सोमवार, 14 अप्रैल 2014

क्यों करें मतदान ?

मतदान करेदेश निर्मांण करे,

हो बूढेमहिला या फिर जवानउंगली पे हो स्याही का निशान
भारत विश्व का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश हैऔर इस देश की चुनाव प्रक्रिया पर पूरे विश्व की निगाहें हैं। देश के हर नागरिक को, जिसे मत देने का अधिकार हमारे संविधान में दिया गया हैउसका सही उपयोग करना होगा। ये ना सिर्फ हमारा अधिकार है बल्कि कर्तव्य भी हैकि हम देश को एक ऐसी सरकार देंऐसे सांसद देजो देश को विश्व पटल पर अग्रसित करें।

अक्सर पढे लिखे समाज में भी ये कहते सुनते पाया जाता है कि "कोउ नृप होय हमे का हानिया फिर हमारे एक वोट से क्या होगाया कोई भी सरकार हो हमे क्यासभी भ्रष्ट हैया कुछ नही बदलने वाला यहाँया फिर हमे तो पढ लिख कर बाहर चले जाना हैफिर ह्म क्यो सोचेकोई भी सरकार बने..........
लोकतंत्र का होगा सम्मान, ज्यादा होगा जब मतदान
कुछ प्रश्न हम करना चाहते है उन लोगों से जो चुनाव के दिन को मात्र एक छुट्टी मानते हैंया फिर अपने संसदीय क्षेत्र में आकर मतदान में अपनी सहभागिता सुनिश्चित नही करते कि कौन जाय वोट देनेक्यो अपना पैसा खर्च करें ........
१.क्या होता यदि आपके पास मतदान का अधिकार ना होता?
२.क्यों मतदान की आयु 21 वर्ष की जगह 18 वर्ष की गयी?
३.क्या अर्थ है लोकतंत्र का यदि हमारी भूमिका नगण्य है?
४.हम देश की दिशा और दशा को निर्धारित करने वाली इकाई है, यदि यह शून्य हो जाय, तो क्या देशा रहेगा?
५.क्या देश निर्माण के लिये हम अपने मत का दान ना करके देश के भविष्य के साथ धोखा नही कर रहे?
६.क्या जवाब देंगें आप स्वंय को, जब आपके सहयोग ना करने के कारण, गलत हाथों में देश रहे और  विश्व में उसकी छवि खराब हो, क्या देश की छवि, हमारी छवि नही?
७.क्या अधिकार है हमे भारतीय कहलाने का, जब हम उस समय सो जाते हैं या अकर्मण्य हो जाते है, जब  देश हमसे सहयोग मांगता हैं?
८.क्या अधिकार है आपका देश को, या सरकार को दोष देने का,जब आपको देश या देशवासियों की जरूरतों से कोई सरोकार ही नही?
९.क्या देश का नागरिक होने के नाते हमारा फर्ज नही कि कुछ देर हम देश के लिये चिंतन करें, मनन करें और अपनी वोट की आवाज से देश की आवाज को बुलंद बनाये?

१०.क्या सच में हमें अधिकर है खुद को भारतीय कहलाने का, यदि हम भारत के लाभ और अपने लाभ को एक नही अलग-अलग देखते हैं?
प्रयोग कीजिये चुनाव का अधिकार, दीजिये भारत को योग्य सरकार

चुनाव एक ऐसा हवन हैंजिसमें हम सबको अपने मत की आहुति दे कर इस यज्ञ को सफल बनाना होगा। लोगों को प्रेरित करना होगाकि वो भी अपने मत का दान करें। 
सहयोग कीजिये, यदि आपके आस पास कोई बुजुर्ग है, और वो अकेले चुनाव स्थल तक जाने में असमर्थ है। यदि आपके घर में महिलायें हैं और वो ये मानती हैं कि उनको वोट देने की कोई खास जरूरत नही, घर के आदमी ही डाल आयें। तो उन्हे भी अपने साथ ले कर जाइये। 
आपको बहुत सारी छुट्टियां मिलती हैं जब आप अपनों के साथ त्योहार मनाते हो, ये एक छुट्टी अपने देश के साथ मनाइये। देश के लिये हर वोट बराबर की कीमत रखता है।
वोट डालने से पहले अच्छी तरह से विचार कीजिये कि आप किसे वोट देगें और क्यों?
एक अच्छे नागरिक होने का फर्ज निभाइये,

लोकतंत्र को दे आधार, सपने सब होंगे साकार
इस पोस्ट को "पलाश" पर भी लिखा गया है, दो ब्लाग्स पर लिखने का एक मात्र उद्देश्य मतदान को अधिक से अधिक प्रोत्साहित करना है।



गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

दहशत के बीच हम : दोषी कौन ?




                     हम सैयद नगर , सुन्दर नगर , रोशन नगर , रावतपुर गाँव और मसवानपुर से जुड़े  इलाके में पिछले २४ साल से रह रहे हैं और जब यहाँ आये थे तब भी एक तरफ मुस्लिम बाहुल्य इलाका था और दूसरी और मिले जुले लोग रहते हैं और हम बड़ी शांति से रह रहे थे।  वर्षों से यहाँ ताजिए उठते हैं तो साथ में हिन्दू जाते हैं और रामनवमी के रथ के साथ मुस्लिम भी होते हैं।  कभी इसमें साउंड बॉक्स हिन्दू ले कर जाते हैं और कभी मुस्लिम।  कभी कोई शिकायत नहीं थी।  एक दूसरे के सुख में हम शामिल भी होते रहे हैं।  चाहे उनके यहाँ गम हो या ख़ुशी या हमारे यहाँ।  
                        फिर अचानक इतने सालों के बाद परसों एकदम क्या हुआ कि यहाँ पर रामनवमी की शोभा यात्रा ख़राब सड़क के कारण  दूसरी सड़क से ले जा रहे थे तो एक बुजुर्ग सज्जन रास्ते में लेट गए कि हम यहाँ से ये जुलूस  नहीं निकलने देंगे क्योंकि हमारे ताजिये यहाँ से गुजरते हैं और दूसरे कई लोग जुलूस के पीछे की तरफ से रास्ता रोक रहे थेकि यहाँ से वापस नहीं गुजरने देगें । फिर पत्थरबाजी और मकानों से गरम पानी नीचे लोगों के ऊपर फेंकने लगी घरों की महिलायें।  फिर हालात बिगड़ने में देर  कहाँ लगती है ? यद्यपि कुछ पुलिस के सिपाही उस रथयात्रा के साथ थे लेकिन वे अपर्याप्त थे। खबर आग की तरह तेजी से पूरे इलाके में फैल गयी और वह भी फैलते फैलते  कुछ से कुछ बन गयी । खबर उस जुलूस में दो बच्चों की हत्या तक पहुँच चुकी थी और सारा इलाका सन्नाटे में था।  अफवाह फैलाने के लिए अब तो हमारे पास मोबाइल का सबसे तेज साधन भी है और आप उसे पकड़ भी नहीं सकते हैं।   आनन फानन में पुलिस के आला अफसर डी एम , एस पी सब आकर स्थिति को सम्भालने में लग गए।  उनके रहते भी उस दिन जहाँ भी मौका मिला गरीबों की दुकाने जला दी गयीं।  जानते हैं किन लोगों की -- एक विकलांग जो साइकिल के पंचर जोड़ कर अपना परिवार पाल रहा था।  उसकी दुकान बांस के टट्टर के नीचे लगा रखी थी . एक गरीब ने बैंक से कर्ज लेकर बक्शे बनाने की दुकान खोल रखी थी , अपनी दो बेटियों के साथ घर में चैन से रह कर नमक रोटी ही सही खा रहा था ।  पुलिस की एक गाड़ी में आग लगा दी। 
                        हम इस दहशत में जी रहे थे - क्योंकि घर के पुरुष लोग अपने काम से बाहर ही थे।  सबको आगाह  किया गया कि दूसरे रास्ते से आइये लेकिन आना तो अपने घर ही था न।  जब तक घर पहुंचे नहीं जान गले में अटकी थी और आने पर बताया कि थोड़ी दूर पर जोर की आग भड़क रही थी।  उस समय तो अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था कि किसी गरीब के पेट बुझाने के साधन धू धू कर जला दिए थे।  


                         इस के पीछे कौन है ? एक फेरी वाला , कबाड़ वाला , या फिर रोज के रोज कमाने वाले लोग क्या ऐसे कदम उठा सकता है ? नहीं इनको भड़काने वाले और इनके पीछे के मास्टर माइंड कोई और हैं।  आखिर ये लोग चाहते क्या हैं ? एक दिन गुजर गया और पुलिस के साये में पूरा का पूरा इलाका जी रहा था और फिर देखिये हिम्मत पुलिस की तलाशी के दौरान उन पर बम फोड़े गए।  पथराव किया गया , डीएम तो बाल बाल बच गयी लेकिन वे भी अपने दायित्व के साथ वहाँ पर डटी ही रहीं।  दूसरे दिन भी छुटपुट वारदात होती रहीं। दुकाने भी जलाई गयीं और बमबाजी भी की गयी।   वो सड़कें जो सारे दिन गुलजार रहती थीं सुनसान रहीं।  कोई सब्जी वाला नहीं , दूध की गाड़ी नहीं और मार्किट ही नहीं बल्कि छोटी बड़ी दुकानों के साथ बाज़ार बंद कर दी गयीं।  १४४ धारा लगा दी गयी।  
                           ये चुनाव के पहले दहशत फैलाने से किसका फायदा होने वाला है ? ये जातिवाद की आग भड़काने वाले कौन हैं ? स्थानीय लोग तो बिलकुल भी नहीं है।  जरूरी सेवाओं वाले लोग घर में नहीं बैठ सकते हैं - फिर उनके घर वाले कैसे रह रहे हैं ? स्थिति नियंत्रण में है , लेकिन हमारे मन नियंत्रण में कब रहते हैं ?  हम एक दूसरे के लिए अपने मन में एक छुपा हुआ शक देख रहे हैं।  एक चोर हमारे मन में है कि कहीं दूसरा इसमें हमें भी तो दोषी नहीं समझ रहा है ? हम कब इन दंगों से मुक्त हो पाएंगे और ये अराजकतत्व कब तक गरीबों के मुंह से निवाला छीनने की साजिश रचते रहेंगे ? नहीं मालूम फिलहाल अभी भी स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में होने की घोषणा कर रही है। 

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

भारत पुनर्निमाण दल का अवसान और आम आदमी पार्टी का निर्माण

1960 में हिप्पी आंदोलन का पश्चिमी संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा, संगीत, कला और युवा अमेरिकियों के हजारों युवा सैन फ्रांसिस्को में इकट्ठा हुये। हालांकि आंदोलन सैन फ्रांसिस्को में केन्द्रित था, पर प्रभाव दुनिया भर मे पड रहा था. ये हिप्पी आधुनिकता की वर्जनाओ को तोड कर 'फ्रेमलेस जीवन' को अपनाने का प्रयास कर रहे थे, जो राज्य को मंजूर नही था. फलस्वरूप एल एस डी दवाओं का उपयोग कर के पूरी की पूरी युवा खेप को नशेडी बना देने का संस्थागत प्रयास किया गया।

ठीक यही काम भारत की सरकार के द्वारा किया गया जब भारत के युवाओं ने बदलाव की कमान अपने हाथ में लिया। इसकी शुरुआत २००७ के यूथ फॉर इक्वलिटी के आंदोलन से हुयी। उस आंदोलन से एक पार्टी निकली "भारत पुनर्निमाण दल" सरकार इस आंदोलन से डर गयी और भविष्य में इस किसिम के आंदोलनो को ख़त्म करने और इस आंदोलन की हवा निकालने के लिए एक सेफ्टी वाल्व बनाना शुरू किया। इस काम में उसे काफी सफलता मिली और इस आंदोलन से जुड़े लोग टूटने लगे और सरकार द्वारा प्रायोजित आंदोलन के साथ जुड़ने लगे हालांकि ऐसे लोग भी कम नही थे जिन्होंने इस बात को समझ लिया किन्तु सरकारी मशीनरी ने उनकी बात को दबाने में आंशिक सफल हुयी। भारत पुनर्निमाण दल से शुरू सफ़र आम आदमी पार्टी पर आ गया। आंदोलनो और उनसे जुडी चीजो पर से जनता का भरोसा डगमगा गया है। यह भारत के भविष्य के लिहाज से सही नही जान पड़ता।






शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

द्रुत झरो जगत के पीत पत्र


"द्रुत झरो जगत के पीत पत्र
हे ज़रा -जीर्ण हे शुष्क -शीर्ण
द्रुत झरो जगत के पीत पत्र "


कविवर पन्त नें जब यह लिखा तब वे द्रुतगामी परिवर्तन की माँग कर रहे थे। उनकी परिवर्तन कविता तो हिन्दी काव्य साहित्य में एक मील का पत्थर है ही पर कविवर पन्त की चेतना जब सतत परिवर्तन की अनिवार्यता स्वीकारती है तो इसके पीछे मानव सभ्यता के दीर्घकालीन अनुभवों का दबाव भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। विश्व के अनेक मनीषी , लेखकों , विचारकों नें परिवर्तन की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुये मानव जाति को निरन्तर उसके स्वागत के लिये प्रस्तुत रहने को कहा है। कवि टेन्सन की इस पंक्ति से भला कौन सुधी पाठक परिचित नहीं है , " Old order changeth yielding place to new ." जो इस क्षण है वह अगले क्षण में भी वैसा ही रहेगा , ऐसा सुनिश्चित नहीं कहा जा सकता। सातत्व की परम्परा में ही परिवर्तन का तार भी अनुस्यूत रहता है। सनातनता ही सतत परिवर्तनशीलता है। बूँद का एकाकीपन धारा से मिलकर अविरलता का अभाष देता है पर उसकाअपना अस्तित्व धारा में विलीयमान होकर भी संरक्षित रहता है । यह संरक्षण परिवर्तन की चिरन्तन शीलता से दोलायित होता रहता है । मानव चेतना का विकास भी जिन मूल्यों को लेकर हुआ है । वे जीवन मूल्य भी काल की प्रवह मयता में नये -नये ढंग से रूपायित होते रहते हैं । कल के आदर्श कँगूरे आज के खण्डहर बन गये हैं और आज के स्वीकृत आदर्श कँगूरे आगत कल के खण्डहर बन जायँ तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? हमारा छोटा सा ग्रह जिसे हम धरती के नाम से जानते हैं , अपने छोटे से ब्रम्हाण्डीय काल में कितने अजीबोगरीब परिवर्तन देख चुका है। जो आज एवरेस्ट की चोटी है वह बीते कल में समुद्र की तलहटी थी और जो द्वीप समूह आज मानव प्राणियों से आबाद है , वे कल जल की उत्ताल तरंगों में सो रहे होंगें। ऐसा माना जाना भी भूगोल वेत्ताओं द्वारा स्वीकृत हो चुका है। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि हम परिवर्तन के अग्रगामी दूत बनें। ऐसा करके हम प्रकृति में अन्तर्निहित शक्तियों को अपने व्यवहार के माध्यम से और अधिक उजागर कर सकते हैं। हाँ हमें इतना ध्यान अवश्य रखना होगा कि परिवर्तन का अर्थ अहेतुक विनाश नहीं है पर ऊर्ध्व गामी निर्माण के लिये यदि पुरानी कमजोर पड़ गयी नीवों को हटाना पड़े तो उसे हमें सहर्ष स्वीकार करने के लिये प्रस्तुत होते रहना पड़ेगा ।
एक समय था जब हम कालजयी साहित्य की बात करते थे ऐसा नहीं है कि अब हम कालजयी साहित्य की बात नहीं हो रही है पर अब कालजयी का अर्थ बदल गया है । अब कालजयी का अर्थ है किसी श्रेष्ठ रचना में विचारों की ऐसी परिपक्वता जो अभिव्यक्ति के निरालेपन से काल के एक लम्बे दौर तक मानव जाति को उच्चतर मूल्यों की ओर प्रस्तुत कर सके। हो सकता है कि एकाध शताब्दी के बाद तकनीकी विकास के दूरगामी परिणामों के कारण समस्त मानव जाति गरीबी से मुक्त हो जाय। तब केवल दरिद्रता , गरीबी और भुखमरी पर आधारित रचनायें एक ऐतिहासिक शोध का विषय बन कर रह जायेंगीं पर मन के सम्वेदनों और अन्तर चेतन के सूक्ष्म संकेतों से सम्बन्धित रचनायें उस समय भी विज्ञ पाठकों को अनुकरणीय जीवन मार्गों की तलाश की ओर प्रेरित करती रहेंगीं। शायद यही कारण है कि शैक्सपियर , तुलसी , टालस्टाय और रवीन्द्र आज भी हमारे लिये प्रेरणा का श्रोत हैं। भले ही उनको पढ़ने , समझने वालों की संख्या उतनी न हो जितनी कि चित्रपट के तारिकाओं और सितारों को देखने वालों की संख्या , यहाँ हम हाली वुड , वालीवुड , टालीवुड तथा मालीवुड सभी को चित्रपट के माध्यम से व्यक्त करना चाह रहें हैं। केवल संख्या बल पर श्रेष्ठता का आंकलन सीधे चुनाव में तो हो सकता है पर बुद्धि , मन और आत्मा के गहन क्षेत्रों में केवल संख्या बल पर श्रेष्ठता का निधारण नहीं हो सकता।
ज्योतिर्पिंड के महाविस्फोट के साथ ब्रम्हाण्डीय विस्तारण चल निकला और उसके साथ ही साथ चल निकला काल का अविरल प्रवाह का यह विस्तारण और यह काल प्रवाह अबाधित , अलक्षित स्वत : नियन्त्रित पर अमर्यादित ढंग से क्षण -प्रति क्षण चलता रहा है और चलता रहेगा। द्विपदीय मानव विकास के साथ मानव बुद्धि का एक घटक इस काल प्रवाह को परिवर्तन के एक और विषमकोणीय मार्ग से बढ़ाने में लग गया। मानव सभ्यता के प्रारम्भिक दौर में तकनीकी विकास सहस्त्रों वर्षों तक बुद्धि की आदिम कुहाओं में खोया रहा।पर पिछली दो एक शताब्दियाँ चमत्कारिक छलांग देकर तकनीकी विकास को एक नयी ऊँचाई पर ले आयीं और पिछली अर्धशताब्दी में तो ब्रम्हाण्डीय विशालता का एक बहुत बड़ा अंश तकनीकी विकास को मिल गया और वे अब तो हर दशक सितारों के पार के नये द्रश्य दिखा रहा है। जैवकीय का विकास चिर यौवन की लालसा जगाने लगा है और जीन्स का रहस्य भेद मृत्यु विजय की झूठी -सच्ची कहानियाँ प्रस्तुत करने लगा है। इन सारे सन्दर्भों में कल का साहित्य तभी टिकाऊ और कालजयी हो सकेगा जब उसमें आधुनिकतम चेतना के विभिन्न आयामों को समावेश करने की क्षमता हो। इन आयामों पर पूरी तरीके से खरा उतरने वाला कोई समर्थ चिन्तक , भविष्य द्रष्टा या चमत्कारिक सृजन प्रतिभा सम्पन्न कम से कम भारतवर्षीय साहित्य के परिपेक्ष्य में तो देखने में नहीं आ रहा है। विश्व के मानचित्र पर भले ही कुछ नोबेल प्राइज़ विनर दिखायी पड़ जायँ पर उनमें ऐसा कुछ नहीं है जो हमें विस्मय विमूढ़ कर दे। चाहे विद्याधर नायपाल हों चाहे सलमान रशिदी , चाहे अमरकान्त हों , चाहे श्री कान्त शुक्ल , चेतन भगत हों चाहे अमिताव घोष सभी श्रेष्ठता के स्तर को छूते हुये भी महान श्रेष्ठता की ऊँचाई तक नहीं पहुच पाते और इस द्रष्टि से हम उनका आदर तो करते हैं पर हम उनसे भयभीत नहीं होते। हमें लगता है कि वो हममें से ही हैं। कुछ अधिक प्रखर अनुभव तीब्रता और अधिक समर्थ भाषा अधिकार के साथ वे महा श्रष्टा महामानव नहीं हैं न उनमें टालस्टाय या डास्टाय वास्की की खोज करना व्यर्थ है उनमें प्रेमचन्द और गोर्की बनने की सम्भावना भी नहीं है। मोपासाँ और रोम्याँरोला की तड़प पैदा करने वाली कचोट भी वहाँ नहीं है पर फिर भी वे सब पठनीय हैं और हमारी सामाजिक चेतना के विस्तार के लिये महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। अपना महाशतक पूरा करने पर सचिन तेन्दुलकर नें कहा था कि " We must chase our dreams ." यानि हमें अपने स्वप्नों को सत्य करने के लिये निरन्तर प्रयत्न शील रहना पड़ेगा और स्वप्न भी सत्य हो सकते हैं। माँ हिन्दी की गोद का कौन सा लाल विश्व के साहित्यिक मंच पर सर्वोच्च स्थान पर खड़ा होकर माँ भारती का ध्वज फहरा सकेगा , सतत प्रयत्न करना ही हमारी साधना है बाकी सब विश्वभर के हाथ है ।