हे निशे! कितनी विचित्र!
वर्षों से रोज़ मुझको कहीं
बहका के ले जाती हो तुम |
एकांत है चहु और
हम ही हैं प्रकाशित इस समय |
व्याप्त हो हर वास्तु में तुम
दृश्य में, अदृश्य में |
स्वयं रहती हो मगर
अदृश्य सुदृढ़-निश्चयेन |
औ' तुम्हारा मौन
आकृष्ट मुझको नित्य करता |
स्वर नहीं सुन पा रही हूँ
देख भी सकती नहीं,
लेकिन अगर इस सृष्टि में
बस एक तुम हो और मैं,
सोचती हूँ ठीक हो |
संचार होता है ह्रदय में
शक्ति का तव शांति से |
तव उपस्थिति से नहीं
एकांत में व्यवधान पड़ता,
अपितु यह एकांत कुछ
अधिक सुन्दर हो गया!
रातभर जागकर जभी
लगता है मनो कुछ कहें,
लो भाग निकलीं यों ही तुम
मैं रह गयी अवाक ही |
नींद से बोझिल नयन से,
देख मैं हूँ पा रही,
सूर्या की किरणों को आते,
बल्ब को कुछ क्षीण करते |
...... तारिणी अवस्थी
shabo ki nirantarata puri kavita me bani hui hai....ati sundar kavita
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंव्याप्त हो हर वास्तु में तुम
जवाब देंहटाएंदृश्य में, अदृश्य में |
स्वयं रहती हो मगर
अदृश्य सुदृढ़-निश्चयेन |
औ' तुम्हारा मौन
आकृष्ट मुझको नित्य करता |
बहुत सुन्दर रचना खूबसूरत प्रस्तुति .....डॉ पवन जी तारिणी अवस्थी जी और आप को बधाई
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण