मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

साथ

आज जब देखता हु ,उनको मुझे न पहचानते हुए .
  याद आती  है ,उनकी वो हसी , वो मुस्कराहट।

वो वादे ,जो दोनों ने किये ,जीवन भर के लिए।

क्या यही तक था मेरा उसका साथ ,
वो साथ जो आजीवन का था ?
क्या गलती की मैंने, कौन सी मजबूरी थी उसकी ,
की बेवफा न होते हुए भी , वो वफ़ा न निभा सके .

ख़ामोशी सी ओढ़ लेते है, वो मुझे देखते ही .
और चुपके से निकल जाते है सामने से ,
नज़ारे चुरा के ,
जैसे हमें वो जानते ही नहीं।

न वो लज्जा है पहले सी , बस नजरो के बंद दरवाजे ही दिखते है।
कुछ तो बोले वो ,   या नज़ारे ही मिलाये ,
हम भी चुप है     और    वो भी जैसे हो पराये .

मन की बाते दोनों के मन में ही दफ़न हो जाती है ,
बस एक मुलाकात  होती है ,जो मिलना कम बिछड़ना ज्यादा है।

                                                                 "अमन मिश्र "
                           

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