रविवार, 30 जनवरी 2011

ऐसे विद्वानों से हम गवार अच्छे

"मै सच कहूँगा मगर फिर भी हार जाऊंगा
वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा"
आजकल ब्लाग जगत में छीछालेदारी परंपरा सुव्यवस्थित रूप में स्थापित हो रही है तमाम  विद्वान  लोग जोर शोर से इस बात में लगे है कि जो वह कहते है १०१ फीसदी सच है जो ना माने वह १०१ फीसदी गलत. इस प्रक्रिया में विद्वान पुरुष ऐसी ऐसी भाषा और तरीको क़ा इस्तेमाल करते है कि पानी भी शर्म से भाप बन कर उड़ जाए. और तो और उनके समर्थन में पता नहीं कौन कौन से सी ग्रेड के तथाकथित ब्लागर आ जाते है जिनके ब्लॉग यदि दूर से देखो तो भी उबकाई सी आती है. अगर यही रचनाधर्मिता है तो मै दूर से इसको नमस्कार करता हूँ .यही विद्वान है तो ऐसी विद्वता को आग लगे ऐसे विद्वानों से हम गवार ही अच्छे. सवाल यह है कि सूकर प्रव्रित्तिधारक ब्लागरो के लिए कोई पैमाना तैयार होगा या इन्हें ऐसे ही झेलना होगा.  ब्लाग एग्रीगेटर के लोग क्या इस पर ध्यान देगे. यह स्थिति ज्यादा दिन रही तो ब्लागजगत क़ा कबाड़ा तय समझिये. भाई सतीस सक्सेना जी आपके विधिक प्रस्ताव क़ा क्या हुआ?
क्या हम अभी भी मध्ययुगीन मानसिकता से नहीं उबार पाए है? क्या हम शिक्षित  और सभ्य कहलाने के हक़दार है? यदि यही सभ्यता और शिक्षा है तो मै भोलेपन और गंवारो की दुनिया में जाना पसंद करूंगा. रही बात ब्लागरी की तो
"साकिया उठ गए है तेरे मयखाने से
अब यहाँ  मेरा आना आदतन होगा"

                                          सादर
                                          पवन कुमार मिश्र  

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

बंधे पंचानन मरते हैं,स्यार स्वछंद बिचरते हैं, ....पार्षदजी

श्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’  एक स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, समाजसेवी एवं अध्यापक थे। भारत का झण्डागीत (विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा) की रचना के लिये वे सदा याद किये जायेंगे।

श्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के नरवल ग्राम में ९ सितम्बर १८९६ को मध्यवर्गीय वैश्य परिवार में हुआ। आपके पिता का नाम विश्वेश्वर प्रसाद और माता का नाम कौशल्या देवी था। प्रकृति ने उन्हें कविता करने की क्षमता सहज रूप में प्रदान की थी। जब श्यामलालजी पाँचवी कक्षा में थे तो यह कविता लिखी:-

परोपकारी पुरुष मुहिम में,पावन पद पाते देखे,
उनके सुन्दर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे।
श्यामलालजी ने मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन से ‘विशारद’ हो गये। आपकी रामायण पर अटूट श्रद्धा थी। १५ वर्ष की अवस्था में हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छन्दों में आपने रामकथा के बालकण्ड की रचना की। परन्तु पूरी पाण्डुलिपि पिताजी ने कुएं में फिकवा दी क्योंकि किसी ने उन्हें समझा दिया था कि कविता लिखने वाला दरिद्र होता है और अंग-भंग हो जाता है। इस घटना से बालक श्यामलाल के दिल को बडा़ आघात लगा और वे घर छोड़कर अयोध्या चले गये। वहाँ मौनी बाबा से दीक्षा लेकर राम भजन में तल्लीन हो गये। कुछ दिनों बाद जब पता चला तो कुछ लोग अयोध्या जाकर उन्हें वापस ले आये। श्यामलाल जी के दो विवाह हुए। दूसरी पत्नी से एकमात्र पुत्री की प्राप्ति हुई बाद में जिनका विवाह कानपुर के प्रसिद्ध समाजसेवी एडवोकेट श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त से हुआ।
श्यामलाल जी ने पहली नौकरी जिला परिषद के अध्यापक के रूप में की। परन्तु जब वहाँ तीन साल का बाण्ड भरने का सवाल आया तो आपने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद म्यूनिसपेलिटी के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। परन्तु वहाँ भी बाण्ड के सवाल पर आपने त्यागपत्र दे दिया।
अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी और साहित्यकार श्री प्रताप नारायण मिश्र के सानिध्य में आने पर श्यामलाल जी ने अध्यापन, पुस्तकालयाध्यक्ष और पत्रकारिता के विविध जनसेवा कार्य भी किये। पार्षद जी १९१६ से १९४७ तक पूर्णत: समर्पित कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। गणेशजी की प्रेरणा से आपने फतेहपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इस दौरान ‘नमक आन्दोलन’ तथा ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का प्रमुख संचालन तथा लगभग १९ वर्षों तक फतेहपुर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद के दायित्व का निर्वाह भी पार्षद जी ने किया। जिला परिषद कानपुर में भी वे १३ वर्षों तक रहे।
असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण पार्षदजी को रानी अशोधर के महल से २१ अगस्त,१९२१ को गिरफ्तार किया गया। जिला कलेक्टर द्वारा उन्हें दुर्दान्त क्रान्तिकारी घोषित करके केन्द्रीय कारागार आगरा भेज दिया गया। इसके बाद १९२४ में एक असामाजिक व्यक्ति पर व्यंग्य रचना के लिये आपके ऊपर ५०० रुपये का जुर्माना हुआ। १९३० में नमक आन्दोलन के सिलसिले में पुन: गिरफ्तार हुये और कानपुर जेल में रखे गये। पार्षदजी सतत्‌ स्वतंत्रता सेनानी रहे और १९३२ में तथा १९४२ में फरार रहे। १९४४ में आप पुन: गिरफ्तार हुये और जेल भेज दिये गये। इस तरह आठ बार में कुल छ: वर्षों तक राजनैतिक बंदी रहे।
स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के दौरान वे चोटी के राष्ट्रीय नेताओं - मोतीलाल नेहरू, महादेव देसाई, रामनरेश त्रिपाठी और अन्य नेताओं के संपर्क में आये।
स्वतंत्रता संघर्ष के साथ ही आपका कविता रचना का कार्य भी चलता रहा। वे इक दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे। १९२१ में आपने स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पांव रहने का व्रत लिया और उसे निभाया। गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से पार्षदजी ने ३-४ मार्च, १९२४ को , एक रात्रि में, भारत प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ की रचना की। पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में १३ अप्रैल, १९२४ को, ’जालियाँवाला बाग दिवस’ पर, फूलबाग, कानपुर में सार्वजनिक रूप से झण्डागीत का सर्वप्रथम सामूहिक गान हुआ।
पार्षद जी के बारे में अपने उद्‌गार व्यक्त करते हुये नेहरू जी ने कहा था-‘भले ही लोग पार्षद जी को नहीं जानते होंगे परन्तु समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित है।’
राजनीतिक कार्यों के अलावा पार्षदजी सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहे। उन्होंने दोसर वैश्य दोसर वैश्य इंटर कालेज( जो कि आज बिरहाना रोड पर गौरीदीन गंगाशंकर विद्यालय के नाम से जाना जाता है) एवं अनाथालय,बालिका विद्यालय,गणेश सेवाश्रम,गणेश विद्यापीठ,दोसर वैश्य महासभा ,वैश्य पत्र समिति आदि की स्थापना एवं संचालन किया। इसके अलावा स्त्री शिक्षा व दहेज विरोध में आपने सक्रिय योगदान किया। आपने विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में सक्रिय योगदान किया।पार्षदजी ने वैश्य पत्रिका का जीवन भर संपादन किया।
रामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ था।वे श्रेष्ठ ‘मानस मर्मज्ञ’ तथा प्रख्यात रामायणी भी थे । रामायण पर उनके प्रवचन की प्रसिद्ध दूर-दूर तक थी। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद जी को उन्होंने सम्पूर्ण रामकथा राष्ट्रपति भवन में सुनाई थी। नरवल, कानपुर और फतेहपुर में उन्होंने रामलीला आयोजित की।
‘झण्डा गीत’ के अलावा एक और ध्वज गीत श्यामलाल गुप्त ’पार्षद’ जी ने लिखा था। लेकिन इसकी विशेष चर्चा नहीं हो सकी। उस गीत की पहली पंक्ति है:-
राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति, राष्ट्रीय पताका नमो-नमो। भारत जननी के गौरव की, अविचल शाखा नमो-नमो।
पार्षदजी को एक बार आकाशवाणी कविता पाठ का न्योता मिला। उनके द्वारा पढ़ी जाने वाली कविता का एक स्थानीय अधिकारी द्वारा निरीक्षण किया गया जो इस प्रकार थी:-
बंधे पंचानन मरते हैं,
स्यार स्वछंद बिचरते हैं,
गधे छक-छक कर खाते हैं,
खड़े खुजलाये जाते हैं।
इन पंक्तियों के कारण उनका कविता पाठ रोक दिया गया। इससे नाराज पार्षदजी कभी दुबारा आकाशवाणी केन्द्र नहीं गये। १२ मार्च,१९७२ को ‘कात्यायनी कार्यालय’ लखनऊ में एक भेंटवार्ता में उन्होंने कहा:-
देख गतिविधि देश की मैं मौन मन रो रहा हूँ,
आज चिन्तित हो रहा हूँ।
बोलना जिनको न आता था,वही अब बोलने हैं।
रस नहीं बस देश के उत्थान में विष घोलते हैं।
सर्वदा गीदड़ रहे,अब सिंह बन कर डोलते हैं।
कालिमा अपनी छिपाये,दूसरों को खोलते हैं।
देख उनका व्यक्तिक्रम,आज साहस खो रहा हूँ।
आज चिन्तित हो रहा हूँ।

स्वतंत्र भारत ने उन्हें सम्मान दिया और १९५२ में लालकिले से उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ गाया। १९७२ में लालकिले में उनका अभिनन्दन किया गया। १९७३ में उन्हें ‘पद्‌मश्री’ से अलंकृत किया गया।
१० अगस्त १९७७ की रात को इस समाजसेवी, राष्ट्रकवि का महाप्रयाण नंगे पैर में कांच लगने के कारण हो गया। वे ८१ वर्ष के थे। उनकी मृत्यु के बाद कानपुर और नरवल में उनके अनेकों स्मारक बने। नरवल में उनके द्वारा स्थापित बालिका विद्यालय का नाम ‘पद्‌मश्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ राजकीय बालिका इंटर कालेज किया गया। फूलबाग, कानपुर में ‘पद्‌मश्री’ श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ पुस्तकालय की स्थापना हुई। १० अगस्त,१९९४ को फूलबाग में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई। इसका अनावरण उनके ९९ वें जन्मदिवस (९ सितम्बर, ९५ को) पर किया गया।
(साभार  बड़े भाई श्री अनूप शुक्ल एवं विकिपीडिया)

बुधवार, 26 जनवरी 2011

कानपुर की शान मे दाग- गुटखा , पान मसाला


कानपुर – एक ऐसा शहर है जहाँ एक तरफ शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ संस्थान आई आई टी है  तो दूसरी तरफ गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कालेज । एच . बी, टी. आई. जैसा सितारा अपनी रौशनी से अनगिनत छात्र छात्राओं का भविष्य उज्ज्वल कर रहा है तो आई. टी. आई. भी निरन्तर रोजगार परक शिक्षा दे रहा है । आज दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहाँ हम कानपुर के लोगो ने अपनी बुद्धि का लोहा ना मनवाया हो । मगर इसके बावजूद जब हम किसी बाहरी(दूसरे शहर) के व्यक्ति से यह कहते है कि हम कानपुर से है तो यह सुनते ही यह सुनने को मिल जाता है अच्छा आप कानपुर से है , वो तो बहुत गंदा शहर है ना ।और हमारे पास कोई जवाब नही होता । क्योकि यह हमारे शहर का एक कडवा सच है । कानपुर का इतिहास बहुत ही गौरव पूर्ण रहा है । एक समय वह भी था जब इसे देश का मेन्चेस्टर कहा जाता था ।
आखिर शहर की इस छवि के लिये कौन जिम्मेदार है , यहाँ पर हर तीसरा व्यक्ति पान मसाला खाता नजर आता है , शहर की कोई इमारत , कोई गली कोई सडक ऐसी नही जिस पर हर दस मिनट पर कोई पान मसाला की पीक से उसे सजाता ना हो । बडे गर्व के साथ लोग ऐसा करते हैं । अक्सर हम अखबारों मे पढ तो लेते है कि यह गुटखा हमारे लिये कितना नुकसान दायक है , लेकिन अगले ही क्षण एक और मसाले का पाउच खोल कर खाते है और पैकेट किधर फेंका ये पता ही नही होता । कभी यह पैकेट गंगा जी को अर्पित कर दिया जाता है तो कभी किसी पार्क में बिखरे पत्तों से ज्यादा ये खाली पाउच देखने को मिल जाते है । हम रोज अपने शहर को क्या देते है - सैकडों टन कूडा , प्रदूषण को बढावा , कानपुर की छवि को धूमिल करने वाली आदते , नन्हे मासूमों के हाथों मे किताबो की जगह गुटखों की लडियां ,सडकों के किनारे पेडों की जगह छोटी सी तख्त पर सजी इस मीठे जहर को बचती दुकानें । 
हम पढ लिख कर अपना भविष्य बनाने तो शहर से बाहर यह कह कर चले जाए है कि यहाँ कुछ है ही नही । आखिर जो शहर हमे पढा लिखा कर इस योग्य बनाता है कि हम शान से दुनिया मे अपना सिर उठा कर चल सके , उस शहर का भविष्य कौन बनायेगा ।क्या अपने शहर को छोड कर चले जाना या अपने घर को साफ करना ही पर्याप्त है , हम कब अपने शहर को अपना घर समझना शुरु करेगें । कब हम यह समझेंगें की हम सभी अपने शहर के प्रतिनिधि हैं हमें ऐसे काम करने चाहिये जिससे हमारे शहर का नाम हो । आज गणतंत्र दिवस के इस शुभ अवसर पर मै आप सभी पाठकों से यह निवेदन करना चाहती हूँ कि हम सबको इस दिशा में कुछ सार्थक करने की पहल करनी चाहिये । हमे लोगों की इस आदत को कम करने या छुडाने के सच्चे प्रयास करने होंगे । 
                  माना अकेले पथ पर चलना थोडा मुश्किल होता है ।
                                                            साथ अगर मिल जाये तो सब कुछ मुंकिन होता है ॥




रविवार, 23 जनवरी 2011

झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद

ऐसा माना जाता है कि कनपुरिया बाई डिफ़ाल्ट मस्त होता, खुराफ़ाती है, हाजिर जवाब होता है।(जिन कनपुरियों को इससे एतराज है वे इसका खंडन कर दें , हम उनको अपवाद मान लेंगे।) मस्ती वाले नये-नये उछालने में इस् शहर् का कोई जोड़ नहीं है। गुरू, चिकाई, लौझड़पन और न जाने कितने सहज अनौपचारिक शब्द यहां के माने जाते हैं। मुन्नू गुरू तो नये शब्द गढ़ने के उस्ताद थे। लटरपाल, रेजरहरामी, गौतम बुद्धि जैसे अनगिनत शब्द् उनके नाम से चलते हैं। पिछले दिनों होली पर हुयी एक गोष्ठी में उनको याद करते हुये गीतकार अंसार कम्बरी ने एक गजल ही सुना दी- समुन्दर में सुनामी आ न जाये/ कोई रेजर हरामी आ न जाये।
जैसे पेरिस में फ़ैशन बदलता है, उसके साथ वैसे ही कानपुर में हर साल कोई न कोई मौसम उछलता है वैसे ही कानपुर् में कोई न् कोई जुमला या शब्द् हर साल् उछलता है और कुछ दिन जोर दिखा के अगले को सत्ता सौंप देता है। कुछ साल पहले नवा है का बे का इत्ता जोर रहा कि कहीं-कहीं मारपीट और स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में है तक पहुंच गयी।
कानपुर् के ठग्गू के लडडू की दुकानदारी उनके लड्डुऒं और् कुल्फ़ी के कारण् जितनी चलती है उससे ज्यादा उनके डायलागों के कारण चलती है-

ठग्गू के लड्डू
1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं

2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की
3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.
4.बदनाम कुल्फी —
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब
5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो–
शराब नहीं ,जलजीरा.
दो दिन पहले अगड़म-बगड़म शैली के लेखक आलोक पुराणिक अपने कानपुर् के अनुभव सुना रहे थे। बोले -कनपुरिये किसी को भी काम् से लगा देते हैं। मुझे लगता है कि अगर वे रोज-रोज नयी-नयी चिकाई कर् लेते हैं तो इसका कारण उनका कानपुर में रहना रहा है। राजू श्रीवास्तव के गजोधर भैया कनपुरिया हैं इसीलिये इतने बिंदास अंदाज में हर चैनेल पर छाये रहते हैं।
कानपुर में मौज-मजे की परम्परा के ही चलते भडौआ साहित्य का चलन हुआ जिसमें नये-नये अंदा़ज में पैरोडियों के माध्यम से स्थापित लोगों की खिंचाई का पुण्य काम शुरू हुआ। आज किसी एक् शहर के सर्वाधिक सक्रिय ब्लागर की गिनती की जाये तो वे कानपुर के ही निकलेंगे। यह भी कि इनमें से ज्यादातर मौज-मजे वाले मूड में ही रहते हैं(अभय तिवारीजी संगति दोष :) के चलते कभी-कभी भावुक हो जाते हैं) ।दिल्ली वाले इसका बुरा न मानें क्योंकि किसी शहर में जीने-खाने के लिये बस जाने से उसका मायका नहीं बदल जाता।
तमाम जुमलों और शब्द-समूहों के बीच एक जुमले की बादशाहत कानपुर में लगातार सालों से बनी हुयी है। किसी ठेठ् कानपुरिया का यह मिजाज होता है। इसके लिये कहा जाता है- झाड़े रहो कलट्टर गंज। यह अधूरा जुमला है। लोग आलस वश आधा ही कहते हैं। पूरा है- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।
आलोक जी ने इस झन्नाटेदार डायलाग का मलतब पूछा था कि इसके पीछे की कहानी क्या है!
दो साल पहले जब मैं अतुल अरोरा के पिताजी ,श्रीनाथ अरोरा जी, से मिला था तब उन्होंने इसके पीछे का किस्सा सुनाया था जिसे उनको कानपुर् के सांसद-साहित्यकार स्व.नरेश चंद्र चतुर्वेदीजी ने बताया था। श्रीनाथजी कानपुर के जाने-माने जनवादी साहित्यकार हैं। इसकी कहानी सिलबिल्लो मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। कनपुरिया जुमले का किस्सा यहां पेश है।
कानपुर में गल्ले की बहुत बड़ी मण्डी है। जिसका नाम कलट्टरगंज है। यहां आसपास के गांवों से अनाज बिकने के लिये आता है। ढेर सारे गेहूं के बोरों को उतरवाने के लिये तमाम मजूर लगे रहते हैं। इन लोगों को पल्लेदार कहते हैं।
पल्लेदार शायद् इसलिये कहा जाता हो कि जो बोरे उतरवाने-चढ़वाने का काम ये करते थे उसके टुकड़ों को पल्ली कहते हैं। शायद उसी से पल्लेदार बना हो या फिर शायद पालियों में काम करने के कारण उनको पल्लेदार कहा जाता हो।
उन दिनों पल्लेदारों को उनकी मजूरी के अलावा जो अनाज बोरों से गिर जाता था उसे भी दे दिया जाता था। दिन भर जो अनाज गिरता था उसे शाम को झाड़ के पल्लेदार ले जाते थे।
ऐसे ही एक पल्लेदार था। उसकी एक आंख खराब थी। वह् पल्लेदारी जरूर करता था लेकिन शौकीन मिजाज भी था। हफ़्ते भर पल्लेदारी करने के बाद जो गेहूं झाड़ के लाता उसको बेंचकर पैसा बनाता और इसके अलावा मिली मजूरी भी रहती थी उसके उसके पास।
शौकीन मिजाज होने के चलते वह अक्सर कानपुर में मूलगंज ,जहां तवायफ़ों का अड्डा था, गाना सुनने जाता था। वहां उसे कोई पल्लेदार न समझ ले इसलिये वह बनठन के जाता था। अपनी रईसी दिखाने के मौके भी खोजता रहता ताकि लोग उसे शौकीन मिजाज पैसे वाला ही समझें।
ऐसे ही एक दिन किसी अड्डे पर जब वह पल्लेदार गया तो उसने अड्डे के बाहर पान वाले से ठसक के साथ पान लगाने के लिये कहा। ऐसे इलाकों में दाम अपने आप बढ़ जाते हैं लेकिन उसने मंहगा वाला पान लगाने को कहा।
पान वाला उसकी असलियत् जानता था कि यह् पल्लेदार है और इसकी एक आंख खराब है। उसने मौज लेते हुये जुमला कसा- झाड़े रहो कलट्टगंज, मंडी खुली बजाजा बंद।
झाड़े रहो से उसका मतलब- पल्लेदार के पेशे से था कि हमें पता है तुम पल्लेदारी करते हो और् अनाज झाड़ के बेंचते हो। मंडी खुली बजाजा बंद मतलब एक आंख (मंडी -कलट्टरगंज) खुली है, ठीक है। दूसरी बजाजा (जहां महिलाओं के साज-श्रंगार का सामान मिलता है) बंद है, खराब है।
इस तरह् यह एक व्यंग्य था पल्लेदार पर जो पानवाले ने उस पर किया कि हमसे न ऐंठों हमें तुम्हारी असलियत औकात पता है। पल्लेदारी करते हो, एक आंख खराब है और यहां नबाबी दिखा रहे हो।
यह् एक तरह् से उस समय् के मिजाज को बताता है। अपनी औकात से ज्यादा ऐश करने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य है-घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। एक आंख से हीन पर दो आंखों वाले का कटाक्ष है। एक दुकानदार का अपने ग्राहक से मौज लेने का भाव है। यह अनौपचारिकता अब दुर्लभ है। अब तो हर व्यक्ति येन-केन-प्रकारेण बिकने-बेचने पर तुला है।
बहरहाल, आप इस सब पचड़े में न पडें। हम तो आपसे यही कहेंगे- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।
                                    
...अनूप शुक्ल

रविवार, 16 जनवरी 2011

काफिर अनवर जमाल से खबरदार

वैसे तो रीडर हूँ पर ये समय है कि चुप नहीं रहा जाता जब समाज में कीड़े आ गए है तो उनपर मैलाथियान का छिडकाव जरूरी हो जाता है.

"मिरा कातिल तिरे बीच है जरा नज़र उठा के तो देख
अजीज समझता है उसके खंज़र पे  नाम लिखा  तो देख"
  
ये पंक्तिया अनवर जमाल पर बिलकुल सटीक बैठती है.  थोथा चना बाजे घना की तर्ज़ पर यह बहुत वाचाल   अपने मुह मिया मिट्ठू है. सभी हिन्दू मुसलमान  भाइयो बहनों को आगाह है कि  यह वही शैतान है जिसकी मीठी मीठी बातो में आकर आदम  और हव्वा को जन्नत से बहिस्कृत होना पड़ा. आज यह अभिशप्त एक बार फिर जन्नत से आदम की औलादों  को आपस में लड़वाकर  फिर उन्हें जन्नत  से दोज़ख में गिराने क़ा कुत्सित षड्यंत्र रच रहा है.
अपनी प्यारी धरती पर हमेशा महात्माओं पीरो ने मुहब्बत क़ा सन्देश दिया लेकिन समय समय पर शैतान भेष बदल कर अमन में जहर घोलने से बाज़ नहीं आया. अब यह फिर मीठी बातो से जहर फैला रहा है.
इस  काफिर की अच्छे से पहचान कर लीजिये आप लोग नहीं तो दिल बटते रहेगे  लाशें गिरेगी और उनके ऊपर ये रक्तपिपासु   शैतान रक्तपान करके  अट्टहास करता रहेगा.
हकीकत को जरूरत है न मंदिर की न मस्जिद की
नमाज़े हक अदा होगी खुले मैदान में साकी.

बुधवार, 5 जनवरी 2011

कानपुर के कोतवाल

 



पनकी हो या पुलिस चौकियां, शहर में हर कहीं दिखते हैं हनुमान मंदिर

इसे लोगों की श्रद्धा कहा जाए या महज संयोग, कि संकट मोचन हनुमान लगभग 48 लाख की आबादी वाले इस शहर के 'दैवी कोतवाल' बने हुए हैं। शहर में छोटे-बड़े मंदिरों की संख्या हजारों में है, लेकिन भौगोलिक स्थिति में नजर डालें तो रामभक्त हनुमान हर मुहल्ले और चौराहे पर विराजे हैं।
कानपुर के हर छोर पर संकट मोचन के प्रतिष्ठित मंदिर हैं, जहाँ पर यहाँ के निवासी ही नहीं बल्कि अन्य प्रदेशों से आये लोगों की आस्था नमन करती है। इनमें आप शोभन गढ़ी, पनकी, जी. टी. रोड स्थित रुमावाले हनुमान, गोल चौराहे के निकट स्थित दक्षिणेश्वर तथा सत्ती चौरा के सालासार वाले बालाजी और किदवई नगर वाले हनुमान मंदिर को गिन सकते हैं। मंदिर छोटा हो या बड़ा, यह भी चमत्कार की बात है कि शहर से जुड़े हर पुलिस स्टेशन और चौकी में हनुमान जी प्रतिष्ठित हैं।
लोग जब भी कोई नया वाहन खरीदते हैं तो सबसे पहले उनकी गाड़ी संकट मोचन की चौखट की ओर दौड़ पड़ती है जहाँ उनका विश्वास टिका है, वह जगह शोभन हो या पनकी। हनुमान जी के इन दरबारों में प्रतिदिन सुबह से ही जयकारे गूंजने लगते हैं जिसका सिलसिला देर रात तक चलता है लेकिन मंगलवार, शनिवार के दिन यहाँ बाहर से आने वाले भक्तों की संख्या हजारों में होती है। 22 वर्षों से पनकी मंदिर में प्रतिदिन मत्था टेकने आ रहे आजाद नगर निवासी सुरेश गुप्ता इस बारे में कहते हैं, ''यह वह दरबार है जहाँ हर मनोकामना पूर्ण होती है। सरकार तो सिर्फ भाव के भूखे हैं, मन में विश्वास है तो यहाँ सब कुछ है। शहर से बाहर हुआ तो कोई बात नहीं अन्यथा सुबह संकट मोचन दर्शन मेरा पहला काम है।' प्रसाद विक्रेता राम किशोर बताते हैं ''मंगल और शनिवार को यहाँ मेले जैसा माहौल होता है। सुबह से शाम तक 20-25 हजार लोग दर्शन कर जाते हैं। औसत निकालें तो यहाँ 15 कुंतल से अधिक प्रसाद चढ़ जाता है जबकि बुढ़वा मंगल जैसे पर्वों में अन्य जिलों से आये भक्तों की भीड़ 70 से 80 हजार की संख्या में होती है।'
इस दिन सुबह से ही लम्बी लाइन दर्शन की प्रतीक्षा में लग जाती है। इस बारे में और जानकारी देते हुए दक्षिणेश्वर मंदिर के पुरोहित अरविन्द शुक्ला कहते हैं, ''कानपुर के कोतवाल तो हनुमान जी ही हैं। वह चारों ओर से शहर की रक्षा कर रहे हैं, वैसे भी कलयुग में इन्हें सर्वाधिक पूज्य होने का आशीर्वाद मिला है।' वह कहते हैं कि यहाँ दिन भर दर्शन करने वालों के आने का क्रम बना रहता है।
परीक्षा के दिन हों या इंटरव्यू की घड़ी, युवाओं में संकट मोचन के प्रति अधिक आस्था देखी जा सकती है। विश्वास के साथ की गई याचना त्वरित स्वीकार होती है। इन दरबारों में आस्था और विश्वास से झुके युवाओं के मस्तक
लोगों की इस धारणा को पूरी तरह खारिज कर देते हैं कि 'आज का युवा भक्ति और उपासना से भटक गया है' क्योंकि नगरवासियों के लिए हनुमान जी यदि कानपुर के कोतवाल हैं तो युवाओं के लिए 'कलयुग की सुप्रीम कोर्ट!'
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 सौ.  अनूप शुक्ल

शनिवार, 1 जनवरी 2011

"नया वर्ष, नई उमंगें"




कल शाम जब २०१० अपने लाव लस्कर के साथ विदा होने को तैयार  था नया वर्ष २०११ कुछ नया लिए दस्तक देने की तैयारी  में लगा था. आज सुबह हुआ भी कुछ ऐसा ही, सुबह सामान्य से कुछ अलग लगी. इसने संजो रखे थे कुछ नया,कुछ अलग जो की बहुत अलग था कल से. एक तरफ २०१० कुछ पुरे तो कुछ अधूरे  सपनों के साथ विदा हुआ तो दूसरी तरफ एक नए वर्ष के रूप में २०११ एक बार फिर से एक नए जोश, नए उमंग और नए उत्साह का संचार कर कुछ नया कर गुजरने की सोच के साथ  उपस्थित हुआ.
                                           वैसे ये तो हर नए साल की कहानी है जो की कल के अधूरे रह गये सपनों को पूरा करने के लिए एक नई जाग्रति दे जाता है, और फिर से उठ खड़े होने के लिए एक नया जोश और नए  उमंग का संचार कर जाता है. तो फिर आइये खड़े हो जाइये एक उज्जवल कल के निर्माण के लिए, एक सुखद भविष्य के लिए, कुछ नया कर गुजरने के सपनों को सजोने और उसे पूरा करने  के हर संभव प्रयास  के लिए. सभी ब्लॉगर  बन्धुवों  और पाठकों के साथ-साथ सम्पूर्ण भारत और फिर यूँ कहे की सम्पूर्ण विश्व के उज्जवल भविष्य के लिए अनंत असीम शुभकामनाएं. इंतजार है एक सुदृढ़, सशक्त  और संभावनावों से परिपूर्ण कल का,,,,,,,,,,,,,,,,
                        अबतक    बधाइयों   का    माहौल    थोड़ा    गर्म      था
                        कविता अभी  तक शांत थी कवि   अभी तक   मौन था
                        अब जब सब कुछ शांत है बधाइयाँ     प्रेषित कर रहा हूँ
                        न प्रत्यक्ष तो शब्दों से ही खुशियों की  झोली भर रहा हूँ 

(परीक्षाओं के बीच दो दिन के गैप ने आज एक पोस्ट लिखने का मौका दे दिया. परीक्षाएँ ख़त्म हों तो पोस्ट में कुछ नया  जोड़ने का प्रयास करूँगा तबतक के लिए बस इतना ही)
धन्यवाद"