मानव विकास का वैज्ञानिक विश्लेषण आधुनातन शिक्षा का एक अनिवार्य अंग बन गया है । ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि न्रतत्वशास्त्र के प्रामाणिक ज्ञान के बिना जीवन मूल्यों के विकास की विश्वसनीय व्याख्या अधूरी रह जाती है। वैज्ञानिक विकासवाद दस लाख वर्ष से अधिक किसी कुहासे भरे अतीत से वानर मानव से प्रारम्भिक आदि मानव के विकास की कहानी दुहराता रहा है।इस विकास के कुछ विश्वसनीय प्रस्तरीकृत अस्थि पिन्जर और पाषाण उपादान मिलने से ऐसा लगता है कि विकास की यह अनवरत धारा सत्य से बहुत हट कर नहीं है।पर भारतीय मनीषा इस दिशा में एक सनातन विकास व्यवस्था की बात करती रही है जो प्रगति के अन्तिम छोर तक जाकर विनिष्ट हो जाती है और फिर विनाश में छिपे सृजन के बीच से पुन:प्रस्फुटित होकर प्रगति के और अधिक उच्चतर सोपानों की ओर चल पड़ती है । सतयुग ,त्रेता ,द्वापर और कलयुग की विभाजन प्रक्रिया के पीछे एक ऐसी ही विश्लेषण पद्धति सक्रिय रही होगी। ऐसे विभाजन को रूढ़ अर्थों में लेना अवैज्ञानिक होगा क्योंकि कलियुग के साथ अपार तकनीकी संम्भावनाओं का जुड़ाव रहता है जब कि सतयुग मानव की बाल सुलभ सरलता और सहज ज्ञान से जुड़ता है ।जैसे जैसे यह बाल सुलभ सरलता यानि ईश्वरीय सम्पर्क की आसन्नता कम होती जाती है वैसे वैसे सांसारिक ज्ञान का विकास, चातुर्य जो कालान्तर में छल छदद्म में बदलता है बढ़ता जाता है ।यह विकास होकर भी विकास नहीं रहता क्योंकि आत्म तत्व का विस्मरण हमें शुचिता और सरलता से दूर करके मूल पशुत्व की ओर ढकेलता है ।मानव इन्द्रियों के एक सामूहिक संयत्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता।द्वापर में तुला के दोनों पलड़े लगभग बराबर से रहते हैं और रह रह कर वहिरावलोकन और अन्तरावलोकन में अदलाव -बदलाव होता रहता है ।कलियुग आते ही यन्त्र शक्ति परमात्म शक्ति पर भारी पड़ती दिखायी पड़ती है।इन्द्रिय सुख के अनूठे और अकल्पनीय साधनों की भरमार हो उठती है।भक्षण वृत्ति संम्पोषण वृत्ति पर हावी हो जाती है।भाषा के अर्थवान शब्द विपिरीतार्थक बन जाते हैं। चातुर्य का अर्थ हेराफेरी बुद्धिमान का अर्थ धूर्त और सफलता का अर्थ परपीडन कुशलता में बदल जाता है ।गीता के अर्जुन सर्वभावेन परन्तय न रहकर सर्व विनाशक आत्म रत भोगी बन जाते हैं ।विकास की यह अद्दभुत गाथा सतत अवाधित अपरिहार्य और अथक रूप से गतिमान रहती है |कुछ ऐसी ही व्यवस्था के कलुष भरे मार्ग से आधुनिक मानव गुजर रहा है।इन्द्रिय सुख की मिथ्या मरीचका के पीछे वह इतना भ्रमित हो चुका है कि परस्पर सौमनस्य ,सहकारिता और सहभागिता के उन ऊर्जापूर्ण विचारों से वह बहुत दूर जा चुका है जिन विचारों ने उसे चार पैरों पर चलने वाले नर मानव से प्रज्ञा मंडित मानव बनने की ओर विकसित किया था।प्रक्रति के स्वाभाविक दौर में इन्द्रिया जब सुख भोगने के योग्य नहीं रहती तब वह सुरा,मारीजुवाना और Ecstasy की तलाश में दौड़ता है ताकि इन्द्रिय सुख के कुछ क्षण और जुटाये जाँय।और फिर यौवन पार करते ही या उससे पहले ही मानसिक रोगों से भरी खचाखच दीर्घाओं के अतिरिक्त और कहीं रहने का मार्ग ही कहाँ रह जाता है ।इस घोर कलियुग में भी जिसे वैज्ञानिक विकासवाद मानव के चरम उत्थान की गाथा कह रहा है कहीं कुछ बिन्दु हैं जंहा पहुच कर मानव मनीषा अन्तरावलोकन कर कर सनातन सत्यों को खोजती है ।ऐसे बिन्दु हैं उन मानव मनीषियों द्वारा खोजे गये संजीवनी जीवन मन्त्र जो इस कलयुग के बीच भी आत्मा की सतयुगी गरिमा और शुचिता को अक्षुण रख सकें हैं ।ऐसे ही महापुरुषों में उदाहरणार्थ राम क्रष्ण परमहंस ,विवेकानन्द ,स्वामी रामतीर्थ .महर्षि दयानन्द ,महर्षि रमण ,महर्षि कणवे ,रवीन्द्र नाथ ,व महात्मा गान्धी आदि आदि में हमें नव सृजन के सतयुगी बीज देखने को मिलते है ।हमें विकास की नयी परिभाषाओं को खोजने के लिये संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के सर्वोच्च पद पर बैठे पूर्व राष्ट्रपति की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। मोनिका लिवंगस्की से कामातुर आचरण करने वाले राष्ट्रपति क्लिंटन जो वयस्क पुत्री के पिता हैं भले ही अमेरिका में अनादर के पात्र न हों पर वह भारतीयों के लिए आदर्श नहीं सकते ।हमें इस दिशा में भारत के अतीत में आदर्श खोजने होंगे और सहस्त्रों वर्ष पूर्व मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का ही अनुशरण करना होगा।आधुनिक भारतमें भी यदि हम पांच प्रतिशत अत्याधुनिक पश्चिमी दासता वाले वर्ग को छोड़ दें ,जो अभी जीवन मूल्यों के उस विघटन स्थल से थोड़ा ऊँचे हैं जहाँ नर नर न रहकर नर पशु बन जाता है" माटी "का प्रकाशन इन्ही जीवन मूल्यों की तलाश की ओर एक छोटा पर विश्वास भरा प्रयास है ।संकल्प की शक्ति ही मन्त्र शक्ति होती है और नये जीवन मूल्यों का उद्दभव निर्मम भौतिक वाद की खाद से ही सम्भव हो पायेगा ।
आज के इस निराशा संत्राष ,और आत्म जड़ता से भरे तुमुल कोलाहल के बीच रहकर भी प्रत्येक जिज्ञासु को ज्ञान सागर में गोता लगाकर सच्चे मोती खोजने होंगे ।हठ धर्मिता या जेहादी जनून किसी भी काल में भारतीय संस्क्रति का अपरिहार्य अंग नहीं रहा है हम हर युग और हर काल में विशुद्ध बुद्धि की कसौटी पर कसने के पश्चात ही मूल्यों और समाज रचना की संहिताओं को स्वीकार करते रहें हैं। ऐसा ही हमें आज भी करना है ।दरअसल जनूनीपन कुछ धर्मों का ही अंग नहीं है यह आज विज्ञान कहे जाने वाले आधनिक धर्म प्रवंचना का भी अंग बन गया है।विज्ञान का कोई भी सकारात्मक अनुयायी इस बात का हठ नहीं करेगा कि जो कुछ उसने जाना है वही अन्तिम सत्य है ।ईजाक न्यूटन के काल में सर्वमान्य वैज्ञानिक मान्यतायें आइन्स्टाइन के युग तक पहुँच कर अपनी सार्थिकता से वन्चित हो गयीं ।और अब तो प्रक्रति की रहस्यमयी प्रक्रिया को सुलझाने का दावा करने वाले नोबेल लारियेट भी नेति नेति की पुकार लगाने लगे हैं। क्लोनिंग की समस्यायें और अल्पकालीन जिजीविषा उभर कर सामने आ चुकी है ।
जैविक गुण सूत्रों का सूक्ष्म विश्लेषण नयी मीमान्साओं की मांग कर रहा है ।बौनी मानव बुद्धि ब्रम्हाण्ड के अपार विस्तार में उलझ कर दिशा हीन सी हो गयी है ।प्रोफ़ेसर हाकिन्स ब्लैक -होल की थियरी लेकर रहस्य व्याख्या का प्रयत्न कर रहें हैं जबकि आकाश गन्गाओं का उत्फूर्जन और विकरण किसी भी नियम संहिता को चुनौती दे रहा है।सत्य अभी बहुत दूर है और सत्य को क्या कोई मरणशील शरीर में पलती चक्षुबिन्दुओं से देख सकने की क्षमता रखता है।ज्ञान -विज्ञान का अहंकार कुछ राष्ट्रों को इतना निरंकुश बना चुका है की वे संसार को एक ठोकर मारने वाला खिलौना समझ बैठे हैं।उनका दं म्भ है की वे मानव मात्र के नियामक हैं और वे मानव सन्तति को अपनी इच्क्षा के अनुसार आरोपित जीवन पद्धतियों में बाँध देंगे।भारत यह अहंकार न जाने कितनी बार देख चुका है और अभिमान से भरी न जाने कितनी संस्क्रतियों को रेत के विशाल विस्तारों में बदलता देख चुका है।केवल मानव संस्कृति ही नहीं देव संस्कृति भी अहंकार के इस विस्फोट से कितनी बार निर्मूल हो चुकी है ।तभी तो महाकवि प्रसाद ने कामायनी में मनु से यह विचार व्यक्त करवायें हैं ।
देव न थे, वे देव न हम हैं
सब परिवर्तन के पुतले
हाँ की गर्व रथ में तुरंग सा
जो चाहे जितना जुत ले ।
तो मित्रो हमें दंम्भ नहीं सकारात्मक आत्म गौरव से प्राण शक्ति लेनी होगी ।पाश्चात्य जीवन पद्दति को सर्वोत्तम मानकर अपनी जीवन पद्धति को हीन भाव से देखना दासत्व की पहली पहचान है।भारत भारती की जिस पंक्ति ने स्वतन्त्रता सं ग्राम के निर्णायक क्षणों में राष्ट्र में प्राण फूंके थे वह शक्ति आज फिर और अधिक सार्थक हो उठी है ।"हम कौन थे क्या हो गये सोचो विचारों तो सही। "माटी का प्रकाशन भारतीय अस्मिता की अमर गौरव गाथा को हर आट बाट में प्रसारित करने का रचनात्मक प्रयास है।हम चाहेंगे की संसार से आती हुई हवाओं की ताजगी हम अवश्य लें ताकि हममें और अधिक स्वस्थ रक्त का संचरण हो सके पर श्वास प्रक्रिया का सयंत्र तो हमारी अपनी स्वस्थ देह में ही परिपुष्टता पा सकेगा।अन्धी गुलामी मानसिक वैश्या वृत्ति है और नयी पीढ़ी को हम इस ओर नहीं बढ़ने देंगे।महान उपलब्धियां सहज और सीमित प्रयासों को भक्ति तत्परता के साथ निरन्तरता देने से आती हैं।अपने सीमित साधनों लेकिन अपार विश्वाश का बल लेकर माटी इस दिशा में सक्रिय है।पत्रिका प्रकाशन के नाम पर हमारे देश में बहुत से प्रकाशन ऐसे हैं जो भोंडी नक़ल के अतरिक्त और कुछ नहीं।पाश्चात्य जीवन में भी काफी कुछ ऐसा है जो यदि अनुकरणीय नहीं तो ग्रहणीय तो अवश्य कहा जा सकता है पर निराशा की बात तो यह है की जीवन्त स्पन्दनों को छोड़कर मृत औपचारिकताओं के पीछे दौड़ना हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता बनती जा रही है।इसमें बहुत कुछ दोष हमारी शिक्षा पद्धति का रहा है मानव विकास की भ्रामक धारणाये फैलाना और प्रजातीय विशेषताओं की विरुदावली गाना साम्राज्यवादी व्यवस्था का एक संयोजित संयत्र रहा है ।भारत विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति का प्रतीक होने के नाते इस संयत्र का और उसके परिणाम स्वरुप देशीय संस्कृति के अधपतन का विशेष लक्ष्य बनता रहा है।स्वतन्त्रता के पश्चात भी राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी का "हे राम"और वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाने रे "को भुलाकर हम भ्रामक मार्क्सवादी भूल भुलैयों में फंस गये।फलस्वरूप भारत का इतिहास हमारे राष्ट्रीय महापुरुषों के उपहास का कारण बन गया ।हमारी सर्वसहिष्णु धार्मिक परम्परायें और हमारी मूल राष्ट्रधर्मिता ठिठौली भरी वाग्मिता के घेरे में फंस गयी ।लगभग पांच दशकों तक ऐतिहासिकता के नाम पर जो कुछ पढ़ाया गया वह मात्र एक आरोपित और विकृत साम्यवादी दर्शन का आरोपित रूप था ।अयोध्या नगरी और मथुरा नगरी की ईशा पूर्व अस्तित्व संभावनाओं और प्रस्तार संभावनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाये गये ।मानव श्रष्टि के सर्वोत्तम विकास संभावनाओं से परिपूर्ण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और निष्काम कर्म अमर विचारक वंशीधर श्री कृष्ण के अस्तित्त्व पर बचकानी टिप्पणि याँ लिखीं गयी।एक क्षण को भी इन छद्द्म इतिहासकारों ने यह नहीं सोचा की वे मात्र तत्कालीन शासन से झूठी प्रशंसा और झूठी कागजी मुद्रा पाने के लिये राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं।ऐसे ही कपूतों ने परतन्त्रता के लम्बे काल प्रस्तार में माँ भारती का मुंह काला किया है।प्रभात की नयी बयार चल निकली है अन्धकार की अभेद्य चादर भेद कर रश्मि रथ पर सवार राष्ट्रीय चेतना का भास्कर गतिमान हो चुका है।माटी का सम्पादक मण्डल इस दिशा में अग्रगामी पहल करेगा और असत्य के अम्बारों को अग्नि समर्पित करके उसकी भस्म से नयी मान्यताओं का संवर्धन संपोषण करेगा।हम चाहते हैं कि प्रत्येक पाठक यह मान कर चले कि अपने और अपने परिवार के प्रति उसका उत्तरदायित्व तभी पूरा माना जायेगा जब वह राष्ट्रीय चेतना के लिये निरन्तर समर्पित रहेगा और यदि आवश्यकता पड़े तो महत्तर हितों के लिये लघुत्तर हितों का परित्याग करेगा।ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य के विचारकों ,कवियों और सृजन कारों ने भारतीय दर्शन को सदैव ही हीन भाव से देखा हो कवि वर्ड्सवर्थ जब यह लिखता है।
"trailing clouds of glory ,do we come from God
That is our home or our birth is but a sleep and a forgetting."
तो वह भारतीय जीवन दर्शन को ही अंग्रेजी स्वरों में ढाल रहा है या आधुनिक काल में जब T.S.Eliot यह लिखते हैं ।" Have measured my life in coffee spoon "तो वे एक तरीके से भारतीय दर्शन में अन्तर्निहित जीवन की उच्चतर भावभूमि की तलाश की बात ही करते हैं।अमेरिकन Emersonऔर Thoreau तो भारतीय दर्शन से अनुप्राणित ही हैं इतना होने पर भी अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान रखने वाला सामान्य भारतवासी भी विकलांग शिक्षा के कारण पाश्चात्य जीवन पद्धति अपनाने की गुलामी लेकर बड़ा होता है।उसे नहीं बताया जाता है कि हम पहनाव -उढ़ाव,खान-पान ,स्वागत -समारोह य अन्य सांसारिक रीति -रिवाजों के न जाने कितने विविधता भरे मार्गों से गुजर चुके हैं । हम कितनी बार कन्ठ लंगोट लगा चुके हैं ,कितनी बार सुत्थ्न पहिन चुके हैं और कितनी बार सुरा -सुन्दरी का अप्रतिबन्धित जीवन दर्शन जी चुके हैं।इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो भारत नहीं जानता और सच पूछो तो यह भारत का फेका हुआ जीर्ण -शीर्ण आवरण तन्त्र या केन्चुल है जो दुनिया आभूषण समझ कर पहिन रही है।हाँ कुछ है ऐसा जो भारत का,भारतीय जीवन दर्शन का ,भारतीय आचारसंहिता का और भारतीय अस्मिता का प्राण तत्व है।और जिसे संसार के कुछ अत्यन्त विशिष्ट आत्म सम्पन्न व्यक्ति ही समझ पाये हैं यह है भारत की जल में पलकर भी कमल जैसी निर्लिप्त रहने की क्षमता। यह है भारत की निष्काम समर्पण भावना -"त्वमैव वस्तु गोविन्दम तुभ्य मेव समर्पये "
माटी किसी भी एकांगी दर्शन में विश्वाश नहीं करती।एक समन्वित जीवन पद्धति ,अनेकान्त दर्शन से अनुप्रेरित जीवन द्रष्टि और ब्रम्हांडीय विस्तार की प्राणवत्ता उसका आधार है।हर धर्म के मूल में मानव कल्याण की भावना सन्निहित है \सर्वे भवन्तु सुखिन :सर्वे सन्तु निरामय :।सुदूर अतीत से गूँज कर आता यह स्वर हमें जकझोर देता ,अनुप्रेरित करता है और प्राणवान बनाता है -तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्यो माँ अम्र्तम गमयेत
आइये महाकवि मिल्टन के इन शब्दों के साथ हम अपनी बात समाप्त करें ।
" Illumine what is dark in me Raise and support to the heigth of that argument so that I may justify the ways of God to man "
माटी संस्क्रति उत्थान के इस श्रम साध्य मार्ग पर चल निकली है ।हम आपके सहयोग की आकांक्षा करते हैं और महाकवि गुरु रवीन्द्र का यह अमर सन्देश हमारे पास है "यदि तोर डाक शुने ,केऊ न आसे।तबे तुम एकला चलो ,एकला चलो ,एकला चलो रे ।।" तो आइये इस चिरपरचित शेर को एक बार फिर दोहरावें "हम अकेले ही चले थे जानिबे मंजिल मगर .हमसफ़र मिलते गये और कारवाँ बनता गया ।"