे ऐसा इसलिये सोचते हैं क़ि सन्त होने के लिये व्यक्ति को अपने मन पर अधिकार करना होता है जबकि नेता होने के लिये उसे दूसरों को भ्रमजाल  में फ़साना होता है। सामान्य व्यक्ति की यह सोच ठीक ही है क्योंकि सीधे -साधे पन  में वह समझता है कि अपने मन पर अधिकार पाना तो अपनी एक निजी बात है पर दूसरों के मन पर भ्रामक जाल फैलाना एक चमत्कारी काम  है।पर है ठीक इसके उल्टा सुहावना झूठ बोलना कोई बहुत बड़ी कला नहीं है इसके लिये केवल एक बात की आवश्यकता है आप इन्सान के चोले में गिरगिट बन जाइये ,हर मौसम में रंग बदलिये , हर प्रष्ठभूमि में छिपकर अद्रश्य रूप से अपना आहार तलाशिये। पर अपने मन पर अधिकार करना योग की सबसे विरलतम उपलब्धि है।यह चरम उपलब्धि तो संसार के बहुत थोड़े से महापुरुषों के भाग्य में लिखी होती है।
                                         अब इन दोनों परिस्थितियों के बीच एक और परिस्धिति है। समाज में रहकर हम गुहाओं , कन्दराओं या बन प्रान्तरों में रहनें वाले तपस्वियों की जीवन पद्धति का अनुसरण नहीं कर सकते। जीवन चलाने के लिये कुछ उद्योग करना होता है , कुछ सामाजिक गाँठ-जोड़ ,कुछ थोड़ा सा मिला -जुला झूठ -सच। यह कहना कि हमनें जीवन भर गलती ही नहीं की है जीवन की सच्चाई से इन्कार करना है। मानव शरीर पाया है तो सामाजिक जीवन जीने और समाज के स्वीक्रत माप दण्डों पर खरा उतरनें के लिये कुछ ऐसा भी करना पड़  जाता है जो हमें अपने भीतर बहुत अच्छा नहीं लगता।कई बार कुछ अरुचिकर भी करना पड़ता है,कई बार हम किसी से मिलना नहीं चाहते फिर भी मिलना पड़ता है , कई बार हम किसी का स्वागत नहीं करना चाहते फिर भी स्वागत करना पड़ता है\ कई बार गल्ती दूसरे की होती है पर भूल हमें स्वीकार करनी पड़ती है पर जीवन व्यापार में यह सब करके भी जब तक हमें अपने भीतर ग्लानि न उठने लगे अपने को छोटा नहीं समझना चाहिये हाँ ऐसी कोई बात या व्यवहार या अनुचित आचरण जो आपके मन में स्वयं के प्रति तिरष्कार पैदा कर दे उसे सर्वथा त्याग देना होगा। गृहस्थ होकर भी सन्तों के रास्तों पर चलने का यही एक सीधा ,सरल और सपाट मार्ग है। मंजीर बजाने और मशीनी ढंग से होठ हिलाने से मन में  उच्च वृत्तियों का सँचार हो जायेगा ऐसा सोचना बेमानी है।मैं जानता हूँ कि "माटी "के पाठक भारत के उस कोटि -कोटि जनसमुदाय का भाग हैं जो अपनी ईमानदारी की वृत्ति से अपने शारीरिक या मानसिक परिश्रम से जीवन यापन के साधन अर्जित कर ऊर्ध्वगामी विचारों की वायु में सांस लेना चाहते हैं।गलीज का कोई भी स्पर्श उन्हें ग्लानि से भर देता है। वे महामानव बननें का स्वप्न नहीं पाले हुए हैं पर वे मानव होकर भ्रष्ट होने का अपावन धब्बा भी अपने दामन से दूर रखना चाहते हैं।ऊपर कही हुई छोटी -मोटी सीखें और अनुभवों की अभिव्यक्तियाँ हमारे ऐसे सदाशयी पाठकों के विचारार्थ ही प्रस्तुत की गयीं हैं। "माटी "अपने पन्नों यह दावा करे कि उसमें पैगम्बरी सन्देश है या उसमें युग निर्माण की क्षमता है ऐसा करना उसे बडबोलापन लगता है।"माटी "का विस्तार अपार है , धरती विपुला है,जीवन संकुला है।"माटी " परिवार तो अपनी छोटी -मोटी खुर्पियों से खर -पतवार की निराई में लगा है शायद इस खर -पतवार के बीच कोई ऐसा बीज छिपा हो जिससे एक जीवनदायी वृक्षावली का प्रारम्भ हो जाय।हमारे प्रयत्नों की असफलता हमें कभी भी इतना हतोत्साहित नहीं करेगी कि हम प्रयत्न करना छोड़ दें ,पर जो भी आंशिक सफलता मिलेगी उसका श्रेय "माटी "के पाठकों को ही जायेगा मेरा व्यक्तिगत अहंकार उनके योगदान की महत्ता की स्वीकृति के राह में कभी बाधा बन कर नहीं खडा होगा ।

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

" देन हार कोहु और है ,भेजत है दिन रैन लोग भरम हम पर करैं ,ताते नीचे नैन ।"saaj -sajjaa

                                 " माटी " को पाँच वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। छपे शब्दों की नग्न बाजारी दौड़ में भारतीय तहजीब की सुसंस्कृत वेष भूसा पहनकर माटी ने दौड़ से बाहर करने वालों को एक चुनौती भरी ललकार लगायी है।माटी न केवल जीवित है बल्कि उसकी जीवन्तता में निरन्तर निखार आ रहा है।सुधी पाठक स्वयं जानते हैं कि छपाई और साज -सज्जा के स्तर पर माटी भले ही सामान्य स्तर पर खड़ी हो पर जंहाँ तक उसके भीतर समाहित रचनात्मक तत्त्वों का प्रश्न है उसका स्थान हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में सर्वोच्च श्रेणी में ही आता है।साज -सज्जा और छपाई वित्तीय विपुलता की मांग करते हैं और "माटी "का पाठक मध्य वर्गीय प्रबुद्ध नागरिक है जो स्वस्थ्य पठनीय विचार सम्पदा के लिये अपनी सीमित कमाई से बहुत अधिक राशि नहीं निकाल पाता। पूँजी जुटाने के लिये अस्मिता का सौदा करना माटी को सदैव नामन्जूर रहा है और रहेगा। प्रारम्भिक लड़खड़ाहट के बावजूद हमारे डगों में विश्वास भरी त्वरा शक्ति आती जा रही है और शीघ्र ही हमारा प्रसार हिन्दी भाषा -भाषी अन्तर -प्रान्तीय आयाम छूने लगेगा।इस बीच भारत के राजनीतिक क्षितिज पर नव जागरण की सुहावन लालिमा दिखाई पड़ने लगी है।ऐसा लगने लगा है कि एक समग्र राष्ट्रीय द्रष्टि फिर से उभर कर क्षेत्रीय विखण्डता से टक्कर लेने को सजग हो उठी है।यह उभार,स्वागत के योग्य है।क्योंकि अखण्ड राष्ट्रीय विचार पीठिका पर खड़े होकर ही हम भूगोल की वर्तुल सीमाओं को अपने आगोश में ले पायेंगे।जाग्रति का एक सबसे प्रबल पक्ष है भारत की अजेय तरुणाई का लोक रंजक और जन कल्याणकारी राजनीतिक परिद्रश्य में सशक्त योगदान।माटी तो चाहती ही है कि भारत की उर्वरा भूमि में लाखों हँसतें लहराते लाल राष्ट्र को फिर से संसार की श्रेष्ठतम कर्मभूमि और स्वस्थ्य भोग भूमि बनाने के लिये आगे आंयें।सम्भवत : धुंधलके को और अधिक साफ़ होने में अभी थोड़ी बहुत देर है पर ऐसा आभास अवश्य हो रहा है कि तमस की कालिमा छटनें लगी है।हमें सावधान होकर यह देखना होगा कि Sensex की उछालें हमारे लिये आर्थिक प्रगति का प्रतीक न बन जायें।दरिद्रता मानव जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है और हिन्दी भाषा -भाषी प्रदेशों का एक काफी बड़ा हिस्सा दरिद्रता की चपेट में है।इस वर्ग को दरिद्रता की श्रेणी से निकालकर सहनीय गरीबी के उपेक्षंणनीय क्षेत्र में लाकर खडा करने के लिये भी बहुत अधिक इच्छा शक्ति और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासनिक व्यवस्था की आवश्यकता है।हम यह मान कर चलते हैं कि चालिस और पचास वर्ष के बीच चलने वाले परिपक्व तरुणों के द्वारा भारत की राजनीति ऐसा कुछ असरदार कर दिखायेगी जो दरिद्रता का कलंक धो पोंछ कर साफ़ करने में सफल हो सकेगी।निकट भविष्य में भारत की आर्थिक प्रगति और न जाने कितने अम्बानी ,टाटा और सुनील मित्तल को उभार कर विश्व के सबसे धनी उद्योगपतियों की श्रेणी में स्थान दिला देगी।हम चाहते हैं कि केन्द्र का अक्षय कोष निरन्तर उन जरूरत मन्दों के लिये खुला रहे जो शताब्दियों से आर्थिक व्यवस्था के हाशिये पर खड़े रहे हैं।अकबर के प्रसिद्ध सभासद अब्दुल रहीम खान खाना जो महाभारत के कुन्ती पुत्र कर्ण की भांति अपने दान के लिये प्रसिद्द थे का एक दोहा हमें याद आता है -
"देन हार कोहु और है ,भेजत है दिन रैन 
 लोग भरम हम पर करैं ,ताते नीचे रैन ।"
                                  माटी चाहती है की सरकारें आत्म श्लाधा से ऊपर उठ कर नीचे नैन करके वन्चित समुदाय की सेवा में निष्ठा पूर्वक लग जाने का व्रत लें।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

माटी की विरासत ........

                                                  भारतीय परम्परा प्रतिभा को अबाध रहने की स्वतंत्रता तो देती है पर उसे मानव कल्याण के विपरीत दिशा में बहने से बाधित करती है ।इसीलिये प्रतिभा पर आभिजात्य संस्कारों का ,परित्रिष्टित जीवन द्रष्टि का और धार्मिक नियंत्रणा का अनुशासन रखा जाता है ।आज सर्वश्रेष्ठ प्रतिभायें खरीद -फरोख्त का बाजारू माल बन चुकी हैं ।Knowledge Industry वणिक वृत्ति संचालित होकर मानव जीवन के उच्चतर लक्ष्यों की अवहेलना कर रही है ।जो कुछ है सब बिकाऊ है । इंग्लैंड के इतिहास में कुछ इसी प्रकार के प्रश्न सोलहवीं शताब्दी में उठे थे जब मार्लो ने अपना बहु चर्चित नाटक डा 0 फास्ट्स लिखा था उसमें भी आत्मशोधक डॉ0 फास्ट्स शैतान Mephosto-thilis की बातों में आकर सुरा -सुन्दरी के अबाधित भोग के लिये अपनी आत्मा का सौदा करते हैं ।इस युग में अपनी सारी लम्बी चौड़ी मानवीय कल्याण की घोषणाओं के बावजूद अमेरिकन संस्कृति वस्तुत: जुगुप्सापूर्ण विलास संस्कृति बन कर रह गयी है ।भारत में बुद्ध धर्म की वज्रयानी परम्परा मुद्रा और माया के चक्कर में फँसकर पतन की जिस निम्न छोर पर पहुँच गयी थी कुछ वैसा ही आज अमेरिकन जीवन पद्धति में घटित होता दिखाई देता है ।शक्ति और वैभव का अभिमान काल के प्रवाह में एक क्षणिक उन्माद ही है उसे किसी भी राष्ट्र को सनातन मान कर नहीं चलना चाहिये। उत्थान पतन  का  कालचक्र सतत गतिमान रहता है जो ऊर्ध्व पर है उसे नीचे आना ही होगा पर चक्र की गति यदि सहज रहे तो ऊर्ध्वत्व का बिन्दु कुछ अधिक देर तक टिका रहता है । ऐसा कुछ आज पाश्चात्य सभ्यता में दिखाई नहीं देता । भारत नें एक अत्यन्त लम्बे काल तक मानव सभ्यता के सर्वोच्च  स्थान पर अपने को प्रतिस्थापित किया था और यह दीर्घ जीवन इसलिये पा सका था क्योंकि उसने स्वाभाविक कालचक्र की पतन गति को संयम और आत्म अनुशासन के दोनों हाँथो से पकड़कर धीमां कर रखा था ।पिछले लगभग एक सहस्त्राब्दी से हम अन्धकार की चपेट में आ गये थे पर ऐसा लगता है कि यह भी श्रष्टि रचयिता की भारत को सीख देनें की एक दैवी योजना थी।अन्तता :हमारी इस देव भूमि से परम पिता को एक विशेष लगाव तो है ही ।" माटी " आस्तिकता के इन आयामों को स्वीकार करती है । नास्तिकता के किसी भी स्वर को हम पूरी शक्ति के साथ नकारते हैं और हम विश्श्वास  करते हैं कि हम देव पुत्र हैं ,कि  हममें कहीं ईश्वरीय स्फुल्लिंग है , कि हम मानव शरीर से देवत्व के सोपानों की ओर बढ़ सकते हैं । उन अनीश्वर वादी Nihilist विचारकों को हम भुस के तिनकों से अधिक महत्त्व नहीं देते जो मानव शरीर को मात्र पशु प्रव्रत्तियों का संचयन बताते हैं ।हम महर्षि अरविन्द के साथ खड़े हैं जो चाहते थे कि हर मानव महामानव बनें और यह महामानव अपने आन्तरिक विकास की चरम उपलब्धि के क्षणों में ईश्वरीय गरिमा से मंडित हो सकेगा।विकासवाद भी विकास की प्रक्रिया में  Mutation के चरम महत्त्व को स्वीकार करता है और हमारा विश्वास है कि यह म्युटेशन भी श्रष्टि नियन्ता की  मानव कल्याण प्रेरित भाव भूमि से ही सन्चालित होता है ।द्रष्टि का लंगड़ापन और भ्रामकता ही हमें विभिन्नता का बोध कराती है।अन्यथा विश्व के सभी मानव ज्योति शिखा से स्फुरित सर्वव्यापी स्फुल्लिंगों से ही अनुप्राणित हैं । कितना रक्त बहाया है मानव जाति ने गोर काले के भेद को लेकर ,सम्प्रदाय विभिन्नता के नाम को लेकर , पूजा पद्धतियों के टकराव को लेकर ,और भेष -भूषा को लेकर।कितनें क्षुद्र स्वार्थो की नीव पर तथा कथित धर्म साम्राज्यों की स्थापना की गयी , कितनी विजय गाथायें निरीह पवित्र उषा जैसी धवल माँ ,बहिन  बेटियों के शरीरों को कलुषित करके लिखी गयीं। "माटी " इन सबको धिक्कारती है ।जहाँ कहीं भी पशु वृत्ति है ,जहां कंहीं भी अवाध भोग की भावना है ,जहां कहीं भी नंगे शोषण का मनो भाव है माटी उस द्वार को कभी नहीं खटखटायेगी।हम प्रतिबद्धित होते हैं सभी झूठे दम्भों को परित्याग कर एक नये विश्व समाज संरचना की ओर जो राष्ट्रधर्मिता की सुद्रढ़ नीव पर निर्मित होगा।हम संकल्पित होते हैं छुद्र ईर्षाओं  ,स्वार्थों और टोली बन्दियों से मुक्त सहज स्पन्दित सरल सहभागी जीवन जीने के लिये जो भारत की मूल नैतिक धारणाओं से अनुप्राणित हो।वस्तुत : हम जड़ और चेतन के अन्तर को मिटाकर ब्रम्हांडीय स्रष्टि की एकता के संपोषक हैं प्रथम मानव का यह चिन्तन कितना संपुष्ट और सार्थक है :-
                                                     " ऊपर हिम था नीचे जल था
                                                      एक तरल था एक सघन
                                                     एक तत्त्व की ही प्रधानता
                                                     कहो उसे जड़ या चेतन "
                                  इस अखण्ड एकात्म भाव के प्रति समर्पित होकर हम विश्व चेतना का एक अंग बन सकेंगे।भारत का अतीत गण व्यवस्था का प्रहरी था जहाँ से निकले अंकुर डिमोक्रेसी के नाम पर इंग्लैंड तथा योरोप के अन्य देशों से छोटा मोटा परिवर्तन लेकर अमेरिका पहुँचे हैं। तभी तो आज संसार  यह मानने को विवश हो चूका है कि भारतीय चेतना में जनतंत्र का रक्त स्पन्दन उसके अस्तित्त्व की अनिवार्यता रहा है। French Revolution के आदर्श Equality ,Liberty और Fraternity, समानता , स्वतंत्रता और बन्धुत्व पाश्चात्य देशों में आज धूमिल पड़ गये हैं और केवल औपचारिकता के लिये दोहराये जा रहें हैं।पर फ्रांस ने जो कुछ कहा था वह तो भारत का ही उधार लिया गया दर्शन था इसलिये हमारे लिये ,हमारी राष्ट्रीय धर्मिता के लिये ,हमारी वैश्विक जीवन द्रष्टि के लिए तो इन शब्दों के प्रति स्वागत भाव रहा है और रहेगा। तोड़ो इन जाति पांति के बन्धनों को ,तोड़ो इन क्षेत्रीय प्रतिबन्धों को ,तोड़ो इन मानसिक मकड़ी जालों को हम सब भारत वासी हैं ,आर्य पुत्र हैं ,हिन्दुस्तानी हैं ,इन्डियन हैं ,हममें जन्म से बड़े -छोटे होने का भाव किसी काल में साम्राज्यवादी विभाजक तत्त्वों द्वारा आरोपित कर दिया गया। वह हमारा मूल स्वर नहीं है वह तो वस्तुत : कुलीन तन्त्रीय इंग्लॅण्ड जैसे पाश्चात्य देशों का स्वर रहा है।और वंहा भी समानता के प्रेरक उद्दघोष्कों नें यही कहा था
                                                 "When Adam delved and Eve span
                                                   Who was then a gentle man."  
                                         तो आइये माटी के साथ हम एक जुट होकर चल पड़ें।अकेले हम सब परिचय हीन हैं ,छोटे हैं , अधूरे हैं विखन्डित हैं और अपेक्षाकृत असमर्थ हैं पर सब मिलकर हम सार्थक बनते हैं।विश्व में एक अर्थवान श्रष्टि रच सकते हैं और ब्रम्हांड रचयिता के इस अपार श्रष्टि सागर में कुछ परिचय के अधिकारी बन जाते हैं। माटी का प्रत्येक पाठक समष्टि चेतना में अपनें अहँकार को विसर्जित कर महादेवी जी के उस भाव गरिमा से आलोड़ित हो सकता है जो इन पंक्तियों में व्यक्त है ।
                              "क्षुद्र हैं मेरे वुद वुद प्राण
                                तुम्हीं में श्रष्टि तुम्हीं में नाश
                              सिन्धु को क्या परिचय दें देव
                              बिगड़ते बनते बीच बिलास ।"
                  मात्रभूमि ,राष्ट्रभूमि को माटी परिवार के शत शत प्रणाम ।।                                           
                                                                                                                               

रविवार, 2 दिसंबर 2012

माटी की विरासत ........


                                        सभ्यता के उषा काल में ही पौरत्य प्रतिभा नें वसुधैव कुटुम्बकम का दर्शन प्रतिपादित किया था ।भारतीय मनीषी यह जान गये थे कि मेरे तेरे का दर्शन लघु चिन्तना की उपज है जो उदार है विशाल बुद्धि है और निसर्ग के लय ताल की गति समझता है उसके लिये तो सारी वसुधा ही कुटुम्ब है। न जाने कितनी सहस्त्राब्दियों के बाद आज सारे संसार का प्रबुद्ध वर्ग इस सत्य को स्वीकार कर पाया है । आज के बहुप्रचलित शब्द " ग्लोबल इकनामी ",ग्लोबल विज़न ,और वैश्विक जीवन पद्धति भारत के चिन्तन  के अभिन्न ,अबाधित और सर्वमान्य जीवन लक्ष्य रहे हैं ।" माटी " इस सेवा भावना से काम करने का प्रयास कर रही है कि युग के प्रवाह में इन सनातन मूल्यों पर पड़ जाने वाली धूल और गर्द को साफ़ पोंछ कर विश्व जन मानष के समक्ष प्रस्तुत कर दे ।अहंकार की भावना से सर्वथा मुक्त केवल सम्पूर्ण समर्पित भाव से और नि :स्वार्थ सेवा भावना से प्रेरित होकर हम इस दिशा की ओर चलें हैं ।हम जानते हैं कि हमारा यह प्रयास राम जी की सेवा में लगी गिलहरी के प्रयास से और अधिक कुछ नहीं है । पर हमें इस बात का गर्व है कि हम राजनीति के विद्दयुत प्रकाश और चकाचौंध वाली छवि से सर्वथा मुक्त हैं।हो सकता है कालान्तर में कुछ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त  व्यक्ति हमारे साधना मार्ग पर हमसे मिलकर चलनें का प्रयास करें पर हम ऐसा किसी निराधार प्रशंसा ,प्रचार या सांसारिक लाभ के लिये कभी नहीं होने देंगें । हमारा मार्ग तो पारस्परिक सौहाद्र ,निश्छल समर्पण और सहज त्याग के तीन पायों पर बनाया गया है इस मार्ग पर जो चलेगा उसे राजनीतिक सत्ता और वैभव मद घरौंदों को पददलित  कर आगे बढ़ना होगा । माटी के लेखक ,पाठक मानव प्यार के उस विश्वव्यापी आवासीय आत्म संगीत गुन्जित भवन निर्माण की ओर बढ़ रहें हैं जिसकी कल्पना संत कबीर ने की थी -
                                                       
   " जाति नहीं पांति नहीं ,वर्ग नहीं क्षेत्र नहीं ,
      रंग नहीं , रूप नहीं , नर -नारी का लिंग भेद नहीं
      अस्तित्व नहीं ,अनस्तित्व नहीं , केवल सब कुछ होम कर देने वाला मानव प्यार "
       "कबीरा यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं
        सीस काटि भु  हि में धरै सो पैठे घर मांहि "
                   या
       "कबिरा खड़ा बजार में लिये लकुटिया हाथ
       जो घर जारे आपनों सो चले हमारे साथ "
                                     तो बन्धुओं माटी आपसे आत्माहुति की मांग करती है।हमारे पास देने के लिये है केवल आपके प्रति अपार श्रद्धा ,आपके आदर्श सांसारिक जीवन में अनुगामी बननें की कामना और आपके लिये आत्मा से निकलते सच्ची प्रशंसा के स्वर।पर हम आपको वैभव ,पदाधिकार का दंभ्भ और चित्रपटों की चमक नहीं दे पायेगे ।हम चाहेंगे विवेकशील भारतीय नैतिक परम्परा के सजग विचारक होने के नाते आप स्वयं निर्णय लें कि  क्या हमारा मार्ग आप को हम तक आने के लिये प्रेरित नहीं करता।सकारात्मक और सहज स्वीकृत मिलने पर आप अनुभव करेंगे कि मानव जीवन का लक्ष्य देह सुख पर आधारित पश्चिमी जीवन मूल्यों से कहीं बहुत अधिक ऊँचा है । मुझे याद आता है ब्रिटिश कौंसिल में आयोजित एक परिचर्चा का सन्दर्भ । कुछ ख्याति प्राप्त विद्वानों के बीच शिक्षा के सच्चे स्वरूप पर नोंक -झोंक हो रही थी।विश्वविद्यालयों से पी .एच .डी . और डी .लिट् .पाये हुए कुछ दंम्भी अंग्रेजी  दां शिक्षा का सम्बन्ध उपाधि के मानकों से जोड़ रहे थे मुझसे रहा नहीं गया और मैनें कहा कि यदि उपाधि मानकों से ही ज्ञान का अटूट सम्बन्ध है तो रवीन्द्र नाथ और अकबर को तो अशिक्षित हे कहा जायेगा । यही क्यों भारत रत्न अब्दुल कलाम भी बिना थीसिस लिखे ही राष्ट्र के लिये सम्मान का प्रतीक बन गये हैं।ललित कलाओं के क्षेत्र में तो विश्वविद्यालीय शिक्षा अधिकतर लंगड़ा बना देने का काम करती है और दर्शन तथा विज्ञान के क्षेत्र में भी वह केवल उन्हीं को लाभान्वित करती है जिनमें संस्कार बद्ध नैसर्गिक प्रतिभा के उत्पादक बिन्दु सन्निहित होते हैं। तभी तो सी .बी .रमन ने बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता के नोबल प्राइज़ पाया और तभी तो भारतीय मनीषा नें सहस्त्रों वर्ष पूर्व जीरो खोजकर आज की वैज्ञानिक इन्फार्मेशन टेक्नालाजी युग की नींव रख दी थी।जीरो के खोज के बिना कम्प्यूटर की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।         

माटी की विरासत (गतांक से आगे )

  ' माटी 'परिवार विदेशी परम्पराओं के अन्धानुकरण में विश्वाश नहीं रखता ।वह औपनिशिदिक युग की विवेक और मीमान्सा पद्धति में विश्वास करता है ।ब्रम्हाण्ड के मूल में क्या है यही प्रश्न तो केनोपनिषद नें उठाया था ।केना का अर्थ है किसके द्वारा अर्थात वह कौन सी परमशक्ति है जो चेतन- अचेतन को गतिमान या नियन्त्रित करती है और फिर त्रिकालदर्शी श्रुतिकार स्वयं उत्तर प्रास्तुत करतें हैं ये वह शक्ति है जो मस्तिष्क को चिन्तन शक्ति से सुनियोजित करती है ।यह स्वयं में मष्तिष्क की  विचार सीमा से परे है पर मानव मष्तिष्क को अपनी असीमित ऊर्जा का एक अन्श देकर यह गतिमान करती रहती है ।यही शक्ति आँखों को द्रष्टि देती है ,कानों को श्रवण शक्ति  देती है और श्वांस प्रक्रिया का नियमन करती है ।इन्द्रियों की गतिमयता और क्रियाशीलता उसी परम शक्ति से संचालित है और यही कारण है कि मष्तिष्क चिन्तन के श्रेष्ठतम क्षणों में उस शक्ति का अभाष करके भी उसका सम्पूर्ण आंकलन नहीं कर पाता ।एक कौंध भरी झलक उसे यह अहसास तो कराती है किसी ब्रम्हाण्ड व्यापी परमसत्ता के कौतूहलपूर्ण प्रचलन प्रक्रिया का ।यह अहसास मानव जनित किसी भी भाषा में सम्पूर्णत :व्यक्त नहीं हो पाता ।इस अहसास को प्रत्येक व्यक्ति अपनी आंन्तरिक क्षमता के अनुरूप अनुभव करता है और यदि सदाशयी और आत्म प्रेरित ऐसे कुछ व्यक्ति मिल बैठे तो उच्च आदर्शों से प्रेरित एक नयी चिन्तना का प्रकाश फ़ैल उठता है ।भारत में एक लम्बे काल से कार्यरत कई प्रकाशन मनोंभूमि में नयी ऊर्जा लाने का काम नहीं कर रहें हैं ।वे भूंडी सम्पन्नता का प्रदर्शन करते हैं और विदेशी संस्कृति के क्रीतदास बनते जा रहें हैं ।भोग वादी व्यवस्था इन मण्डलियों में चरम परिणित पर पहुँच चुकी हैं भले हे वह समाज सेवा और विपन्नता उन्मूलन की चादर ओढ़े हुये हों ।"माटी "भारत की उभरती प्रतिभा को जीवन्त आदर्शों की ऊर्जा से अनुप्रेरित करने के लिये आगे आयी है ।प्रतिभा अपनें में देश काल और प्रस्तार की सीमाओं से परे होती है उसे कटघरे में बाँध कर नहीं रखा जा सकता पर उसे यदि मानव कल्याण की ओर प्रेरित कर दिया जाय तो उसमें अपार संभावनायें छिपी रहती हैं ।यदि प्रेरक शक्ति बचकाने चिन्तन की उपज हो और यदि उसमें इन्द्रिय विलास का रसायन घुला हो तो प्रतिभा मानव जाति के लिये वरदान की जगह अभिशाप भी बन सकती है ।अन्तर्राष्ट्रीय जगत में इतनें उदाहरण हैं नकारात्मक चिन्तन और नकारात्मक शक्ति प्रयोग के जिन्होंने मानव जाति का अकल्पनीय अहित किया है ।भारत के सन्दर्भ में भी इस प्रकार के अनेक खलनायक और चारवाकीय चिन्तक पाये जाते है ।पर भारत की सबसे अनूठी विशेषता रही है पथ भ्रमित विस्फोटक प्रतिभा पर कल्याणकारी मानवीय मूल्य पद्धति का नियन्त्रण ।यह मूल्य पद्धति धर्म ,नैतिकता ,आत्माहुति और तपश्चरण आदि कई नामों से व्यक्त होती रही है ।परतन्त्रता के काल में एक लम्बे दौर से गुजरनें के बाद भारतीय जीवन मूल्य की चमक जब कुछ धीमी पड़ी थी तब इसे फिर से प्राच्छालन पद्धति द्वारा बंकिम चन्द्र ,राम मोहन राय ,सुब्रमणयम भारती ,आदि आदि ने प्रान्जलता प्रदान की थी और फिर तो   महापुरुषों का एक युग ही शुरू हो गया ।बलिदान, त्याग और आत्म उत्सर्ग की होड़ लग गयी ।राष्ट्रीय गौरव के लिये सब कुछ निछावर करने की भारतीय ऋषि परम्परा अपने सम्पूर्ण वेग से उभर पड़ी । पर      आज स्वतन्त्रता के बाद एक बार फिर हमारे जीवन की ,हमारे जीवन मूल्यों की वेगमयी धारा शैवाल भरे वर्तुल चक्रों में फंस गयी है ।हम हीन भाव से ग्रस्त हो रहे हैं ।हमारी मातायें ,बहनें बेटियाँ नारी शरीर  के सौन्दर्य का बाजारीकरण  मन्त्र अपनानें लग गयीं  हैं ।तभी तो कविवर पन्त को लिखना पड़ा "आधुनिके तुम और सभी कुछ एक नहीं तुम नारी "

                                                     सौन्दर्य प्रसाधनों का बाजार भारतीय विश्व सुन्दरियों के बलबूते पर फलनें -फूलनें लगा है ।महिलायें कभी बृद्धा न बनना चाहें यह तो समझ में आ सकता है पर पुरुष भी हास्यास्पद वासना से प्रेरित होकर सदैव तरुण ही बना रहना चाहें ये पाश्चात्य क्लब सभ्यता की विशेष देन ही है ।प्रत्येक माटी -पाठक को इस पतनशील मनोंवृत्ति को रोकनें के लिये प्रतिबद्धित होना पड़ेगा ।बालपन का अपना सौन्दर्य है और तरुणाई का अपना शक्ति प्रस्तार। पर वार्धक्य भी एक गौरव की बात ही है अवमानना ,तिरस्कार या उपेक्षा की नहीं। सतत ऋषि साधना से ही भारत की सामूहिक आयु  रेखा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन रेखा से ऊपर जा सकेगी ।हम मात्र कैप्सूल और इंजेक्शन लेकर ही लम्बे जीवन की कामना न करें वरन सहज जीवन शक्ति को प्रकृति के सामन्जस्य पूर्ण सहभागी बनकर प्राप्त करें।तभी तो सुदूर सहस्त्रों वर्ष पूर्व वृक्षों की अविरल व्यूह रचना में बैठे या सरिता तटों पर विचरते ऋषि ने गाया था -
                                                                  "जीवेन शरद : शतम
                                                                     श्रणुयाम शरद :शतम
                                                                    पुब्रयाम शरद :शतम
                                                                  अदीन :शाम शरद :शतम ।।"
                                           यह है भारतीय जीवन की कामना विकलांग ,पलंग सेवी निष्क्रिय जीवन की नहीं वरन स्वस्थ्य निर्माण समर्पित उच्चतर सोपानों की ओर बढ़ते निरन्तर ऊर्ध्वगामी जीवन स्पन्दनों की । और भारत ही नहीं पाश्चात्य संस्कृति में आशावादी कवियों का स्वर बुढ़ापे को नकारात्मक द्रष्टि से न लेकर सहज स्वीकारता हुआ हमें अपनी ओर बुलाता है
                                                       " Grow old along with me
                                                           for the best in yet to come
                                                          the last for which the first was made ."       

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

चाहत

 देखो वो हमसे  शर्माए से खड़े है ,
अपनी पलके झुकाए से खड़े है .

 कनखियों से है दीदार करने की कोशिश ,
फिर क्यों यु चेहरा छुपाये से खड़े है .

उन्हें मालूम है की , खोजती है उन्हें ही मेरी नजरे .
फिर क्यों उस  कोने में, वो  पराये से खड़े है ?

लगता है उन्हें  की हम चाहते ही नहीं उनको ,'
पता नहीं उनको शायद , की  हम चाहत को  सीने में दबाये से खड़े है।
                                             

                                                                 "अमन मिश्र "

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

क्या कहा मर्द हूँ मै, फौलादी छाती है , फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?

क्या कहा मर्द हूँ मै ,फौलादी छाती है
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
इसलिए कि मैंने साथ सत्य का लिया सदा ,
पर पाया जग का सत्य सबल की माया है ।
नैतिकता ताकत के पिंजड़े में पलती है ,
आदर्श छलावे की सम्मोहक छाया है ।
मै बुद्ध ,गान्धी को पढ़ गलती कर बैठा ,
सोचा दरिद्र नारायण हैं ,पग पूजूंगा ।
अपनी मछली वाली चट्टानी बाहों में ,
ले खड्ग सत्य का अनाचार से जूझूंगा ।
थे कई साथ जो उठा बांह चिल्लाते थे ,
समता का सच्चा स्वर्ग धरा पर लाना है ।
सोपान नये जय- यात्रा के रचने होंगे,
गांधी दर्शन का लक्ष्य मनुज को पाना है ।
पर चिल्लाकर हो गया बन्द उन सबका मुख ,
इस लिये कि उनके मुँह को दूजा काम मिला।
हलवा- पूड़ी के बाद ,पान से शोभित मुख ,
दैनिक पत्रों में छपा झूठ का नाम मिला ।
वे कहते अब भारत से हटी गरीबी है ,
रंगीन चित्र अब अन्तरिक्ष से आयेगें ।
अब उदर-गुहा में दौड़ न पायेंगे चूहे ,
भू कक्षा में वे लम्बी दौड़ लगायेंगे।
वे कहते बहुतायत की आज समस्या है ,
भण्डार न मिल पाते भरने को अब अनाज।
सब भूमि- पुत्र लक्ष्मी -सुत बनकर फूल गये ,
दारिद्र्य अकड कर बैठ गया है पहन ताज
छह एकड़ का आवास उन्हें अब भाता है ,
गृह- सज्जा लाखों की लकीर खा जाती है ।
हरिजन -उद्धार मन्च से अब भी होता है ,
हाँ बीच -बीच में अपच जँभाई आती है ।
मै आस -पास गिरते खण्डहर हूं देख रहा ,
सैय्यद चाचा का कर्जा बढ़ता जाता है।
प्रहलाद सुकुल ने खेत लिख दिये मुखिया को,
धनवानों का सूरज नित चढ़ता जाता है ।
चतुरी की बेटी अभी ब्याहने को बैठी ,
पोखरमल के घर रोज कोकिला गाती है।
क्या कहा मर्द हूँ मै फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रूलाई क्यों रह -रह कर आती है ?
कल के जो बन्धु -बान्धव थे ,थे सहकर्मी ,
सत्ता का देने साथ द्रोण बन भटक गये।
है उदर- धर्म पर बिका धर्म मानवता का ,
सच्चाई के स्वर विवश गले मे अटक गये।
युग़- पार्थ मोह से ग्रस्त खडा है धर्म छेत्र ,
है उसका क्या कर्तब्य न अब तक भान हुआ।
गाण्डीव शिथिल सो रहा पार्ष्व में अलसाया ,
चुप है विवेक का कृष्ण न गीता ज्ञान हुआ।
ताली पर देकर ताल थिरकते हैं जनखे ,
सत्ता- कीर्तन अब अमर काब्य कहलाता है।
भाषा भूसा बन गयी ,बीन भैंसे सुनती ,
हर क्षीण-वीर्य गजले गा मन बहलाता है।
वर्ण्-युक्त देह सतरंगी साड़ी से ढककर ,
कविता कामाक्षी कृमि बटोरे कर लाती है।
क्या कहा मर्द हूँ मै, फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?

रविवार, 25 नवंबर 2012

प्रतिभा किसी देश काल से न बंधकर सम्पूर्ण मानव जाति को सम्बोधित करती है

                            कितनी बार ऐसा होता है कि हम भीड़ -भाड़ से हटकर एकान्त में बैठना चाहते हैं ।तपस्वी ,साधु और गुफावासी ऋषि -मुनि एकान्त  में रहकर ही परम सत्य की खोज करते है ।अपने अपने मापदण्डों के अनुसार वे इस परम सत्य का साक्षात्कार भी कर लेते हैं ।विश्व की हर सभ्यता में एक काल ऐसा रहा है जब अन्तिम सत्य पा जाने का दावा करने वाले खोजियों ने मनुष्य को संसार छोड़कर मुक्ति ,मोक्ष या अन्तिम सत्य की तलाश में लग जाने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया ।एकान्तवास कर सत्य अन्वेषण की इस पुकार को मिथ्या कह कर नकार देना अनुचित ही होगा ।पर इस सत्य को भी हमें स्वीकार करना ही होगा कि मानव सभ्यता के लगभग सभी टिकाऊ मूल्य जो सभ्यता के आधार स्तंम्भ बने हैं सामूहिक जीवन से ही प्राप्त हुये हैं ।एकान्तवासियों के लिए भी सामाजिक सम्पर्क की आवश्यकता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना मनन चिन्तन के लिये एकान्त  की।सुदूर अतीत में शायद कभी ऐसा रहा हो जब अकेला व्यक्ति अपने भरण पोषण के लिये प्रकृति संसाधन एकत्रित  कर लेता हो पर बिना हम जोलियों के सहवास के उसे जीवन निरर्थक ही लगता होगा।विगत के सन्दर्भ आज उतने सटीक नहीं हैं और अब हम एकान्त वास की कल्पना अपने जीवन के उन प्राईवेट क्षणों से जोड़ सकते है जब हम दिन के चौबीस घन्टों में अपने निजी आवासों पर होते हैं ।पारिवारिक जीवन भी विशाल मानव समुदाय से अलग हटकर अक प्रकार का एकान्तवास ही है ।जो हमें जीवन के बड़े सत्यों की तलाश में प्रवृत्त करता है ।समाज शास्त्री आज एक मत से यह सिद्धांत स्वीकार कर चुके हैं कि सामूहिक  जीवन में ही मानव विकास की अजेय विजय यात्रा का सूत्रपात किया था और आज भी मानव समाज की सामाजिक भावना ही हमें विकास के लम्बे दौर में पहुंचा सकेगी ।व्यक्ति परिवार का भाग होता है ,परिवार ग्राम का ,ग्राम कबीले का ,कबीला क्षेत्र का ,क्षेत्र छोटे या बड़े राष्ट्र का और राष्ट्र छोटे या बड़े भूखण्ड का तथा भूखंडों की ईकाइयाँ अन्तर राष्ट्रीय समुदाय का।चेतना की ये सामूहिक ऊँचाइयाँ मानव विकास के सोपानो को चिन्हित करती हैं।हममें से अभी भी कुछ कबीले ,कुछ क्षेत्र या कुछ भूखण्ड अन्तर्राष्ट्रीय मानव समुदाय का एक सहज अंग नहीं बन सके हैं क्योंकि उनका चिन्तन विकास की पूरी गति नहीं प्राप्त कर सका है ।सच तो यह है की जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है उसका चिन्तन भी उतना ही बड़ा होता है।इस बड़े चिंन्तन  के लिये आधुनिक या अत्याधुनिक होना ही आवश्यक नहीं है ।ऐसा चिंतन कम से कम भारतीय संस्क्रति के प्रभात में भी देखा जा सकता है ।अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्ध कवि JohnDonneनें सत्रहवीं शताब्दी में ही कहा था "यह मत पूंछने जाओ कि चर्च का घण्टा बजकर किसकी मृत्यु की सूचना दे रहा है  वह तुम्हारी अपनी मृत्यु की सूचना है क्योंकि तुम मानव जाति का एक अविभाज्य अंग हो ।"आज विश्व का लगभग सभी शिक्षित जन समुदाय इस सत्य को स्वीकार कर चुका है भौगोलिक,क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सीमायें मात्र प्रबन्धन पटुता के लिये बनायी गयी हैं उन्हें मानव जाति को विभाजित करने के लिए स्तेमाल नहीं करना चाहिये।कौन ऐसा शिक्षित भारतवासी है जिसने अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा के चुनाव में गहरी दिलचस्पी न दिखायी हो।या फिर बँगला देश में शेख हसीना की जीत पर खुशी का इज़हार न किया हो।ऐसा इसलिये है कि अब किसी भी राष्ट्र के हित उसके पड़ोसी राष्ट्रों के साथ तो मिले जुले हैं ही पर साथ ही उन हितों का सम्बन्ध समस्त मानव जाति के विकास से भी है।ब्रिटेन में प्रधान मंत्री मैकमिलन ने साउथ अफ्रीका के अपने दौरे के दरमियान जब यह बात कही थी कि रंग भेद एकाध दशक में इतिहास के कूड़े कचरे में फेंक देने वाली नीति के रूप में जाना जायेगा तब साउथ अफ्रीका के श्वेत नेताओं ने उनकी तीखी आलोचना की थी।पर प्रधान मन्त्री मैकमिलन नें जिस दूर द्रष्टि का परिचय दिया था वह आज इतिहास का अमर सत्य है ।यदि कोई शिक्षित आधुनिक युवक चाहे वह किसी भी देश का हो अज यह मानता है कि रंग भेद के कारण या जाति भेद के कारण वह जन्म से ही अन्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ है तो उसे एक मानसिक रोगी ही करार दिया जायेगा ।विज्ञान ,कला ,साहित्य खेल ,शौर्य ,राजनीति अन्तरिक्ष अनुसन्धान और सत्य धर्म की खोज -कोई भी  तो ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमे हर रंग ,हर जाति ,और हर नस्ल के श्रेष्ठ लोगों नें अपनी पहचान न बनायी हो राजनीति के सत्ता गलियारों में आज उन विदेश मन्त्रियों को सच्चे राष्ट्रीय सेवको के रूप में लिया जाता है जो अपनी कुशल दूरगामी द्रष्टि के द्वारा विश्व जनमत को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं ।सच तो यह है कि अन्तरराष्ट्रीय संगठनों से जुड़े रहने वाले प्रबुद्ध मनीषी प्रशासन को विशालता का एक नया आयाम देने में समर्थ होते हैं ।भारत के मध्ययुगीन सभ्यता में कुछ समय ऐसा था जब शारीरिक श्रम की महत्ता को पूरे गौरव के साथ स्वीकार नहीं किया गया ।हिन्दी भाषा के कुछ शब्द जो कर्म वाचक संज्ञाओं या विशेषणों के रूप में प्रयोग होते थे अपना महत्व खोकर हीन भाव के प्रतीक बन गये ।भाषा के विचारकों को इन शब्दों को नयी प्रान्जलता देकर फिर से सार्थक ऊचाइयों पर पहुचाने का प्रयास करना चाहिये ।जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के शोधार्थिओं ने कुछ आवश्यक काम किया है ।माटी इस दिशा में किये जा रहे प्रयत्नों की तलाश में है और भाषा शास्त्रियों से संपर्क साधे हुये है ।सार्थक सामाजिक श्रम से जुड़े कुछ समुदाय स्वयंम भी इस दिशा में प्रयत्न शील हैं ।उनके प्रयत्नों को एक वैज्ञानिक आधार देने की आवश्यकता है ।गहरी सूझ बूझ वाले माटी के पाठक इस बात से भली भाँती परचित होंगे की हम अपने लेखों और रचनाओं में विश्व के जाने माने विचारकों की बातें उद्धत करते रहते हैं।ऐसा इस लिए है कि हम यह बताना चाहते हैं कि अपने सर्वोत्कर्ष रूप में  ।माटी कई बार प्रतिभा किसी देश काल से न बंधकर सम्पूर्ण मानव जाति को सम्बोधित करती हैअपनी रचनाओं में ऐसे शब्द समूहों को भी निखारती रहती है जो अर्थ संकुचन के कारण व्यापक स्तर पर प्रयोग नहीं किये जाते ।ग्राम सभ्यता जे जुड़े कई शब्द कल तक भले ही ऊँचे कद के योग्य न माने गये हों पर आज तो उन्हें पूरे आदर के साथ स्वीकारना होगा।हलवाहा यदि हलधर होकर अपने पौराणिक प्रसंगों के कारण गरिमा मण्डित हो जाता है या पापी यदि तन्तुवाय के रूप में सार्थक वनता है तो हमें इन शब्दों का संसकारी करण करना होगा।ये मात्र सुझाव की एक द्रष्टि है।इस दिशा में भाषा विदों द्वारा कई अधिक सार्थक प्रयोग किये जा सकते हैं ।हो सकता है हमारे कुछ सफल राजनीतिज्ञ समाज के उन वर्गों से उठ कर आये हों जिन्हें भाषा की क्षेत्रीय मान्यताओं ने उपेक्षित किया हो।मुझे  विशवास है कि उनका वैदूर्य हिन्दी भाषा के शब्द संसकारी करण में भी एक भूमिका निभायेगा।

हम माटी के रचनाकार और पाठक सृजन की रहस्यमयी ईश्वरीय सृष्टि में कुछ और ज्योतिपुंज जोड़ सकेंगें?

                                            हिन्दी  भाषा में स्तरीय साहित्य का सृजन करने वाली प्रतिभा अभी तक आर्थिक निर्भरता का पायदान नहीं सहेज पायी है ।विश्वविद्यालयों में लगाई गयी पुस्तकें और सरकारी अनुदानसे संरक्षित प्रकाशनों की बात छोड़ दें तो ललित साहित्य का लेखन हिंदी में अभी भी दो जून की रोटी जुटाने में असमर्थ है।राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त करने वाली लगभग चालीस करोड़ भारतीयों की मात्रभाषा         साहित्यकारों को यदि जीवन यापन का मूलभूत आधार भी प्रदान नहीं कर पाती तो हमें कंही गहरे जाकर हिन्दी -भाषा भाषियों की मनोवैज्ञानिक  टटोल करनी होगी।आश्चर्य है कि हिन्दी भाषा -भाषी मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार अपनी मासिक आमदनी का एक प्रतिशत भी ललित साहित्य पर ब्यय करना नहीं चाहता।उसे अपनें अन्तर्मन की परिष्कृति के लिए श्रेष्ठ साहित्य की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती।वह हल्के फुल्के अखबारी चुटकुलों ,सिने तारिकाओं की प्रेम कहानियों और अपहरण और बलात्कार की नशीली खुराकों से अपने को एक भ्रामक छलना में घेर कर जीवन यापन करता रहता ह।उसे लगता ही नहीं कि भीतर का परिमार्जन उत्क्रष्ट विचारों और सर्वकालीन सांस्क्रतिक मूल्यों के विना संम्भव ही नहीं हो पाता।इसके पीछे हिंदी भाषा -भाषी प्रदेशों की भीषण गरीबी तो है ही पर साथ ही कहीं धार्मिक प्रवचनों की वाचिक परम्परा से निरंतर जुड़े रहने की अपरिहार्यता भी है ।उसे शताब्दियों से यही समझ दी जाती रही है कि धार्मिक प्रवचनों और दैनिक पूजा अनुष्ठानों से उसे आत्मदीप्ति मिल जाती है और बाकी अन्य ललित साहित्य कुछ विशेष पढ़ाकू या लिखाकू लोगों के बीच चर्चा के लिए ही लिखा जाता है।ऐसा संभवत :इसलिए भी रहा है कि परतन्त्रता के सैकड़ों वर्ष के लम्बे काल में पौराणिक कथा कहानियों और क्षेत्रीय साधुओं ,संन्तों और महन्तों के माध्यम से ही उन्हें भौतिक जीवन से परे मानव अस्तित्व के रहस्यात्मक पहलुओं से परचित कराया जाता था।स्वर्ग -नर्क,मोक्ष ,जन्म ,पुनर्जन्म ,वैभव ,दारिद्र्य ,वर्ग .वर्ण .लिंग और फेथ सभी कुछ एक बहुत पुरानी घिसी -पिटी तर्क पद्धति से भजनीकों और अर्ध शिक्षित ज्योतिषियों और पुरोहितों द्वारा सामन्य जन मानष में  भर दिए गए थे।वहां कोई तर्क नहीं था।वहां कोई प्रश्न नहीं था।वहाँ गणित की सम्पूर्ण समाधान क्षमता बतायी गयी बातों को सहज रूप से स्वीकार करनें में व्योहस्त होती थी।विपुल ब्रम्हाण्ड के विस्मय भरे रहस्य को जान लेने का अदम्य जीवट संजोये मानव मस्तिष्क की अपार क्षमता का घिसे -पिटे मार्ग के अतिरिक्त और भी कोई मार्ग हो सकता है ऐसा मानना शताब्दियों तक हिन्दी भाषा -भाषी समाज में असुरत्व की ओर बढ़ना माना जाता था।जीवन जीने की शत -शहस्त्र मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों को एक काष्ठ घेरे में बन्द  कर किसी पूर्व निश्चित लीक पर चलने की बाध्यता ने हिन्दी भाषी समाज को काफी हद तक संवेदन शून्य बना दिया।ललित साहित्य को निरर्थक समझ कर उस पर किये गए व्यय को भी कही न कहीं लीक से अलग हटकर चलना मान लिया गया। यह धारणा इतनी गहरायी से अधिकाँश हिन्दी बोलने वालों के मन में जड़ें जमा चुकी हैं कि साहित्य पर किया गया व्यय अपव्यय के रूप में स्वीकृत हो चुका है।संभ्रांन्त ,प्रतिष्ठित ,अतिशिक्षित और उच्च पदस्त हिन्दी भाषा भाषी घरों में भी हिन्दी के ललित साहित्य की श्रेष्ठ रचनायें यदा कदा ही देखने को मिलती हैं।अंग्रजी में छपी भारतीय लेखकों की भारतीय परिवेश से नितान्त कटी  हुई किस्सा कहानियां  वहाँ वहुतायत से देखने को मिलेंगी पर हिन्दी के तरुण रचनाकारों की कोई भी पुस्तक वहां मिलना शायद मुमकिन ही  नहीं है ।यह बात दूसरी है कि ऊँची कक्षाओं में लगायी गयी कुछ उपन्यास ,कहानियाँ या आलोचना -ग्रन्थ वहाँ मिल जायँ ।
                                     व्यापार में सफल होने वाले लोग या राजनीति में तिकड़म से ऊँचाई में पहुचे हुये लोग शायद यह समझते हों कि कविता ,कहानी ,उपन्यास या साहित्य की ललित विधा के अन्य प्रकार विना प्रयास के ही जन्म ले लेते हैं।उनके लिये किसी साधना या लम्बे समय की मनोवैज्ञानिक तैय्यारी की आवश्यकता नहीं होती।उन्हें यह जान लेना चाहिये कि एक श्रेष्ठ कविता ,एक श्रेष्ठ कहानी ,एक श्रेष्ठ संस्मरण ,एक श्रेष्ठ औपन्यासिक कृति,एक श्रेष्ठ निबन्ध या लिखित अभिव्यक्ति का एक और कोई श्रेष्ठ आकार एक गहरी साधना और एक लम्बे समय की माँग करता है हाँ इसके लिये एक विशेष प्रकार की प्रतिभा भी अपेक्षित होती है जिसे प्रक्रति जन्य कहा जा सकता है।एक ब्रैड मैन ,एक सचिन तेन्दुलकर ,एक सोवर्स या एक धोनी निरन्तर अभ्यास के द्वारा ही श्रेष्ठता के शिखर पर पहुचें हैं पर मात्र अभ्यास या समय उन्हें उस ऊँचाई पर नहीं ले जा सकता जिस पर वे खड़े हैं।यदि उनमें नैसर्गिक खेल प्रतिभा न होती।अपने श्रेष्ठतम प्रदर्शन के दौरान क्रिकेट प्रेमी समाज उन्हें आदर और सम्मान के साथ ही साथ एक ऐसी आर्थिक सुद्रढ़ता भी प्रदान करता है जो उन्हें पूरे जीवन के लिये सशक्त और सामर्थ्यवान बना देता है।श्रेष्ठ साहित्यकार के लिये हिन्दी भाषा-भाषी समाज ऐसा क्यों नहीं कर पाता इस पर हमें मनन करना होगा।प्रेम चन्द्र जी और निराला जी का सारा जीवन अदम्य जीवट और भीषण  संघर्ष की कहानी रहा है ।जिन साह्त्यकारों का पारवारिक आधार आर्थिक रूप से सुद्रढ़ रहा हो उनकों छोड़ दें तो वाकी के लिये यदि आजीविका का अन्य कोई मार्ग नहीं है तो साहित्य रचना अभाव के संकट भरे द्वारों की ओर ही ढकेलती रहती है।विश्वविद्यालय या महाविद्यालय या माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षण कार्य पा जाने वाले साहित्यकार भले ही आर्थिक सुरक्षा पा जाते हों पर डिग्रियों की उच्चतम ध्वजा पताकाओं से दूर रहने वाले सैकड़ों सशक्त साहित्यकार अभाव का  दयनीय जीवन विताने पर विवश हैं।सरकार उनके लिये कुछ करे या न करे यह सरकार चलाने वालों की अपनी सोच है ।पर हम शिक्षित भाषा -भाषी लोगों का यह कर्तब्य अवश्य बन जाता है कि हम श्रेष्ठ रचनाओं और उन रचनाओं को प्रकाशित करने वाली पत्रिकाओं को खरीद कर पढ़ने की आदत डाले।साहित्य अपने भब्यतम रूप में ईश्वरीय गौरव से मण्डित होता है।ईश्वर की आराधना करने वाला व्यक्ति जैसे पूजा को अपनी दिनचर्या का एक अनिवार्य तत्व मानता है ठीक वैसे ही हिन्दी भाषा -भाषी साहित्य प्रेमियों को ललित साहित्य को जन मानस तक पहचानें वाली रचनाओं और पत्रिकाओं को खरीद कर पढ़ने की आदत डालनी होगी।हम कोटि कोटि जन यदि अपने सशक्त ,चरित्रवान ,तरुण शब्द शिल्पियों का संवर्धन ,सरंक्षण नहीं कर सकते तो निश्चय ही हमारे लिये शर्म की बात है।निरन्तर सरकारी आश्रय की मांग करना यह स्वीकार करना होगा कि हम हिन्दी भाषी वैसाखियों के बिना सांस्क्रतिक विकास के मार्ग पर चल ही नहीं सकते।
                                                         "माटी "निरन्तर इस चेष्टा में निरत है कि उसमें स्थान पाने वाली श्रेष्ठ रचनाओं के रचयिताओं को सम्मान- राशि के रूप में प्रोत्साहन दिया जाय।हम नहीं जानते कि हमारे सीमित साधन हमें कब उस आर्थिक आधार भूमि पर खड़ा कर पायेंगे जहां हम अपनी आंतरिक इच्छाओं को मूर्तरूप दें सकें।पर हमारे प्रयास के ईमानदारी में कोई खोट नहीं हैं ऐसा विश्वाश  हम अपने रचनाकारों को दिलाना चाहेंगे ।"माटी" के सौभाग्य से प्रतिभाशील लेखकों की उत्क्रष्ट रचनायें हमें मिलती जा रहीं हैं ।सभी रचनाओं का प्रकाशन प्रत्येक अंक में संभव नहीं हो पाता पर हम चुनी हुई रचनाओं को सुविधा नुसार आगामी मासिक अंकों में प्रकाशित करते रहेंगें ।यदि पाठक किसी रचनाकार के बारे में अधिक जानकारी पाना चाहें तो सम्पादकीय कार्यालय से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं ।प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि वे साहित्य की समझ रखने वाले अपने अन्य साथियों को भी माटी पढने के लिये प्रेरित करें । सिनेमा या क्रिकेट का इन्टरटेन्मेंट (मनोरन्जन )सामन्य जन तक भी सीधे पहुँच जाता है पर साहित्य को समझने ,सराहने के लिये एक उच्च मानसिक स्थिति की आवश्कता होती है ।"माटी "के प्रबुद्ध पाठक ज्ञान -विज्ञान के प्रसार का केन्द्र बिंदु बनकर साहित्यिक पुनर्जीवन के लिये नयी चेतना के चक्रों का निर्माण कर सकते हैं।चेतना के जिस धरातल पर आज मानव जाति खाड़ी है उसमें धरती का छोटापन और उभर कर हमारे सामने खड़ा हो गया है।भारत का चंद्रयान सितारों की खोज करके वापस आ गया है।विश्व मानव की तारपथी दौड़ में भारत भी कहीं खड़ा है इसका अहसास हमें गर्व से भर देता है। हम "माटी "के रचनाकार और पाठक सृजन की रहस्यमयी ईश्वरीय सृष्टि में कुछ और ज्योति पुंज जोड़ सकेंगे ।इसी कामना के साथ -
गिरीश कुमार त्रिपाठी

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

भारत आशा भरी द्रष्टि लेकर उन नवयुवक जन प्रतिनिधियों की ओर देख रहा है जो भरत परम्परा को पुनर्जीवित करने की क्षमता रखते हों

                            भारत के महानगरों की सड़कों पर भारत की आश्चर्य जनक विभिन्नता के अभावोत्पादक छवि चित्र देखे जा सकते हैं ।अपार वैभव की झलक के साथ दारुण ह्रदय विदारक भुखमरी ,उल्लास और करुणा का मर्म भेदी द्रश्य प्रस्तुत कर देते हैं \साढ़े आठ प्रतिशत से लेकर नौ प्रतिशत तक बढ़ी हुई आर्थिक विकास गति 40-50लाख से ऊपर की गाड़ियों में दोलायित रहती है।जब किसी क्रासिन्ग पर लाल बत्ती इन गाड़ियों को कुछ देर के लिये रोकती है तो इनके आस -पास कितनी ही याचना भरी आँखें गाड़ी में बैठी महिलाओं के कानों से झूलते स्वर्ण कुण्डल निहारती हुई दिखाई पड्ती हैं।आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता का यह  भयानक अन्तर गाड़ियों के पीछे लम्बी लगी मोटर साइकिलों में थोड़ा बहुत सन्तुलन पा लेता है पर राजमार्ग के फुटपाथ से लगे किनारों पर श्रमिकों की साइकिलों की लम्बी लाइनें वर्ग विभाजन की निचली रेखाओं सी जान पड़ती हैं। शासन व्यवस्था का प्रत्येक तन्त्र सभ्य समाज की सामाजिक व्यवस्था के प्रारम्भ से ही यह दावा करता रहा है कि शासन तन्त्र न्याय की समानता तो देगा ही पर उसके साथ आर्थिक समानता के लिये भी प्रयत्न शील रहेगा ।इतना अवश्य है कि आर्थिक समानता ज्यामित की रेखाओं की तरह एक जैसी नहीं होंगी पर इतना अवश्य होगा कि जिस आधार पर यह खड़ी की जायेगी वह आधार अपने युग के सभ्य जीवन स्तर का बोझ उठा लेने में समर्थ होगा ।अधिकाँश भारतवासी यह मानते हैं कि आर्थिक समानता की कुछ ऐसी ही व्यवस्था महानायक श्री राम के राज्य में स्थापित हो सकी थी और सम्भवत :इसीलिये महात्मा गान्धी के स्वराज्य  की कल्पना राम राज्य से मेल खाती थी ,जैसा अतीत में था वैसा ही चित्र आज भी दिखाई पडता है ।हर राजनितिक पार्टी आम आदमी की खुशहाली का काम करने का दावा करती है पर आम आदमी की परिभाषा अर्थवान निरूपण के सभी प्रयासों को नकारती दिखाई पड़ती है ।स्वर्ण धूलि में लोटते कार्पोरेट जगत के डायरेक्टरों के मुकाबले में दस हजार मासिक तनख्वाह पाने वाला चौकीदार ,चपरासी एक आम आदमी ही है और इन चौकीदार ,चपरासियों के मुकाबले में फटी धोती में शिशु को संभ्भाले कटोरी फैला कर भीख मांगती हुई दयनीय नारी को हम क्या कह कर पुकारें इसके लिये शब्द पाना कठिन होता है ।जनता से या जनता जनार्दन से जो अर्थपूर्ण ध्वनियाँ उच्चरित होती हैं उनकों एक सुस्पष्ट व्याख्या में बाँधना एक दुष्कर कार्य है ।हीरों के जगमगाते अम्बारों और गन्दली नालियों में पलते शिशु समूहों के बीच का अंन्तर  तो सभी को स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है ।हाँ, यह दूसरी बात है कि कामन वेल्थ गेम्स के आयोजन के पखवारे में विदेशि यों की आँखे इस द्रश्य को न देख सकें इसके लिये पुलिस के आतंक के बल पर कोई अल्पकालीन व्यवस्था भले ही कर ली जाय ।
                       पर हम जिस अपार विभिन्नता की बात कर रहें हैं वह केवल आर्थिक धरातल पर ही सिमट कर नहीं रह जाती ।महानगरीय सड़कों पर आप वेष -भूषा ,केश -राशि का रख - रखाव ,वाहन चालन की भद्रता -अभद्रता और मौखिक मुद्राओं के न जाने कितने आश्चर्य भरे रूप देखे जा सकते हैं ।इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशाब्ध की समाप्ति तो होने जा रही है पर आप भारत की महानगरी की सड़कों पर बाइसवीं सदी के परिधानों ,प्रकारों ,और उत्तेजक आचरणों की झांकियां भी प्रचुर मात्रा में सहेज सकते हैं ।इसके साथ ही साथ साम्राज्यवाद का उन्नीसवीं सदी  वाला बोलचाल का वह लहजा भी सुननें को मिल जाएगा जब Properको Propah कहा जाता था और My lord मिलार्ड कहना वकील होने की शान मानी जाती थी ।इतना ही नहीं कई बार आप अट्ठारहवीं शताब्दी या उससे पीछे के मध्य युगीन काल की झलकियाँ भी पा सकतें हैं जब फारसी अपने हुस्न पर थी और खाने खाना होना दरबारी गौरव का चरम शिखर था ।महिलाओं की वेशभूषा की विभिन्नता ,उनकी केश -राशियों की गुम्फन -अगुम्फन शैली कभी हमें अजन्ता के गुफाकाल के चित्रण तक पहुंचाती दिखाई पड़ती है ।तो कभी उस आच्छादन युग की ओर जब अन्धकार ही नारी आकृति को देख सकता था।इतनी अपार विभिन्नता के साथ भारत सहस्त्रों काल से चलता ,रुकता , बढ़ता ,ठहरता ,गिरता -सँभलता ,गति मान रहा है और जब तक मानव श्रष्टि है शायद गतिमान रहेगा ।ज्ञात इतिहास के समुद्रगुप्त विक्रमादित्य काल को पहले इतिहास के विद्यार्थियों को स्वर्ण काल के रूप में चित्रित कर पढ़ाया जाता था पर अब कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले इतिहास विदों ने उसे स्वर्ण काल न कहकर पुकारने की अपील की है ।उनका कहना है कि उस काल में भी आम आदमी या सामन्य जन शोषित ही था ।प्रगति की क्या व्याख्या है इसे तो प्रगतिशील कहे जाने वाले विचारक ही जाने इनमें से कई विचारक तो राम -राज्य को भी शोषण व्यवस्था से मुक्त नहीं पाते ।पर सब इतिहासों से उठकर एक ऐसा इतिहास होता है जो अप्रयास ही संस्कारों द्वारा हमें मिलता है ।यही विश्वास हमें बताता है कि स्वयं मर्यादा में अपनी इ च्छा से बंधकर ही जब कोई शासक मर्यादा पुषोत्तम हो जाता है तो जन मानष उसे भगवान् के रूप में पूजने लगता है ।हमें अपने शासकों से जो हमारे ही प्रतिनिधि हैं इसी मर्यादा की अपेक्षा है ।पर्ण कुटी में रहकर राज्य का संचालन करना रामानुज भरत के जीवन की सबसे बड़ी सफलता थी और भारत आशा भरी द्रष्टि लेकर उन नवयुवक जन प्रतिनिधियों की ओर देख रहा है जो भरत परम्परा को पुनर्जीवित करने की क्षमता रखते हों ।

पहले अंडा या मुर्गी ढाक के वही तीन पात

                         यिज्ञान और टेकनालाजी अपने में विकास के अपार संभावनाए छिपाये है ।पिछले डेढ़ -दो दशक में संसार ने जितना परिवेर्तन देखा है उतना पिछली कई शताब्दियों में भी संभव नहीं हो पाया था ।जब औद्योगिक क्रान्ति अपने चरम पर पहुँच चुकी थी ।तब ऐसा लग रहा था कि मध्य युगीन व्यवस्था बहुत कुछ आदिम सभ्यता का ही प्रतिरूप है ।पर आज सूचना प्रौद्योगिकी ,कम्प्यूटरीकरण और अन्तरिक्ष प्रसार पद्धतियों में औद्योगिक क्रान्ति को आदिम सभ्यता के विकास की एक छोटी मंजिल के रूप में ही प्रस्तुत करना प्रारम्भ कर दिया है ।बहु विध्य पाठकों को यह बताने की आवश्यकता "माटी "नहीं समझती कि आने वाले वर्षों में कागज़ का प्रयोग नाम -मात्र को ही रह जायेगा ।इलेक्ट्रानिक मीडिया ही विश्व सम्पर्क का सबसे सशक्त संचार साधन बन कर उभर चुका है ।पर कागज़ पर लिखे शब्द हों या स्वचालित परदे पर उभरे ट्वीट ब्लॉग ,ट्वीटर या प्रशासनिक प्रचार तथा सांख्यिक गड़नायें सबमे शब्द और अंक के महत्व को पूरी महत्ता के साथ स्वीकार हे करना पड़ेगा।चिंतन का मूर्त रूप शब्द या सांकेतिक शब्द चिन्हों के द्वारा ही संभव है ।और इसलिये सम्प्रेष्ण का प्रकार बदल जाने पर भी सम्प्रेष्ण की अनिवार्यता या महत्ता कभी कम नहीं हो सकती।गहन चिंतन और गहन भावानुभूति के सम्राठों को तकनीकी नवीनताएँ कुछ देर के लिये भ्रमित भले ही कर दे पर उनके पास जो अक्षय कोष है उसकी भागीदारी के बिना मानवता के उज्वल भविष्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती।विज्ञान ने भी इधर हाल ही में अत्यन्त गहरे दार्शनिक प्रश्नों के कुछ विज्ञान सम्मत उत्तर प्रस्तुत किये है ।दर्शन का सबसे मूल प्रश्न है जीवन के आविर्भाव की गुत्थी को सुलझाना।अंग्रेजी में बहुधा फिलासफी के विद्यार्थियों से प्रश्न पूंछा जाता है कि पहले अंडा या मुर्गी ।अब यदि मुर्गी नहीं थी तो अंडा कहाँ से आया ?और यदि अंडा नहीं था तो मुर्गी कहाँ से आयी ?और यदि कुछ नहीं था तो न कुछ में से कुछ कैसे पैदा हो गया ?महर्षि भारद्वाज से लेकर यूनान के अफलातून तक और ब्रिटेन के बर्टेंड रसल से लेकर भारत के राधाक्र्ष्णन तक सभी ने इन प्रश्नों के अपने अपने उत्तर प्रस्तुत कियें हैं ।ब्रिटेन में अभी हाल ही में अत्यन्त उच्च स्तरीय प्रयोगशाला परीक्षणों में यह पाया गया है कि मुर्गी के अंडे के ऊपर जो कडा छिलका होता है वह जिस प्रोटीन से बनता है वह प्रोटीन केवल एक मुर्गी के भीतर ही बन सकता है।इस प्रोटीन का वैज्ञानिक नाम Ovocleidin-17 है और यह प्रोटीन ही मुर्गी के अंडे के ऊपर एक कड़ा खोल बना सकती है ।अब अगर यह प्रोटीन मुर्गी के भीतर ही बन सकता है तो स्पष्ट है कि मुर्गी को पहले होना चाहिये और अंडे को बाद में बात अगर यहीं तक रहती तो शायद  समस्या का हल हो गया होता पर फिर  प्रश्न उठता है कि यदि अण्डा नही था तो मुर्गी कहाँ से आयी ?समस्या हल भी हो गयी और हल में से समस्या फिर उठ खड़ी हुयी।विकासवादी वैज्ञानिक यह कहते हैं कि शायद  प्रोटीन Ovocleidin-17अपने गैर ठोस या तरल रूप में धरती के वातावरण में कहीं फ़ैली हुई थी और उसी ने सबसे पहले कुछ अज्ञात कारणों से अन्डे का रूप लिया होगा ।अब समस्या खड़ी होती है उन अज्ञात कारणों के निरूपण की ।ढाक के वही तीन पात फिर जहां के तहाँ अब विज्ञान के शोधार्थी और आगे बढ़ते है वे कहते है कि हर अण्डा एक प्रकार का नहीं होता अण्डों का बनना मुर्गी के अण्डों के बनने सेबहुत  पहले शुरू हो चुका था ।अलग -अलग पक्षी अलग अलग किस्म की प्रोटीन से अपने अंडे बनाते हैं।दरअसल समस्या पक्षी जगत से बहुत पीछे हमें उस काल में ले जाती है जब डायनासोर धरती के अधिकाँश भागों में फैले थे ।यह सरीस्रपों का ज़माना था और वे भी अण्डों के द्वारा ही म्रत्यु की अमिट विभीषिका को मिटाकर नयी स्रष्टि को जन्म देते थे ।पक्षी जगत तो इन्ही सरीस्रपों से विकसित होकर लाखों वर्ष बाद अस्तित्व में आया ।अन्डे बनाने वाली प्रोटीन की कई किस्में पहले से ही स्रष्टि की अद्दभुत प्रयोगशाला में उपस्थित थी और बाद में इन्ही प्रोटीनों में से Ovocleidin-17एक नया रूप लेकर अस्तित्व में आयी ।यह विकासवादी वैज्ञानिक कहते हैं कि मुर्गी और अन्डे वाला प्रश्न वैज्ञानिक सन्दर्भों में अधिक सार्थक नहीं लगता ।न तो अण्डा पहले था न मुर्गी ।इनसे बहुत पहले थे सरीस्रपों के नाना रूप और आकार। दैत्याकार ,मध्यम ,लघु तथा द्रश्य और अद्रश्य अनगिनित जीवकणों की अप्रतिहत अविरल अनन्त कोटि धारा प्रवाह के अस्तित्व को ही वैज्ञानिक उत्तर के रूप में ही स्वीकारना चाहिये।वैज्ञानिक शोधकर्ताओं के लिये और विकासवादी पण्डितों के लिए यह विस्मयकारी वैज्ञानिक उत्तर प्रणाली भले ही शोध संतोष प्रदान कर दे पर हम सामन्य जनों के लिये तो यह प्रश्न अबूझा ही खडा है कौन पहले था अण्डा या मुर्गी।गहरायी से इस प्रश्न पर झाँक के देखें तो इसमें वेदान्त का सबसे गूढ़ प्रश्न छिपा हुआ है ।जीवात्मा और जीवात्मा को परिवेष्ठित करने वाला कलेवर इन दोनों में से प्राथमिक कौन है ।सबसे पहले दैव है या पदार्थ और क्या दैव और पदार्थ अनन्य रूप से जुड़े तो नहीं हैं ।"माटी "का सम्पादक तो माटी में ही मानव जीवन की अनन्य संभावनायें तलाशने में लगा है और 'माटी "को ही ब्रम्ह का प्रतीक मान कर उसकी पूजा अर्चना की आराधना करता है।ज्ञान -विज्ञान ,धर्म -धारणा ,स्पन्दन और स्तंभ्भन ,शुक और शायिका सभी में उसे मृत्तिका में घुले -मिले परमतत्व के दर्शन होते हैं ।ऊर्ध्वगामी अंकुरों को मेरा नमस्कार समर्पित है।

                                                                                                              गिरीश कुमार त्रिपाठी