आज जब देखता हु ,उनको मुझे न पहचानते हुए .
याद आती है ,उनकी वो हसी , वो मुस्कराहट।
वो वादे ,जो दोनों ने किये ,जीवन भर के लिए।
क्या यही तक था मेरा उसका साथ ,
वो साथ जो आजीवन का था ?
क्या गलती की मैंने, कौन सी मजबूरी थी उसकी ,
की बेवफा न होते हुए भी , वो वफ़ा न निभा सके .
ख़ामोशी सी ओढ़ लेते है, वो मुझे देखते ही .
और चुपके से निकल जाते है सामने से ,
नज़ारे चुरा के ,
जैसे हमें वो जानते ही नहीं।
न वो लज्जा है पहले सी , बस नजरो के बंद दरवाजे ही दिखते है।
कुछ तो बोले वो , या नज़ारे ही मिलाये ,
हम भी चुप है और वो भी जैसे हो पराये .
मन की बाते दोनों के मन में ही दफ़न हो जाती है ,
बस एक मुलाकात होती है ,जो मिलना कम बिछड़ना ज्यादा है।
"अमन मिश्र "
याद आती है ,उनकी वो हसी , वो मुस्कराहट।
वो वादे ,जो दोनों ने किये ,जीवन भर के लिए।
क्या यही तक था मेरा उसका साथ ,
वो साथ जो आजीवन का था ?
क्या गलती की मैंने, कौन सी मजबूरी थी उसकी ,
की बेवफा न होते हुए भी , वो वफ़ा न निभा सके .
ख़ामोशी सी ओढ़ लेते है, वो मुझे देखते ही .
और चुपके से निकल जाते है सामने से ,
नज़ारे चुरा के ,
जैसे हमें वो जानते ही नहीं।
न वो लज्जा है पहले सी , बस नजरो के बंद दरवाजे ही दिखते है।
कुछ तो बोले वो , या नज़ारे ही मिलाये ,
हम भी चुप है और वो भी जैसे हो पराये .
मन की बाते दोनों के मन में ही दफ़न हो जाती है ,
बस एक मुलाकात होती है ,जो मिलना कम बिछड़ना ज्यादा है।
"अमन मिश्र "