मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....
बचपन से सुनता आया था,
मैं शब्द-देश का राजकुंवर
मैं भाव गगन का तारकेश,
अक्षरगिरि का उत्तुंग शिखर
कंटकाकीर्ण सिंहासन का,
मैं छत्र बेचने निकल पड़ा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....
बरसों से देख रहा था मैं,
घर की हर सुबह उदास उगी
हर एक दोपहर आंगन में,
जठराग्नि सूर्य से तेज तपी
चौके के चूल्हे को मैंने,
जब सिसक-सिसक रोते देखा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...
मन के तहख़ाने के भीतर,
जब ह्रदय कोठरी में पंहुचा
संभ्रांत अतीत किवाड़ो पर,
यश की मजबूत कड़ी देखी
दर के ललाट पर लटका था,
बेदाग़ विरासत का ताला..
पुर्खों के नाम गुदे देखे,
पीढ़ियों की लाज जड़ी देखी
अनुभव की कुंजी से मैंने,
जीवन कपाट ज्यों ही खोले-
कैसा अनमोल खज़ाना था !
कितना नवीन कितना चेतन,
कल तक मृतप्राय पुराना था !
रंग बिरंगे शब्दों से,
थी ह्रदय कोठरी भरी पड़ी
कुछ मुक्त,वयक्त,उपयुक्त शब्द,
शब्दों की कुछ संयुक्त लड़ी
कुछ शब्द दिखे ऐसे मुझको,
तदभव-तत्सम में उलझ रहे..
कुछ शब्द शूरवीरो के थे,
हीरे मोती से चमक रहे
कंकड़ पत्थर जैसे कठोर,
कैकेयी वचन पड़े देखे
सीते-सीते कहकर फिरते,
कुछ 'राम शब्द' रोते देखे
चोरी का माखन टपक रहा,
कुछ शब्द तोतले भी देखे
झूठे मद में दिख रहे घने,
कुछ शब्द खोखले भी देखे..
दायें कोने इक शब्द ढेर,
यूँ ही देखा चलते-चलते
पाषाण शब्द के भार तले,
कुछ दबे शब्द आहें भरते
दो-तीन थैलियो में भरकर,
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...
ज्यों ही बज़ार जा कर बैठा,
इक प्रेमी युगल निकट आया
बोला-कुछ शब्द मुझे दे दो,
जिस पल मैं प्रेम मगन होकर
इसकी आँखों में खो जाता
कुछ होश नही रहता अपना,
प्रेयसी से कुछ ना कह पाता
हे शब्द देश के सौदागर,
कुछ प्रेम शब्द मुझको दे दो !
दो शब्द उसे मैंने बेचे-
इक 'त्याग' और इक 'निष्छलता'
यह सदा स्मरण रखना तुम,
ये त्याग प्रेम की सरिता है
निष्छल होकर तुम मौन सही,
हर सांस तुम्हारी कविता है..
इस लोकतंत्र के अभिकर्ता,
इक थैला लेकर आ पहुंचे
बोले दो शब्द भरो इसमें-
'आश्वासन',केवल 'आश्वासन'
मैं बोला-अब वह दौर नही,
जब आश्वासन ले जाओगे
दायित्व बराबर ही लोगे,
तब ही आश्वासन पाओगे
इक शब्द मुफ़्त देकर बोला-
यह 'कर्मदंड' कहलाता हैं
अब तक वह प्राणी नही हुआ,
जो भी इससे बच पाता हैं !
इक तथाकथित कवि भी आये,
बोले कुछ शब्द तुरत दे दो,
इक कविसम्मलेन जाना हैं
मैंने पूछा इतनी जल्दी,
कैसे कविता रच पाओगे ?
तुलसी,कबीर,मीरा,दिनकर,
के क्या वंशज कहलाओगे ?
वह बोला-समय क़ीमती हैं,
अब क्या कविता और क्या रचना
शब्दों का घालमेल बिकता,
झूठे रस की आदी रसना
कुछ शब्द तौल तो दिए उसे,
इक शब्द साथ दे कर बोला-
कविताई जो भी तुम जानो,
पर कविवर याद इसे रखना
यह शब्द 'संस्कृति' कहलाता,
बस इसकी लाज नही तजना !
सामर्थ्य ज़रूरत के माफ़िक,.
लोगो ने शब्द ख़रीद लिए
उस शब्द आवरण के भीतर,
सबने अपने हित छिपा लिए
निर्धन ने आशा और कृपा,
धनवानों ने धन शब्द लिया
नारी ने त्याग,प्यार लेकर,
आँचल में जगत समेट लिया
ज़्यादातर लोगो को देखा,
वे लोभ ईर्ष्या लेते थे
दुर्बुद्धि कुछ ऐसे भी थे,
जो निष्ठुर हिंसा लेते थे !
जब साँझ हुई घर को लौटा,
बस तीन शब्द अवशेष रहे-
पहला 'श्रृद्धा' कहलाता हैं-
गुरु और मात-पितु को अर्पण
इस 'गर्व' शब्द से करता हूँ-
मैं राष्ट्र शहीदों का तर्पण
तीजा यह 'सागर' भावों का,
प्रियतमा तुम्हारा रहे सदा
रिश्तो और जन्मो से असीम,
ये प्रेम हमारा रहे सदा..
जीवन के इस घटनाक्रम पर,
इक प्रश्न मेरे मन में उठता
इस मोल-तोल की दुनिया में,
अनमोल नही कुछ क्यों रहता
सपनो के बाज़ारुपन में,
क्योंकर कोई परमार्थ मिले ?
'शब्दों को अर्थ नही मिलता,
शब्दों से केवल अर्थ मिले'
आशीष अवस्थी 'सागर'
मोबाइल नंबर..9936337691
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/
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