कनपुरिया साहित्यकारों के बारे में खास बात यह है कि वे पहले ठेठ फक्कड़ होते हैं बाद में रचनाकार। यही फक्कड़पन उनकी रचनाधर्मिता का आधार है। कितना भी बड़ा साहित्यकार हो अगर कनपुरिया है तो दूर से ही अपनी ख़ास हरकतों और बोल बचन से पहचाना जा सकता है। पुराने साहित्यकारों से लेकर आज तक फक्कड़पन को राष्ट्रीय चरित्र का दरजा दिलाने वाले लेखकों कवियों की एक लम्बी फेहरिश्त है। फक्कड़पन के प्रवर्तक कविराय राजा बीरबल की परंपरा को आज आप आलोक पुराणिक के लेखन में बखूबी देख सकते हैं। एक बढ़कर एक लेखक कवि किस किस का उल्लेख किया जाय।
आज राजू श्रीवास्तव नामक एक कनपुरिये ने ग़दर काट रखी है, यदि इस ग़दरकाण्ड के पन्ने खोले जायें तो इसकी भूमिका में कवि बलई काका खींस काढ़े दिख जाएंगे। कनपुरिया साहित्य का फक्कड़पन न केवल साहित्य को समृद्ध करता है बल्कि अन्य कलाओं पर इसका असर साफ़ देखा जा सकता है। नौटंकी, लावनी लोकगीत मुहावरे इत्यादि के ऊपर साहित्य के मस्तमौला स्वभाव को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।
प्रताप नारायण मिश्र जी तो लावनी के इतने रसिया थे की लोग उन्हें लावनीबाज कर कर चिकाई करते थे. उनकी लावनी का एक अंश देखिये.
दीदारी दुनियादारे सब नाहक का उलझेडा है,
सिवा इश्क के यहाँ जो कुछ है निरा बखेड़ा है.।
लावनी ने शहर की कविता में मौज के संस्कार को और पुष्ट किया है। कानपुर के पुराने फक्कड़ रचनाकारों तुर्रेवाले मदारी लाल ,आसाराम, बदरुद्दीन, प्रेमसुख भैरोंसिंह, बादल खान, दयाल चंद,गफूर खान, मजीद खान, मथुरी मिस्र, राम दयाल त्रिपाठी, गौरीशंकर, पन्ना लाल खत्री भगाने बाबू मुन्नू गुरु इत्यादि उस्ताद लोग थे जिन्होंने कानपुर के चरित्र को साहित्य के साथ सिल दिया।
यह फक्कड़पन मात्र मनोरंजन का विषय नही बल्कि एक शहंशाही परंपरा है। गणेश शंकर विद्धार्थी,नवीन,सनेही जी ,नीरज आदि से लेकर आज तक सैकङों ख्यातनाम कानपुर की इसी फक्कड़ परम्परा के वारिस हैं।
वाह! झाडे रहो कलट्टरगंज!
जवाब देंहटाएंThanks for sharing this post very helpful article
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