जहाँ फिरंगियों को पडी मुंह की खानी है,
ये कानपुर है भईया यहाँ का कड़ा पानी है।
सनेही जी की ये पंक्तियाँ कानपुर के साहित्यकारों के फक्कड़ स्वभाव को परिलक्षित करती हैं। हाजिरजवाबी और मस्त मौलापन कानपुर की मौलिकता है। कानपुर के जितने भी साहित्यकार हैं चाहे वह पहले के प्रताप नारायण मिश्र हो नवीन जी सनेही जी हो या फिर हितैसी जी या फिर आज के मशहूर लेखक अनूप शुक्ल 'कट्टा कानपुरी ' हों सभी की रचनाओं में एक चीज समान रूप से देखी जा सकती है और वह है 'मौज' प्रताप नारायण मिश्र इस 'मौज' प्रदायनी कनपुरिया माटी के बारे लिखते हैं
बागे ज़न्नत से नही कम फिजायें कानपुर,
मुर्दा जी जाए जो खाए हवायें कानपुर।
भूल रिज्बा इस्म को जो आये कानपुर,
छोड़ कर हरगिज़ न वो जाए फिर कानपुर।
फक्कड़ पन की बात मुन्नू गुरु के बिना अधूरी है। मुन्नू गुरु ने न केवल हिंदी शब्द कोष को नये नये शब्दों से समृद्ध किया बल्कि आने वाले साहित्यकारों के लिए नव शब्द निर्माण की परंपरा भी छोड़ गए। चिकाई /चिकाही, गुरु ,लौझड़ जैसे अनगिनत शब्द कनपुरिया साहित्यबाजों ने गढ़े हैं कि वेबस्टर डिक्शनरी की सात पुश्ते भी उसे न खोज पायें। कनपुरिया साहित्य की ख़ास बात यह है कि शब्द के अर्थ किसी शब्दकोष से नही बल्कि उस शब्द के उच्चारण और शरीर की भावभंगिमा से तय होते हैं।
कानपुर की साहित्य उर्वरा भूमि को छू कर कितने पत्थर पारस हो गए। देश के जाने किस कोने से भटकते हुए कलमकार यहां आये और यहाँ के मूलमंत्र 'झाङे रहो कलट्टरगंज' में दीक्षित होकर गणेश शंकर 'विद्यार्थी' , अटल बिहारी बाजपेयी, गोपाल दास 'नीरज' और सुरेश फक्कड़ बनते चले गये। फक्कड़ पन और कनपुरिया साहित्य एक दूसरे के पर्याय और ताकत हैं। इसी ठसक के चलते कानपुर के साहित्यकारों की पूरे विश्व में पहचान है।
क्या बात है! कट्टा कानपुरी से भी मौज ले ली! :)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
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