सोमवार, 15 सितंबर 2014

कानपुर साहित्य और फक्कड्पन

इस पोस्ट को पलाश पर भी आज शेयर किया है, किन्तु कानपुर के बारे में बात हो और काबा पर इसकी चर्चा ना हो कुछ अधूरा सा लगता है, सो यहाँ पर भी लिखने का एक मात्र उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा पाठ्कों को कानपुर के साहित्य की विशेषता से परिचित कराना है 
कानपुर का कनपुरिया, जिसकी पहचान है उसकी बोली, उसका बात करने का अंदाज, उसका एक दूसरे के प्रति अपनापन। उसकी इसी खासियत ने उसको विश्व पटल पर पहुँचाया है। वो फर्राटेदार अंगरेजी भी बोल सकता है, तो अपनी भाषा को हमेशा अपने दिल में रखता है।
और यही कनपुरिया दिल दिखता है कानपुर के साहित्यकारों में । साहित्य समाज का दर्पण होता है, ये यूँ ही नही कहा गया। हम किसी भी स्तरीय साहित्य को अगर पढ कर देखे तो हम पायेगें कि उसमें देशकाल, समाज का जिक्र अवश्य ही होगा। लेखक की लेखनी भावनाओं से परे हो कर चल ही नही सकती, उसमें उसके यथार्थ का पुट आ जाना स्वाभाविक ही है।
कानपुर के साहित्य के दर्पण में कनपुरियों के स्वभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।हिन्दी साहित्य के शिरोमणि भूषण निर्भीकता से औरंगजेब के क्रूरतापूर्ण व्यवहार का उल्लेख करते हुए अपनी रचना में लिखते हैं - 
”देवल गिरावते फिरावते निसान अली, ऐसे समै राव-रानै सबै गए लबकी

गौरा गनपति आय, औरंग को देखि ताप, अपने मुकाम सब मारि गए दबकी”
वहीं कानपुर की धरा पर जन्मे प्रताप नारायण मिश्र जिन्होने अपने ब्राह्मण अखबार को बन्द करना तो स्वीकार किया किन्तु पत्रकारिता के आदर्श को दांवपर लगाकर किसी से कोई समझौता नहीं किया। बेबाक लेखनी से अपनी बात को फक्कड मगर ना चुभने वाले तरीके से कहने का अंदाज उनकी किसी भी रचना में स्पष्ट रूप से दिखता है। अपनी रचना ' पेट' में वे कहते है -
" यदि दैव ने हमे कुछ सामर्थ्य दी है तो चाहिये कि उसे अपने ही पट में न पचा डालैं, कौरा किनका दूसरों की आत्मा में भी डालें। और जो यह बात अपनी पहुंच से दूर हो तो भी केवल मुँह से नही बरंच पेट से यह ग्रहण कर लेना योग्य है कि पेट से पर्थर बाँध के परिश्रम केरेंगें, दुनिया भर के पांव फैलावेंगें, सबके आगे न पेट दिखाते लजाएँगें, न पेट चिरवा के भुस भराने में भर खाएँगे"

तो वही भगवती चरण वर्मा जी अपनी रचना "मातॄभूमि " में गाँव का वर्णन मिला अलंकारों के लाग लपेट के ढेठ कनपुरिया भाषा में करते हुये लिखते हैं-
उस ओर क्षितिज के कुछ आगे, कुल पाँच कोस की दूरी पर,
भू की छाती पर फोड़ों-से हैं, उठे हुए कुछ कच्चे घर !
मैं कहता हूँ खंडहर उसको, पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,

ऐसा नही कि कानपुर के साहित्यकारों का कवियों की भाषा के अलंकारों या रस पर पकड ढीली थी, जगन्नाथ त्रिपाठी जी अनुप्रास अंलकार से सजी रचना लिखते हुये अपने कवि बनने की कहानी कुछ इस तरह कहते है-
परम पुनीत प्राच्य पथ-परिपंथियों के, परिमर्दनार्थ कभी पवि बनना पड़ा
राम की रुचिर रूप रेखा-रश्मि राशि द्वारा, रोते राहियों के लिए रवि बनना पड़ा।
छाई छिति छोर-छोर छल-छद्म-क्षपा छाँटने,  को क्षपाकर की कभी छवि बनना पड़ा
कुटिल कुचालियो की कूट-नीति काटने को,   काव्य की कृपाण ले के कवि बनना पड़ा।।


कानपुर के साहित्य में देश प्रेम की कई कालजई रचनाओं से भरा हुआ है, चाहे हमारे सोहन लाल दिवेदी का अपने राष्ट्रीय ध्वज के प्रति आस्था दिखाती हुयी ये रचना हो -
जय राष्ट्रीय निशान! 
जय राष्ट्रीय निशान!!! 
लहर लहर तू मलय पवन में, 
फहर फहर तू नील गगन में, 
छहर छहर जग के आंगन में, 
सबसे उच्च महान! 

या फिर जगदम्बा प्रसाद 'हितैषी' जी की किसी की जुबां से सुनी जा सकने वाली ये कविता हो-
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा


समय काल कोई भी रहा हो, कानपुर की धरती पर हमेशा ही ऐसे लेखक और कवि हुये जिन्होने उस समय की समस्याओं पर पूरे फक्कड तरीके से अपनी लेखनी को चलाया । और उसके असर भी समाज में देखने को मिले। कानपुर की कुछ फिजा ही ऐसी है कि यह पन्नो में नही दिलों में बसता है । कानपुर में जो भी आया वो कभी उसे भुला ना सका, तभी तो गोपाल दास नीरज जी "नीरज की पाती" मे कानपुर से अपनी जुडी यादों को याद करके उभर आये दर्द को कुछ इस तरह बयां करते है-
कानपुर! आह!आज याद तेरी आई फिर, स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए, अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है॥


फर्श पर तेरे 'तिलक हाल' के अब भी जाकर, ढीठ बचपन मेरे गीतों का खेल खेल आता है 

आज ही तेरे 'फूलबाग' की हर पत्ती परओस बनके मेरा दर्द बरस जाता है।।

शनिवार, 6 सितंबर 2014

फक्कड़पन मात्र मनोरंजन का विषय नही बल्कि एक शहंशाही परंपरा है।

कनपुरिया  साहित्यकारों  के बारे में खास बात यह है कि वे  पहले ठेठ फक्कड़  होते हैं बाद में रचनाकार। यही फक्कड़पन  उनकी रचनाधर्मिता का आधार है। कितना भी बड़ा साहित्यकार हो अगर कनपुरिया है तो दूर से ही अपनी ख़ास  हरकतों  और बोल बचन से पहचाना जा सकता है। पुराने साहित्यकारों से लेकर आज  तक फक्कड़पन को राष्ट्रीय चरित्र का दरजा दिलाने वाले लेखकों कवियों की  एक लम्बी फेहरिश्त है। फक्कड़पन के प्रवर्तक कविराय  राजा  बीरबल की परंपरा को  आज आप आलोक पुराणिक के लेखन में बखूबी देख सकते हैं। एक बढ़कर एक लेखक कवि किस किस का उल्लेख किया जाय। 

आज राजू श्रीवास्तव नामक  एक कनपुरिये ने  ग़दर काट रखी है, यदि  इस ग़दरकाण्ड के पन्ने खोले जायें तो इसकी  भूमिका में कवि  बलई काका खींस काढ़े दिख जाएंगे। कनपुरिया साहित्य का  फक्कड़पन न केवल साहित्य को समृद्ध करता है बल्कि अन्य कलाओं पर इसका असर साफ़ देखा जा सकता है। नौटंकी, लावनी लोकगीत मुहावरे इत्यादि के ऊपर साहित्य के मस्तमौला स्वभाव को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।

प्रताप नारायण मिश्र जी तो लावनी के इतने रसिया थे की लोग उन्हें लावनीबाज कर कर चिकाई  करते थे. उनकी लावनी का एक अंश देखिये.
दीदारी दुनियादारे सब नाहक का उलझेडा है,
सिवा इश्क के यहाँ जो कुछ है निरा बखेड़ा है.। 
लावनी ने  शहर की  कविता में मौज के  संस्कार को और पुष्ट किया  है।  कानपुर के पुराने फक्कड़ रचनाकारों   तुर्रेवाले मदारी लाल ,आसाराम, बदरुद्दीन, प्रेमसुख भैरोंसिंह, बादल खान, दयाल चंद,गफूर खान, मजीद खान, मथुरी मिस्र, राम दयाल त्रिपाठी, गौरीशंकर, पन्ना लाल खत्री भगाने बाबू   मुन्नू गुरु इत्यादि उस्ताद लोग थे जिन्होंने कानपुर के चरित्र को साहित्य के साथ सिल दिया। 
यह फक्कड़पन मात्र मनोरंजन का विषय नही बल्कि एक शहंशाही परंपरा है। गणेश शंकर विद्धार्थी,नवीन,सनेही जी ,नीरज आदि से लेकर आज तक सैकङों ख्यातनाम कानपुर की इसी फक्कड़ परम्परा के वारिस हैं।

बुधवार, 3 सितंबर 2014

फक्कड़ पन और कनपुरिया साहित्य एक दूसरे के पर्याय और ताकत हैं।

जहाँ  फिरंगियों को  पडी मुंह  की खानी है,
ये कानपुर है भईया  यहाँ का कड़ा पानी है। 

सनेही जी की ये पंक्तियाँ कानपुर के साहित्यकारों के फक्कड़ स्वभाव को परिलक्षित करती हैं। हाजिरजवाबी और मस्त मौलापन  कानपुर की मौलिकता है। कानपुर के जितने भी साहित्यकार हैं   चाहे वह पहले के  प्रताप नारायण मिश्र हो नवीन जी सनेही जी हो या फिर हितैसी जी या फिर आज के  मशहूर लेखक अनूप शुक्ल 'कट्टा कानपुरी ' हों सभी की रचनाओं में एक चीज समान रूप से देखी  जा सकती है और वह है 'मौज'  प्रताप नारायण मिश्र इस 'मौज' प्रदायनी  कनपुरिया माटी के  बारे लिखते हैं  

बागे ज़न्नत से नही  कम फिजायें  कानपुर,
मुर्दा जी जाए जो खाए हवायें  कानपुर। 
भूल रिज्बा इस्म को जो आये कानपुर,
छोड़ कर हरगिज़ न वो जाए फिर  कानपुर। 

फक्कड़ पन  की  बात मुन्नू गुरु के बिना अधूरी है। मुन्नू गुरु ने न केवल  हिंदी शब्द कोष को नये नये शब्दों से समृद्ध किया बल्कि आने वाले साहित्यकारों के लिए नव शब्द निर्माण की परंपरा भी छोड़ गए। चिकाई /चिकाही, गुरु ,लौझड़ जैसे अनगिनत शब्द कनपुरिया साहित्यबाजों ने  गढ़े हैं कि वेबस्टर डिक्शनरी की सात पुश्ते भी उसे न खोज पायें। कनपुरिया साहित्य की ख़ास बात यह है कि शब्द के अर्थ किसी शब्दकोष से नही बल्कि  उस  शब्द के उच्चारण और शरीर की भावभंगिमा से  तय होते हैं। 

कानपुर की साहित्य  उर्वरा भूमि को छू कर कितने पत्थर पारस हो गए।  देश के जाने किस कोने से भटकते हुए कलमकार यहां आये और यहाँ के मूलमंत्र 'झाङे रहो कलट्टरगंज' में दीक्षित होकर गणेश शंकर 'विद्यार्थी' , अटल बिहारी बाजपेयी,  गोपाल दास 'नीरज'  और सुरेश फक्कड़ बनते चले गये। फक्कड़ पन और कनपुरिया साहित्य एक  दूसरे के पर्याय और ताकत हैं। इसी ठसक के चलते कानपुर के साहित्यकारों की पूरे विश्व में पहचान है।