गुरुवार, 17 मार्च 2011

गेहूं बनाम गुलाब

बगिया में है खिल रहे , शुभ्र   धवल गुलाब
उर्ध्वाधर ग्रीवा,चन्द्रकिरण में नहाये हुए

भ्रमर गीत  गुनगुना रहे , मुदित मन रहा नाच
आती सोंधी सुगंध छन के  , है घनदल छाये हुए .

मधुकर का मिलन गीत ,  पिक की विरह तान
मंदिर की दिव्य वाणी   , मस्जिद की   अजान

कलियों की चंचल  चितवन , पुष्प  का मदन बान
लतिका का कोमल गात, देख रहा अम्बर विहान

कोयल की  मधुर कूक ,क्या क्षुधा हरण  कर सकती है ?
कर्णप्रिय  भ्रमर गीत , माली का  पोषण कर सकती है ?

सुमनों के सौरभ हार, सजा सकते है  पल्लव केश
बिखरा सकते है खुशबू, बन सकते है देवो का अभिषेक

पर क्या ये सजा सकते है , दीन- हीन आँखों में ख्वाब ?
हमे जरुरत है किसकी ज्यादा , सोचिये गेंहू बनाम गुलाब?

3 टिप्‍पणियां:

  1. आज के मिलावट के ज़माने में आपकी शुद्ध एवं तत्सम कविता की बात ही कुछ और है
    गेहू बनाम गुलाब बेनीपुरी जी याद आ गए

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  2. जिन्दगी की बुनियादी जरूरतें जब हमारी पूरी होती है तभी हम खुशियों की कल्पना कर सकते हैं
    एक भूखा व्यक्ति क्या सपने देखेगा । और यदि देखेगा भी तो उसे रोटी के सिवा देखिगा भी क्या ।

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  3. आपकी शुद्ध रचनाये अप्रैल शावर सी लगती है
    आनंद आ गया

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