कई दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?
कि इस आंगन में पाँयजेबर की कोई खनक ही नही
कि सामने मेहंदी के पेड़ की एक पत्ती भी तो न टूटी
कि कुआं तो अब भी प्यासा हैं रस्सी की इक छुअन के लिये
कि घर के दरवाजे पे कोई झालर नही टंगी अब तक
कि तुम थी भी,
या सिर्फ़ शब्दों का हेर-फेर था?
अहसासों का था तिनका कोई
तो फिर क्यों मैं ग़ज़ल पढ़ने से डरता अब तक?
क्यों उलझी रहती हैं
सब कहते हैं-यहाँ कोई तो नही
फिर मैं किससे कहता हूँ-
सिर्फ़ एक के दिखते सबको
पर कोई हैं,
जो क़दम-दर-क़दम मेरे साथ-साथ चलता हैं...
जो क़दम-दर-क़दम मेरे साथ-साथ चलता हैं...
सांस-दर-सांस मेरे सीने में सुलगता हैं....
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद्|
जवाब देंहटाएंbahut umdaa rachana
जवाब देंहटाएंये सच हैं कि क़दमो के निशां
जवाब देंहटाएंसिर्फ़ एक के दिखते सबको
पर कोई हैं,
bhut acha.