शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

कई दफ़े सोचता हूँ..!


कई दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?
कि इस आंगन में पाँयजेबर की कोई खनक ही नही
कि सामने मेहंदी के पेड़ की एक पत्ती भी तो न टूटी
कि कुआं तो अब भी प्यासा हैं रस्सी की इक छुअन के लिये
कि उस तार पर भीगी कोई चुनरी नही सूखी अब तक
कि माँ के हथफूल अब तक कपड़े में लिपटे रखे
कि घर के दरवाजे पे कोई झालर नही टंगी अब तक
बहोत दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?
कि सुबह की चाय अब तक दफ़्तर में ही पीता हूँ मैं
कि शाम अब तक मेरी होती हैं गंगा की रेत पर लिखते
बहोत दफ़े सोचता हूँ-
कि तुम थी भी,
या सिर्फ़ शब्दों का हेर-फेर था?
अहसासों का था तिनका कोई
या फिर सिर्फ़ विचारो की अदला-बदली?
ग़र नही थी,
तो फिर क्यों मैं ग़ज़ल पढ़ने से डरता अब तक?
क्यों उलझी रहती हैं 
रात की चादर की बेतरतीब सिलवटें?
क्यों सुबह का सूरज मेरी आखों में उगता पहले?
सब कहते हैं-यहाँ कोई तो नही
 फिर मैं किससे कहता हूँ-
"दो पल रुको तो, फिर चली जाना" 
ये सच हैं कि क़दमो के निशां
सिर्फ़ एक के दिखते सबको
पर कोई हैं,
 जो क़दम-दर-क़दम मेरे साथ-साथ चलता हैं...
सांस-दर-सांस मेरे सीने में सुलगता हैं....
लफ्ज़ -दर-लफ्ज़ मेरी नज़्म में उतरता हैं.....
कई दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?




आशीष अवस्थी 'सागर' 
मोबाइल नंबर..9936337691 
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/



और तुम ख़ामोश थी.......!


और तुम ख़ामोश थी..
मैं हमेशा की तरह ही बोलता था जा रहा
पूछता तुमसे कभी कुछ,और तुमको देखता 
और तुम ख़ामोश थी.....

दूब पर बिखरे हुए मोती हज़ारों ओस के 
मौन स्वीकृति दे रहे थे प्रेम को मानो हमारे
भोर की लाली खिलाती गुनगुनी सी रश्मियाँ सब, 
अर्घ पहला दे रही आलिंगनो को थी तुम्हारे
पक्षियों के पुंज चिंतित,चहकते सब पूछते थे 
आहलादित सुबह में,इस मौन का औचित्य क्या है?
प्रणय में यह वेदना क्यों.....?
और तुम ख़ामोश थी.....

गीत गाते झूमते जब सामने कुछ कृषक गुज़रे 
याद है तुमको हमें वो देख कर चुप हो गए थे,
और वो मृग युगल भी जो झील में था खेलता,
देख कर मानव युगल कुछ खिन्न जैसे हो रहे थे,
दरअसल हर रूप में थी,प्रकृति तुमसे पूछती 
प्रीति के संगीत में इस शांति का अभिप्राय क्या है?   
मिलन में व्यवधान क्यों.........?
और तुम ख़ामोश थी.....

दोपहर जब तप रहा था सूर्य चारों ओर से,
अंक में लेटी हुई तुम शांत सब सुनती रहीं  
चित्त भूला जा रहा था सहज जीवन मार्ग अपना,
और तुम चुपचाप लेटी,पथ नया चुनती रही,
और संशय छाँव में,मैं स्वयं से था पूछता 
प्रेम की भागीरथी में जब नही पावन हुए 
अग्नि फेरे और कुमकुम स्वांग का औचित्य क्या है?
व्यर्थ का यह योग क्यों........?
और तुम ख़ामोश थी.....

सायं की बेला निकट,सब पथिक घर को लौटते 
पक्षियों के झुण्ड,वापस घोसलों को उड़ चले
और तुमने मौन तोड़ा बोलकर दो शब्द यह-
"आज का यह दिवस अंतिम साथ अपने प्रेम का"
और पूरे दिवस की हर बात पर बस यह कहा-
"क्यों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भला मैं दूँ तुम्हे?"

और वह जो शाल ख़ामोशी की ओढ़े सुबह से 
मेरे कांधे पर ओढ़ा कर,और फिर तुम चल दिए 
और फिर तुम चल दिए,निस्वार्थ से निर्लिप्त से
और मैं तकता रहा निर्मूल सा,निष्प्राण सा 
और सहमी झील अपने पाश में थी सिमटती 
और दोनों हरिण रोते भागते थे हर तरफ़ 
और पथिको ने कभी वह रास्ता फिर न चुना 


और तब से आज तक वह पेड़ निष्फल ही रहा
और तब से दूब का तिनका नही उगता वहां 
उस दिवस की यंत्रणा पर प्रकृति का ऐसा रुदन !
और हम थे,रत्न "सागर" में सदा निर्धन रहे
प्रेम अमृत या गरल मैं आज तक समझा नही
प्रेम की प्रत्यक्ष परिणत बस यही दिखती मुझे-
"मंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
मौलवी के हाथ की तस्बीह सा ख़ामोश मैं"


मौलवी के हाथ की तस्बीह सा......................




आशीष अवस्थी 'सागर' 
मोबाइल नंबर..9936337691 
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/





शब्द मोल...... !


मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....
बचपन से सुनता आया था,
मैं शब्द-देश का राजकुंवर 
मैं भाव गगन का तारकेश,
अक्षरगिरि  का  उत्तुंग शिखर 
कंटकाकीर्ण  सिंहासन का,
मैं छत्र बेचने निकल पड़ा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....

बरसों से देख रहा था मैं,
घर की हर सुबह उदास उगी 
हर एक दोपहर आंगन में,
जठराग्नि सूर्य से तेज तपी  
चौके के चूल्हे को मैंने, 
जब सिसक-सिसक रोते देखा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...

मन  के तहख़ाने के भीतर,
जब ह्रदय कोठरी में पंहुचा 
संभ्रांत अतीत किवाड़ो पर,
यश की मजबूत कड़ी देखी
दर के ललाट पर लटका था,
बेदाग़ विरासत का ताला..
पुर्खों के नाम गुदे देखे,
पीढ़ियों की लाज जड़ी देखी

अनुभव की कुंजी से मैंने,
जीवन कपाट ज्यों ही खोले-
कैसा अनमोल खज़ाना था !
कितना नवीन कितना चेतन,
कल तक मृतप्राय पुराना था !

रंग बिरंगे शब्दों से,
थी ह्रदय कोठरी भरी पड़ी 
कुछ मुक्त,वयक्त,उपयुक्त शब्द,
शब्दों की कुछ संयुक्त लड़ी

कुछ शब्द दिखे ऐसे मुझको,
तदभव-तत्सम में उलझ रहे..
कुछ शब्द शूरवीरो के थे,
हीरे मोती से चमक रहे 

कंकड़ पत्थर जैसे कठोर,
कैकेयी  वचन पड़े देखे 
सीते-सीते कहकर फिरते,
कुछ 'राम शब्द' रोते देखे

चोरी का माखन टपक रहा,
कुछ शब्द तोतले भी देखे 
झूठे मद में दिख रहे घने, 
कुछ शब्द खोखले भी देखे..

दायें कोने इक शब्द ढेर,
यूँ ही देखा चलते-चलते 
पाषाण शब्द के भार तले,
कुछ दबे शब्द आहें भरते 

दो-तीन थैलियो में भरकर, 
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...

ज्यों ही बज़ार जा कर बैठा,
इक प्रेमी युगल निकट आया 
बोला-कुछ शब्द मुझे दे दो,
जिस पल मैं प्रेम मगन होकर
इसकी आँखों में खो जाता
कुछ होश नही रहता अपना,
प्रेयसी से कुछ ना कह पाता
हे शब्द देश के सौदागर,
कुछ प्रेम शब्द मुझको दे दो !

दो शब्द उसे मैंने बेचे-
इक 'त्याग' और इक 'निष्छलता'

यह सदा स्मरण रखना तुम,
ये त्याग प्रेम की सरिता है
निष्छल होकर तुम मौन सही,
हर सांस तुम्हारी कविता है..

इस लोकतंत्र के अभिकर्ता,
इक थैला लेकर आ पहुंचे 
बोले दो शब्द भरो इसमें-
'आश्वासन',केवल 'आश्वासन'

मैं बोला-अब वह दौर नही,
जब आश्वासन ले जाओगे 
दायित्व बराबर ही लोगे,
तब ही आश्वासन पाओगे

इक शब्द मुफ़्त देकर बोला-
यह 'कर्मदंड' कहलाता हैं 
अब तक वह प्राणी नही हुआ,
जो भी इससे बच पाता हैं !

इक तथाकथित कवि भी आये,
बोले कुछ शब्द तुरत दे दो,
इक कविसम्मलेन जाना हैं

मैंने पूछा इतनी जल्दी,
कैसे कविता रच पाओगे ?
तुलसी,कबीर,मीरा,दिनकर,
के क्या वंशज कहलाओगे ?

वह बोला-समय क़ीमती हैं, 
अब क्या कविता और क्या रचना 
शब्दों का घालमेल बिकता,
झूठे रस की आदी रसना

कुछ शब्द तौल तो दिए उसे,
इक शब्द साथ दे कर बोला-
कविताई जो भी तुम जानो,
पर कविवर याद इसे रखना 
यह शब्द 'संस्कृति' कहलाता, 
बस इसकी लाज नही तजना !

सामर्थ्य ज़रूरत के माफ़िक,.
लोगो ने शब्द ख़रीद लिए 
उस शब्द आवरण के भीतर,
सबने अपने हित छिपा लिए 

निर्धन ने आशा और कृपा,
धनवानों ने धन शब्द लिया 
नारी ने त्याग,प्यार लेकर,
आँचल में जगत समेट लिया 

ज़्यादातर लोगो को देखा,
वे लोभ ईर्ष्या लेते थे
दुर्बुद्धि कुछ ऐसे भी थे,
जो  निष्ठुर हिंसा लेते थे !

जब साँझ हुई घर को लौटा,
बस तीन शब्द अवशेष रहे-

पहला 'श्रृद्धा' कहलाता हैं-
गुरु और मात-पितु को अर्पण 

इस 'गर्व' शब्द से करता हूँ-
मैं राष्ट्र शहीदों का तर्पण 

तीजा यह 'सागर' भावों का,
प्रियतमा तुम्हारा रहे सदा 
रिश्तो और जन्मो से असीम,
ये प्रेम हमारा रहे सदा..

जीवन के इस घटनाक्रम पर,
इक प्रश्न मेरे मन में उठता
इस मोल-तोल की दुनिया में,
अनमोल नही कुछ क्यों रहता 

सपनो के बाज़ारुपन में,
क्योंकर कोई परमार्थ मिले ?
'शब्दों को अर्थ नही मिलता,
शब्दों से केवल अर्थ मिले'



आशीष अवस्थी 'सागर' 

मोबाइल नंबर..9936337691 
ब्लॉगलिंक..http://ashishawasthisagar.blogspot.com/