कुछ चीज दूर
से देखन में
भली होती है
आग छूता है
वहीँ जिसकी अंगुली न जली होती है
भटक जाता है
मुसाफिर उस गली में अक्सर
जो उसके लिए अनजान गली
होती है
लोग अक्सर बहक
जाते हैं उन बहारों में
जिन बहारों में
हजारों ही कली होती हैं
भ्रमर अक्सर ही
बहकते हैं उन्हीं
कलियों पर
चमन गुलजार
में जो अधखिली
सी होती हैं
महक का जाल चमन फेका
जब फिजाओं में
हो मद में मस्त
चमन में ही उलझे
जाते हैं
प्यार का जाल बुना है
गजब शिकारी ने
उलझ एक बार
जो गया तो उलझे जाते
हैं
दीपक कुमार मिश्र “प्रियांश”
मनमोहक रचना प्रियांश जी ...बधाई
जवाब देंहटाएंभ्रमर ५
vah, kya baat hai
जवाब देंहटाएं