बचे कैसे कि पानी आ गया सर के ऊपर तक
अमन के खा गये दाने अमन के ही कबूतर तक भलाई की करें उम्मीद क्या इन रहनुमाओं से
बुराई में सने बैठे है जब गांधी के बन्दर तक
चलो, चलते रहो चलने से ही गंतव्य पाओगे
नदी बहती हुई इक दिन पहुचती है समंदर तक
लगन हो आस्था हो प्रेम हो विश्वास हो दिल में
पिघलते से नज़र आयेगे तुमको यार पत्थर तक
मुसलमाँ हूँ मगर अब्दुल हमीद ऐसा मुसलमाँ हूँ
मिरा ये कौल पहुचा दो वतन के एक इक घर तक
........ शाइर ए वतन "डॉ रसूल अहमद सागर"
रामपुर
वाह क्या बात है पवन जी
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब साहब ! शुक्रिया इस ग़ज़ल के लिए !!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंलगन हो आस्था हो प्रेम हो विश्वास हो दिल में
जवाब देंहटाएंपिघलते से नज़र आयेगे तुमको यार पत्थर तक
उम्दा ग़ज़ल
सुंदर रचना।
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कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत?
ब्लॉग समीक्षा का 17वाँ एपीसोड।
भलाई की करें उम्मीद क्या इन रहनुमाओं से
जवाब देंहटाएंबुराई में सने बैठे है जब गांधी के बन्दर तक
sundar vichaar
बहुत सुन्दर गजल जनाब शुक्रिया काश इन कबूतरों के पंख अभी भी .....
जवाब देंहटाएंबचे कैसे कि पानी आ गया सर के ऊपर तक
अमन के खा गये दाने अमन के ही कबूतर तक
शुक्ल भ्रमर ५
बेहतरीन गज़ल....वाह
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