रविवार, 4 दिसंबर 2011

बढ़े भारत निर्माण की ओर

एक लम्बे समयांतराल के बाद ब्लॉग जगत में उपस्थित हो सका हूँ. ब्लॉग पे पोस्ट करने के लिए ढेरों समसायिक मुद्दे है जिनपर अपनी बात आप ब्लॉगर बन्धुवों के सामने रखने का मन बनाया लेकिन पहली प्राथमिकता किसे दी जाय यह सोच कर कल शाम तक थोडा असमंजस में था. कल शाम में छात्रावास से बहार के एक छोटे प्रवास ने आज के पोस्ट के लिए दिशा निर्धारित कर दी.
जैसा की हम सब जानते हैं चुनावों का दौर आ गया है. लोक लुभावने वादों और सड़कों चौराहों पर बड़े-बड़े बैनर पोस्टर के माध्यम से जन प्रतिनिधि अपना दस्तक देना शुरू कर दिए हैं. पिछले सालों के अधूरे वादों और इन दिनों हुए करतूतों पर पर्दे डालने की पूरी तैयारी चल रही है. लगभग सभी बड़ी पार्टियाँ जाती,धर्म संप्रदाय,आरक्षण जैसे विषाक्त मुद्दों के साथ एक बार फिर से चुनावी बिसात बिछाने में लगी हुई हैं. ऐसे में आप क्या सोचते हैं?????????
१. क्या आप ये नहीं सोचते की कोई ऐसी पार्टी होती जो राष्ट्रवाद की बात करती न की जाती धर्म संप्रदाय की ?
२. क्या आप ये नहीं सोचते की एक ऐसी पार्टी जो ब्रह्मण, यादव या हरिजन सम्मलेन के बजाय विशुद्ध भारतियों का सम्मलेन करवाती?
३. क्या आप ये नहीं चाहते की आप जिस उम्मीदवार को चुनने जा रहे हैं वो शिक्षित,युवा.नई उर्जा से परिपूर्ण और  समाज के सभी वर्गों के लोगों को एक साथ लेकर चलने वाला हो?
४. क्या आपको ये नहीं लगता की भारत का निर्माण बंद वातानुकूलित कमरों में रहने वाले या फिर हार्वर्ड और आक्सफोर्ड में पढने वाले नहीं बल्कि भारत और भारतीय मूल्यों को समझने वाला ज्यादा अच्छे तरीके से कर सकते है?
५. जो गलती ईस्ट इण्डिया कम्पनी को लेकर हुई ऍफ़.डी.आई को लेकर वहीँ गलती दुहराने वालों और उसमे भी उनको मूक सहमती देने वालों से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं?
६. पश्चिमी सभ्यता के अनुशरण की अंधी दौड़ में दौड़ने वालों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती की भारत का विकास भारतीय परम्पराओं और मूल्यों को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है. इन्हें यह भी देखना चाहिए की अंततः वे हमारा अनुशरण करने में लगे हैं, जो कि हाल ही में ओबामा के बयान से साबित भी हो गया है.
७. आरक्षण जैसे कोढ़ को दिन प्रतिदिन बढ़ावा देने वालों को ये भी सोचना चाहिए की जिस समानता की बात को लेकर इसे लागु किया गया था वो पिछले ६४ वर्षों में हासिल क्यों नहीं किया जा सका? स्वतंत्रता के ६४ साल बाद भी पिछड़ा आज भी पिछड़ा और दलित आज भी दलित क्यों है? आपको क्या लगता है,किसी का पैर तोड़कर उसे बैसाखी दे देने से समस्या का समाधान हो जाता है?
८. एक अरब बीस करोण जसंख्या वाला देश १८ करोण के पाकिस्तान के लिए नीतियाँ बनाने के लिए ३६ करोण के आमेरिका की तरफ क्यों देखता है?
९. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कोई एक भी ऐसी पार्टी नहीं जिसने खुलकर बोला हो, ऐसे मे सब के सब एक से ही दिखते हैं. मजे की बात तो ये रही की अन्ना के जनलोकपाल बिल पर चर्चा करने के लिए जो स्थाई समिति बने गई उसमे इसके धुर विरोधियों को जगह दिया गया. ऐसे में आप इनके मानसिकता का अंदाजा लगा सकते हैं. क्या आप भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना नहीं देखते हैं?
१०. क्या आपको ये नहीं लगता की उपलब्ध संसाधनों में से ही बेहतर का चुनाव करना श्रेयस्कर हो गा बजाय इसके की जो सुलभ नहीं उसके लिए भाग दौड़ मचायें?
आपको बताता चलूँ की मेरा राजनीती से ज्यादा सरोकार नहीं है लेकिन राष्ट्र से है. राष्ट्र के विकाश के लिए गाँधी,सुभाष चन्द्र बोश,भगत सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और फिर अन्ना के विचारों और कार्यों से सहमत हूँ.  उपरोक्त बातें तो दिमाग में बहुत दिनों से थीं इसी बिच कल ओमेन्द्र भारत जी से मिला और इसे संभव बनाने का काम किया पवन मिश्रा सर ने. हालाँकि ओमेन्द्र जी के बारे में पहले भी बहुत कुछ सुन चूका था और बहुत दिनों से मिलने की इच्छा भी थी. एक छोटी सी मुलाकात ने ही उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए भारत निर्माण के जो सपने बुना करता था उसे थोड़ी और मजबूती प्रदान कर दी. भारतीय प्रोद्योगिकी संसथान कानपूर से M.Tech की डिग्री लेने का बाद बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी छोड़कर आज देश सेवा को समर्पित ओमेन्द्र जी ईमानदार,योग्य,कुशल वक्ता,कुछ कर गुजरने की उर्जा से परिपूर्ण राष्ट्रवादी हैं.देश के लिए बुने गए अपने सपने को साकार करने के लिए इन्होने जन राज्य पार्टी की स्थापना की है और इस बार होने वाले विधान सभा चुनाव के लिए कमर कस चुके हैं. पार्टी को सम्पूर्ण भारत में पहचान दिलाने के लिए भारतीय प्रोद्योगिकी संसथान के कई युवा और समाज के अन्य शिक्षित वर्ग के लोग आज उनके साथ हैं. आज, कल को देखते हुए यही कहना चाहूँगा की युवा इनकी सबसे बड़ी शक्ति और दूरदर्शिता इनकी  सबसे बड़ी हथियार साबित होगी. ओमेन्द्र जी के कल के लिए असीम अनंत शुभकामनायें.

पवन सर और ओमेन्द्र भारत


मै और ओमेन्द्र जी 

रविवार, 6 नवंबर 2011

बेचैनी

आज आफिस में मैं बहुत ही अच्छे मूड में हूँ अपनी फाईल निपटा के नागर जी दवरा लिखित चैतन्य महाप्रभु किताब के आखरी चार पन्ने समाप्त करती हूँ मन खुश है कोई भी ऐसे महापुरुष के बारे में पढ कर मेरा मन हमेशा ही प्रफुल्लीत हो जाता है होटो से अपनी लिखी हुई एक पुरानी कविता फूट पड़ी तब तक मन हुआ चाय  पी जाये घंटी पे हाथ जाता ही है की चपरासी के दर्शन होते है मैम जी बाटनी मैम आप से मिलना चाहती है आरे मैं आश्चर्य चकित होती हूँ उन्हें परमिशन की क्या आवश्यकता आने दो ,जी वो कहा कर चला जाता है .
  अरे  सुगंधा  जी क्या बात है सब ठीक तो है मेरे आफिस में आप टीचर तो कभी भी आ सकते है फिर ये औपचारिकता क्यों ?
 सुगंधा   जी - मैम आज बात सिर्फ पढाई की नहीं है 
मैं - तो जो है वो कहो , और सुगंदा जी शुरू हो जाती है मैम - मैं इस महीने  लेट आई कई वार उसका उस दिन  वो कारन था उस दिन जो नहीं आ पाई सही टाइम से उसका ......... वो मुझे कारण  गिनाती है और लगातार तीस मिनिट तक वो अपनी सारी समस्या मुझे सुना कर प्रसन्न दिखाई देती है . सुगंधा   जी कहती है मैम मै बहुत बेचैन थी आप ने मेरी समस्या सुन ली अब मेरी बेचैनी दूर हो गई . बेचैनी भी बड़ी आजीब होती है जब होती है तो उसके आगे हमें कुछ नहीं दिखाई पड़ता ऐसा लगता है की ये इक रस्ते की और इशारा कर रही होती है . हमारे जेहन मे जब रास्ता साफ होता है , तो बेचैनी नहीं होती. वहा तो होती ही तब है , जब कुछ धुंधला होता है . सो वहा रस्ते  की धुंधलाहट ही बेचैनी है . और यह सचमुच सकारात्मक हो सकती है और वहा सकारात्मक तब होती है जब हम उस बेचैनी के सुर को पहचानते है . और कुछ करने को तैयार हो जाते है . हम अपनी इच्छा को कर्म मे बदलने की ठानते है तो बेचैनी कम हो जाती है . जब- जब हमें कुछ अधूरापन होता है तो बेचैनी होती है उसे भरने के लिए हमें कुछ करना होता है यही शायद बेचैनी का सुर है . आखिर उस बेचैनी के बिना हम अपना अधूरापन कैसे दूर कर सकते है . बेचैनी के वारे मे इतना सब सोचते-सोचते पता ही नहीं चला कब घर जाने का टाइम हो गया . चपरासी अन्दर आता है मैम चाये लाऊ ये मुझे टाइम की याद दिलाने की उसका तरीका है मैं जानती हूँ वो बेचैन है पान मसाला खाने के लिए जो मेरे जाने
 के बाद ही हो सकता है मैं उसकी बेचैनी समझते हुए अपनी सीट छोड़ देती हूँ . घर का ख्याल आते ही मैं बेचैन हो जाती हूँ अरे मुझे तो अभी बहुत सा काम .................                

बुधवार, 2 नवंबर 2011

श्री शम्भूरत्न त्रिपाठी: सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानो के भारतीय करण के पुरोधा(Shri Shambhu Ratan Tripathi: A Great Scholar of Indology)

आज कानपुरब्लॉग के माध्यम से जिनका परिचय   देने जा रही हूँ वो एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिनमे विन्रमता, श्रद्धा , निष्ठा, मनिस्वता, तेजासिव्ता, मधुरवाणी, शिष्ट आचरण, एक साथ सरे गुण समाये थे ये थे श्री शम्भूरत्न त्रिपाठी 
श्री शम्भू रत्न जी का जन्म बलहापारा (घाटमपुर,कानपुर देहात ) को हुआ था जन्म की तारीख का तो ठीक-ठीक पता नहीं पर ऐसे व्यक्तित्व के लिए जन्म की तारीख कोई मायने नहीं रखती है. त्रिपाठी जी उतर-प्रदेश के पहले समाज -शास्त्री थे जिन्हें भारत सरकार ने उनके लेखन के लिए एक नहीं कई बार पुरस्कृत किया . उन्होंने अनेक छदम नाम जैसे राजीव लोचन शर्मा, आचार्य अश्वघोष नाम से कई कहानिया ,लेख और मनु जैसे प्रसिद   
पत्र में समीक्षा लिखी उन्होंने कई प्रसिद्द पुस्तकों का अनुवाद भी किया .
शम्भू रत्न जी में ज्ञान और प्रतिभा नैसगिर्क थी जिसे उन्होंने अपने चिंतन की प्रखरता से निखारने का कार्य किया उनके व्यकितत्व की पहचान निरन्तरता, तत्परता, तन्म्यनताऔर जागरूकता थी उनकी योग्यता क्षमता  और दक्षता , उनके साहित्य, भूगोल, समाजशास्त्र जैसे विषयों में लिखी गई उनकी पुस्तको को पढने में मिलती है . वे एक ऐसे समाज सेवी थे जिन्होंने अपनी सेवा का कभी प्रचार नहीं किया, उनकी समाजसेवा में कोई राजनेता की प्रक्रति नहीं थी क्योकि उनकी मूल प्रक्रति एक लेखक की थी इसलिए उन्होंने लेखन को ही अपना कर्मछेत्र बनाया.बहुत  ही सादगी पसंद श्री त्रिपाठी  जी का व्यक्तित्व उनके कृतित्त्व में देखने को मिलता है उनकी लिखी पुस्तक "गाँधी धर्म और समाज "में वे गाँधी जी के धार्मिक समाजशास्त्र का व्यवस्थित विश्लेषण विवेचन करते हुए कहते है "मेरे मत से गाँधी जी अंशत: राजनीतिग थे विशेषत: धर्म तत्व चिन्तक थे और सर्वाशत:वैज्ञानिक, सामाजिक विचारक थे. परिस्थितियों के कारन उन्हें राजनीती को अंगीकार करना पड़ा था. परंपरा और संस्कारो के प्रभाव से वह धार्मिक हुए थे. किन्तु मूलवृत्ति उनकी वैज्ञानिक की थी, स्वभाव उनका सत्य-शोध का था और अभिरुचि उनकी समाज में थी ". त्रिपाठी जी अपनी लेखनी के माध्यम से गाँधी जी को एक नए गाँधी के रूप में सामने लातेहै जिसने विशुद्ध   समाज -वैज्ञानिक के रूप में ही धर्म पर विचार किया. वे कहते है उन्होंने (गांधीजी) ने विश्व के प्रमुख धर्मो का  और तटस्थ पर्यवेक्षण  - परिक्षण  तथा आकलन अनुशीलन करके सार्वभौम और सार्वकालिक सत्य नियम उद्घाटित किए. उनके निष्कर्ष प्रत्येक धर्म और प्रत्येक समाज के लिए व्यवहार्य है .                          
जन सामान्य से मिली अनौपचारिक मान- सम्मान ऐसा पुरस्कार होता है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व में आध्यात्मिक एवं नौतिक ऊँचाई के कारण मिलता है. दुसरो की नि: स्वार्थ सहायता करना, किसी के दू: ख को अपना समझ कर उसके काम  आना त्रिपाठी जी जेसे संत ह्रदय व्यक्ति ही कर सकता थे . व्यक्ति अपने पद, धन से समाज में सम्मान नहीं पता बल्कि अपने तन से किये गये सद्कर्मो से समाज में सम्मान पता है. श्री शम्भू रत्न त्रिपाठी जी ने एस बात को सत्य करके दिखा दिया. उन्होंने ना कभी पद का लोभ किया और ना धन को अपने जीवन में स्थान दिया. उन्होंने तो अपनी लेखनी के माध्यम से हजारो लोगो के जीवन की दिशा निर्धारित की.
श्री शम्भूरात्न जी  १९७१मे विश्व प्रसिद्ध योगी स्वामीराम (हिमालयन इंटरनेश्नल इंस्टीट्यूट ऑफ़ योगा एंड फिलासफी) के संपर्क में आये. दोनों के संपर्क के माध्यम थे डॉ श्री नारायण अग्निहोत्री. त्रिपाठी जी ने स्वामीराम का शिष्यतत्व ग्रहण किया. यह उनके जीवन का निर्णायक मोड़ था. यहा से उन्होंने सच्चे अर्थो में एक कर्मनिष्ट यति की रहा पकड़ी. कालगति के साथ- साथ उनकी अध्यात्मिक वृत्तिया उत्तरोत्तर उच्च स्तर को प्राप्त होती रही. उनके लेखन में भी एस बात की पुष्टिहोती है. सिद्ध  संत और योगी एवं मादाम ब्लावतास्की(अलौकिक योगिनी )इसके सजीव उदहारण है. जीवन के अंतिम वर्षो में त्रिपाठी जी स्वयं को आध्यात्मिकता में डूबा लिया. सन १९८८ में इस महान मनस्वी का देहावसान हुआ .                                                                                      

वो शाम....!


रात के आँचल को ढकती हुई,वो धूल की शाम
चाँद की जुल्फों में खिलती हुई,वो फूल की शाम 
गाँव को लौटते  चरवाहे का वो अज़नबी सा गीत 
दिन के हारे हुए सूरज पे जैसे शाम की जीत..

उड़ते पंछियों की मस्त धुन में गाती वो शाम
भीनी-भीनी सी ख़ुश्बुओं का जश्न मनाती वो शाम 
आज तक याद हैं, हँसती हुयी वो रात की शाम 
हमारे प्यार की वो पहली मुलाक़ात की शाम..

गाँव से दूर टीले पे गड़ा वो पत्थर 
जिसपे बैठा था,मैं इक अज़नबी की तरह
वो बिखरे-बिखरे से बाल,सूनी पलकों पे वो धूल के कण..

किसकी तलाश थी,कुछ भी पता नही 
वो कौन राह थी,कुछ भी पता नही 
माथे पर उमड़ती थी,लकीरे कितनी 
पर किसकी चाह थी,कुछ भी पता नही..

याद हैं तुमको हवा का वो मदहोश झोंका
जिसमे मदहोश हुआ,आज तक मदहोश हूँ मैं,
हर तरफ गूंजती है आज तक शहनाइयो की गूंज,
कांपते लब हैं मग़र आज तक ख़ामोश हूँ मैं..

याद है मेरी तरफ़ देखकर वो मुस्कराना तेरा 
एकटक देखना,कभी वो पलकें चुराना तेरा 
मैं तो बस मर ही गया था उस इक पल के लिए
मुझे इक ज़िन्दगी सी दे गया,वो शर्माना तेरा.. 

वो इक ख्वाब था या मासूम निगाहों का प्यार 
वो ख़ुदा का था कोई तोहफ़ा या बारिश की फुहार 
वो हिना की थी कोई खुश्बू या इबादत-ए-हयात 
वो ख़ुशी थी,मोहब्बत थी या ज़िन्दगी का सबात..

मैं तुझे ढूंढ़ता हूँ आज तक,हर रात में जुगनू की तरह 
मैं तुझे पूजता हूँ आज तक,हर फूल में खुश्बू की तरह
ऐसा भटका हूँ,तितली का टूटा हुआ पर हूँ जैसे 
ऐ ख़ुदा तू ही बता,क्यों अधूरा सा सफ़र हूँ जैसे...

मेरे मालिक तू इस तरह मेरा इम्तहान न ले 
दफ़्न कर दे मुझे,मेरी ज़िन्दगी की जान न ले 
वो जा रहा है मुझे छोड़कर,इक अज़नबी की तरह 
जिसने ग़र सांस भी ली हैं,तो मेरी मोहब्बत के साथ..

मैं उदास बाग़ सा हूँ,हर फूल बिखर गया जिसका 
इक मुसाफ़िर हूँ,कारवां गुज़र गया जिसका 
पता है ऐ मेरे हमदम,मैं आज भी वही पर हूँ 
फ़र्क हैं,उसी पत्थर पे बैठा आज एक पत्थर हूँ..

वो चराग़ जो जला था,हमारी पहली मुलाक़ात के साथ 
बुझ गया आज तेरी शहनाइयो की रात के साथ......


आशीष अवस्थी 'सागर' 
मोबाइल नंबर..9936337691 
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

कानपुर के एक मन्दिर मे शिव के साथ अंग्रेज अफसर की परिक्रमा

शहर में गंगा नदी के किनारे भगवतदास घाट पर बना भगवान शिव का करीब डेढ़ सौ साल पुराना मंदिर है, जहाँ लोग शिवलिंग के साथ-साथ एक अंग्रेज अफसर की मूर्ति की भी परिक्रमा करते हैं।

अंग्रेज की यह प्रतिमा इस मंदिर के दरवाजे पर भगवान गणेश और माँ दुर्गा की मूर्ति के बीच स्थापित है। काले घोड़े पर सवार हाथों में हंटर और रोबीली मूँछों वाले इस अंग्रेज अफसर के बारे में शहरवासियों का कहना है कि यह कर्नल स्टुअर्ट की मूर्ति है, जिसे उसने 1857 में मंदिर की स्थापना के समय लगवाया था, लेकिन जिले के अधिकारी इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं।

कानपुर के बीचोबीच गंगा नदी के पावन तट पर बना भगवतदास घाट काफी मशहूर घाट है। यहाँ पर प्रतिदिन दर्जनों लोगों का अंतिम संस्कार किया जाता है। इसी घाट के एक कोने पर भगवान शिव का एक छोटा-सा मंदिर है।

इसी मंदिर के दरवाजे पर विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों के बीच इस अंग्रेज अफसर की मूर्ति भी स्थापित है। मंदिर के एक पुजारी पंडित कैलाश अवस्थी बताते हैं कि सुबह-शाम सैकड़ों शिवभक्त शिवलिंग पर जल चढ़ाने के बाद मंदिर की परिक्रमा करते हैं और इसके साथ अन्य देवी-देवताओं के साथ इस अंग्रेज अफसर की भी परिक्रमा करते हैं।

वंदेमातरम संघर्ष समिति से जुड़े आलोक मेहरोत्रा बताते हैं कि हमने जब इंटरनेट पर कानपुर का इतिहास खंगाला तो उसमें यह जानकारी मिली कि करीब डेढ़ सौ साल पहले कर्नल स्टुअर्ट कानपुर में था।

गंगा नदी में स्नान करने वाले भक्त चाहते थे कि नदी के किनारे एक छोटा-सा मंदिर बन जाए, लेकिन अंग्रेज अफसर स्टुअर्ट ऐसा नहीं करने दे रहा था।

बाद में वह इस शर्त पर राजी हुआ कि मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्ति के साथ-साथ उसकी मूर्ति भी स्थापित हो और उसकी भी पूजा हो, इसलिए ऐसा किया गया।

 इस अंग्रेज अफसर की केवल परिक्रमा ही नहीं होती है, बल्कि देवी-देवताओं की मूर्ति के बीच में स्थापित होने के कारण लोग अज्ञानतावश इसकी पूजा-अर्चना करते हैं और इसे भोग भी लगाते हैं।

अंग्रेज अफसर की पूजा की बात पुजारी अवस्थी भी स्वीकारते हैं और कहते हैं कि लोग इस बारे में हमसे कुछ पूछते नहीं और हम बताते भी नहीं हैं। हम यह नहीं जानते कि यह मूर्ति इस अंग्रेज अफसर की है और मंदिर में कब स्थापित हुई है। बहरहाल  मंदिर में अंग्रेज अफसर की मूर्ति हर भारतवासी के माथे पर बदनुमा दाग है।  जुल्म करने वालों की पूजा कतई नहीं होनी चाहिए ।
( साभार वेब दुनिया  21/10/2007)

शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

कई दफ़े सोचता हूँ..!


कई दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?
कि इस आंगन में पाँयजेबर की कोई खनक ही नही
कि सामने मेहंदी के पेड़ की एक पत्ती भी तो न टूटी
कि कुआं तो अब भी प्यासा हैं रस्सी की इक छुअन के लिये
कि उस तार पर भीगी कोई चुनरी नही सूखी अब तक
कि माँ के हथफूल अब तक कपड़े में लिपटे रखे
कि घर के दरवाजे पे कोई झालर नही टंगी अब तक
बहोत दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?
कि सुबह की चाय अब तक दफ़्तर में ही पीता हूँ मैं
कि शाम अब तक मेरी होती हैं गंगा की रेत पर लिखते
बहोत दफ़े सोचता हूँ-
कि तुम थी भी,
या सिर्फ़ शब्दों का हेर-फेर था?
अहसासों का था तिनका कोई
या फिर सिर्फ़ विचारो की अदला-बदली?
ग़र नही थी,
तो फिर क्यों मैं ग़ज़ल पढ़ने से डरता अब तक?
क्यों उलझी रहती हैं 
रात की चादर की बेतरतीब सिलवटें?
क्यों सुबह का सूरज मेरी आखों में उगता पहले?
सब कहते हैं-यहाँ कोई तो नही
 फिर मैं किससे कहता हूँ-
"दो पल रुको तो, फिर चली जाना" 
ये सच हैं कि क़दमो के निशां
सिर्फ़ एक के दिखते सबको
पर कोई हैं,
 जो क़दम-दर-क़दम मेरे साथ-साथ चलता हैं...
सांस-दर-सांस मेरे सीने में सुलगता हैं....
लफ्ज़ -दर-लफ्ज़ मेरी नज़्म में उतरता हैं.....
कई दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?




आशीष अवस्थी 'सागर' 
मोबाइल नंबर..9936337691 
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/



और तुम ख़ामोश थी.......!


और तुम ख़ामोश थी..
मैं हमेशा की तरह ही बोलता था जा रहा
पूछता तुमसे कभी कुछ,और तुमको देखता 
और तुम ख़ामोश थी.....

दूब पर बिखरे हुए मोती हज़ारों ओस के 
मौन स्वीकृति दे रहे थे प्रेम को मानो हमारे
भोर की लाली खिलाती गुनगुनी सी रश्मियाँ सब, 
अर्घ पहला दे रही आलिंगनो को थी तुम्हारे
पक्षियों के पुंज चिंतित,चहकते सब पूछते थे 
आहलादित सुबह में,इस मौन का औचित्य क्या है?
प्रणय में यह वेदना क्यों.....?
और तुम ख़ामोश थी.....

गीत गाते झूमते जब सामने कुछ कृषक गुज़रे 
याद है तुमको हमें वो देख कर चुप हो गए थे,
और वो मृग युगल भी जो झील में था खेलता,
देख कर मानव युगल कुछ खिन्न जैसे हो रहे थे,
दरअसल हर रूप में थी,प्रकृति तुमसे पूछती 
प्रीति के संगीत में इस शांति का अभिप्राय क्या है?   
मिलन में व्यवधान क्यों.........?
और तुम ख़ामोश थी.....

दोपहर जब तप रहा था सूर्य चारों ओर से,
अंक में लेटी हुई तुम शांत सब सुनती रहीं  
चित्त भूला जा रहा था सहज जीवन मार्ग अपना,
और तुम चुपचाप लेटी,पथ नया चुनती रही,
और संशय छाँव में,मैं स्वयं से था पूछता 
प्रेम की भागीरथी में जब नही पावन हुए 
अग्नि फेरे और कुमकुम स्वांग का औचित्य क्या है?
व्यर्थ का यह योग क्यों........?
और तुम ख़ामोश थी.....

सायं की बेला निकट,सब पथिक घर को लौटते 
पक्षियों के झुण्ड,वापस घोसलों को उड़ चले
और तुमने मौन तोड़ा बोलकर दो शब्द यह-
"आज का यह दिवस अंतिम साथ अपने प्रेम का"
और पूरे दिवस की हर बात पर बस यह कहा-
"क्यों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भला मैं दूँ तुम्हे?"

और वह जो शाल ख़ामोशी की ओढ़े सुबह से 
मेरे कांधे पर ओढ़ा कर,और फिर तुम चल दिए 
और फिर तुम चल दिए,निस्वार्थ से निर्लिप्त से
और मैं तकता रहा निर्मूल सा,निष्प्राण सा 
और सहमी झील अपने पाश में थी सिमटती 
और दोनों हरिण रोते भागते थे हर तरफ़ 
और पथिको ने कभी वह रास्ता फिर न चुना 


और तब से आज तक वह पेड़ निष्फल ही रहा
और तब से दूब का तिनका नही उगता वहां 
उस दिवस की यंत्रणा पर प्रकृति का ऐसा रुदन !
और हम थे,रत्न "सागर" में सदा निर्धन रहे
प्रेम अमृत या गरल मैं आज तक समझा नही
प्रेम की प्रत्यक्ष परिणत बस यही दिखती मुझे-
"मंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
मौलवी के हाथ की तस्बीह सा ख़ामोश मैं"


मौलवी के हाथ की तस्बीह सा......................




आशीष अवस्थी 'सागर' 
मोबाइल नंबर..9936337691 
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/





शब्द मोल...... !


मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....
बचपन से सुनता आया था,
मैं शब्द-देश का राजकुंवर 
मैं भाव गगन का तारकेश,
अक्षरगिरि  का  उत्तुंग शिखर 
कंटकाकीर्ण  सिंहासन का,
मैं छत्र बेचने निकल पड़ा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....

बरसों से देख रहा था मैं,
घर की हर सुबह उदास उगी 
हर एक दोपहर आंगन में,
जठराग्नि सूर्य से तेज तपी  
चौके के चूल्हे को मैंने, 
जब सिसक-सिसक रोते देखा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...

मन  के तहख़ाने के भीतर,
जब ह्रदय कोठरी में पंहुचा 
संभ्रांत अतीत किवाड़ो पर,
यश की मजबूत कड़ी देखी
दर के ललाट पर लटका था,
बेदाग़ विरासत का ताला..
पुर्खों के नाम गुदे देखे,
पीढ़ियों की लाज जड़ी देखी

अनुभव की कुंजी से मैंने,
जीवन कपाट ज्यों ही खोले-
कैसा अनमोल खज़ाना था !
कितना नवीन कितना चेतन,
कल तक मृतप्राय पुराना था !

रंग बिरंगे शब्दों से,
थी ह्रदय कोठरी भरी पड़ी 
कुछ मुक्त,वयक्त,उपयुक्त शब्द,
शब्दों की कुछ संयुक्त लड़ी

कुछ शब्द दिखे ऐसे मुझको,
तदभव-तत्सम में उलझ रहे..
कुछ शब्द शूरवीरो के थे,
हीरे मोती से चमक रहे 

कंकड़ पत्थर जैसे कठोर,
कैकेयी  वचन पड़े देखे 
सीते-सीते कहकर फिरते,
कुछ 'राम शब्द' रोते देखे

चोरी का माखन टपक रहा,
कुछ शब्द तोतले भी देखे 
झूठे मद में दिख रहे घने, 
कुछ शब्द खोखले भी देखे..

दायें कोने इक शब्द ढेर,
यूँ ही देखा चलते-चलते 
पाषाण शब्द के भार तले,
कुछ दबे शब्द आहें भरते 

दो-तीन थैलियो में भरकर, 
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...

ज्यों ही बज़ार जा कर बैठा,
इक प्रेमी युगल निकट आया 
बोला-कुछ शब्द मुझे दे दो,
जिस पल मैं प्रेम मगन होकर
इसकी आँखों में खो जाता
कुछ होश नही रहता अपना,
प्रेयसी से कुछ ना कह पाता
हे शब्द देश के सौदागर,
कुछ प्रेम शब्द मुझको दे दो !

दो शब्द उसे मैंने बेचे-
इक 'त्याग' और इक 'निष्छलता'

यह सदा स्मरण रखना तुम,
ये त्याग प्रेम की सरिता है
निष्छल होकर तुम मौन सही,
हर सांस तुम्हारी कविता है..

इस लोकतंत्र के अभिकर्ता,
इक थैला लेकर आ पहुंचे 
बोले दो शब्द भरो इसमें-
'आश्वासन',केवल 'आश्वासन'

मैं बोला-अब वह दौर नही,
जब आश्वासन ले जाओगे 
दायित्व बराबर ही लोगे,
तब ही आश्वासन पाओगे

इक शब्द मुफ़्त देकर बोला-
यह 'कर्मदंड' कहलाता हैं 
अब तक वह प्राणी नही हुआ,
जो भी इससे बच पाता हैं !

इक तथाकथित कवि भी आये,
बोले कुछ शब्द तुरत दे दो,
इक कविसम्मलेन जाना हैं

मैंने पूछा इतनी जल्दी,
कैसे कविता रच पाओगे ?
तुलसी,कबीर,मीरा,दिनकर,
के क्या वंशज कहलाओगे ?

वह बोला-समय क़ीमती हैं, 
अब क्या कविता और क्या रचना 
शब्दों का घालमेल बिकता,
झूठे रस की आदी रसना

कुछ शब्द तौल तो दिए उसे,
इक शब्द साथ दे कर बोला-
कविताई जो भी तुम जानो,
पर कविवर याद इसे रखना 
यह शब्द 'संस्कृति' कहलाता, 
बस इसकी लाज नही तजना !

सामर्थ्य ज़रूरत के माफ़िक,.
लोगो ने शब्द ख़रीद लिए 
उस शब्द आवरण के भीतर,
सबने अपने हित छिपा लिए 

निर्धन ने आशा और कृपा,
धनवानों ने धन शब्द लिया 
नारी ने त्याग,प्यार लेकर,
आँचल में जगत समेट लिया 

ज़्यादातर लोगो को देखा,
वे लोभ ईर्ष्या लेते थे
दुर्बुद्धि कुछ ऐसे भी थे,
जो  निष्ठुर हिंसा लेते थे !

जब साँझ हुई घर को लौटा,
बस तीन शब्द अवशेष रहे-

पहला 'श्रृद्धा' कहलाता हैं-
गुरु और मात-पितु को अर्पण 

इस 'गर्व' शब्द से करता हूँ-
मैं राष्ट्र शहीदों का तर्पण 

तीजा यह 'सागर' भावों का,
प्रियतमा तुम्हारा रहे सदा 
रिश्तो और जन्मो से असीम,
ये प्रेम हमारा रहे सदा..

जीवन के इस घटनाक्रम पर,
इक प्रश्न मेरे मन में उठता
इस मोल-तोल की दुनिया में,
अनमोल नही कुछ क्यों रहता 

सपनो के बाज़ारुपन में,
क्योंकर कोई परमार्थ मिले ?
'शब्दों को अर्थ नही मिलता,
शब्दों से केवल अर्थ मिले'



आशीष अवस्थी 'सागर' 

मोबाइल नंबर..9936337691 
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/



गुरुवार, 29 सितंबर 2011

बाबा रामदेव जी का मेरे घर पर प्रवास

आजाद का मुगदर देख फड़क उठीं बाबा की बाहें

Sep 29, 08:19 pm
उन्नाव, जागरण संवाददाता: अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली पहुंचे बाबा रामदेव ने जब आजाद के साहस भरे किस्से सुने तो रोमांचित हो उठे। आंगन में रखे चंद्रशेखर आजाद के मुगदर को हवा में लहराया और फिर निहाल होते उनकी वीरता को सलाम किया।
माता जगरानी की स्मृति में बने आजाद मंदिर में स्थापित उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर घर में दाखिल हुए तो वहां पड़े आजाद के व्यायाम संसाधनों को देख सब भूल गये। उनकी निगाह वहां रखे मुगदरों पर पड़ी तो वे उसे उठाकर भांजने लगे। आजाद की मौसी के परिवारियों ने बताया कि यह वह मुगदर हैं जिन्हें आजाद जी खुद भांजा करते थे। यही उनकी निशानी संजो हम सब रखे हैं। यहां आये लोगों ने इन्हें भांजने का कई बार प्रयास किया लेकिन कोई अब तक सफल नहीं हुआ। उधर बाबा ने कहा योग और तप की बदौलत ही आजाद-आजाद रहे। अंग्रेजी हुकूमत को लोहे के चने चबाने को विवश कर दिया था। ऐसे महान सपूत की माटी को माथे पर लगा कर मैं धन्य हो गया।
किस देश में रहती हो नाम नहीं मालूम
उन्नाव: अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली बदरका पहुंचे बाबा ने उनके पैतृक आवास का भ्रमण किया। यहां आजाद जी द्वारा आजादी की लड़ाई के दौरान व्यक्त किये गये संस्मरणों को पढ़ा। इसके बाद वह मकान में रह रही एक महिला श्रीमती पत्‍‌नी स्वर्गीय कल्लू साहू के पास पहुंचे। जहां पर उन्होंने श्रीमती से पूछा कि बताओ तुम्हारे देश का नाम क्या है, लेकिन सामने बाबा को देख वह सब कुछ भूल गयी। यह देख बाबा जोर से हंसे और बोले भारत इतना भी नहीं जानती हो। इसके बाद बाबा ने साथ चल रहे समिति के सदस्यों से श्रीमती को एक हजार रुपये दिलाये।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

हिन्दी बोलने वाला मसखरा है? जाहिल है? गंवार है?



इस समय हिन्दी पखवाडा चल रहा है. ऐसे मे हिन्दी चर्चा और भी प्रासंगिक हो जाती है. हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए। यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि -



1. संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है,
2. वह सबसे अधिक सरल भाषा है,
3. वह सबसे अधिक लचीली भाषा है,
4, वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं तथा
5. वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है।
6. हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है।
7. हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्दरचनासामर्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
8. हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है।
9. हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है।
10. हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मुहताज नहीं रही।
११. भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन
अब मै कुछ प्रश्न आप सबके सामने रख रहा हू उम्मीद है इस पर विचार करेगे
1. हिन्दी की भारत मे क्या प्रस्थिति है?
2. अंग्रेजी बोलने वाला एक बेवकूफ  की भी  स्थिति समाज  मे उच्च क्यो मानी जाती है?
3.शुद्ध हिन्दी बोलने वाला मसखरा है? जाहिल है? गंवार है?
4. अंग्रेजी माध्यम  स्कूलो तथा अंग्रेजी युक्त उच्च शिक्षा के विरुद्ध  आन्दोलन हिन्दी के रहनुमा लोग करेगे?
5.हिन्दी लिपि के सिमटाव के पीछे किसका कुचक्र है?
6. हिन्दी के अपमान की सजा का क्या प्रावधान है?

सभी पाठको से अनुरोध है कि वे सोचे और मंथन करे कि इस सन्दर्भ मे क्या किया जाना चाहिये..
जय हिन्दी जय नागरी 


सन्दर्भ:विकिपीडिया

बुधवार, 7 सितंबर 2011

नैनीताल की वादिया: सुनहरी यादे


मैंने अलसाई सी आंखे खोली है.लेटे-लेटे खिड़की से दूर पहाड़ो को देखा पेड़ो  और पहाडियों की श्रंखलाओ के पीछे सूर्य निकलने लगा है, हलकी - हलकी  बारिश हो रही है, चिड़िया गा रही है कुछ धुंध  भी है जो पहाड़ो से रास्ता बना कर होटल की खिड़की से मेरे कमरे मैं आ रही है . पहाड़ो मैं मेरा बचपन बीता  है फिर आज नया क्या है कुछ अलग सा एहसास ये चुपके से कौन आया है मेरे पास पहाड़ो के पीछे से या उस झील की गहराई से जो चाँदी के तारो की तरह चमक रही है, मैं उसे टटोल ही नहीं पा रही हूँ. कौन है जो मन के दरवाजे से दस्तक दे कर चुप खड़ा है, मुझे  लगता है मेरा होना न होना होकर रहा गया है मेरी रुह मेरा साथ ऐसे छोड़ रही है जैसे पहाडियों की ऊची चोटी से बर्फ धीरे -धीरे पिघल रही है,  मुझे लग रहां  है किसी ने मेरा हाथ थाम  लिया है मुझे ले चला है झील के किनारे फिर देवदार के घने जंगलो की तरफ .  पहली बार इस यात्रा में मैं खुद को महसूस कर पा रही हूँ. मुझे लग रहा है कि नैनीताल की सारी धरती मेरे साथ नाच रही है आकाश नाच रहा है देवदार अन्य पेड़ो के साथ नाच रहे है. 
जब हम किसी के प्रेम में डूब जाते है तो हमारा जीवन साधारण  ऐसा ही सुन्दरतम हो जाता है जैसा कौसानी के सन सेट  पॉइंट पर सूर्य डूब रहा है पहाड़िया उसे अपने आगोश में छुपा रही है किसी बाँहे फैलाये प्रेमिका की तरह आज मैं एस सन सेट पॉइंट से दुआ करती हूँ की दुनिया का कोना- कोना प्यार की ख़ुशबू से महक उठे . किसी को किसी से नफरत ना हो, धर्म जाति सबसे ऊपर हो जाये प्रेम . जो प्यार में है प्यार करते है जिनके साथ उनका प्यार है वो इन पंक्तियों  को पढ़  कर सहमत होगे उनके लिए प्रेम का अर्थ भी यही है . प्रेम सबसे ऊपर है . वो गुलजार साहब कहते है ना की पांव के नीचे जन्नत तभी होगी जब सर पर इश्क  की छाँव होगी 
कहते है जब आप प्रेम में  जीते है तो हर तरफ फूल ही फूल खिल उठते है चारो और हरियाली छ जाती है और पहले से ही आप हरित प्रदेश में हो तो..... प्रेम  फूलो की खुशबू  की तरह आपके तन-मन में बहता है . मुझे लग रहा है देवभूमि में किन्ही दो प्रेमियों का मानस- रस सहज ही प्रवाहित हुआ होगा तभी इस भूमि में स्नेह  बहता  है उसी ने मेरे तन- मन को पागल कर दिया है. नशा, उन्माद, काव्य, नृत्य, गीत हजारो रूपों में अपनी पुरी मौलिकता  से मेरे अन्दर प्रस्फुटित हो रहा है. आज अचानक इस देवभूमि में, मैं प्रेम की बात क्यों कर रही हूँ . कौसानी के सन सेट  पॉइंट पर बैठी -बैठी मैं सूर्य को पहाडियों के पीछे डूबता देख रही हूँ. ऐसा ही होता है प्रेम भी 
भवाली का कनचनी मंदिर, अल्मोड़ा , कौसानी, रानीखेत का कलिका मंदिर  गोल्फ लिंक, हैदा खान मंदिर नैनीताल का भीम ताल , सात ताल , नौकुचिया ताल, हनुमानगढ़ी, केव गार्डन बर्न पत्थर, वाटर घुमते  हुए मुझे लगा की ना जाने कितने जोड़े प्रेम में डूबे हुए इन स्थानों  में घुमे होंगे एक दूसरे के असितत्व  में अपनी हर ख्वाहिश   का रंग घोलते   हुए इन  मंदिरों, गुफाओं, जंगलो, पहाडियों को अपने प्रेम का स्पर्श करते हुए यंहा से निकले होंगे तभी एस देवभूमि में एक अजीब तरह की मादकता है, नशा, शांति है सम्पूर्णता है मैं महसूस कर रही हूँ उन सब की संवेदना को. कितना सुन्दर कितना सुखद एक पूरे  व्यक्तित्व को सम्पूर्ण  रूप से अपने अन्दर समाहित करना . 
हर वो इंसान जिसे किसी भी रूप में प्यार चाहिए यानी जिन्दगी उसे नैनीताल  में हिमालय दर्शन जरूर करना चाहिए दूर हिम श्रंखलाए दिख रही है मानो  प्रेम  की परिभाषा सिखा रही है कह रही है देखो हम हिम श्रंखलाओ  को, हम मुक्त है कभी  बंधते बांधते  नही हमेशा पिघलते रहते है बस प्रेम भी ऐसा ही है जो मुक्त करता है बंधता नहीं जिसके साथ हम रहते है उसे हम सुख से ही नही भरते बल्कि उसके भीतर के बंद दरवाजो को खोलते भी चलते है. उसके वास्तविक रूपों को साकार करते है जब हम पिघलते है हमारे पिघलने सब साफ होकर साफ-साफ दिखने लगता है . तुम भी ऐसा ही करो जमो नहीं पिघलो  किसी के प्यार में तभी प्रेम के चरम को पाओगे. यह उदात्तता  नही यह साधना है . हिम श्रंखलाओ से प्रेम का एक नये रूप का परिचय पाकर जब मई  लवर्स  पॉइंट पहुंची तो ऐसा  लगा की किसी ने मेरी रूहों को छुआ है लवर्स  पॉइंट भी क्या खूब जगह है आप एक साथ वह पर बैठेगे तो पायेगे जैसे की देह छुट गयी है और आपकी आत्मा एक दुसरो में बध  गयी है और ऐसे बध गई है की आप एक दूसरे  की संभावनाओ को देख सकते है, उन्हें संवार  सकते है. यह पर आकर बुद्धि नहीं दिल की सुनते है दिल में छुपे प्रेम को सुनते है बुद्धि रूपी गणित की नही प्रेम को पाने का द्वार  तो प्रेम है गणित नहीं यह आकर ही ये समझ पाते  है. आप के प्रेमी  या प्रेमिका  शरीर से बढकर एक आत्मा है और किसी की आत्मा को दुखाया नहीं करते उनके मन और मस्तिष्क का ख्याल रखिये लवर्स  पॉइंट कुछ ऐसा ही मुझे समझा गया और शायद मेरे साथ सारी कायानत को सदियों से समझाता चला आ रहा है तभी नैनीताल की वादियों में प्यार के गीत आज भी गूंजते है और सदियों तक गूंजते रहेगे और ये गूंज आकाश, धरती  हर वो जगह फैल जाय जहां    ईष्या, अत्याचार, पाखंड , आतंक है, इसी आशा में मैंने अपना सर गाड़ी की सीट पर टिका लिया .

              




















                                            सबके दिलों में ऐसे ही प्यार की ज्योति जलती रहे 

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

और धार्मिक लोगों से उसे घृणा हो गई थी।

दुनिया में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो किसी के नौकर न होते हुए सबके नौकर होते हैं, जिन्हें कुछ अपना काम न होने पर भी सिर उठाने की फ़ुर्सत नहीं होती। जामिद इसी श्रेणी के मनुष्यों में था। बिल्कुल बेफ़िक्र, न किसी से दोस्ती, न किसी से दुश्मनी। जो ज़रा हँसकर बोला, उसका बेदाम का गुलाम हो गया। बेकाम का काम करने में उसे मज़ा आता था। गाँव में कोई बीमार पड़े, वह रोगी की सेवा-सुश्रुषा के लिए हाज़िर है। कहिए तो आधी रात हकीम के घर चला जाए, किसी जड़ी-बूटी की तलाश में जंगलों की ख़ाक छान आए। मुमकिन न था कि किसी ग़रीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह हिमायत करने से बाज न आता था। ऐसे सैकड़ों ही मौके उसके सामने आ चुके थे। कांस्टेबल से आए दिन ही उसकी छेड़-छाड़ होती रहती थी। इसलिए लोग उसे बौड़म समझते थे। और बात भी यही थी। जो आदमी किसी का बोझ भारी देखकर उससे छीन कर, अपने सिर ले ले, किसी का छप्पर उठाने या आग बुझाने के लिए कोसों दौड़ा चला जाए , उसे समझदार कौन कहेगा। सारांश यह है कि उसकी जात से दूसरों को चाहे कितना ही फ़ायदा पहुँचे, अपना कोई उपकार न होता था, यहाँ तक कि वह रोटियों तक के लिए भी दूसरों का मुहताज था। दीवाना तो वह था और उसका गम दूसरे खाते थे।

2

आख़िर जब लोगों ने बहुत धिक्कारा-- ’क्यों अपना जीवन नष्ट कर रहे हो, तुम दूसरों के लिए मरते हो, कोई तुम्हारा भी पूछने वाला है? अगर एक दिन बीमार पड़ जाओ, तो कोई चुल्लू भर पानी न दे, जब तक दूसरों की सेवा करते हो, लोग खैरात समझकर खाने को दे देते हैं, जिस दिन आ पड़ेगी, कोई सीधे मँह बात भी न करेगा, तब जामिद की आँखें खुलीं। बरतन-भांडा कुछ था ही नहीं। एक दिन उठा और एक तरफ़ की राह ली। दो दिन के बाद शहर में पहुँचा। शहर बहुत बड़ा था। महल आसमान से बातें करने वाले। सड़कें चौड़ी और साफ़, बाज़ार गुलज़ार, मसजिदों और मन्दिरों की संख्या अगर मकानों से अधिक न थी, तो कम भी नहीं। देहात में न तो कोई मस्जिद थी, न कोई मन्दिर। मुसलमान लोग एक चबूतरे पर नमाज़ पढ़ लेते थे। हिन्दू एक वृक्ष के नीचे पानी चढ़ा दिया करते थे। नगर में धर्म का यह माहात्म्य देखकर देखकर जामिद को बड़ा कुतुहल और आनन्द हुआ। उसकी दृष्टि में मज़हब का जितना सम्मान था उतना और किसी सांसारिक वस्तु का नहीं। वह सोचने लगा---ये लोग कितने ईमान के पक्के, कितने सत्यवादी हैं। इनमें कितनी दया, कितना विवेक , कितनी सहानुभूति होगी, तभी तो ख़ुदा ने इतना इन्हें माना है। वह हर आने-जाने वाले को श्रद्धा की दृष्टि से देखता और उसके सामने विनय से सिर झुकाता था। यहाँ के सभी प्राणी उसे देवता-तुल्य मालूम होते थे।
घूमते-घूमते सांझ हो गई। वह थककर मंदिर के चबूतरे पर जा बैठा। मंदिर बहुत बड़ा था, ऊपर सुनहला कलश चमक रहा था। जगमोहन पर संगमरमर के चौके जड़े हुए थे, मगर आंगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था। जामिद को गंदगी से चिढ़ थी, देवालय की यह दशा देखकर उससे न रहा गया, इधर-उधर निगाह दौड़ाई कि कहीं झाड़ू मिल जाए, तो साफ़ कर दे, पर झाड़ू कहीं नजर न आई। विवश होकर उसने दामन से चबूतरे को साफ़ करना शुरू कर दिया।
ज़रा देर में भक्तों का जमाव होने लगा। उन्होंने जामिद को चबूतरा साफ़ करते देखा , तो आपस में बातें करने लगे---
-- है तो मुसलमान
-- मेहतर होगा।
-- नहीं, मेहतर अपने दामन से सफ़ाई नहीं करता। कोई पागल मालूम होता है।
-- उधर का भेदिया न हो।
-- नहीं, चेहरे से बड़ा ग़रीब मालूम होता है।
-- हसन निज़ामी का कोई मुरीद होगा।
-- अजी गोबर के लालच से सफ़ाई कर रहा है। कोई भटियारा होगा। (जामिद से) गोबर न ले जाना बे, समझा? कहाँ रहता है?
-- परदेशी मुसाफ़िर हूँ, साहब, मुझे गोबर लेकर क्या करना है? ठाकुर जी का मन्दिर देखा तो आकर बैठ गया। कूड़ा पड़ा हुआ था। मैने सोचा---धर्मात्मा लोग आते होंगे, सफ़ाई करने लगा।
-- तुम तो मुसलमान हो न?
-- ठाकुर जी तो सबके ठाकुर हैं...क्या हिन्दु, क्या मुसलमान।
-- तुम ठाकुर जी को मानते हो?
-- ठाकुर जी को कौन न मानेगा साहब? जिसने पैदा किया, उसे न मानूंगा तो किसे मानूंगा।
भक्तों में यह सलाह होने लगी--
-- देहाती है।
-- फाँस लेना चाहिए, जाने न पाए।
3
जामिद फाँस लिया गया। उसका आदर-सत्कार होने लगा। एक हवादार मकान रहने को मिला। दोनों वक्त उत्तम पदार्थ खाने को मिलने लगे। दो चार आदमी हरदम उसे घेरे रहते। जामिद को भजन खूब याद थे। गला भी अच्छा था। वह रोज़ मन्दिर में जाकर कीर्तन करता। भक्ति के साथ स्वर लालित्य भी हो, तो फिर क्या पूछना। लोगों पर उसके कीर्तन का बड़ा असर पड़ता। कितने ही लोग संगीत के लोभ से ही मंदिर में आने लगे। सबको विश्वास हो गया कि भगवान ने यह शिकार चुनकर भेजा है।
एक दिन मंदिर में बहुत-से आदमी जमा हुए। आंगन में फ़र्श बिछाया गया। जामिद का सर मुड़ा दिया गया। नए कपड़े पहनाए। हवन हुआ। जामिद के हाथों से मिठाई बाँटी गई। वह अपने आश्रयदाताओं की उदारता और धर्मनिष्ठा का और भी कायल हो गया। ये लोग कितने सज्जन हैं, मुझ जैसे फटेहाल परदेशी की इतनी खातिर। इसी को सच्चा धर्म कहते हैं। जामिद को जीवन में कभी इतना सम्मान न मिला था। यहाँ वही सैलानी युवक जिसे लोग बौड़म कहते थे, भक्तों का सिरमौर बना हुआ था। सैकड़ों ही आदमी केवल उसके दर्शनों को आते थे। उसकी प्रकांड विद्वता की कितनी ही कथाएँ प्रचिलित हो गईं। पत्रों में यह समाचार निकला कि एक बड़े आलिम मौलवी साहब की शुद्धि हुई है। सीधा-सादा जामिद इस सम्मान का रहस्य कुछ न समझता था। ऐसे धर्मपरायण सहृदय प्राणियों के लिए वह क्या कुछ न करता? वह नित्य पूजा करता, भजन गाता था। उसके लिए यह कोई नई बात न थी। अपने गाँव में भी वह बराबर सत्यनारायण की कथा में बैठा करता था। भजन कीर्तन किया करता था। अंतर यही था कि देहात में उसकी कदर न थी। यहाँ सब उसके भक्त थे।
एक दिन जामिद कई भक्तों के साथ बैठा हुआ कोई पुराण पढ़ रहा था तो क्या देखता है कि सामने सड़क पर एक बलिष्ठ युवक, माथे पर तिलक लगाए, जनेऊ पहने, एक बूढ़े, दुर्बल मनुष्य को मार रहा है। बुढ्ढा रोता है, गिड़गिड़ाता है और पैरों पड़-पड़ के कहता है कि महाराज, मेरा कसूर माफ़ करो, किन्तु तिलकधारी युवक को उस पर ज़रा भी दया नहीं आती। जामिद का रक्त खौल उठा। ऐसे दृश्य देखकर वह शांत न बैठ सकता था। तुरंत कूदकर बाहर निकला और युवक के सामने आकर बोला---बुड्ढे को क्यों मारते हो, भाई? तुम्हें इस पर ज़रा भी दया नहीं आती?
युवक-- मैं मारते-मारते इसकी हड्डियाँ तोड़ दूंगा।
जामिद-- आख़िर इसने क्या कसूर किया है? कुछ मालूम भी तो हो।
युवक-- इसकी मुर्गी हमारे घर में घुस गई थी और सारा घर गंदा कर आई।
जामिद-- तो क्या इसने मुर्गी को सिखा दिया था कि तुम्हारा घर गंदा कर आए?
बुड्ढा-- ख़ुदाबंद मैं उसे बराबर खाँचे में ढाँके रहता हूँ। आज गफ़लत हो गई। कहता हूँ, महाराज, कुसूर माफ़ करो, मगर नहीं मानते। हुजूर, मारते-मारते अधमरा कर दिया।
युवक-- अभी नहीं मारा है, अब मारूंगा, खोद कर गाड़ दूंगा।
जामिद-- खोद कर गाड़ दोगे, भाई साहब, तो तुम भी यों खड़े न रहोगे। समझ गए? अगर फिर हाथ उठाया, तो अच्छा न होगा।
ज़वान को अपनी ताकत का नशा था। उसने फिर बुड्ढे को चाँटा लगाया, पर चाँटा पड़ने के पहले ही जामिद ने उसकी गरदन पकड़ ली। दोनों में मल्ल-युद्ध होने लगा। जामिद करारा जवान था। युवक को पटकनी दी, तो वह चारों खाने चित्त गिर गया। उसका गिरना था कि भक्तों का समुदाय, जो अब तक मंदिर में बैठा तमाशा देख रहा था, लपक पड़ा और जामिद पर चारों तरफ से चोटें पड़ने लगीं। जामिद की समझ में न आता था कि लोग मुझे क्यों मार रहे हैं। कोई कुछ न पूछता। तिलकधारी जवान को कोई कुछ नहीं कहता। बस, जो आता है, मुझ ही पर हाथ साफ़ करता है। आखिर वह बेदम होकर गिर पड़ा। तब लोगों में बातें होने लगीं।
-- दगा दे गया।
-- धत् तेरी जात की! कभी म्लेच्छों से भलाई की आशा न रखनी चाहिए। कौआ कौओं के साथ मिलेगा। कमीना जब करेगा कमीनापन, इसे कोई पूछता न था, मंदिर में झाड़ू लगा रहा था। देह पर कपड़े का तार भी न था, हमने इसका सम्मान किया, पशु से आदमी बना दिया, फिर भी अपना न हुआ।
-- इनके धर्म का तो मूल ही यही है।

जामिद रात भर सड़क के किनारे पड़ा दर्द से कराहता रहा, उसे मार खाने का दुख न था। ऐसी यातनाएँ वह कितनी बार भोग चुका था। उसे दुख और आश्चर्य केवल इस बात का था कि इन लोगों ने क्यों एक दिन मेरा इतना सम्मान किया और क्यों आज अकारण ही मेरी इतनी दुर्गति की? इनकी वह सज्जनता आज कहाँ गई? मैं तो वही हूँ। मैने कोई कसूर भी नहीं किया। मैने तो वही किया, जो ऐसी दशा में सभी को करना चाहिए, फिर इन लोगों ने मुझ पर क्यों इतना अत्याचार किया? देवता क्यों राक्षस बन गए?
वह रात भर इसी उलझन में पड़ा रहा। प्रातःकाल उठ कर एक तरफ़ की राह ली।
जामिद अभी थोड़ी ही दूर गया था कि वह बुड्ढा उसे मिला। उसे देखते ही बोला-- कसम ख़ुदा की, तुमने कल मेरी जान बचा दी। सुना, जालिमों ने तुम्हें बुरी तरह पीटा। मैं तो मौक़ा पाते ही निकल भागा। अब तक कहाँ थे। यहाँ लोग रात ही से तुमसे मिलने के लिए बेक़रार हो रहे हैं। काज़ी साहब रात ही से तुम्हारी तलाश में निकले थे, मगर तुम न मिले। कल हम दोनों अकेले पड़ गए थे। दुश्मनों ने हमें पीट लिया। नमाज़ का वक्त था, जहाँ सब लोग मस्जिद में थे, अगर ज़रा भी ख़बर हो जाती, तो एक हज़ार लठैत पहुँच जाते। तब आटे-दाल का भाव मालूम होता। कसम ख़ुदा की, आज से मैने तीन कोड़ी मुर्गियां पाली हैं। देखूँ, पंडित जी महाराज अब क्या करते हैं। कसम ख़ुदा की, काज़ी साहब ने कहा है, अगर यह लौंडा ज़रा भी आँख दिखाए, तो तुम आकर मुझ से कहना। या तो बच्चा घर छोड़कर भागेंगे या हड्डी-पसली तोड़कर रख दी जाएगी।
जामिद को लिए वह बुड्ढा काज़ी जोरावर हुसैन के दरवाज़े पर पहुँचा। काज़ी साहब वजू कर रहे थे। जामिद को देखते ही दौड़कर गले लगा लिया और बोले-- वल्लाह! तुम्हें आँखें ढूंढ़ रही थीं। तुमने अकेले इतने काफ़िरों के दाँत खट्टे कर दिए। क्यों न हो, मोमिन का ख़ून है। काफ़िरों की हक़ीकत क्या? सुना, सब-के-सब तुम्हारी शुद्धि करने जा रहे थे, मगर तुमने उनके सारे मनसूबे पलट दिए। इस्लाम को ऐसे ही ख़ादिमों की ज़रूरत है। तुम जैसे दीनदारों से इस्लाम का नाम रौशन है। ग़लती यही हुई कि तुमने एक महीने तक सब्र नहीं किया। शादी हो जाने देते, तब मज़ा आता। एक नाजनीन साथ लाते और दौलत मुफ़्त। वल्लाह! तुमने उजलत कर दी।
दिन भर भक्तों का ताँता लगा रहा। जामिद को एक नज़र देखने का सबको शौक था। सभी उसकी हिम्मत, जोर और मज़हबी जोश की प्रशंसा करते थे।
4
पहर रात बीत चुकी थी। मुसाफ़िरों की आमदरफ़्त कम हो चली थी। जामिद ने काज़ी समाज से धर्म-ग्रन्थ पढ़ना शुरु किया था। उन्होंने उसके लिए अपने बगल का कमरा ख़ाली कर दिया था। वह काज़ी साहब से सबक लेकर आया और सोने जा रहा था कि सहसा उसे दरवाजे पर एक तांगे के रुकने की आवाज़ सुनाई दी। काज़ी साहब के मुरीद अक्सर आया करते थे। जामिद ने सोचा, कोई मुरीद आया होगा। नीचे आया तो देखा,एक स्त्री तांगे से उतर कर बरामदे में खड़ी है और तांगे वाला उसका असबाब उतार रहा है।
महिला ने मकान को इधर-उधर देखकर कहा-- नहीं जी, मुझे अच्छी तरह ख्याल है, यह उनका मकान नहीं है। शायद तुम भूल गए हो।
तांगे वाला-- हुज़ूर तो मानती ही नहीं। कह दिया कि बाबू साहब ने मकान तब्दील कर दिया है। ऊपर चलिए।
स्त्री ने कुछ झिझकते हुए कहा-- बुलाते क्यों नहीं? आवाज़ दो!
तांगे वाला-- ओ साहब, आवाज़ क्या दूँ, जब जानता हूँ कि साहब का मकान यही है तो नाहक चिल्लाने से क्या फ़ायदा? बेचारे आराम कर रहे होंगे। आराम में खलल पड़ेगा। आप निसाखातिर रहिए। चलिए, ऊपर चलिए।
औरत ऊपर चली। पीछे-पीछे तांगे वाला असबाब लिए हुए चला। जामिद गुमसुम नीचे खड़ा रहा। यह रहस्य उसकी समझ में न आया।
तांगे वाले की आवाज़ सुनते ही काज़ी साहब छत पर निकल आए और एक औरत को आते देख कमरे की खिड़कियाँ चारों तरफ़ से बंद करके खूँटी पर लटकती तलवार उतार ली और दरवाज़े पर आकर खड़े हो गए।
औरत ने जीना तय करके ज्यों ही छत पर पैर रखा कि काज़ी साहब को देखकर झिझकी। वह तुरंत पीछे की तरफ़ मुड़ना चाहती थी कि काज़ी साहब ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और कमरे में घसीट लाए। इसी बीच में जामिद और तांगेवाला ये दोनों भी ऊपर आ गए थे। जामिद यह दृश्य देखकर विस्मित हो गया था। यह रहस्य और भी रहस्यमय हो गया था। यह विद्या का सागर, यह न्याय का भंडार, यह नीति, धर्म और दर्शन का आगार इस समय एक अपरिचित महिला के ऊपर यह घोर अत्याचार कर रहा है। तांगे वाले के साथ वह भी काज़ी साहब के कमरे में चला गया। काज़ी साहब ने स्त्री के दोनों हाथ पकड़े हुए थे। तांगे वाले ने दरवाज़ा बन्द कर दिया।
महिला ने तांगे वाले की ओर ख़ूनभरी आँखों से देखकर कहा-- तू मुझे यहाँ क्यों लाया?
काज़ी साहब ने तलवार चमका कर कहा-- पहले आराम से बैठ जाओ, सब कुछ मालूम हो जाएगा।
औरत-- तुम तो मुझे कोई मौलवी मालूम होते हो? क्या तुम्हें ख़ुदा ने यही सिखाया है कि पराई बहू-बेटियों को ज़बर्दस्ती घर में बन्द करके उनकी आबरू बिगाड़ो?
काज़ी-- हाँ ख़ुदा का यही हुक्म है कि काफ़िरों को जिस तरह मुमकिन हो, इस्लाम के रास्ते पर लाया जाए। अगर ख़ुशी से न आएँ, तो जब्र से।
औरत-- इसी तरह अगर कोई तुम्हारी बहू-बेटी को पकड़कर बे-आबरू करे, तो ?
काज़ी-- हो रहा है। जैसा तुम हमारे साथ करोगे वैसा ही हम तुम्हारे साथ करेंगे। फिर हम तो बे-आबरू नहीं करते, सिर्फ अपने मजहब में शामिल करते है। इस्लाम कबूल करने से आबरू बढ़ती है, घटती नहीं। हिन्दू कौम ने तो हमें मिटा देने का बीड़ा उठाया है। वह इस मुल्क से हमारा निशान मिटा देना चाहती है। धोखे से, लालच से, जब्र से, मुसलमानों को बे-दीन बनाया जा रहा है, तो मुसलमान बैठे मुँह ताकेंगे ?
औरत-- हिन्दू कभी ऐसा अत्याचार नहीं कर सकता। सम्भव है, तुम लोगों की शरारतों से तंग आकर नीचे दर्ज़े के लोग इस तरह से बदला लेने लगे हों, मगर अब भी कोई सच्चा हिन्दू इसे पसंद नहीं करता।
काज़ी साहब ने कुछ सोचकर कहा-- बेशक, पहले इस तरह की शरारत मुसलमान शोहदे किया करते थे। मगर शरीफ़ इन हरकतों को बुरा समझते थे और अपने इमकान भर रोकने की कोशिश करते थे। तालीम और तहज़ीब की तरक्की के साथ कुछ दिनों में यह गुंडापन ज़रूर गायब हो जाता, मगर अब तो सारी हिन्दू कौम हमें निगलने के लिए तैयार बैठी हुई है। फिर हमारे लिए और रास्ता ही कौन-सा है। हम कमज़ोर हैं, इसलिए हमें मज़बूर होकर अपने को कायम रखने के लिए दगा से काम लेना पड़ता है, मगर तुम इतना घबराती क्यों हो? तुम्हें यहाँ किसी बात की तकलीफ़ न होगी। इस्लाम औरतों के हक़ का जितना लिहाज करता है, उतना और कोई मज़हब नहीं करता। और मुसलमान मर्द तो अपनी औरत पर जान देता है। मेरे यह नौजवान दोस्त (जामिद) तुम्हारे सामने खड़े हैं, इन्ही के साथ तुम्हारा निकाह करा दिया जाएगा। बस, आराम से ज़िन्दगी के दिन बसर करना।
औरत-- मैं तुम्हें और तुम्हारे धर्म को घृणित समझती हूँ, तुम कुत्ते हो । इसके सिवा तुम्हारे लिए कोई दूसरा नाम नहीं। ख़ैरियत इसी में है कि मुझे जाने दो, नहीं तो मैं अभी शोर मचा दूंगी और तुम्हारा सारा मौलवीपन निकल जाएगा।
काज़ी-- अगर तुमने ज़बान खोली, तो तुम्हे जान से हाथ धोना पड़ेगा। बस, इतना समझ लो।
औरत-- आबरू के सामने जान की कोई हक़ीक़त नहीं। तुम मेरी जान ले सकते हो, मगर आबरू नहीं ले सकते।
काज़ी-- क्यों नाहक जिद करती हो?
औरत ने दरवाज़े के पास जाकर कहा-- कहती हूँ, दरवाज़ा खोल दो।
जामिद अब तक चुपचाप खड़ा था। ज्यों ही स्त्री दरवाज़े की तरफ चली और काज़ी साहब ने उसका हाथ पकड़कर खींचा, जामिद ने तुरंत दरवाज़ा खोल दिया और काज़ी साहब से बोला-- इन्हें छोड़ दीजिए।
काज़ी-- क्या बकता है ?
जामिद-- कुछ नहीं। ख़ैरियत इसी में है इन्हें छोड़ दीजिए।
लेकिन जब काज़ी साहब ने उस महिला का हाथ न छोड़ा और तांगे वाला भी उसे पकड़ने के लिए बढ़ा, तो जामिद ने एक धक्का देकर काज़ी साहब को धकेल दिया और उस स्त्री का हाथ पकड़े हुए कमरे से बाहर निकल गया। तांगे वाला पीछे लपका, मगर जामिद ने उसे इतनी जोर से धक्का दिया कि वह औंधे मुँह जा गिरा। एक क्षण में जामिद और स्त्री दोनों सड़क पर थे।
जामिद-- आपका घर किस मोहल्ले में है?
औरत-- अढ़ियागंज में।
जामिद-- चलिए, मैं आपको पहुँचा आऊँ।
औरत-- इससे बड़ी और क्या मेहरबानी होगी। मैं आपकी इस नेकी को कभी न भूलूंगी। आपने आज मेरी आबरू बचा ली, नहीं तो मैं कहीं की न रहती। मुझे अब मालूम हुआ कि अच्छे और बुरे सब जगह होते हैं। मेरे शौहर का नाम पंडित राजकुमार है।
उसी वक्त एक तांगा सड़क पर आता दिखाई दिया। जामिद ने स्त्री को उस पर बिठा दिया और ख़ुद बैठना ही चाहता था कि ऊपर से काज़ी साहब ने जामिद पर लठ्ठ चलाया और डंडा तांगे से टकराया। जामिद तांगे में आ बैठा और तांगा चल दिया।
अहियागंज में पंडित राजकुमार का पता लगाने में कठिनाई न पड़ी। जामिद ने ज्यों ही आवाज़ दी, वह घबराए हुए बाहर निकल आए और स्त्री को देखकर बोले-- तुम कहाँ रह गई थीं, इंदिरा? मैंने तो तुम्हे स्टेशन पर कहीं न देखा, मुझे पहुँचने में देर हो गई थी। तुम्हें इतनी देर कहाँ लगी?
इंदिरा ने घर के अंदर कदम रखते ही कहा-- बड़ी लम्बी कथा है, ज़रा दम लेने दो तो बताती हूँ। बस, इतना ही समझ लो कि आज इस मुसलमान ने मेरी मदद न की होती तो आबरू चली गई थी।
पंडित जी पूरी कथा सुनने के लिए और भी व्याकुल हो उठे। इंदिरा के साथ वह भी घर में चले गए, पर एक ही मिनट बाद बाहर आकर जामिद से बोले-- भाईसाहब, शायद आप बनावट समझें, पर मुझे आपके रूप में इस समय इष्टदेव के दर्शन हो रहे हैं। मेरी जबान में इतनी ताकत नहीं कि आपका शुक्रिया अदा कर सकूँ। आइए, बैठ जाइए।
जामिद-- जी नहीं, अब मुझे इजाज़त दीजिए।
पंडित-- मैं आपकी इस नेकी का क्या बदला चुका सकता हूँ?
जामिद-- इसका बदला यही है कि इस शरारत का बदला किसी ग़रीब मुसलमान से न लीजिएगा, मेरी आपसे यही दरख़्वास्त है।
यह कहकर जामिद उठ खड़ा हुआ और उस अंधेरी रात के सन्नाटे में शहर से बाहर निकल गया। उस शहर की विषाक्त वायु में साँस लेते हुए उसका दम घुटता था। वह जल्द-से-जल्द शहर से भागकर अपने गाँव में पहुँचना चाहता था, जहाँ मजहब का नाम सहानुभूति, प्रेम और सौहाद्र था। धर्म और धार्मिक लोगों से उसे घृणा हो गई थी............... मुंशी प्रेमचन्द