रविवार, 27 जनवरी 2013

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

दुनिया  का ये दस्तूर पुराना है ,
खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

राहे हजार मिलेंगी ,मंजिल की तरफ .
बस सही राह चुन के मंजिल को पाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

चाहत तो यहाँ सब माँगते ही रहते ,
किसी की चाहत को खुद के लिए पाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

कहेंगे लाखो तुझे दुनिया पे एक बोझ ,
उन लाख को ,एक  नयी राह दिखाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

न मिलेगी तुझे अपने दर्द की दावा इस दुनिया में ,
ज़माने का गम बस खुद से मिटाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .

रोना है तुझे बहुतो  के  जाने के बाद ,
सब याद करे तुझको ,कुछ ऐसा कर दिखाना है .

खोना है बहुत कुछ ,कुछ खो के पाना है .  .
                                                     "अमन मिश्र"  

note : चित्र गूगल से साभार

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

कुण्ठाओं की जननी --नक़ल

                                              यह सामान्य ज्ञान की बात है कि मौखिक भाषा ही ध्वनियों का प्रारम्भिक अर्थवान स्वरुप रही होगी । एक बहुत लम्बे अंतराल के बाद जिसका प्रस्तार सम्भवत : शत सहस्रों वर्ष रहा हो -मानव जाति  नें रेखाओं , चित्रों और परिवर्तित होने वाले प्रकृति रूपों को आधार बनाकर लिपियों (लिपि ) को विकसित किया । मौखिक ज्ञान की स्मृति भण्डारण प्रक्रिया अक्षर बद्ध होकर संग्रहित होने लगी। व्यक्ति के जीवन -मरण से मुक्त होकर अक्षर बद्ध -ज्ञान भविष्य की पीढ़ियों के लिए धरोहर बनने लगा। गड़नान्क और शून्य की खोज उसे सितारों की ओर उड़ा ले चली। पिछली पीढ़ी का संग्रहित अनुभव जन्य ज्ञान और अंतर द्रष्टि से सचेती मान्यतायें अगली पीढी के लिये प्रगति- सोपान  बन गयीं । चल पड़ा मानव सभ्यता का सार्थवाह अबूझ प्रकृति के रहस्य-मय रूपों में छिपी ज्ञान मणियों की तलाश में। और यह तलाश चाँद और मंगल से गुजरती हुयी सौर मंडल के पार नीहारिका वीथियों में आज भी गतिशील है। ज्ञानी होने की सनद अब द्वार -पंडितों की मौखिक परीक्षा में सिमटनें से आनाकानी करने लगी। उसे एक विस्तृत फलक की आवश्यकता जान पड़ी और परीक्षा का लिखित रूप संवर्धित होने लगा। जानकारी के असीम प्रस्तार नें परीक्षा के मौखिक स्वरूप को आनुषांगिक बना दिया। विशेष रूप से संयोजित तर्क प्रयोग और प्रमाण पर आधारित ज्ञान नें एक उपसर्ग और जोड़कर विज्ञान का बाना धारण किया। पर विज्ञान का अपार फैलाव ने लिखित परीक्षा  के माध्यम से ही अपने साधकों की श्रेष्ठता -अश्रेष्ठता निश्चित करनें का निर्णय किया और व्यवहारिक प्रयोगशालीय परीक्षा वहां भी आनुषांगिक होकर रह गयी। अब इस लिखित परीक्षा से छुटकारा कहाँ ? प्रारम्भ में हमने इसे सहज स्वीकृति से कन्धों पर उठा लिया। अब यह पुरातन बोझ सिन्दबाद के बुड्ढे की भाँती हमारा गला जकड़े पड़ा है। शायद मानव -प्रकृति की पहचान में हमसे कहीं भूल हो गयी है। या ज्ञान और परीक्षा का समीकरण खण्डित हो गया है। सनद लक्ष्य बन गयी है। ज्ञान कूकुर की भाँती दुत्कारा जा रहा है। भारत की कुछ विशिष्ट  संस्थाओं को छोड़ दें तो यह कहा जा सकता है कि नक़ल भीडतंत्र का बहुमत बटोर चुकी है। बहुरूपिये इसका संचालन कर रहें हैं और राष्ट्रहन्ता इसको संवर्धन दे रहें हैं। आप मुझसे सहमत हों -यह माँग मैं नहीं करता। पर मुझे अपने व्यक्तिगत अनुभव के प्रति ईमानदार होने का हक़ तो दीजिये। यह कहना शायद समीचीन न हो कि मर्ज अब लाइलाज हो चला है पर अभी तक के सारे नुस्खे बेअसर ही साबित हुए हैं।दरअसल लिखित परीक्षाओं  की सार्थकता सम्बन्धी भ्रमात्मक अवधारणाओं की धुंध हमारी दूरगामी द्रष्टि अवरुद्ध कर रही है।लिखित परीक्षाओं की उच्च -स्तरीय सफलता को हम परीक्षार्थी के संभावित विकास से अनिवार्य रूप से जोड़ चुकें हैं और यहीं से त्रासदी का लम्बा सिलसिला शुरू होता है ।
                                           विकास की  सामान्य परिभाषा सड़कें ,बिजली ,पानी ,संचार ,यंत्रिकी ,विश्वशनीय स्वास्थ्य सेवांये और प्रदूषण मुक्त पर्यावरण के साथ जुडी हुई हैं ।प्रारम्भिक शिक्षा भी हमारा संवैधानिक दायित्व है ।नोबेल लारयेट ,अमर्त्य सेन शिक्षा को गरीबी उन्मूलन की दिशा में अन्य योजनाओं से कहीं और अधिक प्रभावी मानते हैं।प्रारम्भिक शिक्षा पार कर आगे चलने वाला प्रत्येक विद्यार्थीकुछ अपवादों को छोड़करविकास की बहु प्रचारित सुविधाओं का सुख भोगी बनना चाहता है ।उसके पास विकास को अन्तर -परिमार्जन या मानवीय मूल्यों से जोड़कर देखनें की द्रष्टि ही नहीं होती। द्रष्टि हो तो तब जब उसका परिवेश -घर ,स्कूल ,परिजन ,पुरजन उसे जाने अनजाने उस मानवीय अस्मिता से अवगत करा सके जो मानव जाति को सहस्त्रों वर्षों की कठिन साधना के फलस्वरूप सांस्कृतिक विरासत के रूप में मिली है ।

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

ज्ञान ही शक्ति है

  आंग्ल भाषा का यह त्रिशब्दी कथन " Knowledge is power" आज के युग में जितना सार्थक है उतना शायद मानव इतिहास के किसी काल में नहीं रहा है। ज्ञान -विज्ञान के अभूतपूर्व प्रचार -प्रसार के कारण ज्ञान -विज्ञान का साहित्य अब अध्ययन  -अध्यापन की द्रष्टि से प्राथमिकता  पा चुका है। ललित साहित्य अब बहुत कुछ फिल्मों ,टी .वी .,शोज ,ग्लैमर ,एडवरटाइजमेन्ट्स  और हल्के -फुल्के हास -परिहास की क्षणिकाओं में सिमटता जा रहा है। मेरा मानना है कि ललित साहित्य और ज्ञान -विज्ञान के साहित्य के बीच कोई ऐसी विभाजक रेखा नहीं होनी चाहिये जो दोनों को एक दूसरे  से अलग कर दे। ललित साहित्य का सहारा लेकर ज्ञान -विज्ञान भारत के घर -घर ,गाँव -गाँव ,में अपनी पहुच बना सकता है। शुष्क तथ्यों को और जटिल सूत्रों को नीरसता का बोझ दबा देता है और वे सहज स्वीकृत नहीं पाते। आवश्यकता है ज्ञान -विज्ञान के ऐसे समर्थ अधिकारी विद्वानों की जो बोध -गम्य भाषा के द्वारा उदाहरणों , किस्सा -कहानियों और भारतीय परम्परागत धार्मिक विचारधाराओं से आज की नयी खोजों और विश्व स्वीकृत मूल्यों को जन मानस तक पंहुचा सके। मुझे लगता है कि विज्ञान को बालकों और किशोरों में मनोरंजक ढंग से पहुचाने के लिये विज्ञान की धारणाओं पर आधारित ललित साहित्य के सृजन की बहुत अधिक आवश्यकता है। इसे एक राष्ट्रीय चुनौती के रूप में स्वीकार करना होगा। पश्चिम के देशों में तथा जापान और चीन में भी विज्ञान पर आधारित प्रचुर ललित सामग्री उपलब्ध है पर हिन्दी भाषा में इस दिशा में समर्थ प्रयास देखने को नहीं मिल रहे हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हिन्दी भाषा- भाषी क्षेत्र में वैज्ञानिक सोच अभी जीवन के सहज धरातल पर उतर कर व्यवहार के रूप में नहीं ढल पायी है। कोई भी ज्ञान जब तक हमारी सोच का अविभाज्य अंग नहीं बनता तब तक उसे ललित साहित्य के माध्यम से व्यक्त करना काफी दुष्कर होता है।रोबोट को लेकर लिखी जाने वाली कहानियाँ ,वार्तायें और नाटकीय रचनायें प्राणवान नहीं बन पाती क्योंकि रोबोट का किताबी ज्ञान हमारे सामान्य व्यवहार में कहीं परिलक्षित नहीं होता। ऐसा इसलिये भी है क्योंकि अभी हम अत्याधुनिक वैज्ञानिक सुविधाओं से अपरिचित ही हैं।परिचय है भी तो केवल सतही किताबों ,द्रश्य चित्रों और अधकचरी चर्चाओं के माध्यम से। रोबोट की कौन  कहे अधकांश हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र के समर्थ शब्दकार अभी तक Email,Internet,और  broad Band जैसी आधुनिक संचार प्रणाली के सामान्य ज्ञान से भी वंचित हैं। इस दिशा में घर -घर तक दूर संचार प्रणाली के साधनों को पहुचाने का भारत सरकार का प्रयास निश्चय ही सराहनीय है। समाजशास्त्र के अध्येता आज एक स्वर से यह कहते सुने जाते हैं कि मानव की सोच उसके आस -पास के वातावरण और उसकी व्यक्तिगत तथा उसके समाज की साझा परिस्थितियों से बनती -बिगड़ती है। मनुष्य की सोच शून्य से गिरने वाला कोई ऐसा फल नहीं है जो उसे एकान्त में मिल जाय। Technocracy के आज के युग में हमें अपनी प्राचीन पूजा पद्धतियों को भी नवीन भेष -भूषा से सजा -बजा कर प्रस्तुत करना पड़ रहा है। महेश योगी . रवि शंकर , स्वामी रामदेव ,बापू आशाराम तथा भगवान अघोरेश्वर सभी अपनी साधना पद्धतियों को वैज्ञानिक आधार देने में प्रयासरत हैं और इसमें  उन्हें काफी सफलता मिली है । पाश्चात्य जगत भी उनकी खोजों के प्रति आश्वस्त दिखाई पड़ रहा है । अब गुफाओं के स्थान पर योग साधना के लिये Air Conditioned हाल चुने जाने लगे हैं ।और वन्य प्रान्तरों का एकान्त Hill Resorts में बदल चुका है।शरीर की सन्चालन प्रक्रिया के नाप -तौल के लिये हमनें आधुनिक मेडिकल इंस्ट्रूमेंट्स को अपना लिया है और ऐसा करना उचित भी है क्योकि विकास की गति सत्य -प्राप्ति की नवीन खोजों को स्वीकार कर लेने से ही संम्भव होती है । वैज्ञानिक चिन्तन हमारे रहन -सहन , खान -पान , रीति -रिवाज़ , उत्साह -समारोह और हमारी जीवन -म्रत्त्यु सम्बन्धी धारणाओं पर भी एक कल्याणकारी नजर डालनें में समर्थ है। बिना गहराई से जाँच किये सभी कुछ स्वीकार कर लेना हानिकारक हो सकता है पर बिना गहराई जाँच किये बहकावे में आकर किसी अच्छी प्रथा को छोड़ देना भी हानिकारक हो सकता है।इसलिए प्रज्ञा युक्त तर्क और संशोधन के लिए सहज मनोवृत्ति बनाकर ही हम अपनी परम्पराओं की उपादेयता की पहचान कर सकते हैं। जिस प्रकार सोच आकाश से नहीं गिरती वैसे ही परम्परायें भी किसी ईश्वरीय विधि -विधान से बनकर नहीं आतीं। विश्व के सभी श्रेष्ठ समाजशास्त्री आज इस बात पर सहमत हैं कि बीते कल में किसी मानव समाज के लिए जो उपयोगी था वह आज हानिकारक भी हो सकता है। प्रथाएँ , मान्यताएँ ,परम्परायें और यहाँ तक कि नैतिक अवधारणायें भी बहुत कुछ समय की दें होती हैं। सहस्त्रों वर्षों की विकास प्रक्रिया में मानव सभ्यता न जाने कितने टेढ़े -मेढ़े मार्गों से गुजर कर आयी है। हजारों लाखों मनुष्यों की नर -वालियाँ , हजारों लाखों नारियों का शरीर शोषण और हजारों लाखों धर्म मन्दिरों और संस्कृति स्मारकों का तहश -नहश मानव इतिहास का एक दुखद पहलू रहा है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि उजले पखवारे अधिक समय तक नहीं टिक पाये जबकि अन्धेरे का राज्य अटूट रूप से चलता रहा है। इस प्रकार की व्यवस्था में विशिष्ट भैगोलिक परिस्थितयों में और अपने समय के ऐतिहासिक सन्दर्भों में जीवन ,सम्पत्ति और मर्यादा की रक्षा के लिए नये -नये नीति विधान बनाये गए। अनेक आचरण पद्धतियाँ विकसित की गयीं और नर -नारी सम्बन्धों को नयी -नयी व्याख्याओं  में प्रस्तुत किया गया। यह ठीक है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अभी तक युद्ध की विश्व व्यापी विभीषका से हम  बचे हुए हैं पर छोटे -मोटे पचासों  युद्ध  तो दुनिया में होते ही रहें हैंऔर होते ही रहेंगे। भारत विभाजन की विभीषका नें लाखों पंजाबी घरों में नयी सोच का संचार किया क्योंकि अपनी प्रगति और स्थापना के लिए नए सामाजिक सम्बन्धों की आवश्यकता थी।लाखों भारतीय आज योरोप ,अमेरिका और विश्व के अन्य देशों में जाकर बस कर अपनी सोच में परिवर्तन लाने की आवश्यकता को माननें पर विवश हो रहे हैं।जैसे -जैसे हिन्दी भाषा -भाषी समाज में आर्थिक प्रगति का विस्तार होगा और जैसे -जैसे टेक्नोलाजी पर आधारित उनकी जीवन शैली विकसित होगी उनकी रचना धर्मिता में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जायेगा। हम अपने पुराने और श्रेष्ठ रचनाकारों का आदर करेंगे और अपने समय के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में लिखे गए उनके साहित्य के मूल्यों का सही आंकलन करेंगें पर हमें अपनी पीढ़ी और अपने युग के लिए नए मूल्यों की तलाश भी करनी होगी।किसी युग में बहु पत्नी प्रथा शायद समाज के लिये कल्याणकारी रही हो पर आज तो निश्चय ही यह विनाशकारी है। किसी युग में अबाध वंश ब्रद्धि शायद कल्याणकारी रही हो पर आज तो यह निश्चय  ही वांछनीय नहीं है । किसी युग में छुआ -छूत की प्रथा शायद सामाजिक सन्दर्भों में सार्थक रही हो पर आज तो वह निरर्थक बोझ ही है। किसी युग में अंग्रेजी का ज्ञान पश्चमी दासता का सूचक रहा हो पर आज  तो वह निश्चय ही ज्ञान -विज्ञान की प्रगति के लिए आवश्यक है। ऐसी ही अनेक धारणायें और मान्यतायें परिवर्तन की मांग करती हैं। अनावश्यक पशु बलि , अपढ़ ओझाओं और तान्त्रिकों में अन्ध विश्वास , प्रकृति के स्वाभाविक कार्यक्रम से होने वाले परिवर्तनों को किसी विशिष्ट मानव समूह के कर्मों का फल बताना यह सभी बातें वैज्ञानिक चिन्तन पर ही अपना खरा -खोटापन साबित कर सकती हैं। पुरातन संस्कृति को भी नयी शक्ति पाने के लिये नये आसवों की आवश्यकता है। माटी नूतन और पुरातन का आदर्श समन्वय चाहती है। घर के बड़े -बूढ़े विवेक पूर्ण मार्गदर्शन करते रहें और उनके बताये राह पर ओज भरी तरुणाई चलती रहे तभी किसी गृह का संचालन सफल माना जाता है। हन्दी भाषा -भाषी क्षेत्रों के लिये भी अपने प्राचीन और कालजयी मूल्यों की अगुवाई में नवीन नैतिक अवधारणाओं को शामिल करना होगा तभी निकट भविष्य में प्रगति की गाथा लिखी जाने लायक सफलता मिल सकेगी। हजारों वर्षों के लम्बे इतिहास में लाखों वर्ग मील फैले भारतीय महाद्वीप में बहुत कुछ ऐसा भी है जो शायद अब निरर्थक हो गया है। हम उसे बटोर कर एक कोने में रख देंगे। जो नयी विचार सामग्री हमें आज जीवन यापन के लिये आवश्यक लग रही है उसे हम स्वीकार कर एकत्रित करेंगें। पर समय परिवर्तन शील है। कोने में बटोर कर रखे हुये साज सामान में से कौन सी चीज कल हमारे काम आ जाये ऐसा ध्यान भी हमें रखना होगा। इसी प्रकार आज के सहेजे मूल्यों में आने वाले दिनों में कौन सा मूल्य निरर्थक हो जाय ऐसा मानने के लिए भी हमें तैयार रहना होगा।
                                                यूनानी साहित्य की बहुचर्चित गाथाओं में सिसीफस की कहानी से आप परिचित ही होंगे।सिसीफस पहाड़ की चोटी पर बार -बार पत्थर के एक विशाल टुकड़े को गोलाकार बनाकर टिकाना चाहता था। आकार देनें में तो उसे सफलता मिल जाती थी पर ज्यों ही वह गोलाकार विशाल प्रस्तर की निर्मित चोटी पर टिकाता वह वर्तुल आकार लुढककर नीचे पहुँच जाता ।  जीवन भर सिसीफस इस कठिन कार्य में लगा रहा पर हर बार उसका यह प्रयास लुढ़कन की राहों से चलकर तलहटी पर पहुँच गया। आज के युग में सिसीफस को विशालकाय वर्तुल प्रस्तर खण्ड को टेक्नोलोजी की मदद से उत्तुंग शिखर पर टिका देने की सफलता मिल जाती। बीते कल की कल्पना उड़ाने आज का ठोस सत्य बन रही हैं। माटी ईश्वर की अपार कृपा में विश्वाश रखती है और माटी परिवार प्रभु से माँगता है कि उसके द्वारा तराशी गयी शब्द आकृतियाँ आदर्श की ऊँचाइयों पर स्थायी रूप से टिकी रहें।'माटी परिवार 'सम्पूर्ण हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र को अपनी बाहों में समेट  ले।

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन -विहंगावलोकन


सामान्यत : " इतिहास " शब्द से राजनीतिक व सांस्कृतिक  इतिहास का ही बोध होता है ,किन्तु वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से सम्बन्ध न हो । अत : साहित्य भी इतिहास से असम्बद्ध नहीं है ।साहित्य के इतिहास में हम प्राक्रतिक घटनाओं व मानवीय क्रिया -कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक द्रष्टि से करतें हैं ।यद्यपि इतिहास के अन्य क्षेत्रों की तुलना में साहित्य का इतिहास-दर्शन एवं उसकी पद्धति भी अब भी बहुत पिछड़ी हुई है ,किन्तु फिर भी समय -समय पर इस प्रकार के अनेक प्रयास हुए हैं जिनका लक्ष्य साहित्येतिहास को भी सामन्य इतिहास के स्तर पर पहुचाने का रहा है ।
हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की परम्परा का आरम्भ उन्नीसवीं सदी से माना जाता है ।यद्यपि उन्नीसवीं सदी से पूर्व विभिन्न कवियों और लेखकों द्वारा अनेक ऐसे ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी जिनमें हिन्दी के विभिन्न कवियों के जीवन- वृत्त एवं कृतियों का परिचय दिया गया है ,जैसे -चौरासी वैश्वन की वार्ता .दो सौ बावन वैश्वन की वार्ता ,भक्त माल ,कवि माला ,आदि -आदि किन्तु ,इनमें काल -क्रम ,सन -संवत आदि का अभाव होने के कारण इन्हें इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती । वस्तुत :अब तक की जानकारी के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास -लेखन का सबसे पहला प्रयास एक फ्रेच विद्वान गासां द तासी का ही समझा जाता है जिन्होनें अपनें ग्रन्थ में हिन्दी और उर्दू के अनेक कवियों का विवरण वर्ण -क्रमानुसार दिया है।इसका प्रथम भाग 1839 ई o में तथा द्वितीय 1847 ई o में प्रकाशित हुआ था। 1871 ई o में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ ,जिसमें इस ग्रन्थ को तीन खण्डों में विभक्त करते हुए पर्याप्त संशोधन -परिवर्तन किया गया है । इस ग्रन्थ का महत्त्व केवल इसी द्रष्टि से है कि इसमें सर्व प्रथम हिन्दी -काब्य का इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है तथा कवियों के रचना काल का भी निर्देश दिया गया है ।अन्यथा कवियों को काल -क्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्णक्रम से प्रस्तुत करना ,काल -विभाजन-एवं युगीन प्रवृत्तियों के विवेचन का कोई प्रयास न करना ,हिन्दी के कवियों में इतर भाषाओं के कवियों को घुला -मिला देना आदि ऐसी त्रुटियाँ हैं जिनके कारण इसे "इतिहास "मानने में संकोच होता है ।फिर भी ,उनके ग्रन्थ में अनेक त्रुटियों व न्यूनताओं के होते हुए भी हम उन्हें हिन्दी -साहित्येतिहास -लेखन की परम्परा में ,उसके प्रवर्तक के रूप में ,गौरव पूर्ण स्थान देना उचित समझते हैं ।
तासी की परम्परा को आगे बढ़ाने का श्रेय शिवसिंह सेंगर को है ,जिन्होंनें "शिव सिंह सरोज "(1883)में लगभग एक सहस्त्र भाषा-कवियों का जीवन -चरित्र उनकी कविताओं के उदाहरण सहित प्रस्तुत करनें का प्रयास किया है ।कवियों के जन्म काल ,रचना काल आदि के संकेत भी दिये गये हैं ,यह दूसरी बात है कि वे बहुत विश्वशनीय नहीं हैं ।इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ का भी महत्त्व अधिक नहीं हैं ,किन्तु फिर भी इसमें उस समय तक उपलब्ध हिन्दी -कविता सम्बन्धी ज्ञान को संकलित कर दिया गया है ,जिससे परवर्ती इतिहासकार लाभ उठा सकते हैं -इसी द्रष्टि से इसका महत्त्व है ।
सन 1888 में ऐशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में जार्ज ग्रियर्सन द्वारा रचित 'The Modern vernacular of Hindustan' का प्रकाशन हुआ ,जो नाम से इतिहास न होते हुए भी सच्चे अर्थों में हिन्दी -साहित्य का पहला इतिहास कहा जा सकता है ।इस ग्रन्थ के अन्तर्गत ग्रियर्सन नें हिन्दी -साहित्य का भाषा की द्रष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए स्पष्ट किया है कि इसमें न तो संस्कृत -प्राक्रत को शामिल किया जा सकता है और न ही अरबी -फारसी -मिश्रित उर्दू को ।ग्रन्थ को काल खण्डों में विभक्त किया गया है तथा प्रत्येक अध्याय काल विशेष का सूचक है।प्रत्येक काल के गौड़ कवियों का अध्याय विशेष के अंन्त में उल्लेख किया गया है।विभिन्न युगों की काब्य प्रवृत्तियों की व्याख्या करते हुए उनसे सम्बधित सांस्कृतिक परिस्थतियों और प्रेरणा -स्रोतों के भी उद्दघाटन का प्रयास उनके द्वारा हुआ है ।
मिश्र बन्धुओं द्वारा रचित 'मिश्र बन्धु 'चार भागों में विभक्त है ,जिसके प्रथम तीन भाग 1913 ई o में प्रकाशित हुआ।इसे (ग्रन्थ को )परिपूर्ण एवं सुव्यवस्थित बनाने के लिए उन्होंनें इसमें लगभग पाँच हजार कवियों को स्थान दिया है तथा ग्रन्थ को आठ से भी अधिक काल खण्डों में विभक्त किया है ।इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें कवियों के विवरणों के साथ -साथ साहित्य के विविध अंगों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है तथा अनेक अज्ञात कवियों को प्रकाश में लाते हुए उनके साहित्यिक महत्त्व को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।आधुनिक समीक्षा- द्रष्टि से यह ग्रन्थ भले ही बहुत सन्तोष जनक न हो ,किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इतिहास लेखन की परम्परा को आगे बढ़ाने में इसका महत्त्व पूर्ण योगदान है |
हिन्दी साहित्येतिहास की परम्परा में सर्वोच्च स्थान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास '(1929)को प्राप्त है ,जो मूलत :नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'हिन्दी शब्द सागर 'की भूमिका के रूप में लिखा गया था तथा जिसे आगे परिवर्धित एवं विस्तृत करके स्वतन्त्र पुस्तक का रूप दिया गया\ इस ग्रन्थ में आचार्य शुक्ल नें साहित्येतिहास के प्रति एक निश्चित व सुस्पष्ट द्रष्टिकोण का परिचय देते हुये युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में साहित्य के विकास क्रम के व्यवस्था करनें का प्रयास किया इस द्रष्टि से कहा जा सकता है कि उन्होंनें साहित्येतिहास को विकासवाद और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का परिचय दिया।साथ ही उन्होंनें इतिहास के मूल विषय को आरम्भ करनें से पूर्व ही काल -विभाग के अन्तर्गत हिन्दी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार सुस्पष्ट काल -खण्डों में विभक्त करके अपनी योजना को एक ऐसे निश्चित रूप में प्रस्तुत कर दिया कि जिसमें पाठक के मन में शँका और सन्देह के लिये कोई स्थान नही रह जाता । यह दूसरी बात है कि नवोपलब्ध तथ्यों और निष्कर्षों के अनुसार अब यह काल विभाजन त्रुटि पूर्ण सिद्ध हो गया है ,किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अपनी अति सरलता व स्पष्टता के कारण यह आज भी बहुप्रचलित और बहुमान्य है । इस प्रकार, हम देखते हैं कि हिन्दी -साहित्य -लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनका इतिहास ही कदाचित अपने विषय का पहला ग्रन्थ है जिसमें अत्यन्त सूक्ष्म एवम व्यापक द्रष्टि ,विकसित द्रष्टिकोण ,स्पष्ट विवेचन -विश्लेष्ण व प्रामाणिक निष्कर्षों का सन्निवेश मिलता है। इतिहास लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का महत्व सदा अक्षुण रहेगा ,इसमें कोई सन्देह नहीं।
आचार्य शुक्ल के इतिहास -लेखन के लगभग एक दशाब्दी के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस क्षेत्र में अवतरित हुए। उनकी 'हिन्दीसाहित्य की भूमिका ' क्रम और पद्धति की द्रष्टि से इतिहास के रूप में प्रस्तुत नहीं है ,किन्तु उसमें प्रस्तुत विभिन्न स्वतन्त्र लेखों में कुछ ऐसे तथ्यों और निष्कर्षों का प्रतिपादन किया गया है जो हिन्दी -साहित्य के इतिहास -लेखन के लिये नयी द्रष्टि ,नयी सामग्री और नयी व्याख्या प्रदान करते हैं\ जहाँ आचार्य शुक्ल की ऐतिहासिक द्रष्टि युग की परिस्थितियों को प्रमुखता प्रदान करती है ,वहाँ आचार्य द्विवेदी नें परम्परा का महत्व प्रतिष्ठित करते हुए उन धारणाओं को खण्डित किया जो युगीन प्रभाव के एकांगी द्रष्टिकोण पर आधारित थीं ।'हिन्दी साहित्य की भूमिका के अनन्तर आचार्य द्विवेदी की इतिहास -सम्बन्धी कुछ और रचनायें भी प्रकाशित हुई। हिन्दी साहित्य उद्दभव और विकास ,हिन्दी साहित्य का आदि काल आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास की -विशेषत : मध्य कालीन काब्य के स्रोतों व पूर्व -परम्पराओं के अनुसन्धान तथा उनकी अधिक सहानुभूतिपूर्ण व यथा तथ्य व्याख्या करने की द्रष्टि से आचार्य द्विवेदी का योगदान अप्रतिम है।
आचार्य द्विवेदी के ही साथ -साथ इस क्षेत्र में अवतरित होने वाले एक अन्य विद्वान डा o राम कुमार वर्मा हैं ,जिनका 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ' सन 1938 में प्रकाशित हुआ था।इसमें 693 ई o से 1693 ई o तक की कालाविधि को ही लिया गया है।सम्पूर्ण ग्रन्थ को सात प्रकरणों में विभक्त करते हुए सामान्यत : आचार्य शुक्ल के ही वर्गीकरण का अनुसरण किया गया है।डा o वर्मा ने स्वयम्भू को ,जो कि अपभ्रंश के सबसे पहले कवि हैं ,हिन्दी का प्रथम कवि माना है और यही कारण है कि उन्होंने हिन्दी -साहित्य का आरम्भ 693 ई o से स्वीकार किया है ।ऐतिहासिक व्याख्या की द्रष्टि से यह इतिहास आचार्य शुक्ल के गुण -दोषों का ही विस्तार है ,कवियों के मूल्याँकन में अवश्य लेखक नें अधिक सह्रदयता और कलात्मकता का परिचय दिया है ।अनेक कवियों के काव्य-सौन्दर्य का आख्यान करते समय लेखक की लेखनी काव्यमय हो उठी है ,जो कि डा o वर्मा के कवि -पक्ष का संकेत देती है।शैली की इसी सरसता व प्रवाहपूर्णता के कारण उनका इतिहास पर्याप्त लोकप्रिय हुआ है।
विभिन्न विद्वानों के सामूहिक सहयोग के आधार पर लिखित इतिहास -ग्रन्थों में 'हिन्दी -साहित्य 'भी उल्लेखनीय है ,जिसका सम्पादन डा o धीरेन्द्र वर्मा ने किया है।इसमें सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य को तीन कालों -आदि काल ,मध्य काल ,एवं आधुनिक काल -में विभक्त करते हुए प्रत्येक काल की काब्य -परम्पराओं का विवरण अविछिन्न रूप से प्रस्तुत किया गया है। कुछ दोषों के कारण इस ग्रन्थ की एक रूपता ,अन्विति एव संश्लेषण का अभाव परिलक्षित होता है ,फिर भी ,हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परम्परा में इसका विशिष्ट स्थान है।
उपर्युक्त इतिहास -ग्रंथों के अतिरिक्त भी अनेक -शोध प्रबन्ध और समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखे गए हैं जो हिन्दी साहित्य के सम्पूर्ण इतिहास को तो नहीं ,किन्तु उसके किसी एक पक्ष ,अंग या काल को नूतन ऐतिहासिक द्रष्टि और नयी वस्तु प्रदान करते हैं ।ऐसे शोध- प्रबन्ध या ग्रन्थ हैं -डा o भगीरथ मिश्र का हिन्दी काव्य शास्त्र का इतिहास ,डा o नगेन्द्र की रीतिकाव्य की भूमिका ,श्री विश्व नाथ प्रसाद मिश्र का हिन्दी साहित्य का अतीत ,डा o टीकम सिंह का हिन्दी वीर काव्य ,डा o लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय का आधुनिक काल सम्बन्धी शोध प्रबन्ध आदि ऐसे शताधिक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं जिनके द्वारा हिन्दी साहित्य के विभिन्न काल खण्डों ,काव्य रूपों ,काव्य धाराओं ,उपभाषाओं के साहित्य आदि पर प्रकाश पड़ता है ।अत :आवश्यकता इस बात की है कि इन शोध -प्रबन्धों में उपलब्ध नूतन निष्कर्षों के आधार पर अद्यतन सामग्री का उपयोग करते हुए नए सिरे से हिन्दी -साहित्य का इतिहास लिखा जाये । ऐसा करने के लिए आचार्य शुक्ल द्वारा स्थापित ढाँचे में आमूल -चूल परिवर्तन करना पड़ेगा क्योंकि वह उस सामग्री पर आधारित है जो आज से पैसठ सत्तर वर्ष पूर्व उपलब्ध थी ,जबकि इस बीच बहुत सी नयी सामग्री प्रकाश में आ गयी है ।
इस प्रकार गासां द तासी से लेकर अब तक की परम्परा के संक्षिप्त सर्वक्षण से यह भली भांति स्पष्ट हो जाता है कि लगभग एक शताब्दी तक की ही अवधि में हिन्दी -साहित्य का इतिहास लेखन ,अनेक द्रष्टियों ,रूपों और पद्धतियों का आकलन और समन्वय करता हुआ संतोषजनक प्रगति कर पाया है। इतना ही नहीं कि हमारे लेखकों नें विश्व -इतिहास -दर्शन के बहुमान्य सिद्धान्तों और प्रयोगों को अंगीकृत किया है ,अपितु उन्होंने ऐसे नए सिद्धान्त भी प्रस्तुत किये हैं जिनका सम्यक मूल्याँकन होने पर अन्य भाषाओं के इतिहासकार भी उनका अनुसरण कर सकते हैं ।
                                                                        प्रस्तुति गिरीश त्रिपाठी  

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

समस्त ब्लॉगर परिवार को मेरी तरफ से नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं . आशा है की नव वर्ष नए उत्साह का संचार करे और हमें अच्छे मार्ग पे आंगे बढने के लिए प्रेरित करे.........