श्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ एक स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, समाजसेवी एवं अध्यापक थे। भारत का झण्डागीत (विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा) की रचना के लिये वे सदा याद किये जायेंगे।
उनके सुन्दर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे।
श्यामलालजी ने मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन से ‘विशारद’ हो गये। आपकी रामायण पर अटूट श्रद्धा थी। १५ वर्ष की अवस्था में हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छन्दों में आपने रामकथा के बालकण्ड की रचना की। परन्तु पूरी पाण्डुलिपि पिताजी ने कुएं में फिकवा दी क्योंकि किसी ने उन्हें समझा दिया था कि कविता लिखने वाला दरिद्र होता है और अंग-भंग हो जाता है। इस घटना से बालक श्यामलाल के दिल को बडा़ आघात लगा और वे घर छोड़कर अयोध्या चले गये। वहाँ मौनी बाबा से दीक्षा लेकर राम भजन में तल्लीन हो गये। कुछ दिनों बाद जब पता चला तो कुछ लोग अयोध्या जाकर उन्हें वापस ले आये। श्यामलाल जी के दो विवाह हुए। दूसरी पत्नी से एकमात्र पुत्री की प्राप्ति हुई बाद में जिनका विवाह कानपुर के प्रसिद्ध समाजसेवी एडवोकेट श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त से हुआ।
श्यामलाल जी ने पहली नौकरी जिला परिषद के अध्यापक के रूप में की। परन्तु जब वहाँ तीन साल का बाण्ड भरने का सवाल आया तो आपने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद म्यूनिसपेलिटी के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। परन्तु वहाँ भी बाण्ड के सवाल पर आपने त्यागपत्र दे दिया।
अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी और साहित्यकार श्री प्रताप नारायण मिश्र के सानिध्य में आने पर श्यामलाल जी ने अध्यापन, पुस्तकालयाध्यक्ष और पत्रकारिता के विविध जनसेवा कार्य भी किये। पार्षद जी १९१६ से १९४७ तक पूर्णत: समर्पित कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। गणेशजी की प्रेरणा से आपने फतेहपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इस दौरान ‘नमक आन्दोलन’ तथा ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का प्रमुख संचालन तथा लगभग १९ वर्षों तक फतेहपुर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद के दायित्व का निर्वाह भी पार्षद जी ने किया। जिला परिषद कानपुर में भी वे १३ वर्षों तक रहे।
असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण पार्षदजी को रानी अशोधर के महल से २१ अगस्त,१९२१ को गिरफ्तार किया गया। जिला कलेक्टर द्वारा उन्हें दुर्दान्त क्रान्तिकारी घोषित करके केन्द्रीय कारागार आगरा भेज दिया गया। इसके बाद १९२४ में एक असामाजिक व्यक्ति पर व्यंग्य रचना के लिये आपके ऊपर ५०० रुपये का जुर्माना हुआ। १९३० में नमक आन्दोलन के सिलसिले में पुन: गिरफ्तार हुये और कानपुर जेल में रखे गये। पार्षदजी सतत् स्वतंत्रता सेनानी रहे और १९३२ में तथा १९४२ में फरार रहे। १९४४ में आप पुन: गिरफ्तार हुये और जेल भेज दिये गये। इस तरह आठ बार में कुल छ: वर्षों तक राजनैतिक बंदी रहे।
स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के दौरान वे चोटी के राष्ट्रीय नेताओं - मोतीलाल नेहरू, महादेव देसाई, रामनरेश त्रिपाठी और अन्य नेताओं के संपर्क में आये।
स्वतंत्रता संघर्ष के साथ ही आपका कविता रचना का कार्य भी चलता रहा। वे इक दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे। १९२१ में आपने स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पांव रहने का व्रत लिया और उसे निभाया। गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से पार्षदजी ने ३-४ मार्च, १९२४ को , एक रात्रि में, भारत प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ की रचना की। पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में १३ अप्रैल, १९२४ को, ’जालियाँवाला बाग दिवस’ पर, फूलबाग, कानपुर में सार्वजनिक रूप से झण्डागीत का सर्वप्रथम सामूहिक गान हुआ।
पार्षद जी के बारे में अपने उद्गार व्यक्त करते हुये नेहरू जी ने कहा था-‘भले ही लोग पार्षद जी को नहीं जानते होंगे परन्तु समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित है।’
राजनीतिक कार्यों के अलावा पार्षदजी सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहे। उन्होंने दोसर वैश्य दोसर वैश्य इंटर कालेज( जो कि आज बिरहाना रोड पर गौरीदीन गंगाशंकर विद्यालय के नाम से जाना जाता है) एवं अनाथालय,बालिका विद्यालय,गणेश सेवाश्रम,गणेश विद्यापीठ,दोसर वैश्य महासभा ,वैश्य पत्र समिति आदि की स्थापना एवं संचालन किया। इसके अलावा स्त्री शिक्षा व दहेज विरोध में आपने सक्रिय योगदान किया। आपने विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में सक्रिय योगदान किया।पार्षदजी ने वैश्य पत्रिका का जीवन भर संपादन किया।
रामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ था।वे श्रेष्ठ ‘मानस मर्मज्ञ’ तथा प्रख्यात रामायणी भी थे । रामायण पर उनके प्रवचन की प्रसिद्ध दूर-दूर तक थी। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद जी को उन्होंने सम्पूर्ण रामकथा राष्ट्रपति भवन में सुनाई थी। नरवल, कानपुर और फतेहपुर में उन्होंने रामलीला आयोजित की।
‘झण्डा गीत’ के अलावा एक और ध्वज गीत श्यामलाल गुप्त ’पार्षद’ जी ने लिखा था। लेकिन इसकी विशेष चर्चा नहीं हो सकी। उस गीत की पहली पंक्ति है:-
राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति, राष्ट्रीय पताका नमो-नमो। भारत जननी के गौरव की, अविचल शाखा नमो-नमो।
पार्षदजी को एक बार आकाशवाणी कविता पाठ का न्योता मिला। उनके द्वारा पढ़ी जाने वाली कविता का एक स्थानीय अधिकारी द्वारा निरीक्षण किया गया जो इस प्रकार थी:-
बंधे पंचानन मरते हैं,
स्यार स्वछंद बिचरते हैं,
गधे छक-छक कर खाते हैं,
खड़े खुजलाये जाते हैं।
इन पंक्तियों के कारण उनका कविता पाठ रोक दिया गया। इससे नाराज पार्षदजी कभी दुबारा आकाशवाणी केन्द्र नहीं गये। १२ मार्च,१९७२ को ‘कात्यायनी कार्यालय’ लखनऊ में एक भेंटवार्ता में उन्होंने कहा:-
देख गतिविधि देश की मैं मौन मन रो रहा हूँ,
आज चिन्तित हो रहा हूँ।
बोलना जिनको न आता था,वही अब बोलने हैं।
रस नहीं बस देश के उत्थान में विष घोलते हैं।
सर्वदा गीदड़ रहे,अब सिंह बन कर डोलते हैं।
कालिमा अपनी छिपाये,दूसरों को खोलते हैं।
देख उनका व्यक्तिक्रम,आज साहस खो रहा हूँ।
आज चिन्तित हो रहा हूँ।
स्वतंत्र भारत ने उन्हें सम्मान दिया और १९५२ में लालकिले से उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ गाया। १९७२ में लालकिले में उनका अभिनन्दन किया गया। १९७३ में उन्हें ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया।
१० अगस्त १९७७ की रात को इस समाजसेवी, राष्ट्रकवि का महाप्रयाण नंगे पैर में कांच लगने के कारण हो गया। वे ८१ वर्ष के थे। उनकी मृत्यु के बाद कानपुर और नरवल में उनके अनेकों स्मारक बने। नरवल में उनके द्वारा स्थापित बालिका विद्यालय का नाम ‘पद्मश्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ राजकीय बालिका इंटर कालेज किया गया। फूलबाग, कानपुर में ‘पद्मश्री’ श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ पुस्तकालय की स्थापना हुई। १० अगस्त,१९९४ को फूलबाग में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई। इसका अनावरण उनके ९९ वें जन्मदिवस (९ सितम्बर, ९५ को) पर किया गया।
(साभार बड़े भाई श्री अनूप शुक्ल एवं विकिपीडिया)
श्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के नरवल ग्राम में ९ सितम्बर १८९६ को मध्यवर्गीय वैश्य परिवार में हुआ। आपके पिता का नाम विश्वेश्वर प्रसाद और माता का नाम कौशल्या देवी था। प्रकृति ने उन्हें कविता करने की क्षमता सहज रूप में प्रदान की थी। जब श्यामलालजी पाँचवी कक्षा में थे तो यह कविता लिखी:-
परोपकारी पुरुष मुहिम में,पावन पद पाते देखे,उनके सुन्दर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे।
श्यामलालजी ने मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन से ‘विशारद’ हो गये। आपकी रामायण पर अटूट श्रद्धा थी। १५ वर्ष की अवस्था में हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छन्दों में आपने रामकथा के बालकण्ड की रचना की। परन्तु पूरी पाण्डुलिपि पिताजी ने कुएं में फिकवा दी क्योंकि किसी ने उन्हें समझा दिया था कि कविता लिखने वाला दरिद्र होता है और अंग-भंग हो जाता है। इस घटना से बालक श्यामलाल के दिल को बडा़ आघात लगा और वे घर छोड़कर अयोध्या चले गये। वहाँ मौनी बाबा से दीक्षा लेकर राम भजन में तल्लीन हो गये। कुछ दिनों बाद जब पता चला तो कुछ लोग अयोध्या जाकर उन्हें वापस ले आये। श्यामलाल जी के दो विवाह हुए। दूसरी पत्नी से एकमात्र पुत्री की प्राप्ति हुई बाद में जिनका विवाह कानपुर के प्रसिद्ध समाजसेवी एडवोकेट श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त से हुआ।
श्यामलाल जी ने पहली नौकरी जिला परिषद के अध्यापक के रूप में की। परन्तु जब वहाँ तीन साल का बाण्ड भरने का सवाल आया तो आपने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद म्यूनिसपेलिटी के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। परन्तु वहाँ भी बाण्ड के सवाल पर आपने त्यागपत्र दे दिया।
अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी और साहित्यकार श्री प्रताप नारायण मिश्र के सानिध्य में आने पर श्यामलाल जी ने अध्यापन, पुस्तकालयाध्यक्ष और पत्रकारिता के विविध जनसेवा कार्य भी किये। पार्षद जी १९१६ से १९४७ तक पूर्णत: समर्पित कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। गणेशजी की प्रेरणा से आपने फतेहपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इस दौरान ‘नमक आन्दोलन’ तथा ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का प्रमुख संचालन तथा लगभग १९ वर्षों तक फतेहपुर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद के दायित्व का निर्वाह भी पार्षद जी ने किया। जिला परिषद कानपुर में भी वे १३ वर्षों तक रहे।
असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण पार्षदजी को रानी अशोधर के महल से २१ अगस्त,१९२१ को गिरफ्तार किया गया। जिला कलेक्टर द्वारा उन्हें दुर्दान्त क्रान्तिकारी घोषित करके केन्द्रीय कारागार आगरा भेज दिया गया। इसके बाद १९२४ में एक असामाजिक व्यक्ति पर व्यंग्य रचना के लिये आपके ऊपर ५०० रुपये का जुर्माना हुआ। १९३० में नमक आन्दोलन के सिलसिले में पुन: गिरफ्तार हुये और कानपुर जेल में रखे गये। पार्षदजी सतत् स्वतंत्रता सेनानी रहे और १९३२ में तथा १९४२ में फरार रहे। १९४४ में आप पुन: गिरफ्तार हुये और जेल भेज दिये गये। इस तरह आठ बार में कुल छ: वर्षों तक राजनैतिक बंदी रहे।
स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के दौरान वे चोटी के राष्ट्रीय नेताओं - मोतीलाल नेहरू, महादेव देसाई, रामनरेश त्रिपाठी और अन्य नेताओं के संपर्क में आये।
स्वतंत्रता संघर्ष के साथ ही आपका कविता रचना का कार्य भी चलता रहा। वे इक दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे। १९२१ में आपने स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पांव रहने का व्रत लिया और उसे निभाया। गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से पार्षदजी ने ३-४ मार्च, १९२४ को , एक रात्रि में, भारत प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ की रचना की। पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में १३ अप्रैल, १९२४ को, ’जालियाँवाला बाग दिवस’ पर, फूलबाग, कानपुर में सार्वजनिक रूप से झण्डागीत का सर्वप्रथम सामूहिक गान हुआ।
पार्षद जी के बारे में अपने उद्गार व्यक्त करते हुये नेहरू जी ने कहा था-‘भले ही लोग पार्षद जी को नहीं जानते होंगे परन्तु समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित है।’
राजनीतिक कार्यों के अलावा पार्षदजी सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहे। उन्होंने दोसर वैश्य दोसर वैश्य इंटर कालेज( जो कि आज बिरहाना रोड पर गौरीदीन गंगाशंकर विद्यालय के नाम से जाना जाता है) एवं अनाथालय,बालिका विद्यालय,गणेश सेवाश्रम,गणेश विद्यापीठ,दोसर वैश्य महासभा ,वैश्य पत्र समिति आदि की स्थापना एवं संचालन किया। इसके अलावा स्त्री शिक्षा व दहेज विरोध में आपने सक्रिय योगदान किया। आपने विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में सक्रिय योगदान किया।पार्षदजी ने वैश्य पत्रिका का जीवन भर संपादन किया।
रामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ था।वे श्रेष्ठ ‘मानस मर्मज्ञ’ तथा प्रख्यात रामायणी भी थे । रामायण पर उनके प्रवचन की प्रसिद्ध दूर-दूर तक थी। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद जी को उन्होंने सम्पूर्ण रामकथा राष्ट्रपति भवन में सुनाई थी। नरवल, कानपुर और फतेहपुर में उन्होंने रामलीला आयोजित की।
‘झण्डा गीत’ के अलावा एक और ध्वज गीत श्यामलाल गुप्त ’पार्षद’ जी ने लिखा था। लेकिन इसकी विशेष चर्चा नहीं हो सकी। उस गीत की पहली पंक्ति है:-
राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति, राष्ट्रीय पताका नमो-नमो। भारत जननी के गौरव की, अविचल शाखा नमो-नमो।
पार्षदजी को एक बार आकाशवाणी कविता पाठ का न्योता मिला। उनके द्वारा पढ़ी जाने वाली कविता का एक स्थानीय अधिकारी द्वारा निरीक्षण किया गया जो इस प्रकार थी:-
बंधे पंचानन मरते हैं,
स्यार स्वछंद बिचरते हैं,
गधे छक-छक कर खाते हैं,
खड़े खुजलाये जाते हैं।
इन पंक्तियों के कारण उनका कविता पाठ रोक दिया गया। इससे नाराज पार्षदजी कभी दुबारा आकाशवाणी केन्द्र नहीं गये। १२ मार्च,१९७२ को ‘कात्यायनी कार्यालय’ लखनऊ में एक भेंटवार्ता में उन्होंने कहा:-
देख गतिविधि देश की मैं मौन मन रो रहा हूँ,
आज चिन्तित हो रहा हूँ।
बोलना जिनको न आता था,वही अब बोलने हैं।
रस नहीं बस देश के उत्थान में विष घोलते हैं।
सर्वदा गीदड़ रहे,अब सिंह बन कर डोलते हैं।
कालिमा अपनी छिपाये,दूसरों को खोलते हैं।
देख उनका व्यक्तिक्रम,आज साहस खो रहा हूँ।
आज चिन्तित हो रहा हूँ।
स्वतंत्र भारत ने उन्हें सम्मान दिया और १९५२ में लालकिले से उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ गाया। १९७२ में लालकिले में उनका अभिनन्दन किया गया। १९७३ में उन्हें ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया।
१० अगस्त १९७७ की रात को इस समाजसेवी, राष्ट्रकवि का महाप्रयाण नंगे पैर में कांच लगने के कारण हो गया। वे ८१ वर्ष के थे। उनकी मृत्यु के बाद कानपुर और नरवल में उनके अनेकों स्मारक बने। नरवल में उनके द्वारा स्थापित बालिका विद्यालय का नाम ‘पद्मश्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ राजकीय बालिका इंटर कालेज किया गया। फूलबाग, कानपुर में ‘पद्मश्री’ श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ पुस्तकालय की स्थापना हुई। १० अगस्त,१९९४ को फूलबाग में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई। इसका अनावरण उनके ९९ वें जन्मदिवस (९ सितम्बर, ९५ को) पर किया गया।
(साभार बड़े भाई श्री अनूप शुक्ल एवं विकिपीडिया)
कानपुर के इस स्वतंत्रता सेनानी और -- समाजसेवी और झंदगीत के रचयिता के बारे में जानकारी देने के लिए आप बधाई के पात्र हैं.
जवाब देंहटाएंआपने बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी | पार्षद जी ने अपना जीवन जिस तरह से देश को समर्पित किया , वह आज हम सभी के लिए एक आदर्श स्थापित करते है , जिसका अनुसरण करके हम अपने देश को नयी बुलंदियों पर ले जा सकते है
जवाब देंहटाएंvery fruitful information you posted on this blog . really parshad ji was a great person , who gives his whole life to our country . Thanks
जवाब देंहटाएंइतनी अच्छी जानकारी के लिए आभार
जवाब देंहटाएंमेरे मन में बहुत ही गर्व की भावना है की मै पार्षद जी के ही जन्म स्थान नरवल ग्राम का निवासी हू. और लेखक महोदय को धन्यवाद् की उन्होंने अन्य लोगो का ध्यान इस महान व्यक्ति की और आकर्षित किया.
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