इस पोस्ट को पलाश पर भी आज शेयर किया है, किन्तु कानपुर के बारे में बात हो और काबा पर इसकी चर्चा ना हो कुछ अधूरा सा लगता है, सो यहाँ पर भी लिखने का एक मात्र उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा पाठ्कों को कानपुर के साहित्य की विशेषता से परिचित कराना है
कानपुर का कनपुरिया, जिसकी पहचान है उसकी बोली, उसका बात करने का अंदाज, उसका एक दूसरे के प्रति अपनापन। उसकी इसी खासियत ने उसको विश्व पटल पर पहुँचाया है। वो फर्राटेदार अंगरेजी भी बोल सकता है, तो अपनी भाषा को हमेशा अपने दिल में रखता है।
और यही कनपुरिया दिल दिखता है कानपुर के साहित्यकारों में । साहित्य समाज का दर्पण होता है, ये यूँ ही नही कहा गया। हम किसी भी स्तरीय साहित्य को अगर पढ कर देखे तो हम पायेगें कि उसमें देशकाल, समाज का जिक्र अवश्य ही होगा। लेखक की लेखनी भावनाओं से परे हो कर चल ही नही सकती, उसमें उसके यथार्थ का पुट आ जाना स्वाभाविक ही है।
कानपुर के साहित्य के दर्पण में कनपुरियों के स्वभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।हिन्दी साहित्य के शिरोमणि भूषण निर्भीकता से औरंगजेब के क्रूरतापूर्ण व्यवहार का उल्लेख करते हुए अपनी रचना में लिखते हैं -
”देवल गिरावते फिरावते निसान अली, ऐसे समै राव-रानै सबै गए लबकी
गौरा गनपति आय, औरंग को देखि ताप, अपने मुकाम सब मारि गए दबकी”
वहीं कानपुर की धरा पर जन्मे प्रताप नारायण मिश्र जिन्होने अपने ब्राह्मण अखबार को बन्द करना तो स्वीकार किया किन्तु पत्रकारिता के आदर्श को दांवपर लगाकर किसी से कोई समझौता नहीं किया। बेबाक लेखनी से अपनी बात को फक्कड मगर ना चुभने वाले तरीके से कहने का अंदाज उनकी किसी भी रचना में स्पष्ट रूप से दिखता है। अपनी रचना ' पेट' में वे कहते है -
" यदि दैव ने हमे कुछ सामर्थ्य दी है तो चाहिये कि उसे अपने ही पट में न पचा डालैं, कौरा किनका दूसरों की आत्मा में भी डालें। और जो यह बात अपनी पहुंच से दूर हो तो भी केवल मुँह से नही बरंच पेट से यह ग्रहण कर लेना योग्य है कि पेट से पर्थर बाँध के परिश्रम केरेंगें, दुनिया भर के पांव फैलावेंगें, सबके आगे न पेट दिखाते लजाएँगें, न पेट चिरवा के भुस भराने में भर खाएँगे"
तो वही भगवती चरण वर्मा जी अपनी रचना "मातॄभूमि " में गाँव का वर्णन मिला अलंकारों के लाग लपेट के ढेठ कनपुरिया भाषा में करते हुये लिखते हैं-
उस ओर क्षितिज के कुछ आगे, कुल पाँच कोस की दूरी पर,
भू की छाती पर फोड़ों-से हैं, उठे हुए कुछ कच्चे घर !
मैं कहता हूँ खंडहर उसको, पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,
भू की छाती पर फोड़ों-से हैं, उठे हुए कुछ कच्चे घर !
मैं कहता हूँ खंडहर उसको, पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,
ऐसा नही कि कानपुर के साहित्यकारों का कवियों की भाषा के अलंकारों या रस पर पकड ढीली थी, जगन्नाथ त्रिपाठी जी अनुप्रास अंलकार से सजी रचना लिखते हुये अपने कवि बनने की कहानी कुछ इस तरह कहते है-
परम पुनीत प्राच्य पथ-परिपंथियों के, परिमर्दनार्थ कभी पवि बनना पड़ा
राम की रुचिर रूप रेखा-रश्मि राशि द्वारा, रोते राहियों के लिए रवि बनना पड़ा।
छाई छिति छोर-छोर छल-छद्म-क्षपा छाँटने, को क्षपाकर की कभी छवि बनना पड़ा
कुटिल कुचालियो की कूट-नीति काटने को, काव्य की कृपाण ले के कवि बनना पड़ा।।
कानपुर के साहित्य में देश प्रेम की कई कालजई रचनाओं से भरा हुआ है, चाहे हमारे सोहन लाल दिवेदी का अपने राष्ट्रीय ध्वज के प्रति आस्था दिखाती हुयी ये रचना हो -
जय राष्ट्रीय निशान!
जय राष्ट्रीय निशान!!!
लहर लहर तू मलय पवन में,
फहर फहर तू नील गगन में,
छहर छहर जग के आंगन में,
सबसे उच्च महान!
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा
समय काल कोई भी रहा हो, कानपुर की धरती पर हमेशा ही ऐसे लेखक और कवि हुये जिन्होने उस समय की समस्याओं पर पूरे फक्कड तरीके से अपनी लेखनी को चलाया । और उसके असर भी समाज में देखने को मिले। कानपुर की कुछ फिजा ही ऐसी है कि यह पन्नो में नही दिलों में बसता है । कानपुर में जो भी आया वो कभी उसे भुला ना सका, तभी तो गोपाल दास नीरज जी "नीरज की पाती" मे कानपुर से अपनी जुडी यादों को याद करके उभर आये दर्द को कुछ इस तरह बयां करते है-
कानपुर! आह!आज याद तेरी आई फिर, स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए, अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है॥
फर्श पर तेरे 'तिलक हाल' के अब भी जाकर, ढीठ बचपन मेरे गीतों का खेल खेल आता है
आज ही तेरे 'फूलबाग' की हर पत्ती पर, ओस बनके मेरा दर्द बरस जाता है।।