सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

    क्षीरेश्वर के आँचल में

         चिदानन्द ढूढिया के साथ लक्ष्यहीन भटकने का मैं भी आदि हो गया हूँ । चिदानन्द जी तो चिर अन्वेषक हैं और चिर नवीनता की तलाश करते हैं तभी तो उन्होंने अपने नाम के साथ ढूढ़िया  जोड़ रखा है । और मैं  उनका  साथ देकर भी जहाँ कहीं भी पहुँचता हूँ वहाँ पहुँच कर उस स्थान ,तीर्थ या प्रकृति स्थल के अतीत में झाँकनेँ की कोशिश करता हूँ । उस बार जब वे मुझे कानपुर  देहात जनपद में शिवराजपुर स्टेशन से उतार कर कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित खेरेश्वर मन्दिर में ले गये तो संध्या हो चुकी थी । यह तो कहिये कि खेरेश्वर में ढूढिया जी के कई मित्र पुजारियों की छोटी -मोटी धर्मशालायें हैं इसलिये वहाँ भोजन और विश्राम कर रात्रि काट लेनें का प्रबन्ध है । ऐसा न होता तो उस  देर शाम लौटनें की विकट समस्या खड़ी हो जाती । पर अच्छा ही रहा कि मैं उस रात को अकेले उस कमरे में सो गया जो मेरे लिये ढूढ़िया जी नें सुनिश्चित करवा दिया था । चिदानन्द जी अन्य किसी मित्र के परिवार सदस्य के रूप में मुझसे रात्रि भर के लिये विदा माँग कर चले गये ।
                                               मैं खेरेश्वर के मन्दिर में शिवलिंग पर गँगा जल की शीतलता देकर नतमस्तक होकर कमरे में विश्राम करने आया था । मन्दिर के पुजारी नें मुझे  बताया था कि खेरेश्वर का शुद्ध नाम क्षीरेश्वर है क्योंकि क्षीर यानि दूध की ही धार डाल कर यहाँ शिवलिंग को शीतलता प्रदान की जाती है । साथ ही उसनें यह भी बताया था कि प्रत्येक सुबह सूर्योदय से काफी पहले अचानक मन्दिर की घंटी बज उठती है न जाने कैसे मन्दिर का द्वार खुल जाता है । और कोई विशाल आकृति का छायापुरुष शिवलिंग को दूध से नहला जाता है । पुजारी नें कहा कई बार मैनें देखनें की कोशिश की है पर कोई अलौकिक कौंध मेरी आँखों को बन्द कर देती है । वह छाया वहाँ से पलक मारते ही लुप्त हो जाती है । उसनें कहा कि यहाँ के लोगों का ऐसा विश्वास  है कि अश्वत्थामा महाभारत काल से लेकर आज तक इस स्थान पर आते रहे हैं और शिवलिंग को दूध से स्नान कराते रहे हैं । मैंने आश्चर्य से पुजारी से पूछा था कि महाभारत काल को तो हजारों वर्ष हो गये फिर अश्वत्थामा अभी तक कैसे जीवित है ?तो उसनें कहा था ,"अरे आप इतना भी नहीं जानते । अश्वत्थामा अमर है । युद्ध की अन्तिम रात्रि को कृत वर्मा के साथ जाकर कैंम्प में सोये हुये द्रोपदी के पाँचों पुत्रों को भ्रम वश पाण्डव समझ कर ह्त्या कर दी गयी थी । अश्वत्थामा के शिवभक्त होने के कारण ही कैंम्प में पहरा दे रहे त्रिशूलधारी शिव नें उन्हें अन्दर जानें दिया था दण्ड के फलस्वरूप द्रोपदी के कहनें पर गाण्डीव धारी अर्जुन नें अश्वत्थामा को विवश कर द्रोपदी के समक्ष उपस्थित किया था । पर गुरु पुत्र होने के नाते चक्रधारी कृष्ण ने उसे निर्वासित कर पाण्डव साम्राज्य की सीमा से बाहर जाने का सुझाव दिया था । हाँ उसके माथे की गौरव मणि अवश्य निकाल ली गयी थी ताकि वह निस्तेज हो जाय । द्रोपदी नें भगवान श्री  कृष्ण से कहकर एक ऐसा वर दिला दिया था जो शाप से भी अधिक भयानक था । कृष्ण नें कहा था तू कभी मरेगा नहीं इसलिये ताकि युगों -युगों तक जीवित रहकर पश्चाताप की अग्नि में जलता रहे । तब अश्वत्थामा नें कृष्ण से यह याचना की थी कि जीवन से उसकी मुक्ति कैसे संभ्भव होगी । जो पाप उसके हाँथों हुआ था वह अन्जानें में हुआ था । दुर्योधन की मित्रता उसे दुर्योधन के शत्रु पाण्डवों को मार देने का सामरिक अधिकार तो देती थी पर पाण्डव पुत्र तो कुरुवंश की संपत्ति थे उन्हें मार कर वह आत्मग्लानि से जी  जी कर भी मरता रहा । देवकी नन्दन नें तब उसे यह कहकर आश्वस्त किया था कि वह किसी सुरम्य स्थल पर गंगा के किनारे किसी शिवमन्दिर में नित प्रातः भगवान शिव के लिंग को क्षीर से नहलाता रहे । जब कभी त्रिलोकेश्वर शिव सम्पूर्ण रूप से प्रसन्न हो जाएंगें उसी दिन तुझे शरीर के बन्धन से मुक्ति मिल जायेगी । :हजारों वर्ष बीत गये हैं  पर अश्वत्थामा का नित्य कर्म अभी भी उसी ढंग से चल रहा है । बताते हैं कि भगवान श्री कृष्ण नें यह भी कहा था कि धीरे -धीरे तुम्हारे माथे की मणि जिसका प्रकाश छीन लिया गया है फिर से ज्योतित हो जायेगी । और जब यह प्रकाश पूर्ण रूप से वापस हो जायेगा तो भगवान शिव तुम्हें देवलोक में जानें की अनुमति दे देंगें । पुजारी नें   आगे  कहा था कि शायद जो प्रकाश मेरी आँखों को चौंधिया देता है वह अश्वत्थामा के माथे की मणिका ही है । जान पड़ता है कि अब द्रोण पुत्र का देव लोक में जानें का समय आ गया है । मैनें कहा ,"मैं सुबह चार बजे से पहले ही तुम्हारे पास बाहर के कक्ष में आ जाऊँगा । मैं स्वयं देखना चाहता हूँ कि घंटियाँ अपने आप बज जाती है और दरवाजा अपनें आप खुल जाता है यह सब स्वाभाविक रूप से होता है या इसके पीछे कोई पुरुष योजना है । " पुजारी नें कहा था आप जैसे और भी कितनें अविश्वासी यहाँ आ चुके हैं और अन्त में महाकालेश्वर त्रिनेत्र भगवान शिव के प्रति शिवलिंग के सामनें दण्डवत लेटकर अपनें शंकालु स्वभाव के लिये क्षमाँ याचना कर चुके हैं । तुम आना ही चाहो तो कल सुबह आ जाना पर चार बजे से पहले पहले । तुम पास ही की धर्मशाला के ख़ास कमरे में तो हो । थोड़ी ही दूर तो है । मैं मन्दिर की बाहरी दालान में ही सोता हूँ । मैं अगली सुबह मन्दिर में गया या नहीं गया इस बात का उल्लेख करना यहॉं मुझे प्रासंगिक नहीं लगता । जिस बात का मैं  उल्लेख करना चाहता हूँ वह यह है कि उसी रात अपनें कमरे में मेरी द्रोण -पुत्र अश्वत्थामा से मुलाक़ात हो गयी ।
                                     हुआ यों कि मैं लगभग रात्रि 10 बजे अपनें कमरे में आकर तख़्त पर लेट गया । तख़्त पर  दरी बिछी थी और सिरहाने के लिये एक तकिया रखा हुआ था । थका मादा था ही पुजारी की बातों को मन ही मन तौलता हुआ मैं न जाने कब निद्रा की गोद  में चला गया । निद्रा गहरी होती चली गयी और मुझे लगा कि मैं सुबह होने के पहले ही उठ कर मन्दिर की ओर जा रहा हूँ । अचानक पास बहती गंगा में छप -छप की आवाज हुयी । लगा जैसे कोई 6.5 -7 फ़ीट का विशालकाय गौर वर्ण पुरूष ताम्बे के एक सुराहीदार लोटे में कुछ लिये हुये मन्दिर की ओर बढ़ रहा है । मैनें उसे देखते ही प्रणाम किया तो उसनें मुँह से कुछ कहा जिसे मैं समझ न सका । शायद कोई आशीष वचन कहे हों । नजदीक से मैनें देखा कि तांबे के पात्र में ऊपर तक दूध भरा हुआ था । उस महाकाय पुरुष की पूरी आकृति मुझे दिखायी नहीं पड रही थी पर उसके अत्यन्त गौर वर्ण की झलक अंधियारे में हल्की सी चमक पैदा कर रही थी । मैनें सोचा कि द्रोण पुत्र अश्वत्थामा से मन्दिर में मुलाक़ात करने के बजाय अगर रास्ते में ही बात -चीत कर ली जाय तो शायद मुझे कोई दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो सके । मैंने कहा , "हे महापुरुष ,क्या तुम अश्वत्थामा हो ?"उस महाकाया नें अपना सिर स्वीकृति में हिलाया । हो सकता है यह मेरा अनुमान मात्र ही हो । मैनें आगे कहा , "आप महाभारत काल से अब तक सहस्त्रों  वर्षो की जीवन यात्रा से अभी तक थके नहीं हैं ? उस महाआकृति नें वायु में कुछ ध्वनियाँ कीं उन ध्वनियों से मुझे यह लगा कि वे लौकिक संस्कृति की ध्वनियाँ हैं । पहले तो वह ध्वनियाँ मेरी समझ में नहीं आयीं फिर उनका अर्थ मेरे निकट स्पष्ट से स्पष्टतर होता चला गया ।
                              उस महाकाय धवल नर छाया नें कहा , " मृत्यु उसी का वरण करती है , हे जिज्ञासु , जिसे जीवित देखती है । मैं तो महाभारत के अन्तिम पटक्षेप के साथ ही मर चूका हूँ  । मेरी अमरता तो ब्राम्ह्णत्व की अमरता है  क्योकि ब्रम्ह कभी मरता नहीं है और ब्रम्ह और शिव का अनन्य सम्बन्ध है क्योंकि शिवलिंग के माध्यम से ही ब्रम्हा अपनी श्रष्टि योजना पूरी कर पाते हैं । लिंग पर  क्षीर  स्नान तो एक प्रतीतात्मक क्रिया है ।"
                                      लौकिक संस्कृत में कही हुयी उस महाकाया की बातों का मैं गलत सही हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ । अब चूँकि अश्वत्थामा जी नें मेरे प्रश्नों का उत्तर देना प्रारम्भ कर दिया था इसलिए मेरा साहस और बढ़ गया मैंने डरते हुये पूछा ," क्या मैं आपका स्पर्श कर सकता हूँ ?
                            छाया बोली ,"हे जिज्ञासु क्या तुम अपनी छाया का स्पर्श कर सकते हो चूँकि तुम हो इसलिये छाया है । अश्वत्थामा है तभी तो उसकी छाया तुम्हें दिख रही है । हे जिज्ञासु जीवन की थकान में एक मधुर मिठास होती है पर मृत्यु की थकान में अहसास शून्यता होती है । ये आश्चर्य में डालनें वाला विरोधाभाष है कि मानव जीवन की थकान मिटानें के लिये मरना चाहता है और मरनेँ की शून्यता भरने के लिये जीना चाहता है । मेरी त्रासदी देखो जिज्ञासु मैं न मर रहा हूँ और  न जी रहा हूँ । मैं शिवलिंग को नित्यप्रति क्षीर स्नान कराता हूँ कि वे जन्म और मृत्य के अन्तराल में फंसे मेरे निष्क्रिय जीवन को या तो फिर किसी महाभारत में लगावें या फिर मेरे मित्र दुर्योधन की भांति मुझे भी चिर निद्रा में सुला दें । पर मैं गुरु द्रोण का पुत्र हूँ । गुरु पुत्र तो हूँ ही साथ ही मैं ब्राम्हण पुत्र भी हूँ । परम्परागत पाये हुये इन दोनों मर्यादाओं का बोझ मुझे उठाना ही पडेगा । हे जिज्ञासु तुम नहीं होगे तब अगली पीढ़ी के खोजी इसी प्रकार के प्रश्नों के उत्तरों की तलाश करते रहेंगें । यह पुजारी नहीं होगा तो इसकी अगली पीढ़ियां और फिर अगली पीढ़ियां निरन्तर मेरे द्वारा शिवलिंग के क्षीर स्नान को कराये जाने वालों को देखते रहेंगें । हे जिज्ञासु तुम जानते हो परम्परा किसे कहते हैं । अब मैं घबडाया । अभी तक मैं प्रश्न करता था पर अब प्रश्न मुझसे किया गया । मैनें अपनी सामान्य बुद्धि से उत्तर दिया परम्परा ,'"पुराने जमाने से चले  आने वाली सामाजिक रिवाजों और विश्वासों को मान कर चलनें की रीति को कहते हैं ।" अश्वत्थामा जी बोले हे जिज्ञासु पुराने से तुम क्या समझते हो । क्या पुरातन है और  क्या नूतन है ?हर नूतन भूत से आकर भविष्य की ओर जाता है तुम नूतन शब्द का इस्तेमाल क्या वर्तमान के सन्दर्भ में कर रहे हो मैंने सोचा कि कहाँ फंस गया ? द्रोण पुत्र अश्वत्थामा न केवल महारथी हैं बल्कि गुरुपुत्र हैं उनसे तर्क करना सामान्य मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर की बात है । अतः मैनें कहा , " हे ब्रम्ह श्रेष्ठ मैं काल की विशेष व्याख्या नहेीं जानता । आपके ज्ञान से लाभान्वित होना चाहूँगा । .... मुझे लगा कि वह लम्बी गौर आकृति कुछ मुस्करायी, धुंधलके में उजले कण से तिरते दिखायी दिये । हो सकता है यह मेरा भ्रम हो वह महाकाय आकृति बोली ," हे जिज्ञासु जीवन के सबसे बड़े रहस्य को मैंने तब जाना जब वासुदेव कृष्ण नें मुझे बचाकर अमर होने का बरदान दे दिया । अरे जिज्ञासु कौन्तेय को युद्ध में प्रवृत्त करने वाला वह वेणु वादक गोपाल निश्चय ही आदि श्रष्टि से लेकर आज तक के जीवन ज्ञानियों में सर्व श्रेष्ठ है वह स्वयं चाहता तो अमरत्व उसकी मुठ्ठी में था पर जब  जीवन की उपयोगिता समाप्त हो जाय तब उसे बनाये रखने की कामना पीब भरे वण को सहजनें जैसी है । यदि धनन्जय मुझे मृत्यु दण्ड दे देते तो महाभारत की कहानी अपनीं सम्पूर्ण समाप्ति को प्राप्त हो जाती । पर उस चक्रधारी नें  तो मुझे इतनी अपार पीड़ा दी है कि जो शूली की नोक पर लटकाये उस दण्डित को मिलती है जो नोक से  मरनेँ के पहले उतार लिया जाता है और फिर कुछ ठीक होने पर शूली की नोक पर टाँग दिया जाता है । मैनें कुछ और हिम्मत बाँधी सोचा कुछ पंडित ,कुछ अन्य अमर लोगों की गाथायें गाते रहते हैं । शुकदेव जी तो हैं हीं पर कुछ अल्हैड़ी आल्हा के अमर होने की बात भी कहते हैं । और फिर पवन पुत्र हनुमान की अमरता तो सब मान कर ही चलते हैं । मैनें कहा गुरुपुत्र आपनें मुझे एक नयी जीवन दृष्टि दी है । आप की इस बात को मैं गाँठ बाँधकर रखूँगा कि जब जीवन समाज के लिये उपयोगी न रह जाय तो उसको बनाये रखनें की कामना एक मानसिक अपंगता के अतिरिक्त और कुछ  नहीं है पर आप अब शायद जाना चाहते हैं क्योंकि शिवलिंग को दुग्ध स्नान करा देने की घड़ी आ गयी है । जाते -जाते इतना बताते जाइये कि क्या आपको उन अमर पुरुषों का सानिध्य मिल सका है जो भारत की जनश्रुतियों और पण्डितों की कथाओं में सदैव शरीर धारण किये रहेंगें । द्रोण पुत्र ने आवेश में हाथ उठाया । शायद बांया हाथ क्योंकि दाहिने में तो दुग्ध पात्र था । ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि बांये ओर का अन्धकार हटता हुआ सा दिखायी पड़ा । बोले हे जिज्ञासु एक बार तुम्हारे मित्र चिदानन्द ढूढिया नें भी मुझसे रात्रि के अन्तिम पहर में मुलाक़ात करके यही प्रश्न पूछा था मैनें जो उत्तर उसको दिया था वही उत्तर आज फिर दोहराता हूँ । हे जिज्ञासु जो जन्मा है उसे मारना ही चाहिये । नारी के उदर में निर्मित कोई भी मानव काया अमरत्व नहीं पाती । सौ वर्ष की आयु सीमा के आस -पास वह स्वयं ही जीवन की थकान मिटानें के लिये मृत्यु की कामना करता है तुम्हारे बताये हुये कथा कहानियों के अमर लोग यदि मेरी ही तरह नारी जन्मा होंगें तो जो अमरत्व वह भोग रहे हैं वह बरदान न होकर अभिशाप होगा । मुझे भी एक बार मर जाने दो और उन सबको भी । फिर नये सिरे से नये गुणों और युग मूल्यों से सुसज्जित कर युगानुकूल भेष -भूषा में मुझे जीवित कर दो ऐसा कर सकोगे तभी जीवन के नये महाभारत में हम धर्म पक्ष का साथ देंगें । पवन पुत्र तो सदा धर्म के साथ थे ही वे तो श्री राम के साथ रहेंगे ही।  शुकदेव जी तो सनातन सत्यों का प्रचार करते थे और करते ही रहेगें पर  मुझ अश्वत्थामा को तो एक बार श्री कृष्ण के साथ खड़ा होने दो अपनें पिता द्रोण की भूल का भी तो मुझे प्रायश्चित करना है यद्यपि उनकी भूल का मूल कारण पितामह के प्रति उनकी श्रद्धा थी । अच्छा जिज्ञासु यह मिलन मुझे काफी उत्तेजक लगा । फिर न जाने क्या हुआ हल्का सा प्रकाश छा गया शायद ऊषा का प्रकाश था । दरवाजे से बाहर किसी नें पुकारा अरे सोते ही रहोगे सुबह हो गयी । मेरी आँख खुल गयी जान गया चिदानन्द ढूढिया दरवाजे के बाहर खड़े हैं । यह उन्ही की पुकार थी । आखिर उन्होंने मुझे क्षीरेश्वर में आने वाले महाभारत के महापात्र द्रोण पुत्र अश्वत्थामा से मुलाक़ात करवा ही दी तो क्या मैं स्वप्न देख रहा था ?स्वयं अपनें ही व्यक्तित्व के ,अपनी ही चेतना के दो विभाजित अंगों के बात -चीत में लगा था । मनोविज्ञान ही इसका उत्तर दे सकेगा ।